बोली हमरी पूरबी : तैंतीस करोड़ अपराध पेट में रख कर (मराठी) : प्रफुल्ल शिलेदार

प्रफुल्ल शिलेदार 






हिंदी-मराठी की मिली-जुली संस्कृति के नगर नागपुर में जन्मे प्रफुल्ल शिलेदार वरिष्ठता की दहलीज़ पर क़दम रखते हुए मराठी के बहुचर्चित-बहुप्रकाशित कवि-अनुवादक-समीक्षक हैं. वह पिछले कई वर्षों से हिंदी से मराठी में अनुवाद कर रहे हैं और विनोदकुमार शुक्ल एवं ज्ञानेंद्रपति जैसे चुनौती-भरे कवियों के पुस्तकाकार अनुवाद प्रकाशित कर चुके हैं जिन्हें मराठी में बहुत सराहा गया है. स्वयं उनकी कविताओं के अनुवाद हिंदी सहित कई भारतीय तथा अंग्रेज़ी सहित अन्य विदेशी भाषाओँ में हुए हैं. उनकी कविताओं का हिंदी संकलन पैदल चलूँगाशीघ्र प्रकाश्य है.  

उनकी एक प्रसिद्ध मराठी कविता ‘तेहतीस कोटी अपराध पोटात घालून कविता का हिंदी अनुवाद आपके लिए.

गाय अब  गाय नहीं, राजनीति है. उसे एक पवित्र धार्मिक अनुष्ठान में बदल दिया गया है. उसके नाम पर कुछ भी किया जा सकता है, वह एक  बनती हुई  ईश- निंदा (blasphemy) प्रतीक है.

पर वह गाय !
 कवि के शब्दों में ‘प्लास्टिक की केरीबैग की जुगाली करती’ खुद ‘भवसागर पार करने का सपना’  देख रही है.  ऐसी कविताएँ  हिन्दी में क्यों नहीं लिखी जातीं ? कला के संयम के  साथ बेधक और हस्तक्षेप करती हुई कविता.


 तैंतीस करोड़ अपराध पेट में रख कर                                        
प्रफुल्ल शिलेदार 





उमड़ती भीड़ से भरी सड़क के बीचों-बीच
बैठी है एक गाय हमेशा की तरह
जैसे राह भटककर आ गई हो इस शहर में
या रातों रात बूचड़खाने ले जाए जा रहे झुंड से
पगहा तुड़ाकर छुड़ाकर नजर बचाकर निकल आई हो

इस शहर में अब किसी के घर नहीं है गोठ
फिर कहां से आई, कब आई, कैसे आई यहाँ तक

उसे देखते ही दिमाग में गूँजने लगती हैं घंटियां
गोधूलि स्मृतियों की धूल उड़ने लगाती है 
मेरा शरीर थरथराता है ठीक वैसे ही  
जैसे पीठ पर हाथ रखते ही
थरथराती है उसकी पीठ

गाय के आसपास है वाहनों की भीड़
गाय को बचाते गुजरते हैं रिक्शावाले कारवाले
एक ट्रक ठहरता है गाय को रस्ते बीच बैठी देख कर बजाता है हॉर्न
फिर रिवर्स लेकर निकल जाता है बाजू से
इतनी भीड़भाड़ के बीच सड़क पर बैठी गाय
कोई उसे उठाता नहीं
यहां तक कि कोई पूछता भी नहीं
क्यों ऐसे बैठी है वह रास्ते के बीचोबीच
वह इस तरह क्यों बैठी होगी
इसका विचार तक कोई नहीं करता

इस विसंगत सड़क के बीचोबीच जोखिम उठाकर
बैठी है गाय जान हथेली पर लेकर
लेकिन ऐसा कोई भाव नहीं है उसके चेहरे पर
शायद यह उसके मन में भी न हो
उसे लगता है
किसी की आंखों में क्रोध या घृणा
उसके लिए नहीं हो सकती
आसपास का कोलाहल तो नश्वर है
इसी विश्वास से बैठी है वह रास्ते पर

शहर में आने के बाद गाय भूल गई है मनुष्य का स्पर्श
उसे अब दिखाई नहीं देते
पोले पर उसके वंश को पूरनपोली खिलाने वाले
किसी किसान के हाथ
स्तनों से दूध पीता उसका बछड़ा भी कहीं दिख नहीं रहा


अब तो दिया जाता है उसे ऑक्सीटोसिन का इंजेक्शन
तो दिमाग में उठने लगती हैं सुख भरी तरंगें
अपने आप स्तनों से बहने लगती है धार
मशीन के हाथों में
गोद में बाल्टी रखकर दूध दुहने वाला गोपाला
अब विस्मृति की गर्त में खो गया है कहीं

वैसे गाय को भी मालूम है
इस पृथ्वी पर वही एकमात्र ऐसा प्राणी है
जिसकी विष्ठा से जमीन लीपने के बाद 
वहीं थाली रख इनसान भोजन के लिए बैठता था
लेकिन अब ये दुनिया कुछ तो बिगड़ गई है
यह बात तो उसकी समझ में भी आ गयी है

वह समझ गई है अब इस दुनिया को गाय नहीं चाहिए
चारा देना पीठ पर हाथ फेरना किसी को रुचता नहीं
अब न खेत की जरूरत है न खेती करने वालों की
केवल सुबह-सुबह टेबल पर हो ताजा ब्रेड
और उस पर लगाने के लिए मक्खन

मेहनतकश पसीना बहाने वालों को यह दुनिया
दहलीज के बाहर ही रखना चाहती है

सृष्टि से अब सीधा संबंध ही नहीं चाहिए
ठंडक भी नाप तोलकर चाहिए
कुदरत के कलकल बहते जल पर भी
विश्वास नहीं आता बोतलबंद हुए बगैर
ताजा तुरंत दुहा दूध भी अब
ठंडे पैकेट में बंद हुए बगैर पहचाना नहीं जाता

सड़क पर बैठी गाय के नाक-मुंह में
घुसता है गुजरते वाहनों का धुंआ
अपने ही विचारों में डूबी हुई वह
उसी के बहाने हो रही मारकाट का दंगो का कोलाहल
अनसुना करती
बाजू से बहती खून की धारा को अनदेखा करती
उसी के नाम पर निकले जुलूस को अनजान नज़र से देखती
इस दुनिया को समझने की कोशिश में तल्लीन
उसकी पूर्व की स्मृतियों का
आसपास की दुनिया से अब नहीं रहा कोई तालमेल

मांएं अब अपने बच्चे को नहीं दिखाती
उसके आंखों में छलकता वात्सल्य का अथाह समुद्र
कोई प्यार से हाथ नहीं रखता उसकी पीठ पर
अथवा गर्दन के नीचे नहीं फेरता हाथ ममता का
उसी के चमड़े से बने जूते पहने जल्दी-जल्दी
आसपास से गुजरने वाले पांव ठहरते नहीं कुछ पल भी
हमेशा उसकी पीठ पर बैठने वाला कौआ भी
उसने नहीं देखा कई दिनों से
लाशों को सफाचट करने वाले गिद्ध
अब सिर्फ विजय तेंदुलकर के नाटक के शीर्षक तक बचे हैं ये पता है उसे
उस पर रची गई कथाएं-दंतकथाएं
पिघल चुकी हैं समय के गर्त में
जिसके लिए उसकी आंत जलती थी
उस इनसान से रिश्ता ही टूट गया है

गाय के मन में पहली बार आई नंगेपन की भावना

गाय की आंखों की कोरों से
नदी के उद्गम की तरह निरंतर बहता है पानी
भनभनाती मक्खियों को अपनी पूंछ से भगाते हुए
तैंतीस करोड़ अपराधों को माफ़ करते पेट में छिपाकर 
गाय बैठी है सड़क के बीचोंबीच
मुह में आयी प्लास्टिक की केरीबैग की जुगाली करती
भवसागर पार करने का सपना देखती.
_____________

  
तेहतीस कोटी अपराध पोटात घालून
प्रफुल्ल शिलेदार

फसफसून वाहणाऱ्या रस्त्याच्या मधोमध
बसली आहे एक गाय नेहमीसारखीच
वाट चुकून कधीतरी या शहरात आलेली
किंवा रातोरात खाटिकखान्याकडे जाणाऱ्या
कळपातून नजर चुकवून दावं तोडून सुटलेली
या शहरात कुणाच्याच घरी गोठा नाही
मग आली कुठून कधी आली कशी आली
ती दिसताच डोक्यात घंटा किणकिणू लागतात
गोरज आठवणींची धूळ उडते
त्वचा थरथरते तशीच
मी तिच्या पाठीवर हात ठेवल्यावर
तिची पाठ थरथरायची जशी

गायीच्या आजूबाजूने वाहनांची वाहती गर्दी
गायीला चुकवून रिक्षावाले कारवाले जातात
एक ट्रक थोडावेळ थांबून होर्न वाजवतो
शेवटी तो देखील रिव्हर्स घेऊन
बाजूने ट्रक काढतो
या वर्दळीत रस्त्याच्या मधोमध बसलेल्या
गायीला कुणीही उठवत नाही
ती रस्त्याच्या मधोमध कां बसली आहे
हे कुणी विचारात नाही
ती कां बसली असावी याचा कुणी विचार करत नाही

जोखीम पत्करून या विसंगत रस्त्याच्या मधोमध
बसलेली गाय जीवावर उदार झालेली असते
पण तसा कुठलाच भाव तिच्या चेहऱ्यावर नसतो
ते तिच्या मनातही नसतं
एखाद्याच्या मनातली संतापाची तिरीप किंवा घृणा
आपल्याकरता असूच शकत नाही
असेच तिला वाटते
आजूबाजूचा कोलाहल नश्वर आहे
याची खुणगाठ मारूनच ती रस्त्यावर बसलेली
शहरात आल्यापासून गाय विसरली माणसाचा स्पर्श
तिला दिसलाच नाही
पोळ्याला तिच्या वंशाला पुरणपोळीचा घास भरवणारा
बळीवंताचा हात
तिच्या स्तनांना लुचणारे पाडसही नाहीसे झाले

तिला दिलं जातंय ओक्सिटोसिनचं इंजेक्शन
तिच्या मेंदूत सुखद लहरी निर्माण होतात
तिचा पाझर यंत्राच्या हातातही मोकळा होतो
मांडीत बदली धरून धार काढणारा गोपाळ
आता विस्मृतीत गेला तिच्या

खरं तर गायीला देखील ठाऊक आहे
ती या पृथ्वीच्या पाठीवरचा असा प्राणी आहे
जिच्या विष्ठेन जागा सारवून
त्यावर ताट मांडून माणूस जेवायला बसत असे
पण आता या जगाच काहीतरी बिनसलंय
हे तिच्या लक्षात आलंय

तिला कळलंय आता या जगाला गाय नकोय
चार देणं पाठीवरून हात फिरवणं नकोय
शेत नकोय शेत पिकवणारा नकोय
फक्त सकाळी सकाळी टेबलवर ताजा ब्रेड
आणि त्यावर लावायला लोणी हवंय

कसणारा घाम गाळणारा
या जगाला उंबऱ्याबाहेरच हवाय

सृष्टीशी संबंधाच नकोय सरळ
गारवाही मोजून मापून हवाय
निसर्गातल्या खळखळत्या पाण्यावरही
बाटलीबंद झाल्याशिवाय विश्वास बसत नाही
धारोष्ण दुधाचीही
थंडगार पाकीटबंद झाल्याशिवाय ओळख पटत नाही


रस्त्यावर बसलेल्या गायीच्या नाकातोंडात
वाहनांचा धूर जातोय
ती विचारात मग्न
तिच्यावरून होणाऱ्या कापकापीच्या दंग्यांच्या कोलाहालाकडे
लक्षच नसतं तिचं
बाजूने वाहणाऱ्या रक्ताच्या धारेकडे अलिप्तपणे बघत
तिच्या नावानं निघालेल्या मोर्च्याकडे अनभिज्ञ नजरेने पाहत
हे जग समजून घेण्याच्या प्रयत्नात गुंग

तिच्या पूर्वायुष्यातील आठवणींचा
आजुबाजुशी काही ताळमेळ बसत नाही
कुठलीच आई दाखवत नाही आपल्या मुलाला
तिच्या डोळ्यातला वात्सल्याचा अथांग समुद्र
कुठलाच हात पडत नाही तिच्या पाठीवर
किंवा मानेखालून फिरत नाही मायेने
तिच्याच कातड्याचे बूट घालून घाईघाईन
आजुबाजून जाणारे पाय थांबत नाहीत क्षणभर
हमखास पाठीवर बसणारा कावळाही तिने
पहिला नाही कित्येक दिवसात
सोलल्यानंतर सांगाडा साफ करणारी गिधाडे
फक्त तेंडूलकरांच्या नाटकाच्या शीर्षकात उरली आहेत
हे तिला जाणवलं
आपल्याभोवती उभ्या असलेल्या कथा-दंतकथा
आता विरघळून गेल्यात
ज्याच्याकरता आपलं आतडं तुटायचं
त्या माणासासोबतचं नातंच तुटलं
नागडेपणाची भावना प्रथमच आली गायीच्या मनात


नदीच्या उगमासारखं  सतत पाणी झरतंय आताशा
गायीच्या डोळ्यातून
घोंगावणाऱ्या माशा शेपटीने हकलत
तेहतीस कोटी अपराध पोटात घालून
गाय बसली आहे रस्त्याच्या मधोमध
तोंडात आलेली प्लास्टिकची केरीबग चघळत

भावसागर तरुन जाण्याचे स्वप्न पाहात
_______________________________________________
shiledarprafull@gmail.com 

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  1. बहोत खूब, प्रफुल्ल वास्तव को तेढे शब्दोमे सीधे ढंग से कविता मी पेश करता है !

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  2. शिलेदार सर
    काय विलक्षण कल्पना आहे.
    गाय हे प्रतिक वापरून आमच्या जगन्यताली संवेदनशून्यता आपण प्रकट केलित.

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  3. उसे देखते ही दिमाग में गूँजने लगती हैं घंटियां
    गोधूलि स्मृतियों की धूल उड़ने लगाती है
    मेरा शरीर थरथराता है ठीक वैसे ही
    जैसे पीठ पर हाथ रखते ही
    थरथराती है उसकी पीठ....अप्रतिम, प्रफुल्ल जी...... राम तायड़े

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  4. अशी चिमटीत धरून अलगद कविता उचलली आहेस!
    मीखूप गायी बघितल्या पण
    एकदा अंधारून आले असताना लष्करला बाजारात अगदी मधोमध ठिय्या देऊन बसलेल्या गायी मी कधीच पुन्हा बघितल्या नाहीत
    तुझ्या कवितेने ते स्मरण जागे झाले
    पुन्हा ग्वाल्हेरीस गेलो तर बहुधा तसेच असेल !

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  5. बहुत बढ़िया...एक गंभीर और सामयिक कविता। धन्यवाद।

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