Painting : Bishnu Prasad Rabha
समीर तांती असमिया
भाषा के प्रसिद्ध कवि हैं,
उनकी कुछ कविताओं
का असमिया से सीधे हिंदी में अनुवाद
शिव किशोर तिवारी ने किया है.
ज़ाहिर है मूल
से हिन्दी में किया गया यह अनुवाद एक सांस्कृतिक-साहित्यिक पुल तो बनाता ही
है, काव्यार्थ की भी अधिकतम रक्षा करता है,
और एक प्रमाणिक पाठ प्रस्तुत करता है.
(असमिया से हिंदी अनुवाद शिव किशोर तिवारी)
१.
मेरे फूलों, मेरी तितलियों को
मेरे फूलों, मेरी तितलियों को
रोशनी दो एक टुक,
आकाश जो आँसू बहायेगा वरना !
और मैं क्या लेकर आकाश को
समझाऊँगा,
मेरी आँखों में तो एक टुकड़ा
बादल भी नहीं.
मेरे पेड़ धीरे-धीरे अकेले पड़
गये,
मेरी घास-दूब धीरे-धीरे अकेली
पड़ गईं,
अब किस नक्षत्र से मैं
भीख माँगने जाऊँ ?
मेरे तारे धीरे-धीरे एकांतवासी
हो चले,
मेरी नदियाँ धीरे-धीरे
एकांतवासी हो चलीं,
रोशनी दो एक टुक.
हे मेरे जराग्रस्त युग!
इन पगों को
किस रास्ते की धूल में संचित
करूँ,
बोलो !
हजार सूनी आँखों की तरह
मैं भी जाने कबसे ढूँढ़ रहा हूँ
राह एक.
मेरे इस एकाकी पग को
रोशनी दो एक टुक.
२.
जहाँ से आया था, लौट जाऊँगा एक दिन वहाँ
जहाँ से आया था लौट जाऊँगा एक दिन वहाँ,
ये गीत, नींद के पल, वह शाम
डूबेंगे वक्त की नदी में.
नहीं जान पायेगा कोई कि दु:ख क्यों कहलाता दु:ख,
कि क्यों रोते हैं बच्चे और क्यों आँसू पोछतीं स्त्रियाँ,
कि क्यों कभी अनमनी और कभी कातर
होती है धरती.
पत्ते झड़ गये तो पेड़ भूल जायेंगे खुद को ही,
यह चिड़िया, यह तितली, यह हवा
सूनेपन में याद दिलायेंगे तुम्हारी सदा- सर्वदा.
३.
तुम्हारी आँखों देखता हूँ स्वप्न जब
तुम्हारी आँखों देखता हूँ स्वप्न जब,
रात नीली पड़ जाती है. मैं जैसे चलता जाता हूँ
अंतहीन सूनेपन के बीच. कौन सा मौसम है यह?
मेरे होठों पर उन्मन, आकुल गीत. पत्ते झड़ रहे हैं,
उड़ रही है धूल. मृतात्मायें उँगली के इशारे से दिखाती हैं
सुनसान कब्रों पर उगी घास. कोई नहीं इस निर्जन में बहते
सोते के किनारे.
दो मुझे, दो इस स्वप्न का मोहन- मंत्र. तुम्हारी आँखों की लहरों पर सवार हो,
कामना की नजर उतार लूँ. सामने मेरे रुदनरत – टूटी
एक नाव, सूखी नदी एक.
४
वसंत के दिन का आखिरी पहर
पहाड़ जब दूर होने लगता है,
तब नदी पास खिसक आती है,
एक हरी चिड़िया खेतों में बोलती है.
रास्ते का मोड़ पार करने में जितना वक्त लगता है,
उसके बहुत बाद ही मन की गलतफहमी दूर होती है.
फल पकने का एक सर्वोत्तम समय होता है;
वह जो निर्जन घास का मैदान है, जिसका कोई मालिक
नहीं,
उसमें भी छुपकर एक नन्हीं कली पंखुड़ी खोलती है,
सब कुछ घुलकर एक हो जाता है चुपचाप.
जंगल की आग जंगल की ही कला है,
फिर भी इस समय उसके सीखे जाने का
कोई उदाहरण नहीं है,
बड़ा खटना पड़ता है सुख पाने के लिए,
धुएँ के उस पार धुआँ और राख,
आकाश के उस पार नहीं पहुँचता कोई.
कितनी शाम आनी बाकी है अभी ?
इस धूप की माया द्वारा छली गई गोधूलि,
छायाएँ लंबी होती आ रही हैं,
भीतर-भीतर काँप उठता है जलस्तर.
पानी से भी तरल होती है जब रोशनी,
तब वह पहले बर्फ को चूमती है,
उसके बाद ही प्रिय शिखर को.
बादलों की आवाज आती है तैरकर,
घास के नीचे धरती रोती है,
विषाद प्रार्थना का आदिमूल है.
ठंड से सूख गया एक पेड़,
पत्थर उसे नतजानु प्रणाम करता है,
डाल पर सामने की ओर वसंत के ओठों के दाग है.
अरवी के पत्ते पर एक बूँद पानी,
तारे सोये नहीं कल रात भी,
हृदय मे किसके सपनों के गीत की गुनगुन ?
कहीं अदृश्य एक नदी बह रही है,
मन ने झूठमूठ नाव खोल दी,
किसी युग में अंत नहीं प्यास का,
एक चुंबन की चाह में मृत हो चुके होठ,
इंतजार को कैसे बना लूँ सजावट की चीज?
पृथ्वी है कामनाओं की लीलाभूमि !
५.
कविता
स्मृतियों की धूल-भरी राह पर
मुझे जाने दो,
तुम यहीं रुको.
पहरा देना
इन बेचारी छायाओं पर,
इनका सिर न काट ले जाय कोई.
चलूँ मैं,
ढूँढ़कर खोल रखो आँखें वे,
अंधकार कहीं उन्हें गाड़ न दे.
चाँद की ओर न देखना
चाँदनी में नदी फफक पड़ेगी,
कहाँ पाओगी दिल को ठंडक देने वाला
सुर ?
चलूँ फिर,
रक्त-रंजित रात के पीछे-पीछे,
शायद उजाले को साँस लेने का
वक्त मिल जाय.
छोड़ न जाना
आग से जल चुके घास के मैदान,
नई पत्तियाँ आ रही हैं,
बरसात में आवाज देंगी वे.
चलूँ,
सिंदूरी होठ अब भी होंगे शायद,
पर्व और प्रेम की कथा कहने को.
जगी रहना,
शोकाकुल तारे पूछ सकते हैं,
मैं न आ पाया तो पकड़ना होगा
बात का सिरा.
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समीर तांती : (1955)
का जन्म असम के बिहरा चाय बागान (जिला शिवसागर, अब लाघाट) में हुआ.
वे उड़िया मूल के परिवार से आते हैं जो एक समय में ओडिशा से असम के चाय बागानों में
काम करने के लिए लाया गया था. आरंभिक शिक्षा गोलाघाट में और उच्च शिक्षा गुवाहाटी
में. अंग्रेजी, असमिया, बँगला, उडिया और हिंदी
भाषाओं के जानकार. लेखन असमिया में. तांती मूलतः चित्रकार थे और अब भी चित्र बनाते
हैं. असमिया के उत्तर आधुनिक कवियों में अग्रणी. उन्हें आसाम वैली लिटरेरी
अवार्ड मिल चुका है जो असम का सबसे प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार है.
काव्य संग्रह :
1. जुद्धभूमिर क’बिता (युद्धभूमि की कविता)
2. होकाकुल उपत्यका (शोकाकुल उपत्यका)
3. हेऊजिया
उत्सव ( हरियाली का उत्सव)
4. अत्यासार’र टोकाबही ( अत्याचारों की डायरी)
5. क’दम फूलार राति (कदम्ब फूलने की रात)
6. विख़ाद
संगीत (विषाद संगीत)
7. हुनिसा ने हेई मात (सुनी है न वह आवाज )
8. बिषय: दुर्भिक्ख (विषय: दुर्भिक्ष)
9. आनंद आरू बेदनार बैभब (आनंद और वेदना का
वैभव)
10. कायाकल्पर बेला (कायाकल्प की वेला)
11. जाओं गइ बोला (चलो चलें)
ताँती चित्रकार हैं
यह उनकी कविताओं में स्पष्ट दिखता है. उदाहरण के लिए ´तुम्हारी आँखों
स्वप्न देखता हूँ जब´ में वक्ता अपनी
प्रेमिका की नजर से भविष्य का स्वप्न
देखता है. घोर अँधेरे में किसी निर्जन प्रांतर में वक्ता अपने को पतझड़ के बीच
पाता है जिसमें एकमात्र हरियाली कब्रों पर उगी घास है. पर एक जलस्रोत भी है. (इसके
विपरीत वक्ता के अपने परिदृश्य में एक सूखी नदी और एक टूटी नाव है.) चित्र के रंग
धूसर हैं फिर भी आशा के संकेत हैं. कम से कम वक्ता प्रेमी चित्र में है. वह अपने
प्रेम (“कामना”) की नजर उतार लेता
है.इस तरह पूरी कविता जैसे चित्रकारी का एक कंपोज़िशन है.
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शिव किशोर तिवारी
शिव किशोर तिवारी
(१६ अप्रैल १९४७)
इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिंदी में एम. ए.
२००७ में भारतीय प्रशासनिक सेवा से निवृत्त.
हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
हिंदी, असमिया, बंगला, संस्कृत, अंग्रेजी, सिलहटी और भोजपुरी आदि भाषाओँ से अनुवाद और लेखन.
tewarisk @yahoo.com
इन कविताओं को पढ़ता सोच रहा था कि इनमें एक गहरा अवसाद है, कि आगे यह पंक्ति ही मिल गई '...विषाद प्रार्थना का आदि मूल है़'। प्राकृतिक उपादानों से एेसे विलक्षण बिम्ब सिरजे गए हैं कि उनकी छाप मन पर जैसे सदा के लिए रह जाएगी। ये कविताएँ क्लासिकी का नमूना हैं।
जवाब देंहटाएंयह भी संयोग कि इतना लिख चुकने के बाद कवि परिचय पर निगाह पड़ी कि समीर चित्रकार हैं!
शिवकिशोर तिवारी अनुवाद बहुत सृजनात्मक है जैसा कि कविता का अनुवाद होना चाहिए। उन्हें बहुत बधाई! पोस्ट साझा करने के लिए धन्यवाद!
शिवदयाल
सरल और तरल अनुवाद है । बिरहा जैसा सुख है । ख़याल की तरह द्रुत और विलंबित के बीच चलता राग है ।
जवाब देंहटाएंBahut sundar anuvaad. Achhi kavitayein. Saadhuvaad
जवाब देंहटाएंअभी 25 अगस्त को तिवारी जी से अनिल जनविजय के साथ मुलाकात हुई .और अब समीर तांती का उनका किया हुआ अनुवाद पढ़ रहा हूं . मै मूल भाषा से वाकिफ नही हूं लेकिन अनुवाद की भाषा सहज और स्वाभाविक है .अन्य भारतीय भाषाओ में बेहतर कविताये लिखी जा रही है .उन्हे हिंदी पाठको के बीच आनी चाहिये . आप इस ओर अग्रसर है यह जानकर खुशी होती है . मै बंगाली और नार्थ ईस्ट मे लिखी जा रही कविताओं का आशिक हूं .उम्मीद है आप मेरे इस अनुरोध को स्वीकार करेगे .अनुवादक तिवारी जी और आपको इतनी अच्छी कविताओ के लिये शुक्रिया .
जवाब देंहटाएंस्वप्निल श्रीवास्तव के इस कथन से सहमत हो पाना कठिन है कि अन्य भारतीय भाषाओँ में ( हिंदी से ) बेहतर कविताएँ लिखी जा रहीं हैं.अप्रियता से बचते हुए यही कहूँगा कि अनेक युवा हिंदी-अहिन्दी कवि समकक्ष उत्कृष्ट या खराब कविताएँ लिख रहे हैं.यत्किंचित् बड़छोट तो कला का एक नियम है ही,जो सिर्फ़ एक दी हुई कला में ही बिल्ट-इन नहीं होता,हममें भी उसकी जड़ें होती हैं.
जवाब देंहटाएंसबसे कोमल और सबसे सुंदर तितलियों और फूलों की उम्र सबसे कम.
जवाब देंहटाएंउनके लिये आलोक की आकांक्षा. अकेली पड़ती घास,नदियों,तारों और खोये हुए रास्तों केलिये आलोक की प्रार्थना है यह. असमिया में तो शायद भाषा का संगीत भी रहा होगा.
कविता साझा करने के लिये आभार.
मेरी समझ से कविता उस तरह की प्रकाश माँगने वाली रोमैंटिक कविता नहीं है। सबसे अल्पायु फूलों और तितलियों से कविता का आरंभ करने वाली बात नरेश जी ने खूब पकड़ी है। पर कविता हमारी सभ्यता के संकट के बारे में है जिसमें सब कुछ सहस्रगुण अधिक भंगुर हो गया है और इसके पार कोई राह नहीं दिखती।
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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