सहजि सहजि गुन रमैं : प्रेम पर फुटकर नोट्स : अंतिम : लवली गोस्वामी
















कविताओं पर अंतिम रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता. कविताएँ अर्थ बदलती रहती हैं. हर पाठक उसमें कुछ जोड़ता है. यही नहीं समय और स्थान भी उसमें बदलाव लाते हैं. आप किसी कविता में जो आपको अच्छा लगा है उसे तरह तरह से समझने की कोशिश भर कर सकते हैं. यह जो अच्छा सा है, पर क्या है यह ? यही उसका जादू है, जो सर चढ़ बोलता है.

कविताएँ पढिये. अगर वे  वास्तव में बेहतर हैं तो उन्हें फिर फिर आप पढ़ेंगे. समाज के काम लायक हुई तो वह उसे सहेज कर रखेगा. अपने दुःख – सुख में उन्हें गायेगा- गुनगुनाएगा.

कुछ समय पर भी छोड़ दीजिये. कविता पर कर्कश होना असभ्यता है.


लवली गोस्वामी की प्रेम पर यह लम्बी कविता आपके लिए. 




प्रेम पर फुटकर नोट्स : अंतिम                                        
लवली गोस्वामी





डरना चाहिए खुद से जब कोई
बार  बार आपकी कविताओं में आने लगे 
कोई अधकहे वाक्य पूरे अधिकार से
पूरा करे, और वह सही हो

यह चिन्ह है कि किसी ने
आपकी आत्मा में घुसपैठ कर ली है 
अब आत्मा जो प्रतिक्रिया करेगी
उसे प्रेम कह कर उम्र भर रोएंगे आप 
प्रेम में चूँकि कोई आजतक हँसता नहीं रह सका है

आग जलती जाती है और निगलती जाती है
उस लट्ठे को जिससे उसका अस्तित्व है
उम्र बढती जाती है और मिटाती जाती है
उस देह को जिसके साथ वह जन्मी होती है 
बारिश की बूंदे बादलों से बनकर झरती हैं
बदले में बादलों को खाली कर देती हैं
प्रेम बढ़ता है और पीड़ा देता है
उन आत्माओं को जो उसके रचयिता होते हैं  

एक सफेदी वह होती है
जो बर्फानी लहर का रूप धर कर
सभी ज़िन्दा चीजों को
अपनी बर्फीली कब्र में चिन जाती है
जिस क्षण तुम्हारी उँगलियों में फंसी मेरी उँगलियाँ छूटी 
गीत गाती एक गौरय्या मेरे अंदर बर्फीली कब्र में
खुली चोंच ही दफ़न हो गई






एक बार प्रेम जब आपको सबसे गहरे छूकर
 गुज़र जाता है आप फिर कभी वह नहीं नहीं हो पाते
जो कि आप प्रेम होने से पहले के दिनों में थे








हम दोनों स्मृतियों से बने आदमक़द ताबूत थे 
हमारा ज़िन्दापन शव की तरह उन ताबूतों के अंदर
सफ़ेद पट्टियो में लिपटा पड़ा था
अपने ही मन की पथरीली गलियों के भीतर
हमारी शापित आत्माएँ अदृश्य घूमा करती थीं  

यह तो हल नहीं होता कि हम प्रेम के
उन समयों को फिर से जी लेते
हल यह था कि हम मरे ही न होते 
लेकिन यह हल भी दुनिया में हमारे
न होने की तरह सम्भव नहीं था

जीवन की ज़्यादतियों से अवश होकर 
प्रेम को मरते छोड़ देने का दुःख 
ईलाज के लिए धन जुटाने में नाकाम होकर 
संबधी को मरते देखने के दुःख जैसा होता है

दुःखों के दौर में जब पैर जवाब दे जाएँ
तो एक काम कीजिए धरती पर बैठ जाइये
ज़मीं पर ऐसे रखिये अपनी हथेलियाँ
जैसे कोई ह्रदय का स्पंदन पढ़ता है
मिट्टी दुःख धारण कर लेती है
और बदले में वापस खड़े होने का
साहस देती है







         इन दिनों मैं मुसलसल इच्छाओं और दुखों के बारे में सोचती हूँ
उन बातों के होने की संभावना टटोलती हूँ, जो सचमुच कभी हो नहीं सकती









मसलन, आग जो जला देती है सबकुछ
क्या उसे नहाने की चाह नही होती होगी
मछलिओं को अपनी देह में धँसे कांटे
क्या कभी चुभते भी होंगे
जब प्यास लगती होगी समुद्र को
कैसे पीता होगा वह अपना ही नमकीन पानी
चन्द्रमा को अगर मन हो जाये गुनगुने स्पर्श में
बंध जाने का वह क्या करता होगा  
सूरज को क्या चाँदनी की ठंडी छाँव की
दरकार नही होती होगी कभी

उसे देखती हूँ तो रौशनी के उस टुकड़े का
अकेलापन याद आता है
जो  टूट गए किवाड़ के पल्ले से
बंद पड़ी अँधेरी कोठरी  के फ़र्श पर गिरता है
अपने उन साथियों से अलग
जो पत्तों  पर गिरकर उन्हें चटख रंगत देते हैं  

इस रौशनी में हवा की वह बारीकियाँ भी नज़र आती हैं
जो झुंड में शामिल दूसरी रौशनियां नहीं दिखा पाती
जिंदगी की बारीकियों को बेहतर समझना हो
तो उन लोगों से बात कीजिये जो अक्सर अकेले रहते हों

कभी - कभी मैं सोचती हूँ तो पाती हूँ कि
अधूरे छूटे प्रेम की कथा
पानी के उस हिस्से की तिलमिलाहट
और दुख की कथा है
जो चढ़े ज्वार के समय समुद्र से
दूर लैगूनों में छूट जाता है
महज़ नज़र भर की दूरी से
समुद्र के पानी को
अपलक देखता वह हर वक़्त कलपता रहता है
समुद्र तटबंधों  के नियम से बंधा है
चाहे तब भी उस तक नहीं आ सकता
वह समुद्र का ही छूटा हुआ एक हिस्सा है
जो वापिस  समुद्र तक नहीं जा सकता
मैंने जाना कि प्रेम में ज्वार के बाद
दुखों और अलगाव का मौसम आना तय होता है

लगातार गतिशील रहना हमेशा गुण ही हो ज़रूरी नहीं है
पानी का तेज़ बहाव सिर्फ धरती का श्रृंगार नाशता है (नाश करना)
धरती के मन को भीतरी परतों तक रिस कर भिगो सके   
इसके लिए पानी को एक जगह ठहरना पड़ता है

बिना ठहरे आप या तो रेस लगा सकते हैं
या हत्या कर सकते हैं, प्रेम नहीं कर सकते

जल्दबाज़ी में जब धरती की सतह से
पानी बहकर निकल जाता है
वहां मौज़ूद स्वस्थ बीजों के उग पाने की
सब होनहारियाँ ज़ाया  हो जाती हैं





प्रेम के सबसे गाढ़े दौर में जो लोग अलग हो जाते हैं अचानक
 
उनकी हँसी में उनकी आँखें कभी शामिल नहीं होती




कुछ दुःख बहुत छोटे और नुकीले होते हैं
ढूंढने से भी नही मिलते
सिर्फ मन की आँखों में किरकिरी की तरह
रह - रह कर चुभते रहते हैं
न साफ़ देखने देते हैं, न आँखें बंद करने देते हैं

नयी कृति के लिए प्राप्त प्रशंसा से कलाकार 
चार दिन भरा रहता है लबालब, पांचवें दिन
अपनी ही रचना को अवमानना की नज़र से देखता है
वे लोग भी गलत नहीं हैं जो प्रेम को कला कहते हैं

सुन्दरताओं की भी अपनी राजनीति होती है
सबसे ताक़तवर करुणा सबसे महीन सुंदरता के
नष्ट होने पर उपजती है
तभी तो तमाम कवि कविता को
कालजयी बनाने के लिए
पक्षियों और हिरणों को मार देते हैं
ऐसे ही कुछ प्रेमी महान होने के लोभ से
आतंकित होकर प्रेम को मार देते हैं

एक दिन मैंने अपने मन के किसी हिस्से में
शीत से जमे तुम्हारे नाम की हिज्जे की 
दुःख के हिमखंड टूट कर आँखों के रास्ते
चमकदार गर्म पानी बनकर बह चले 

जब से हम - तुम अर्थों में साँस लेने लगे
सुन्दर शब्द आत्मा खोकर मरघटों में जा बैठे थे









स्मृतियों और मुझमे कभी नही बनी
आधी उम्र तक मैं उन्हें मिटाती रही
बाक़ी बची आधी उम्र में उन्होंने मुझे मिटाया







मेरी कुछ इच्छाएँ अजीब भी थी 
मैं हवा जैसा होना चाहती थी तुम्हारे लिए
तुम्हारी देह के रोम - रोम को
सुंदर साज़ की तरह छूकर गुज़रना
मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी

मैं चाहती थी तुम वह घना पेड़ हो जाओ
जिसकी पत्तियां हर बार
मेरे छूने पर लहलहाते हुए, गीत गायें

मैं तुम्हारे मन की पथरीली सी ज़मीन पर उगी 
जिद्दी हरी घास का गुच्छा होना चाहती थी 
जिसे अगर बल लगाकर उखाड़ा जाये तब भी
वह छोड़ जाये तुम्हारी आत्मा में
स्मृतियों की चंद अनभरी  ख़राशें

लगातार
 घाव देने वाले प्रेम का टूटना
साथ चलते दुःख से राहत भी देता है
देखी है आपने कभी दर्द से चीखते कलपते
इंसान के चहरे पर मौत से आई शांति
असहनीय पीड़ा में प्राण निकल जाना भी
दर्द से एक तरह की मुक्ति ही है


इन दिनों सपने हिरन हो गए हैं 
और जीवन थाह - थाह कर
क़दम रखता हाथी

एकांत में जलने के दृश्य
भव्य और मार्मिक होते हैं
गहन अँधेरे में बुर्ज़ तक जल रहे
अडिग खड़े किले की आग से
अधिक अवसादी जंगलों का
दावानल भी नहीं होता.
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  1. दर्द से मुक्ति के इस गीत को मैंने संजो लिया-मसलन, आग जो जला देती है सबकुछ
    क्या उसे नहाने की चाह नही होती होगी
    मछलिओं को अपनी देह में धँसे कांटे
    क्या कभी चुभते भी होंगे
    जब प्यास लगती होगी समुद्र को
    कैसे पीता होगा वह अपना ही नमकीन पानी
    चन्द्रमा को अगर मन हो जाये गुनगुने स्पर्श में
    बंध जाने का वह क्या करता होगा
    सूरज को क्या चाँदनी की ठंडी छाँव की
    दरकार नही होती होगी कभी..
    समालोचन को शुक्रिया लिखूँगी आज। बहुत दिनों बाद किसी अपनेपन ने मुझे समृद्ध किया।

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  2. उत्तर
    1. मेरी कुछ इच्छाएँ अजीब भी थी
      मैं हवा जैसा होना चाहती थी तुम्हारे लिए
      तुम्हारी देह के रोम - रोम को
      सुंदर साज़ की तरह छूकर गुज़रना
      मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी

      मैं चाहती थी तुम वह घना पेड़ हो जाओ
      जिसकी पत्तियां हर बार
      मेरे छूने पर लहलहाते हुए, गीत गायें

      मैं तुम्हारे मन की पथरीली सी ज़मीन पर उगी
      जिद्दी हरी घास का गुच्छा होना चाहती थी
      जिसे अगर बल लगाकर उखाड़ा जाये तब भी
      वह छोड़ जाये तुम्हारी आत्मा में
      स्मृतियों की चंद अनभरी ख़राशें

      लगातार घाव देने वाले प्रेम का टूटना
      साथ चलते दुःख से राहत भी देता है
      देखी है आपने कभी दर्द से चीखते कलपते
      इंसान के चहरे पर मौत से आई शांति
      असहनीय पीड़ा में प्राण निकल जाना भी
      दर्द से एक तरह की मुक्ति ही है

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  3. कविता बहुत अच्छी लगी।पढ़ाने के लिये अरूण जी धन्यवाद और लिखने के लिये लवली गोस्वामी बधाई।

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  4. एक बहुत अच्छी कविता पढ़ाने के लिए तुम्हारा आभार अरुण।लवली को बधाई।

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  5. वाह पढ़ते हुए आँखें नम हो गयीं सारी की सारी बेहतरीन अद्भुत !!!!

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  6. प्रेम में डूबी इन कविताओं को पढ़कर आत्मा तृप्त हुई. इस कठोर समय में ये कविताएँ वैसा रिलीफ देती हैं जैसा कोई दुखता घाव रिस चला हो. इन कविताओं पर फिर लौटूंगा यह तय है.

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  7. यह लम्बी कविता पोयट्री मैनज्मेंट के युग में किशोरी अमोनकर
    का शास्त्रीय गायन है। इसे एक साँस में पढ़ना असम्भव है। सच पूछिए तो अनुचित भी। इसे पढ़ने के बाद देर तक चुप रहने के सिवा कोई चारा नहीं।
    और हाँ इस सुदीर्घ कविता को जीवित रहने के लिए किसी पुरस्कार या समीक्षा की आवश्यकता नहीं।

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  8. पार्थ चौधुरी6 अग॰ 2016, 2:10:00 am

    बहुत बहुत अच्छी कविता है, पढ़कर आनंद आ गया, साझा कर रहा हूँ. आपकी शक्ति और बढ़े, इसी शुभकामना के साथ....

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  9. लवली गोस्वामी की इन दार्शनिक कविताओं को पढ़ कर एकबारगी हमारे मन में कवि को जानने की इच्छा पैदा हो गई। मेरी कमी थी कि उनके बारे में मेरी कोई जानकारी नहीं थी। इसीलिये तत्काल एक धारणा बनाने के लिये ही मैंने उनके फेसबुक पेज को टटोला। उसमें संकलित कुछ ‘आप्त-सुक्तियों’ के साथ ही खास तौर पर ‘पहल’ पत्रिका में छपे उनके लेख ‘अभयारण्य में यथार्थ की दुर्दशा’ को पढ़ गया, जिससे मुझे मोटे तौर पर कवि की जमीन का एक अंदाजा मिला।

    लवली जी की इन प्रेम कविताओं से अनायास ही हरीश भादानी पर लिखी अपनी किताब की ही कुछ पंक्तियां याद आ गई - ‘‘प्रेम एक झंझा है। जीवन के सारे आंकड़ों को तहस-नहस कर देने, हर संतुलन को बिगाड़ देने वाली एक खतरनाक स्थिति। आदमी प्रेम में पड़ता है। Fall in love । स्खलन की खाई। फिसलन की काई। ऐसा जबर्दस्त तूफान जिसमें आदमी के पैर जमीन पर टिके नहीं रह सकते।’’
    कहने का मतलब कि आदमी के जीवन में प्रेम एक सामान्य स्थिति कत्तई नहीं होता। इस बवंडर को काबू में करने के लिये ही तो वे सारी सामाजिक-नैतिक संहिताएं हैं जिनके बारे में खुद लवली जी ने अपने ‘अभयारण्य’ वाले लेख में एक संकेत दिया है कि कैसे विवाह संस्था के जरिये मातृसत्ता को खंडित किया गया था और महाविद्या, योगिनी समूह, पंचकन्या समूह आदि में जहां भी स्वतंत्र यौन क्रिया जारी रही, उन्हें नाना उपायों से अलग-थलग करके तमाम प्रकार से उत्पीडि़त और वंचित किया गया। वे व्याधियों, महामारियों की देवियां बना दी गई !

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  10. कहने का तात्पर्य यह है कि जीवन में उद्दाम प्रेम जब स्वाभाविक वैवाहिक किस्म की परिणति नहीं पाता तो उसके विध्वंसक परिणाम प्रेम की स्मृतियों को डरावनी सी ऐसी सूरत भी दे सकते हैं, जिन्हें आदमी सीधे तौर पर स्वीकारने से कतराता है। यह उनकी प्रेत की तरह की एक सताने वाली सूरत होती है, क्योंकि इसमें एक अतिरेकों से भरा, एक प्रकार का असहनीय सच निहित होता है। आज के संसार में इससे जुड़े तमाम स्वछंद नैतिक-विमर्शों के बाद भी यह एक ऐसा लोमहर्षक अनुभव बना रहता है, जिसके सच से वाकिफ होने पर भी उसका पूरा लेखा-जोखा देना मुमकिन नहीं होता है। यहीं से आदमी के अस्तित्व से जुड़ी वे खास तात्विक समस्याएं उत्पन्न होती है जिन्हें लवली जी की इन कविताओं का विषय बनाया गया है। ये ‘पितृ-हत्या’ वाली कोई काल्पनिक फ्रायडीय ग्रंथी नहीं है, बल्कि जीवन में घटित सच का दंश है। ऐसा तूफानी या विध्वंसक सच जिसे आदमी महज अतीत की स्मृतियों के खाते में नहीं डाल पाता है। वह कभी इसके प्रति तटस्थ या इसका निरपेक्ष वस्तु-द्रष्टा नहीं हो पाता है। इस अनुभव की विडंबना यह है कि यह उसका अतीत होने पर भी मनुष्य इसे अपना अतीत नहीं मान पाता है। इसमें कुछ ऐसा है जो इसे सत्य-कथा के बजाय एक प्रेत-कथा की तरह का बना देता है। मन के किसी कोने में पड़ी अपराध-बोध की सिहरा देने वाली असमाप्त कहानी। स्मृति से भी यह एक फिसलन बन कर ही रचना का रूप लेती है, किसी आदिम झूठ की तरह, पाठक को एक भुतहा संसार में ले जाकर उससे छल करने वाले झूठ की तरह।

    लवली जी ने मिथकों पर काम किया है। ईश्वर संबंधी मिथकीय कथाओं का रहस्य भी कुछ ऐसा ही है। ये आद्य-ब्रह्मांडीय अराजकता की कोख से शब्द-ब्रह्म के एक संपूर्ण सत्य की व्युत्पत्ति का दावा करने वाली कथाएं होती है। लेकिन, इनमें जिस बात को छिपाया जाता है, वह यह है कि आदमी का यह दमित, उझक कर सामने आने वाला अतीत सबका जाना हुआ सत्य नहीं होता। अंतत: यह एक कपोल-कल्पना ही होता है जो वास्तव में रचनाकार के जीवन में घटित कृत्य से उत्पन्न शून्य को भरता है। यही है जीवित मनुष्यों पर राज करने वाले तथाकथित मिथ्या-स्मृति रोग के रहस्य की रचनात्मक बुनावट। एक अवचेतन का खेल जिसमें वास्तव में यदि कुछ अवचेतन में है तो वह अतीत की कोई सहेजी हुई अनुभूति नहीं, मनुष्य का कोई कृत्य ही है, अर्थात अवचेतन नहीं, संपूर्ण चेतन। मनुष्य का कृत्य ही उसका सनातन सत्य होता है।

    थोड़ा सा इस चर्चा की पृष्ठभूमि में इन कविताओं को पढ़ें, शायद इनके आगे और भी अर्थ खुलेंगे; इनके रहस्य का संधान मिलेगा।

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  11. सिर्फ इतने निवेदन के साथ की यह कविता कोई निष्कर्ष नहीं है ,मैंने लेखक/कवि के रूप में यहाँ किसी ज्ञान की घोषणा नहीं की है। यह कोई दार्शनिक सत्य नहीं है...अनुभूति है... दर्शन मैं अलग से लिखती हूँ। यह मेरे व्यक्तिगत अनुभव अवश्य हैं किन्तु यह सिर्फ मेरे अनुभव नहीं हैं। अज्ञेय के शेखर - एक जीवनी के सम्बन्ध में कहे गए कुछ वाक्य याद आते हैं ..यहाँ इससे मेरी भी आंशिक सहमति मानी जाये। :-)

    "क्या यह 'जीवनी' आत्म-जीवनी है? यह प्रश्न अवश्य पूछा जाएगा। बल्कि शायद पूछा भी नहीं जाएगा, क्योंकि पाठक पूर्व-धारणा बनाकर चलेगा। हिन्दी में जहाँ प्रत्येक कवि अपनी स्त्री को लक्ष्य करके लिखता है, जहाँ वियोग की कविता इतने भर से प्रमाणित मान ली जाती है कि उसे अमुकजी ने अपनी पत्नी के देहान्त के बाद लिखा है, वहाँ यही आशा करना व्यर्थ है कि 'शेखर' जो केवल एक जीवनी ही नहीं एक व्यक्ति की अपने मुँह कही हुई जीवनी है, उसके लेखक की जीवनी नहीं मान ली जाएगी। मुझे याद है, तीन वर्ष पहले जब मेरी एक कविता 'द्वितीया' छपी थी, तब उसके कई-एक पाठकों ने मुझे संवेदना के पत्र लिखे थे और एक ने यहाँ तक लिखा था कि 'मुझे आपसे पूरी सहानुभूति है क्योंकि स्वयं उसी परिस्थति में होने के कारण मैं आपकी अवस्था बखूबी समझ सकता हूँ।' पत्र के सम्पादक ने भी (यद्यपि कुछ मजाक में) पूछा था कि 'आपका पहला विवाह तो हुआ नहीं, दूसरी पत्नी से यह झगड़ा कैसा?' ऐसे व्यक्तियों को यदि प्रमाण मिल जाय कि मैंने बिना एक भी विवाह हुए, दूसरे विवाह की बात लिख दी है, तो वे समझेंगे कि उन्हें धोखा दिया गया है। यह कहते खेद होता है-किन्तु बात है सच-कि आजकल का अधिकांश हिन्दी साहित्य और आलोचना एक भ्रान्त धारणा पर आश्रित है; कि आत्म-घटित (आत्मानुभूति नहीं, क्योंकि अनुभूति बिना घटित के भी हो सकती है) का वर्णन ही बड़ी सफलता और सबसे बड़ी सच्चाई है। यह बात हिन्दी के कम लेखक समझते या मानते हैं कि कल्पना और अनुभूति-सामर्थ्य (sensibility) के सहारे दूसरे के घटित में प्रवेश कर सकना, और वैसा करते समय आत्म-घटित की पूर्व-धारणाओं और संस्कारों को स्थगित कर सकना- objective हो सकना-ही लेखक की शक्ति का प्रमाण है। इसके विपरीत लेखको में ऐसे अनेक मिल जाएँगे, जो ऐसी अनुभूति (मैं फिर कहता हूँ कि आत्म-घटित ही आत्मानुभूति नहीं होता, पर-घटित भी आत्मानुभूत हो सकता है, यदि हममें सामर्थ्य है कि हम उसके प्रति खुले रह सकें) को परकीय, सेकण्ड-हैण्ड, अतएव घटिया और असत्य कहेंगे। ऐसे व्यक्तियों के लिए टी.एस. इलियट की उस उक्ति का कोई अर्थ नहीं होगा, जो वास्तव में इसका एकमात्र उत्तर है : There is always a separation between the man who suffers and the artist who creates; and the greater the artist the greater the separation."

    बाक़ी आपने इतना गहरा विश्लेषण किया , आभार है :-).

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  12. यह सच है
    कि एक अच्छी कविता से गुजरने के बाद...देर तक चुप रहने के सिवा कोई चारा नहीं है...

    'प्रेम पर फुटकर नोट्स' पढ़कर ...तुरंत कुछ कहा भी नहीं जा सकता है...

    कविता ख़ामोशी का वह लम्हा माँगती है...जिसमें कई आत्माओं की आवाज़ें एक साथ गूँजती हैं ...

    लवलीजी की इस कविता के लिए क्या कहूँ...

    कभी-कभी कुछ नहीं कहना भी
    बहुत कुछ कहना होता है...

    अरूण दा...गलबहियाँ ...!

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  13. मैंने अभी सिर्फ पहली कविता पढ़ी है क्यूंकि एकसाथ इतना कुछ सहेजना मुश्किल है इसलिए रुक रुक पढ़ना होगा । इससे बेहतरीन कविता मैंने आज तक नहीं पढ़ी ।

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  14. प्रदीप सैनी6 अग॰ 2016, 11:04:00 am

    शब्द नहीं हैं अरुण जी । बस इतना ही कहूँगा कि काश ये मैंने लिखा होता तो धन्य हो गया होता ।

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  15. जैसे मेरे मन के भावों को शब्द दे दिए हों ..........प्रेम को शब्दबद्ध करना आसान नहीं ........... वह समुद्र का ही छूटा हुआ एक हिस्सा है
    जो वापिस समुद्र तक नहीं जा सकता
    मैंने जाना कि प्रेम में ज्वार के बाद
    दुखों और अलगाव का मौसम आना तय होता है
    कितना सटीक अवलोकन ........

    एकांत में जलने के दृश्य
    भव्य और मार्मिक होते हैं
    गहन अँधेरे में बुर्ज़ तक जल रहे
    अडिग खड़े किले की आग से
    अधिक अवसादी जंगलों का
    दावानल भी नहीं होता.
    एक एक शब्द सत्य का आईना ...

    जब से हम - तुम अर्थों में साँस लेने लगे
    सुन्दर शब्द आत्मा खोकर मरघटों में जा बैठे थे

    सच ही तो है ये ...........जिसने प्रेम को जीया हो वो ही ये लिख सकता है और वो ही इसकी आत्मा को महसूस कर सकता है .......मानो किसी ने मुझे ही व्यक्त कर दिया हो ..........आभार

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  16. प्रेम पर लिखी जा रही बेहतर कविताओं में अग्रणी कविता।लवली जी बढ़ैऔर ऐसेभी लिखती रहे मंगलकामना।अरुणजी का आभार ।

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  17. आप सब ने पढ़ा अपनी प्रतिक्रियाएँ दी , बहुत अच्छा लगा। शुक्रिया , सभी का हार्दिक आभार।

    - लवली गोस्वामी।

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  18. कविता स्वयं कवि का भोगा हुआ यथार्थ और अनुभव होती है या यह किसी अन्य के भोगे हुए अनुभव और यथार्थ की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति होती है, इस विषय पर निरंतर विमर्श होता रहता है। लेकिन इस विषय पर किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचकर, कविता को ऐसा या वैसा मान लेना उचित नहीं। कविता कभी स्वयं कवि के भोगे हुए अनुभव की सघन काव्यात्मक अभिव्यक्ति होती है तो कभी परपीड़ा, परजीवन के अनुभव और यथार्थ की संवेदनात्मक अभिव्यक्ति, और कभी दोनों की मिली-जुली काव्यात्मक अभिव्यक्ति। पर यह अभिव्यक्ति निजी अनुभव की अभिव्यक्ति होने के बावजूद भी खालिस निजी अभिव्यक्ति नहीं रह जाती। अर्थात व्यष्टिगत अनुभव सृजनात्मकता से गुजरकर समष्टिगत अनुभव बन जाता है।
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    जहाँ एक ओर, T. S. Eliot की Theory of Impersonality (निर्वैयक्तिकता का सिद्धांत) [ Eliot's essay: Tradition And Individual Talent)] कवि के लिए है, वहीं Eliot का ही Theory of Objective-correlative कवि के साथ साथ पाठक पर भी लागू होता है क्योंकि पाठक कविता में अपना भी Objective-correlative तलाशने की सहज कोशिश करते हैं। कविता में कवि को तलाशना और उसे ही कृति का सबसे निकटवर्ती और सबसे विश्वसनीय पात्र मानना एक अत्यंत सहज मानवीय और इसके साथ ही, एक अत्यंत सहज पाठकीय प्रवृत्ति है। यह कृति की उत्कृष्टता और सृजनात्मक सफलता का द्योतक भी होता है। कवि भवानी प्रसाद मिश्र जी ने भी कहा है कि कविता में कवि का मौजूद होना महत्वपूर्ण है। मैं भी इसे रचना की मौलिकता और नवीनता के लिए जरूरी मानता हूँ। पर रचना में कवि जीवन के सुख-दुख भोग रहे एक मनुष्य के रूप में इस तरह मौजूद हो कि उसकी अनुभूति, स्वानुभूति मात्र नहीं होकर, अन्य की भी और अन्तत: सार्वभौमिक होकर एक वृहत् समाज की अनुभूति और निजी अनुभव न होकर सार्वभौमिक अनुभव एवं यथार्थ में सृजनात्मक स्तर पर परिवर्तित हो जाती है। यही, बकौल Eliot, कवि का Individual Talent है और उनकी Theory of Impersonality का भी यही रचनात्मक आशय है। अर्थात to creatively impersonalise i.e. universalise the very personal emotions! इसी अर्थ में वे poetry को continuous alienation of (personal) emotions भी कहते हैं!
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    -राहुल राजेश,कोलकाता।

    जवाब देंहटाएं
  19. कविता या कोई भी कृति स्वकाया प्रवेश के साथ साथ परकाया प्रवेश भी है। पर यह अनिवार्यतः सिर्फ परकाया प्रवेश ही हो, कतई अनिवार्य नहीं। ठीक वैसे ही, यह अनिवार्यतः सिर्फ स्वकाया प्रवेश ही हो, अनिवार्य नहीं। कविता में स्वकाया प्रवेश और परकाया प्रवेश दोनों साथ साथ भी घटित होता है। जैसे कोई कलाकार किसी चरित्र की भूमिका निभाता है तो वह परकाया प्रवेश करता है। यहाँ यह अनिवार्य तो नहीं कि यदि वह किसी भिखारी, दस्यु, फौजी, वृद्ध का चरित्र निभा रहा है तो असल जिंदगी में भी उसका वही होना अनिवार्य हो। पर अपने अभिनय को प्रभावी और विश्वसनीय बनाने के लिए वह उस पात्र के असली जीवन को अधिकाधिक निकट से महसूसना, समझना और इस तरह अपने अभिनय में यथासंभव उतारना चाहेगा। इसके लिए वह अपने चरित्र के असली- जीवंत सादृश्य के साथ कुछ या अच्छा खासा समय भी बिताएगा ताकि वह पात्र के व्यवहार और प्रकृति की बारीकियों को बखूबी समझ सके और अभिनीत भी कर सके। इसे ही to enter into the skin of the character कहते हैं। जो जितना गंभीर और समर्पित कलाकार होगा, वह यह काम उतनी ही शिद्दत से करेगा!
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    कविता-कहानी में भी ठीक यह बात लागू होती है। स्वानुभूति में यह काम किंचित् सरल होता है पर जब हम किसी अन्य के सुख दुख की अनुभूति करते हैं तो यह निज वेदना या निज आनंद न होकर पर के प्रति सम्वेदना या दूसरे के सुख में सरीक होना होता है। यहाँ हम किसी की वास्तविक वेदना/सुख से नहीं गुजरते, इसलिए उसकी वेदना/सुख के "समान" वेदना/सुख "महसूस" करने की कोशिश करते हैं। इसलिए तो इसे "सम्वेदना" कहते हैं! किसी व्यक्ति के पिता की मृत्यु पर हम उससे सम्वेदना ही व्यक्त करते हैं क्योंकि पिता की मृत्यु की वास्तविक वेदना से वह गुजर रहा है, हम नहीं! ठीक ऐसे ही, जब कोई व्यक्ति किसी काम यथा परीक्षा में सफल होता है तो उसकी इस सफलता का सुख/आनंद वह स्वयं भोग रहा होता है। हम उस सफलता के सुख को नहीं भोग सकते। हम इस सफलता और सुख के साक्षी भर होते हैं और साक्षी होते हुए ही खुशी जाहिर करते हैं! पर इस काम में हम जितने ईमानदार होते हैं, हम भोक्ता के उतने ही निकट पहुँच जाते हैं! कविता में यह सम्वेदना जितनी ईमानदारी से व्यक्त होगी, कविता उतनी ही मार्मिक, प्रमाणिक होगी। साथ ही साथ, इस तरह सृजित कविता पाठक को स्वयं कवि का ही भोगा हुआ सुख दुख अधिकाधिक प्रतीत होगी!
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    जहाँ तक इन प्रेम कविताओं का प्रश्न है तो ये कविताएँ मुझे एक ही तरह के अनुभवों और अनुभूतियों का ही कई तरह से किया गया बिम्बात्मक,भाषिक और चमत्कारिक विस्तार और व्याख्याएँ अधिक प्रतीत हुईं, जिसमें प्रेम की विविध सघन अनुभूतियाँ सतत घनीभूत होने की बजाय विस्तार और व्याख्याओं में क्षीण ही हुई हैं! हाँ, इनकी पिछली बार की कविताओं में बीच बीच में अलग से प्रस्तावना स्वरूप कही गई पंक्तियाँ मुझे कहीं अधिक असरदार और सघन महसूस हुई हैं !!!

    - राहुल राजेश,
    कोलकाता।

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  20. बहुत सुन्दर कविताएं। सहज एवं मन में गुंजायमेन। बधाई। - प्रदीप मिश्र

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  21. बहुत ही सुन्दर कविता.....सहेजने योग्य|कि सिरहाने रख दी जाय जब तब उठा कर पढ़ने के लिए|
    बहुत बहुत बधाई लवली...
    शुक्रिया अरुण जी
    अनुलता

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  22. कविता पर तो कुछ न कह पाया मैं
    पढ़ने के पश्चात इतनी ताब न बची
    ब्लॉग जगत से छूटने के बाद आपको पढ़ा ही नहीं
    अब सोचता हूँ ,क्यों न पढ़ा !!कितने ही मित्रों को भूल गया.....उफ़्फ़.... सो सॉरी आय एम.... भुला मित्र आज आया लौटकर..अब न जाऊँगा....!!

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  23. जर्जर रोया मैं जिसे पढ़कर
    एक आँसू तक न गिरा
    बस पलकों के पोर से
    बून्द-बून्द रिसता ही रहा
    अश्रू था कि पानी या कुछ और
    जितना रिसा मैं बाहर-बाहर
    उससे अनन्त गुना रिसा मैं
    अपने ही कहीं बहुत भीतर
    रूह की गह्वर कन्दराओं से
    मन की दुरूह चट्टानों तक
    मति की सीमितताओं से
    अ-मति की अपरिमितताओं तक
    इक असीम आसमां जैसे
    ससीम हो मुझमें समा जाने को व्याकुल
    मैं हर्फ़-हर्फ़ गुनता-बुनता
    अर्थों के दायरों के बाहर
    सब अर्थों को समेटता-मिटाता
    खुद ही खुद में व्याकुल होता
    इक पसीजती हुई कविता के
    पिघलते हुए लफ़्ज़ों को पकड़ता
    बहता-बहता-बहता फिसलता-गिरता
    डूबता-उतराता,लहराता-गहराता
    सिमटता-बिखरता और हर अहसास में
    खुद को गढ़ता,खुद से लिपटता
    खुद को प्यार करता हुआ
    मैं प्रेम-सा हुआ जा रहा था
    शब्दों की न जाने किन गुफाओं से होकर
    चला आ रहा था मैं
    लफ्ज़ के मानी,प्रेम के मानी
    मानीखेज़ से कुछ अहसासात के मानी
    सुलझती हुई कुछ लटों को और भी
    बिखरा देते हैं जैसे
    धूप में सुस्ताने के लिए
    खुले हुए अर्थों को लपेटकर
    किसी रुई के फाहों में
    किसी शिशु सा गोद में लेकर
    बैठा हूँ मैं अब चकित सा
    बावला सा,खुद से बतियाता हुआ
    खुद ही शिशु-सा हो
    खुली आँखों से कुछ स्वप्न देखता हुआ
    फिर बन्द आँखों में
    उन स्वप्नों पर हँसता हुआ
    मरुथल से समन्दर तक
    वन-प्रांतर से मैदानों तक
    यायावर सा फिरता हुआ
    निर्लिप्त सा लिप्त होकर
    प्रेम को ढूंढता हुआ
    अपने प्रेम कसमसाता हुआ
    हरेक लफ्ज़ का पोर-पोर
    खोलकर देखता हूँ मैं
    रोता हुआ-हँसता हुआ
    पंछियों सा उड़ता हुआ
    मछलियों सा तिरता हुआ
    मैं कि इक लफ्ज़ हूँ
    मैं कि इक देह हूँ
    मैं कि इक अहसास हूँ
    मैं कि इक दर्द हूँ
    मैं कि इक नग्मा हूँ
    या फिर प्रेम का नगमाख्वां हूँ मैं
    खार हूँ-फूल हूँ-शाख हूँ-पत्ता हूँ मैं
    प्रेम से लबरेज़ हूँ
    प्रेम की हवा हूँ मैं
    प्रेम उपजता हैं मुझमें और
    मुझमें ही हो रहा विलीन
    मुझमें सच बताऊँ तुम्हें
    कुछ भी नहीं है विलीन
    तेरे हर अहसास से सराबोर हो
    मचल रहा हूँ,कुछ गुन रहा हूँ मैं
    बस थोड़ा और इंतज़ार देख तू मेरा
    बस कुछ ही क्षणों में
    इक पूरा प्रेम हो रहा हूँ मैं !!


    ब्लॉग जगत की अपनी एक पुरानी मित्र लवली गोस्वामी को बहुत सालों बाद एक बारगी पढ़ कर.....अभिभूत होकर....जीकर-मरकर-पढ़ते हुए ज्वर से पीड़ित होकर....और न जाने कहाँ-कहाँ से आ-जाकर.......
    राजीव थेपड़ा
    24 अगस्त 2016
    रात 10 बजे
    आभार लवली गोस्वामी
    एक ख़ास अबूझ जगह तक मुझे ले जाने के लिए......सच बताऊँ तो अब भी रो रहा हूँ मैं !!

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  24. लवली की कविताएं प्रेम की असलियत से पहचान कराती हैं ! बिलकुल राेमानियत से परे !

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