सहजि सहजि गुन रमैं : मनोज कुमार झा (६ कविताएँ)

पेंटिग : LAXMA GOUD


मनोज कुमार झा हिंदी कविता में न परिचय के मोहताज हैं न किसी प्रस्तावना के.
उनकी कविता की अपनी जमीन है जिसे उन्होंने मशक्कत से तैयार किया है.
किसी तात्कालिक उपभोक्तावाद में उनकी कविताएँ नष्ट नहीं होतीं.
सरलीकरण के मानसिक आलस्य से  बाहर निकलकर वे  खुद काव्यास्वाद के लिए चुनौती पेश करती हैं.
उनकी ६ कविताएँ आपके लिए.


मनोज कुमार झा की कविताएँ                                 







पदचाप

सीटी की आवाज
बिजली के पोल पर ठकठक
चिड़िया फड़फड़ाई
पीछे से उठा ट्रेन का घड़घड़
सब कुछ तो सुनाई पड़ रहा
पर रात के दो बजे जो कर रहा मुहल्ले की रखवाली
क्यों छुप गयी है उसके पैरों की आवाज.




नहीं बची करूणा

जय जय करते धरम की
इतनी जोर से कि रोने लगे दूध पीता बच्चा
मगर पूरे टोले में नहीं एक को भी साध
रामचरित के पारायण की
दसकोसी में नहीं कोई जिसकी आँखों
में बचा हो राम कथा का करूण जल.

कहते हैं योगानंद वैदिक को सब था याद
उनके शरीर में अक्षरों का विष था
पर जब करते रामायण का पारायण तो बन जाते गाय
मगर कोई नहीं बचा पाया उसको
कमौआ बेटा ने कुछ कहा अंग्रेजी में
जैसे किसी ने ताड़ पर चढ़ा कर नीचे कुल्हाड़ी
मार दी हो
वो सूखते गए जैसे सूख जाती गाय की छीमियाँ

और एक दिन पढ़ते पढ़ते अरण्य कांड
लुढ़क गए चैकी से
पंच आए घर के सामान बाँटने
गूँगे अक्षर-वंचित बेटे ने ताका रामचरित मानस को
और देखा उलट पलट कर
देखता रहा उस चित्र को
जिसमें राम के बगल में खड़ी हैं सीता
नीचे प्रांजल संस्कृत बोलने वाले कपीश
फिर तो कोई बचा ही नहीं राम की करूणा का सुमरैया

वो तो अपने नहीं लगते जो बचा रहे धरम.




कदाचित आमंत्रण

आस पास कहीं पानी का प्रदेश नहीं है
लेकिन इस कुहासों वाली रात में
ज्यों माथों पर जल का छींटा पड़ता है बार बार
लगता है कोई नाव चला रहा है.

बार बार खोलता हूँ किबाड़
बार बार खिड़की का पल्ला
कोई नाव चला रहा है
जैसे कोई नाव चला रहा है.

नहीं दिख रहा हरसिंगार का पेड़
नहीं दिख रहा गेंदा जिसे सुबह में छूआ था
इन अँधियालों में मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चल रहा है !

ऐसी ही रात थी
ऐसा ही गफ्फ कुहासा
रात नहीं जल पाई लाश हजारों लोगों के उस गाँव में
पोखर के किनारे मसान में छोड़ी गई लाश पुलिस के डर से
अंधेरा चढ़ते ही खाया था जहर
माँ बैठी रही भगाते सियार कुकुर
दो दिन चार दिन दिन में भी कुहासा
फिर शादी ब्याह ढ़ोल तमाशा
अंतिम तस्वीर उसी पोखर की करीब चार साल पहले के
वो तैरने में माहिर, मैं नवसिखुआ कमजोर.

ओह, यह नाव कौन चला रहा है
कुहासा रात को और कितना घेरेगा,
रजाई क्यों लग रही इतनी भारी लगती ज्यों पानी में
कुत्ते भी भौंककर थक गए, कुहासा जम रहा सीने में
तू ही कुछ कह ओ मेरी नींद कि
मुझे क्यों लग रहा कोई नाव चला रहा है.




खिलौना भी डराता है

अभी अभी सोया है वह बच्चा
पाँच मिनट पहले तक वह मजदूर था
अभी उतरी है चेहरे पर बाल्य की आभा
कि तभी मालिक हुड़कता है
कि धोया नहीं तीन जूठे ग्लास
आँखें मलते हुआ वह मजदूर पुनः
और फिर सो गया थकान लपेटकर
भूख की किरचें गड़ती हैं ऐंठी हुई नींद में जगह जगह

हरी घास देखता है अधनींद में
सोचता है कि बेहतर था घोड़ा होना
कि तभी दिखा एक खिलौना जैसे-रंगों का गुच्छा
हुलसा कि तभी काँपा हिया कि खिलौने में मालिक का हाथ तो नहीं.


  

विवश

अब मैं तुझे क्या दूँ
क्या छोड़ जाऊँ तेरे साथ
मेरे पास कुछ किताबें थीं जैसे आइनों का गुच्छा
एक एक अक्षर शीशा था
वो सारे कहीं लुप्त हो गए
मैंने तो अपनी नीम-बेहोशी में अक्षरों को किताबों से छूटते देखा
कई बार तो कई पन्ने देखे बहुत दूर
कटी पतंग सी हवा में फरफराते
कोई साथ ही नहीं देता मेरी किताबों की दुगर्ति
का निगेटिव फोटो बनाने में
मैं एक सिरा सौंप सकता हूँ तुमको इस बेरौनक कथा का

कई संहतिया थे मेरे जो पोखर किनारे के पेड़ थे
तीन-चार तो तीस के भीतर ही रह गए
कई पचास से पहले
जैसे लहलहाते खेत को पाला मार गया
उजड़ गई बाँसों की बाड़ी
अब जो बचे हैं उसे दोस्त सँभलकर कहना पड़ता है
बड़े हुनरमंद थे सारे
पर सारे मशीन हो गए
दुनिया की नकल की मशीन
वो मशीन जो कुछ जोड़ती नहीं दुनिया में
अकाल मरे जो दोस्त
दोस्त जो हुए मशीन कुकाल
मैं इनकी कथाएं सुनाता
पर जाजिम फट गई है जहाँ तहाँ
जैसे पेड़ पर खड़े भुट्टे से ही किसी ने चुन लिया दाना
कुछ भी नहीं मेरा हासिल
धवल संघर्ष नहीं कोई
इन टेढ़ी उँगलियों बाले हाथों से कैसे सहलाउँ माथा, दूँ आशीष
पाँकी नदियों से घिरी मेरी रातें
सूखे पेड़ों के वन में गुजरे मेरे दिन
मैं तुझे खाने को कहता साथ-साथ
मगर चले जाओ बहुत सुन्दर बनाती है तेरी माँ बथुआ का साग
मुझे भी कल यहाँ से निकल जाना है.



उद्गम

कितने अधिक रंग हो गए इस दुनिया में
और कितने कम उसको थामने के धागे
अपने शरीर के रंग में मिलावट करती हैं तितलियाँ
और गुजारिश करता है अपने रंगों को
बचाने को व्याकुल थिर फूल
कि सखि रंग के भरम में मत डूबो
चलो मिलते हैं अपने पुराने गुइयों पानी से कि
करोड़ों बरसातों में पा-पाकर अमित प्रवाह
लाखों प्रदेशों में पा-पाकर बहुवर्णी निवास

कैसे बचा है अबतक अपने पुराने रंग में.
___________________ 



मनोज कुमार झा

जन्म ०७/ ९/ १९७६  बिहार के दरभंगा जिले के शंकरपुर-माँऊबेहट गाँव में
शिक्षा - विज्ञान में स्नातकोत्तर
विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित
चाम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक इत्यादि बौद्धिकों के लेखों का अनुवाद प्रकाशित
एजाज अहमद की किताब रिफ्लेक्शन आन आवर टाइम्स का हिन्दी अनुवाद प्रकाशित.
सराय / सी. एस. डी. एस. के लिए विक्षिप्तों की दिखन पर शोध. संवेद से कविताओं की प्रथम पुस्तिका ‘‘हम तक विचार’’ प्रकाशित. कविता संग्रह ‘‘तथापि जीवन’’ प्रकाशित.
2008 का भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित. 2015 का भारतीय भाषा परिषद के युवा सम्मान से सम्मानित.
सम्पर्क
मार्फत- श्री सुरेश मिश्र
दिवानी तकिया, कटहलवाड़ी, दरभंगा - 846004
मो- 099734-10548

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  1. आपने जब परिचय में लिखा कि मनोज कुमार झा हिंदी कविता में ना परिचय के मोहताज हैं ना प्रस्तावना के, तो ख़ुद से एक बार फिर वही सवाल किया, कितना कम पढ़ पाते हैं हम ?अरुण जी, मैं जब भी समालोचन पर आती हूँ कुछ नया ले कर ही लौटती हूँ। सच में मनोज झा जी की कविताओं में शिल्प-सौंदर्य-कथ्य की सुंदर लय है। कविता की भाषा का विन्यास सरल नहीं है लेकिन उसके स्मृति कोष में वह तार है जो उसे सहजता से गूँथता जाता है। स्मृतियाँ, स्वप्न, शेष अक्षर और रंग ढूँढती उनकी नज़र काव्यात्मक है। अक्षरों का विष भीतर तक छोड़ जाने वाला शिल्प है।

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  2. सुशील सुमन27 अग॰ 2016, 9:16:00 am

    "वो तो अपने नहीं लगते जो बचा रहे धरम."

    मनोज कुमार झा हमारे समय के बेहद विशिष्ट कवि हैं। करुणा उनकी कविताओं का मूल स्वर है।उनकी कविताओं के भीतर प्रवेश करने के लिए पाठक को हमेशा कुछ श्रम करना पड़ता है।
    Manoj Kumar Jha को बधाई इन कविताओं के लिए। और Arun Dev जी को धन्यवाद।
    समालोचन के साथ मेरे पाठक का रिश्ता लगातार मजबूत होता जा रहा है।

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  3. मनोज जी की कविताएँ अनजाने अनदेखे अरण्यों में प्रवेश कराती हैं. अनुभूति की सांद्रता मन को भिगो देती है. बहुत झकझोरती हैं ये कविताएँ. 'वो तो अपने नहीं लगते जो बचा रहे धरम', 'रंग के भरम में मत डूबो', 'दोस्त जो हुए मशीन कुकाल' समय पर बेबाक टिप्पणीयाँ हैं. शुक्रिया अरुण जी इन कविताओं से रूबरू कराने के लिए.

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  4. आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" रविवार 28 अगस्त 2016 को लिंक की जाएगी .... http://halchalwith5links.blogspot.in पर आप भी आइएगा ....धन्यवाद!

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  5. मनोज झा की कवितायेँ पढ़ते हुए आप अधिक मनुष्य हो जाते हैं । ये रघुवीर सहाय के बाद की कवितायेँ हैं, जिसमें जीवन द्रव्य की प्रचुरता है । इन कविताओं में मौजूद करुणा हमारे चिर परिचित संसार को अधिक सांद्र बनाती हैं । दुनिया के प्रति आप अधिक परिपक्वता से सोचते लगते हैं ।ये कविताओं की तरह नहीं दृश्यों की तरह हमारे मानस पर अंकित हो जाती हैं । इन कविताओं को पढ़ते हुये मुझे अक्सर लगता है कविता मात्र ध्वनि में या शब्द में ही नहीं दृश्यों में भी अभिव्यक्त होती है । इस जीवन दृश्य को रचने का हुनर ही इस कवि को अपने समकालीनों से अलगता है ।

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  6. मनोज देशज सुगंध के कवि है।कई मायनो में वे जनकवि सरीखे हैं।उनकी कविताओं में जो तरलता दिखती है,खासकर ग्राम्यता के आवरण में ,वह हिंदी कविता के इन दो दशकों की एकलौती उपलब्धि है। आज की मौजूदा आलोचकीय निर्वात में भी मनोज जी की कवितायें सन्नाटे के छंद को रचने में सक्षम हैं।

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  7. बहुत खूब -'किसी तात्कालिक उपभोक्तावाद में उनकी कविताएँ नष्ट नहीं होती'

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  8. आपाधापी और हो हल्ला से दूर गहन मौन को गुनती रचती समय की नब्ज पढ़ती मनोज भाई जी की अच्छी कविताएँ पढवाने के लिए अरुण जी का बहुत शुक्रिया

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  9. अमिताभ बच्चन28 अग॰ 2016, 7:36:00 am

    जिसे आपने भी जिया हो उसे कोई और शब्द दे तो कितनी खुशी, कितना सुकून मिलता है.

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  10. कमाल के कवि, मेरे प्रिय कवि, मनोज को बधाई। हर बार की तरह कमाल की कवितायें।

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  11. "कितने अधिक रंग हो गए इस दुनिया में
    और कितने कम उसको थामने के धागे"
    मनोज अपना मुहावरा गढ़ने में सक्षम हैं। उनकी कविता, कविता के प्रति अनुराग उत्पन्न करती है। बधाई, अरुण आपको भी।

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  12. Sabhi kavitayen bahut pasnd aayi...Hindi ki duniya mein abhi Itna hi kahne ki kshmta arjit kar paya hun . Salaam!! Samalochan ka Shukriya !!
    - Kamal Jeet Choudhary.

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  13. बहुत सुंदर कविताएँ। इनकी कविताएँ समझने के पुनर्पाठ का सहारा लेना होता है। लेकिन एक बार गहरे उतरने के बाद डूबने के अलावा कोई उपाय नहीं बचता।

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