सहजि सहजि गुन रमैं : अम्बर रंजना पाण्डेय










जबकि समय जटिलतर होता जा रहा है, कलाओं से हम उनके एकआयामी होने की जिद्द ठान बैठे हैं. बस एकबार में ही अनावृत्त होकर किसी क्षणिक उत्तेजना में लुप्त हो जाए, कविता में गहरे बैठने का न धीरज बचा है न उसके मन्तव्य के अनुसन्धान का बौद्धिक उपक्रम दीखता है. उसे किसी फौरी उद्देश्य के लिए बस तैयार किया जा रहा हो जैसे. शेष कार्य लपलपाती कुंठा से भरी (कु)भाषा पूरा कर देती है. 

ऐसे सतत उत्तेजना से भरे इस समय में अम्बर रंजना पाण्डेय की कविताओं को प्रस्तुत करना जोखिम लेना है.
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"दर्शन शास्त्र में स्नातक अम्बर रंजना पाण्डेय ने सिनेमा से सम्बंधित अध्ययन पुणे, मुंबई और न्यूयॉर्क में किया है. संस्कृत, उर्दू, अंग्रेजी और गुजराती भाषा के जानकार अम्बर ने इन सभी भाषाओं में कवितायें और कहानियाँ लिखी हैं. इसके अलावा इन्होने फिल्मों के सभी पक्षों में गंभीर काम किया है. इकतीस दिसंबर 1983 को जन्म. अतिथि शिक्षक के रूप में देश के कई प्रतिष्ठित विश्वविद्यालयों में अध्यापन कर चुके अम्बर इंदौर में रहते हैं. 

अम्बर की कवितायें शास्त्रीयता और आधुनिकता का अद्भुत संतुलन प्रस्तुत करती हैं. इनमें संस्कृत के कवियों की परम्पराएं और छंदों की छायाएं भी मिलेंगी और समकालीन जीवन की धड़कन भी सुनाई देगी. अम्बर की कवितायें कविता के समकालीन परिदृश्य में अपनी सायास भिन्नता से न सिर्फ एक बहस आमंत्रित करती है वरन सौन्दर्य और लोकजीवन को नए ढंग से देखने का प्रस्ताव भी करती हैं. यहाँ प्रस्तुत कवितायें मध्यप्रदेश के वृक्षों पर सौ कवितायें लिखने की योजना का हिस्सा हैं. इससे पहले भी इस श्रृंखला की कई कवितायें वेब पर प्रकाशित हो चुकी हैं. वृक्षों पर कवितायें लिखने का विचार ही अपने आप में इतना अनूठा है कि इन कविताओं के हार्दिक पाठ को आमंत्रित करता है."
                 :  महेश वर्मा




अम्बर रंजना पाण्डेय की पाँच कवितायें    
(श्री प्रियंकर पालीवाल जी के लिये) 





पेंटिग : Jivan Lee




मुचकुंद

वन-विभाग के डाक-बंगले में कोई
लम्पट अफसर लगा गया था मुचकुंद के
चार-छह वृक्ष कि पत्तों को डास जागेगा
रात-रात भर इसके नीचे किसी
एनजीओ वाली स्त्री के संग किन्तु फेल
था अफसर स्नातक में. वनस्पति-विज्ञान में
शून्य मिला था, रूपया खिलाकर पास हुआ था.
उसे पता नहीं था बरसों डहकता है मुचकुंद
तब नक्षत्रों से इसके नवपर्ण टकराते हैं.

कहाँ कवि बनना चाहता था
कहाँ वन-विभाग में चाकरी करनी पड़ी.

ब्रह्मराक्षस भी सो जाते हैं. चंद्र अस्त
हो जाता तब ऊपर ऊपर जहाँ तक आँख
नहीं जाती, खुलते है मुचकुंद के कुसुम.
चमगादड़ों से पूरा वृक्ष भर उठता  है

सुगंध की पूछते हो तो ऐसी तुम्हें
उस स्त्री के तलवे पर भी नहीं मिलेगी-
जिसके पीछे तुम पागल थे और नाप डाली
थी आधी पृथ्वी साढ़े-तीन समुद्र जिसके लिए.
यह उसे ही प्राप्य है जो अंधकार को
पढ़ता है किसी कविता की तरह,
जो अंधकार को बो लेता है
मन में सीताफल के बीज की तरह.

मुचकुंद पर कविता लिखना हो तो
बैतूल के वनों में जाना तुम-
जहाँ भवानीप्रसाद मिश्र गए थे.



महुआ

मधु किन्तु मृषा मृषा कहकर मामी को बेच
गया माली महुए का बालक-तरु बता कर
बहेड़े का है. मेधावी विद्यार्थी वन-
विज्ञान का; किराये से रहता था पीछे,
आता बार बार बताता कि बहेड़ा नहीं-
गुड़ का फूल लगेगा इसपर, कौन मानता!
एक दिन जो आधा फाल्गुन में था, आधा
बैसाख में, देखा मेघमंडल तक आने
को है मधूक. दल सब छोड़ दिए, गुड़पुष्पों
के गुच्छ के गुच्छ गुंथे पड़े है गहगह. ऐसे
गहगड्ड मुकुलों के तिमिर में चौंकी मामी
का मन भी गहक गया. तो क्या जो महुआ यों
देहात में जहाँ तहाँ फूलता है कि इसे
नहीं देखभाल दरकार. देखो तो सूरज
से पूर्व छोड़ देता है आचमन के जल
ज्यों अपनी सब की सब श्री. वानर, मृग, सियार
बिलौटी- दूर फूलों को भखने को कैसे
मन मचलता- वन में, डगाल पर, अहेर-काल.
ताड़ी की बात नहीं करता लोग समझते
कवि बेवड़ा है. झाड़-फूलों का चिंतक हूँ.




अश्वत्थ

देखो, छबीला कैसे छाज रहा. गोपाल
मंदिर के शृंग से थोड़ा नीचे, कंधे
पर छाया और कीर्ति में जिसकी छवि दीप्त
हो रही- छिन्नाधार फिर भी फूल रहा है.
आषाढ़ के तड़ित्वानों को पी पी. मंदिर
के बाएँ जो भग्न भाग है वहीं से काक
खा कर उड़ा होगा शलाटु, विष्ठा गिराता
हुआ; गोपाल जी के दृगों के ठीक आगे-
उनके नाट्य-मंडप के ऊपर. पंडित जी
चुप रहते है. पुरातत्व विभाग के अफ़सर
भी अश्वत्थ उखाड़ते भय खाते है. तने
से यज्ञ का चमचा बना लेंगे पुरोहित
जी. छाल उबालकर बहू को पिला देंगे,
जिसकी हिचकियाँ दो दिवस से सतत चल रही
है. बेटा गया परदेश, नौकरी लगी है.

अश्वत्थ बढ़ेगा और एक रात्रि सम्भवत:
भादों में- मंदिर का यह भाग गिर पड़ेगा.
मरम्मत के अभाव में व बजट न पास किए
जाने के कारण. काठ सड़ने से गिर गया
देवालय; आते जाते पत्रकार गण कहेंगे, तब.
पीपल को दोष न लगायेंगे. छतनारा
बढ़ा करेगा. जरा पौन चलने पर ध्वनि करेगा.



जामुन का वृक्ष

जिह्वा जामुनों को खाकर नीली पड़ी थी.
तम के रस से कंठ भरा था. कसैले अधर.
जम्बूवृक्ष के प्रगाढ़ अन्धकाराच्छ्न्न
दाव में अनंत भूमा की व्रज्या से थके
भूतनाथ पाड़े ने अनुराधा का चुम्बन
लिया था जब, तब हठयोगियों की चर्या को
पकड़ लिया था मूर्च्छा ने, पकड़ लिया था
निद्रा ने. पहले तर्जनी चिबुक पर छुवाई
थी. पुतलियों पर पुतलियाँ धर देर तक स्थिर
खड़े रहें. भूतनाथ की आँखों की चौखट
में बिम्ब फंसा था कविता होने को आकुल
जैसे पिंजरे में बंद दाड़िम चुगता शुक
हो उड़ने उड़ने को. दांतों से दांत बजा,
जो भूतनाथ मुस्कुराया, अनुराधा पीठ
दे खड़ी हुई परन्तु मन तो मथा जा चुका
था. जीभ भी जामुनों से कसी जा चुकी थी.
कुटरुओं की कुटर्रू कुटर्रू से धरण सब
भरी थी जानो तुमुल का घड़ा हो. दोपहर
जामुन सी तिमिरमय, ठंडी जी को लगी थी.




बिल्ब-वृक्ष

ठाढ़ेश्वरी बाबा जैसा
ठूँठ. शंखचूड़ जड़ में पड़ा
रहता. बैशाख की दोपहर
मैंने देखा शतधा, जीवन
का लक्षण न था. विरुढ़ अर्थ
जैसा वह रूखा सूखा था.
किन्तु ज्येष्ठ के प्रथम दिवस
फाल्गुन पूर्णिमा का चन्द्र
भरी दोपहर दिखाई पड़ा.
भौंचक रह गयी पुतलियाँ, भ्रम
भरकर दृग जब देखता रहा
तब टूटा. बिल्ब के बड़े बड़े
फलों से वृक्ष भरा हुआ था.
उग आये पर्ण इच्छाओं
से कोष कोष से. हरी हरी
डंठलों से जुड़े तीन तीन
पात. पंडितगण के खिल गए
मन. गंधों का ऐसा उत्सव
मचा हुआ था कि फूल फूला
सबसे अंत में. इन्द्रियां सब
संतुष्ट हुई. बिल्बवृक्ष के
आँखभर ऐसे दर्शन हुए.

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  1. बहुत शुक्रिया आपका और महेश का कि पहली दफ़ा इस कवि का व्यवस्थित परिचय मिला. बहुत सुन्दर कविताएँ. अनूठी काव्य-योजना. उम्मीद है कि यह पूरी होगी और कवि के नाना उद्यमों की तरह कहीं अधूरी न छोड़ दी जाएगी.

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  2. सिवाय अल्प विराम व् विराम की पठनीय असहजता के बहुत अच्छी कवितायें

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  3. इन कवि की हर कविता जो पोस्ट हुई पढ़ी है। आश्वस्त हूँ कि विलक्षण प्रतिभावान हैं। विरल शब्दों का आग्रह दिखता है, कह नहीं सकता कितना आवश्यक या वांछनीय है।

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  4. कविताएँ पढ़ीं अभी। कविता की लय और इसकी शास्त्रीयता मेरे गँवारू मन के प्रतिकूल थी, फिर भी तैरने की कोशिश की। मेरे आसपास की वनस्पति में जो सबसे पहचाना वृक्ष रहा, वह नीम है। खेजड़ी, बरगद, पीपल, कैर मेरे बचपन के रास्तों में बिखरे पड़े हैं। इधर इस बुढ़ापे में मेरे आसपास अमलतास, यूकेलिप्टस, पॉपलर अनजान से खड़े हैं।
    किसी भी नेटिव थॉट तक पहुँचने के लिए स्मृति से अधिक, manufactured प्रक्रिया से गुज़रना पड़ता है।
    ये कविताएँ मुझे स्मृति तक ले जाती हैं। जबरन यह ताला खोलती हूँ और एसोसिएशनस के उस सिरे तक पहुँचती हूँ जहाँ तमाम सिंक्रोनिक स्ट्रक्टर्स अब भी बचे तो हैं। mnemotechnic अनुभव रहा।
    महेश जी ने बढ़िया लिखा।

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  5. वृक्षों पर कविता रचने (लिखने नहीं) की योजना सुंदर है। इसी बहाने कविता एकबार फिर प्रकृति की ओर लौटेगी। शायद! ये पांचों कविताएं हमें एक बार फिर इन वृक्षों को याद करने, गौर से देखने-महसूसने को उकसाती हैं। "जामुन का वृक्ष" कविता सबसे प्यारी लगी मुझे। पांचों कविताएं एक ही ढब में रची गई हैं। कवि से उम्मीद है की उनकी कविताओं में "सतपुड़ा के जंगल" सी सघनता और गहनता भी आती जाए।
    बधाई और शुभकामनायें।

    -राहुल राजेश, कोलकाता।

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  6. प्रदीप सैनी11 अग॰ 2016, 10:40:00 am

    ये कविताएं आपको एक अलग सुख से भर देती हैं । अम्बर अनूठे कवि हैं और वृक्षों पर कविताएं तो उनसे भी अनूठी । भले ही यहाँ कला ज्यादा है लेकिन अखरती नहीं और जामुन की तरह पाठक को अपने रंग में रंग लेती है और स्वाद बहुत देर बना रहता है । कवि को बधाई ।

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  7. मुचकुंद का स्वभाव और प्रकृति बताने के लिए जो कथानक रचा, वह अपने टैक्सचर में बहुत समृद्ध है. कोई भी युग ठीक उसी तरह दोबारा नहीं आता, उस में बस पुराने कुछेक लक्ष्ण आते हैं जो सनातन रूप से हमारे ऐन्द्रयिक या सामाजिक अनुभव है जो सदा सदा नए रहते हैं हालाँकि उन्हें कुंद करने के लिए आजकल भयंकर प्रयास हो रहे हैं. कवि ने उस ऐन्द्रियक अनुभवों को बहुत अच्छा जगाया है. आज की 'प्रकृति कविता' युगों से चली आ रही प्रकृति कविता का सत्व लेकर भी 'नियो' और 'पोस्ट' का प्रिफिक्स लेकर आएगी. इस में वन-अफसर की लम्पटता, वनस्पति विज्ञान पढ़ रखे हुए की पेड़ों से बेगानियत भी आएगी. एनजीओ वाली स्त्री इम्पीचमैंट से परे तो नहीं है पर जाने फिर भी यहाँ उसका इस संदर्भ में लाने में थोड़ी पीड़ा हुई.

    अच्छी बात यह है कि कविता में 'माहौल' जो बनाया है सैन्सिज़ का जो आह्वान किया है, वह मात्र पेड़ों के साथ इन्फैचुएशन से नहीं बनाया जा सकता, इसके लिए पेड़ को बहुत समझना जानना और छूना होता है. मेरे प्रिय जिबिग्न्यु हरबर्ट की कविता 'हृदय' पढ़ें तो लगता है कि सिर्फ मनुष्य के अंदरूनी अंग ही गंजे और चिकने नहीं होते कि उन्हें समझने के लिए प्रेमी को प्रेमिका के हृदय के केशों में फंसे 'परजीवी' हटाने के बहुत गहराई से प्रेम करना पड़े, यह सजगता सूक्ष्मता और कोमलता पेड़-प्रणय के लिए भी ज़रुरी है वरना मुचकुंद नहीं बताता उसके नवपर्ण नक्षत्रों से कब टकराते हैं.

    कीट्स की याद आनी यहाँ 'धर्म' है.

    यह टिप्पणी केवल 'मुचकुंद' के लिए है. अपने इतने प्रिय विषय ( कह सकते हैं जान से प्यारे विषय) पर पढ़ी चार-पांच कवितायों में एक ही दिन में टिप्पणी लिख पाना असंभव है.

    मोनिका कुमार

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  8. एकदम अनूठी कवितायेँ।
    बहुत बधाई।

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  9. अलग ही आनंद से भर दिया इन कविताओं ने। वाह।।

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  10. क्या पंचतन्त्र जानवरों के बारे में है ? नही यह मनुष्यों के बारे में है .पशु बस signifier हैं -beast of burden जो मानवीय अभिप्रायो के बोझ को ढोते हैं .पाण्डेय जी की कविताएँ पेड़ो के बारे में नहीं हैं .पेड़ बस बीस्ट ऑफ़ बर्डन हैं . प्रकृति को मुग्ध भाव से कवि वैसे देखता है जैसे consumer अपनी लकदक नई कार को देखता है .वह कुदरत का मालिक है .कुदरत उसे बेलोंग करती है वह कुदरत को बेलोंग नही करता .
    Eugenics feminism का दौर याद आता है . जब स्त्री की उपयोगिता को लेकर डिप्टी नाजिर हाली साहेब का नारीवाद जोर मारता था .वृक्ष की उपयोगिता सौदर्य की वस्तु के रूप में भी उतनी ही वस्तुवादी है जितनी लम्पट अवसर की उपयोग की वस्तु के रूप में मुचकुंद को देखना . फलस्वरूप कविता रोमांटिक युग की कविताओ की तरह कृत्रिम बन पड़ी हैं .सबसे कृत्रिम अश्वस्थ कविता है .लम्पट अफसर कोई और नही स्वयम कवि है . पेड़ पर कविता लिखने के लिए अंधकार को नही बल्कि प्रकाश को पढने आना चाहिए . दरसु उजाला की तरह पेड़ हो जाने की जरूरत है .बल्कि पेड़ पर कविता नही लिखी जाती.कविता हमेशा अपने बारे में होती है .
    पेड़ पर लिखते हुए जब मनुष्य संकेतक और पेड़ संकेतक होता है तब कविता बनती है

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  11. प्रकृति का प्रतिघात ?

    अम्बर रंजना पाण्डेय की कविता 'अश्वत्थ ' पर एक नोट


    कविता में कोई उलझाव नहीं है।सीधा वर्णन है। एक पुराना कृष्ण मंदिर। पुरातत्त्व वालों की देख रेख के बावजूद बाईं तरफ का हिस्सा एक जगह से टूटा है। उस टूटे हिस्से पर एक कौवे ने या और किसी पक्षी ने बीट की होगी और बीट में होगा पीपल के गोदे का अनपचा बीज जो दीवाल पर ही उग आया। इस समय वह इतना बड़ा हो चुका है कि मंदिर के शीर्ष तक पहुँच रहा है और मंदिर की पताका पर उसकी छाया पड़ती है। मंदिर के स्कंध देश के पार्श्व उसकी छाया से ढके हैं। बरसात का पानी पाकर वह और फैलेगा। बादल के लिए कवि ने तडित्वान शब्द का प्रयेग किया है तो शायद यह भी व्यंजना है कि पानी के साथ बिजली भी उसे छूकर शक्तिमान और अजेय बना जायेगी । अगले भादों तक वह जरूर इतना बड़ा हो जायेगा कि मंदिर की एक दीवार उसके दबाव से ढह जायेगी। इस परिणति को टालने में पुजारी और पुरातत्त्व वालों की ओर से कोई पहल नहीं होती क्योंकि दोनों इस पवित्र वृक्ष को हाथ लगाने से डरते हैं। पुजारी को वृक्ष से लाभ ही है। तो उसके दिल में भय के साथ लोभ भी है। अंतत: वृक्ष मंदिर को अपदस्थ करके स्वयं को स्थापित करेगा। एक दिन पूरा फैल जायेगा और जरा सी हवा में भी अपनी उपस्थिति सदर्प ज्ञापित करेगा।
    प्रकृति इस कथा में एक साधारण सूच्यग्र बीज के रूप में प्राय: कपट से प्रवेश करती है। जब बीच पौधा बन जाता है तभी उसे बड़ी मानव कमजोरी - पवित्र वृक्ष का भय - का मानो ज्ञान हो गया है, तभी कविता के आरंभ में ही "छज रहा है"। उसका आधार निर्बल है, वह इस स्थान में घुसपैठिया है पर इन विपरीत परिस्थियों से वह अस्थिर नहीं है। उसे पता है कि मंदिर की छाती का रस चूसकर वह बढ़ता रहेगा क्योंकि विपक्ष अपने भय के कारण नपुंसक है। पुजारी का लोभ कि वृक्ष के काष्ठ से यज्ञ की दर्वी बन जायेगी या छाल से उसकी बहू के लिए औषधि बन जायेगी मात्र अनुषंग है। मूल भाव भय है।
    आगे की कहानी कविता में नहीं है पर सहज अनुमेय है। प्रकृति मानव कृति -मंदिर- को संपूर्ण नष्ट कर अपना इलाका वापस जीत लेगी। वह चुपके से हमला करती है। जब वह प्रकट आक्रांता का रूप धरती है तब तक विरोधी भयग्रस्त हो चुका है। मंदिर की अपरिहार्य नियति आरंभ से ही स्पष्ट है।
    कविता में दो जुड़े हुए कथ्य हैं - एक यह कि प्रकृति सदैव अपनी स्वाभाविक स्थिति प्राप्त करना चाहती है और वह सफल भी होती है और दूसरा यह कि मानव में एक आदिम भय है जो प्रकृति का काम आसान कर देता है। सभ्यता मानव निर्मित है और प्रकृति की स्वाभाविक स्थिति का विपर्यय है। प्रकृति हमेशा स्वाभाविक स्थिति को पुन: प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील है और प्राय: अंत में विजयी भी होती है। लगभग इसी भाव को व्यक्त करती यह पोलिश कविता है जिसे मैंने कुमार अंबुज के ब्लाग से लिया है:

    घास
    -- तदेऊश रूजेविच (पोलिश कवि )

    मैं उगती हूँ
    दीवारों की संधि में
    वहॉं जहॉं वे
    जुड़ती हैं
    वहॉं जहॉं वे आ मिलती हैं
    वहॉं जहॉं वे मेहराबदार हो जाती हैं
    वहॉं मैं बो देती हूँ
    एक अंधा बीज
    हवाओं का बिखेरा गया
    धैर्य के साथ मैं फैलती हूँ
    सन्नाटे की दरारों में
    मुझे इन्तजार है दीवरों के गिरने
    और जमीन पर लौटने का
    तब मैं ढक लूँगी
    नाम और चेहरे।

    इस कविता में भी प्रकृति छुपकर हमला करती है, एक अदृश्य बीज की शक्ल में, और अंतत: मानव निर्मिति को तोड़कर पुरानी स्थिति बहाल कर देती है - जैसे वह भवन कभी था ही नहीं। पर अंबर पांडेय की कविता में एक अतिरिक्त तत्त्व है - प्रकृति के प्रति मनुष्य के मन का आदिम भय जो प्रकृति की विजय आसान कर देता है।रूजेविच की दुनिया में ये भय समाप्त हो चुके हैं। प्रकृति की आत्यंतिक विजय उसकी स्वाभाविक अपरिहार्यता और धैर्य पर निर्भर है। हमारे अपेक्षाकृत 'पिछड़े' समाज में प्रकृति को आदमी के 'अंधविश्वासी' भय का भी संबल है।
    कौन जाने यह पिछड़ापन अंतत: आदमी के अस्तित्व के लिए भी अच्छा साबित हो। या शायद "अंधविश्वास" अस्तित्व-रक्षा के 'इंस्टिंक्ट' की सांस्कृतिक अभिव्यक्ति हो।

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  12. आपने सुन्दर अर्थापन किया है. शब्दों को टोहकर, उनकी अर्थछवियों और अनुगूँजों से आप अपनी व्याख्या का वितान रचते हैं. इस उथले प्रतीत होने वाले माध्यम पर ऐसा लेखन सुखद आश्वस्ति से भर देता है.

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  13. व्याख्या के अति में प्रवेश कर अति व्याख्याएं काव्य को मरोड़ देती हैं
    मुक्तिबोध, अज्ञेय आदि के साथ भी यही होता आया है
    कविता अपने में इतनी कृत्रिम है कि वृक्ष ओझल हो गए हैं
    जिया या अनुभव से पकाया गया काव्य नहीं हैं जल्दी से फारिक होने की तमन्ना है
    अरुण और आशुतोष भी पता नहीं कौन से मोह से ग्रसित हैं उन्हें बचना चाहिए
    इसी सब के लिए हमेशा एक विष्णु खरे(जिन्हें लोग मसखरे भी कहने लगे हैं) कि अदद अवश्यक्ता होती हैं
    न जाने क्यों हिंदी में आज तक चाटुकारिता हावी क्यों रही है
    पोलिश कवि के अलावा मास्टर साहब को कोई हिंदी का नहीं मिला न इस देश का मिला बनी बनाई परिपाटी पर आलोचना की खटिया नहीं कसनी चाहिए

    एक चेतस पाठक

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