सैराट - संवाद (११) : मन सैराट न हो सका : स्वरांगी साने

(फ़िल्म सैराट के एक दृश्य में अभिनेत्री रिंकू राजगुरु) 






सैराट को लेकर समालोचन पर बहुत कुछ विवेचित हो चुका है. इस पर संवाद के समापन की घोषणा के बाद भी प्रतिक्रियाओं का ज्वार थम नहीं रहा है. इससे यह तो साबित होता ही है कि इस फ़िल्म ने समाज के गहरे मथा है. एक प्रबुद्ध माँ आखिरकार क्यों नहीं चाहती कि उसकी बेटी यह फ़िल्म देखे ? क्या यह फ़िल्म सच में इतनी संक्रामक है ? 
और एक सवाल - कहीं ऐसा तो नहीं कि इस फ़िल्म के मूल्यांकन में भी जाति–पूर्वाग्रह काम कर रहे हैं.



सैराट देखने के बाद….मन सैराट न हो सका                       
स्वरांगी साने


सैराट को लेकर जितनी बातें होनी थीं, हो गईंजितना कहा जाना था कहा जा चुकामूवी आने के पहले से उसकी हवा बनने लगी थीएक गाना तरंग की तरह आस-पास घूमने लगा था मन सैराट झाले जी…’

सारी कल्पनाएँ उसी मन की, पागल मन की, आशंकित और उम्मीद से भरे मन की. फिल्मों के बारे में मुझे वैसे कोई रुचि नहीं. इसमें जाति भेद का जिक्र थामछुआरे और मराठों के बीच का जाति भेदबहुत खेद के साथ कहना चाहूँगी कि महाराष्ट्र और वह भी पुणे में रहते हुए मैं जितना जाति का दंश झेलती हूँ, मुझे किसी मूवी में जाकर वह फिर नहीं देखना था. मैं सवर्ण वर्ग से हूँ, मेरा उपनाम ही यह कह देता है और उसके साथ मुझे बहिष्कृत-सा कर दिया जाता है. कुछ बामन्याकह कर हँसते हैं, कुछ पुणेरी ब्राह्मणका टोमणा’ (मराठी-टोमणा- टोंट) मार देते हैं, इतना तक फ़िकरा कसते हैं कि एकारांती ब्राह्मण (जैसे साने)…ओकारांती ब्राह्मण (जैसे गोडबोले), मतलब आप और भी पक्के (ख़तरनाक़ उनके अनुसार लीचड़) हुए और एस्ट्रोगेसी का कोई केस किसी को ब्राह्मण कहकर ठेस पहुँचाने पर नहीं लगता. मेरा ब्राह्मण होना यहाँ अपराध हैगोया जाति में पैदा होना मेरा अपना निर्णय हो या जैसे मैं उनसे वर्ग भेद कर रही हूँ. 


तो बहरहालपुणे के ये हाल हैं जहाँ ब्राह्मण वर्सेज़ दलित और ब्राह्मण वर्सेस मराठा फिर मराठा वर्सेज़ दलित और वाइसवर्सा हैअब उसे देखने के लिए मूवी क्यों जाऊँ ? वह तो रोज़-बरोज़, गाहे-बगाहे देखती हूँ. कभी मेरा ब्राह्मण होना वरदान बन आता है, कभी अपमान

इस फ़िल्म के बारे में जितना सुन रही थी उतना ही इस फ़िल्म से दूर रहने का मन कर रहा था. नहीं देखनी थी, सैराट तो देखनी ही नहीं थी. मॉल में अचानक मिली मेरी सहेली ने पहला घंटी बजाई थी, ‘यह फ़िल्म बच्चों के देखने जैसी नहीं है.मैं सचेत थीदिमाग में बैठा लिया कि बच्ची के साथ नहीं जाना.
दूसरी घंटी बजी कि बेटी ही बोल पड़ी, ‘सबने देख लीसारे दोस्तों-सहेलियों ने, अब तो चलो ही

घर के काम में हाथ बँटाने वाली ने तीसरी घंटी बजाई….एक दिन देर से आई, पूछने पर बोली सैराट देखने बैठ गई थी, किसी के घर पैन ड्राइव परबच्चों को तो यह फ़िल्म बिल्कुल नहीं देखनी चाहिए. वे क्या सीखेंगे कि घर से भाग जाओ.

ये तीन महिलाएँ (फ़ीमेल) थीं, मेरे आस-पास की. एक मॉल में मिली पढ़ी-लिखी, सुरुचि संपन्न, सवर्ण मेरी सहेली, दूसरी बमुश्किल आठ-नौ साल की मेरी बेटी और तीसरी दलित वर्ग से आती महरी. क्या था इस मूवी में कि हर उम्र की महिलाएँ उस पर बात कर रही थीं. आर्ची का हमेशा ड्राइविंग सीट पर बैठनाबुलेट, ट्रैक्टर और स्कूटी चलाना….किसी महिला का इस तरह अपने हाथ में कमांड लेना भा रहा था या कुछ और था (एक अख़बार में तो लगातार बाइक चलाती लड़कियों के फ़ोटो का स्तंभ भी शुरू हो गया है). सब कह रहे हैं वे गाँव हैं, जो गाँव जैसे गाँव होते हैंपर मेरे आस-पास की ये तीनों महिलाएँ शहरी थींमहानगर की थींयहाँ महिलाओं का ड्राइविंग सीट पर होना आम बात है. फिर क्या था, कुछ कह रहे थे कि उसे देखते हुए दिलवालेयाद हो आए, किसी को कयामत से कयामत तक’..तो भई ऐसी मूवी देखनी ही क्यों?

(अभिनेत्री रिंकू राजगुरु और अभिनेता आकाश ठोसर)  

पर उस दिन पति देखकर लौटेकह पड़े अंत के दस मिनट तो मैं देख ही नहीं सका.मेरा इंजीनियर पति, जिसके लिए कविता जटिल होती है, वह इतना भावुक हो गया कि देख नहीं सका. मैंने और पक्का मन बना लिया, नहीं देखना, बेटी के साथ तो नहीं ही.

पर बेटी जिद्द पकड़ बैठी, आर्ची की तरह ही होती है बेटियाँ, अपने पिता के दम पर अकड़ दिखाने वाली, कुछ भी कर गुज़रने का साहस रखने वाली. पर पिता होने पर वे ही मार खाती हैं, क्यों? बीच बाज़ार, होटल में, सड़क पर कलाई की मरोड़ स्वीकारती हैं, पति के बिलावजह शक़ की सफ़ाई देती हैं, मानो वे गुनाहगार होंआर्ची ने ऐसा कियाक्या यह है ड्राइविंग सीट पर बैठने वालियों की हक़ीकत? तो यह फिल्म हक़ीकत दिखा रही है, हक़ीकत देखना नहीं चाहता है मनमन तो सैराट होना चाहता है, मन तो जिंग-जिंग जिंगाटहोना चाहता हैमन ज़ेहाद चाहता है.

और उस दिन बेटी की हमउम्र सहेलियों-दोस्तों ने हमेशा की तरह धावा बोला डोर बैल तीन-चार बार बजीदनदनदनदन, सब अंदरकोई हँसने वाली, कोई शर्माने वालीकोई अकड़ू (उनके ही शब्दों में)…और उनकी बातें सैराट को लेकरमेरी बेटी का शिकायत भरा लहज़ा-‘माँ नहीं देखने देती, मेरी टालमटोलऔर उन बच्चों का मुझ पर ही धावा… ‘क्या अब तक नहीं देखी’, ‘बहुत अच्छी मूवी है’, ‘मेरे मामा की शादी में मैं जिंग-जिंग पर नाचूँगी’, तो कोई गणेशोत्सव में जिंगा पर नाचने की तैयारी में. मैं बचाव की मुद्रा में, ‘हाँ तो गाने देखो उसके लिए मूवी क्या देखना…’

मैं रसोई में, उनकी मंडली बैठक से बैडरूम तकएक कतार में सब भागते-भागते इधर से उधर, उधर से इधरऔर फिर अचानक सब बैठ गएमेरी जान में जान आईफिर सैराट की बातें… ‘उसका ऐंड देखा क्या’, ‘मेरे पास मोबाइल में उसका ऐंड है’, ‘मैंने तो कितनी ही बार देखा’… ‘तू भी देख’….

मैं हैरानअवाक्सकते मेंजिस अंत के बारे में सुन चुकी थी, जिससे बच्ची को बचाना चाहती थी, वह मोबाइल पर वाइरल हो चुका थाउनके हाथों तक मेंऔर वे दर्जनों बार उसे देख चुके थे.
मैंने मूवी देख ली….
मैं सिहर गई

मूवी के अंत को लेकर नहीं, उससे ज़्यादा इस नई पीढ़ी को लेकर. यदि उन्हें उसके तीखेपन का अंदाज़ा नहीं हो तो मुझे कुछ राहत है. पर यदि इस नई पौध को उस अंत की पीड़ा का ज्ञान है (इस नई पीढ़ी को कई बातें हमसे ज़्यादा पता हैं) और तब भी वे कूल है तो मैं चिंतिंत हूँ. आर्ची ने नवीं की परीक्षा दी और अब दसवीं में है, यह जानकर भी मैं सन्न थी नौंवी में पढ़ने वाली दुलई के नीचे के सीन करती हैचलो सीन ही होगा पर प्यार की उस हरारत का वह अभिनय भी करती है तो धक्कादायी है.  और ये उससे भी कम उम्र के बच्चे (लड़के-लड़कियाँ दोनों) उस अंत को देख कूल रहते हैं. कितना शोचनीय.

बड़ी-बड़ी बातें, जाति को लेकर, धर्म और स्त्री-पुरुष भेद को लेकर, लेकिन इसका क्या करें जो उन तक पहुँच रहा है, हमारे रोके भी जो नहीं रुक रहा है. ख़ून से सने उस बच्चे के पैर और इन बच्चों की चुहल की केचअप लगाया होगा….

आर्ची अंतरंग दृश्यों को करते हुए जानती है कि वह झूठ कर रही है और यह बच्चे भी जानते हैं कि वह झूठ हैहम सन्न हैंवे जानते हैं कि वह झूठ है. पर जब समाज की हक़ीकत जब उन तक पहुँचेगी क्या तब भी वे उसे झूठ मानेंगेआर्ची जैसी किसी लड़की के पत्नी बनते ही कोई प्रेमी जो पति बन जाएगा हाथ उठा देगाक्या तब भी उसे झूठ मानेंगे..और खाप पंचायतों के फैसलों को झूठा साबित कर देंगे

मेरे इस डर का क्या जवाब हैकि मन सैराट नहीं हो पा रहा है… ‘मन अधीर झाले आज़मन बधिर झाले आज़क्या जीवन के सच को झेलने के लिए नई पीढ़ी हमसे अधिक तैयार है? क्या उम्मीद करें कि यह पीढ़ी पत्नी बनने के बाद किसी का थप्पड़ आसानी से बर्दाश्त नहीं करेगी? क्या उन्हें ख़ुद ही सच का सामना करने के लिए छोड़ दिया जाए? वे यह भी समझती हैं कि फ़िल्मी बातें सच नहीं होतीं, लेकिन इससे सच को झेलने के लिए उनकी ज़मीन तैयार हो जाती हो, तो अच्छी बात हैआमीन!
___________
स्वरांगी साने
पूर्व वरिष्ठ उप संपादक, लोकमत समाचार (पुणे)

6/Post a Comment/Comments

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.

  1. मन सैराट न हो सका..... इस फ़िल्म पर अलग तरह की टिप्पणी।
    मुबारक।
    राजीव रंजन गिरि

    जवाब देंहटाएं
  2. आपका अंतिम प्रश्न मैं आरम्भ से उठा रहा हूँ।अधिकांश धूर्त लफ़्फ़ाज़ उससे सैराट की तरह भाग रहे हैं।

    जवाब देंहटाएं
  3. पहला पैराग्राफ पढ़कर तो लगता है जैसे पुणे (जो शायद देश के इक्का-दुक्का संसदीय क्षेत्रों में से है जहां ब्राम्हण चुनावी नतीजों को प्रभावित कर सकते हैं) में बस अब ब्राम्हणों के लिए गले में घड़ा/मटका लटका कर चलने का नियम ही आना बाकी रहा गया है, जैसा पेशवाओं के राज में महारों के लिए था. गुस्ताखी माफ, मगर यह 'Upper-caste Rant' अपने घर-परिवार में भी बहुत सुन चुका हूँ. 'अब तो हम ब्राम्हण ही दलित हो गए हैं', 'हमारे बच्चों को कौन नौकरियां देगा' इत्यादि।
    बाकी इस लेख में उठाए गए कुछ concerns विशुद्ध बुर्जुआ हैं और कुछ जायज़ जिनका समाधान piracy control और फिल्मों के लिए बेहतर रेटिंग सिस्टम (पहलाज ब्रांड नहीं) से जुड़ा है.

    जवाब देंहटाएं
  4. बहुत धारदार और सही विश्लेषण। आपको बधाई स्वरांगी जी।

    जवाब देंहटाएं
  5. फिल्म ना देखकर भी उसका विश्लेषण किया गया है वाकई मजेदार है और ऐसा आप ही कर सकती है............. एक दुर्भावना ही प्रदर्शित हो रही है........... शायद किसी ब्राह्मण ने निर्देशित की होती हो समीक्षा पूर्णतः अलग होती......

    जवाब देंहटाएं
  6. @ sachin jee see in the article para 9
    मैंने मूवी देख ली….
    मैं सिहर गई…
    किसी ब्राह्मण ने निर्देशित की होती हो tab bhi समीक्षा पूर्णतः अलग Nahi होती.....
    Swaraangi Sane

    जवाब देंहटाएं

एक टिप्पणी भेजें

आप अपनी प्रतिक्रिया devarun72@gmail.com पर सीधे भी भेज सकते हैं.