परिप्रेक्ष्य : समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए : अरुण माहेश्वरी


















समय जैसा है, उसे ही लिखा जाए                                   
(प्रेमचंद की 137वीं सालगिरह पर)
अरुण माहेश्वरी


1880 में जन्म ; 20वीं सदी के प्रारंभ के साथ लेखन का प्रारंभ ; और 1936 में मृत्यु की लगभग आखिरी घड़ी तक लेखन का एक अविराम सिलसिला. हिंदी के उपन्यास सम्राट.

उपन्यास - अनुभव और यथार्थ का एक दीर्घ और रोचक आख्यान.
प्रेमचंद लिखते हैं : उपन्यास लेखक को यथासाध्य नये-नये दृश्यों को देखने और नये-नये अनुभवों को प्राप्त करने का कोई भी अवसर हाथ से न जाने देना चाहिए.और साथ ही यह भी किजब साहित्य की रचना किसी सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत के प्रचार के लिये की जाती है, तो वह ऊंचे पद से गिर जाती है, इसमें संदेह नहीं.
अर्थात उपन्यास के लिये जो जरूरी है - वह है दृश्य, चित्र.जीवन जैसा हैके नाना रूपों और मानव चरित्रों के चित्र.
फिर भी, प्रेमचंद आदर्शवाद की बात भी करते हैं. उन्हें लगता है कि चूंकि संसार में बुराई का ही आधिक्य है, इसलिये कोरा यथार्थ-चित्रण आदमी को कमजोर बनायेगा, उसे निराशा से भरेगा. आदमी को कमजोर करना उनका अभीष्ट नहीं हो सकता, इसीलिये वे यथार्थवाद के साथ ही आदर्शवाद को भी जरूरी मानते हैं.
मत का प्रचार न हो, फिर भी आदर्श जरूर हो !
प्रेमचंद की शब्दावली में, यथार्थवाद अंधेरी कोठरी है और अंधेरी कोठरी में काम करते-करते थक चुके आदमी को आदर्शवाद ही स्वच्छ वायु का आनंद देता है. जबकि मतवाद-सामाजिक, राजनीतिक और धार्मिक मत का प्रचार-साहित्य के दर्जे को गिरा देता है.

यह उस समय की बात है जब आदर्शवाद और मतवाद में ज्यादा भेद नहीं किया जाता था. स्वतंत्रता और राष्ट्रीयता, समाजवाद और क्रांति, धर्म-निरपेक्षता और भाईचारा - इनमें कौन आदर्शवाद है और कौन कोरा मतवाद - कहना मुश्किल था. फिर भी प्रेमचंद में कोई दुविधा तो थी ही, जिसके चलते उन्होंने आदर्श को जरूरी माना, लेकिन मत के प्रचार को नहीं.

प्रेमचंद के लिखे पाठ को तो कोई बदल नहीं सकता. लेकिन समय बदल जाता है तो पाठक बदल जाता है. बीत रहा हर पल इतिहास में तब्दील होकर नये इतिहास-बोध, पाठ के नये अर्थ को तैयार करता है. 
मतऔरआदर्शको लेकर प्रेमचंद में दुविधा थी, लेकिन आज के पाठक के मन में शायद वैसी दुविधा नहीं है. मतवाद और आदर्शवाद पर्याय दिखाई देते हैं. आदर्शवाद की ओट में चला आरहा मतवादी दुराग्रह अब  और भी साफ है. 

(अंतिम समय में अपनी पत्नी शिवरानी देवी के साथ प्रेमचंद)

ऐसे मेंपुन: उपन्यास के मूल धर्म - ‘समाज जैसा है’ - उसे बिना किसी मुलम्मे के चित्रित करने की बात की जानी चाहिए. पूंजीवादी आदर्श औरपूंजीवाद जैसा है’, समाजवादी आदर्श औरसमाजवादी समाज जैसा रहा है’, क्रांतिकारी आदर्श औरक्रांतिकारी पार्टियां जैसी है’, जनतंत्र औरजनतांत्रिक व्यवस्था जैसी है’ - इनके बीच चयन मेंजैसा हैको चुनने में अब किसी दुविधा का स्थान नहीं हो सकता. इसजैसा हैके चित्रण के कारण ही तो सारी दुनिया में हर प्रकार की तानाशाही, आततायी सरकारें लेखकों-कलाकारों को जुल्मों का शिकार बनाती है. यही सच इस बात का भी प्रमाण है कि लेखक का इससे बड़ा शायद दूसरा कोई आदर्श नहीं हो सकता.

यह समयमतऔर आदर्श के बारे में प्रेमचंद की दुविधा से मुक्ति का समय है. 

दरअसल पूरे विषय को ज्ञान और सत्य के बीच के एक सनातन तनाव के विषय के तौर पर भी देखा जा सकता है. एक आदमी सत्य की ओट में झूठ बोल सकता है. यह उसका दुराग्रह होता है जब वह तथ्यात्मक रूप से कही गई एक सही बात में अपनी कामनाओं या वासनाओं को छिपा रहा होता है. इसके विपरीत, दूसरा आदमी किसी उन्माद में, या भूलवश, अपनी इच्छा के विरुद्ध ही, झूठ कहता हुआ भी सच बोल जाता है. यह असल में तथ्यात्मक वस्तुनिष्ठता और आत्मनिष्ठ सत्य का द्वंद्व है. वास्तविकता यह है कि हर कथन में, हर बयान में कुछ खामोश संकेत छिपे होते हैं, जिन्हें आम तौर पर पंक्तियों के बीच के अंतराल और मौन कहा जाता है.

जब तक इन मौन संकेतों की रिक्तताओं को पकड़ा नहीं जाता है, पाठ के झूठ और सच का पूरी तरह से पता नहीं लग सकता है. और, इन्हें पकड़ने का एकमात्र तरीका है कि पाठ को ठोस, वास्तविक जीवन के संदर्भ में स्थापित किया जाए. पाठ में लेखक का सोच ही सब कुछ नहीं होता, जरूरी होता है उस सोच को ऐसे सकारात्मक और नकारात्मक संकेतों की श्रृंखला में उतारना जो इन मौन संकेतों के वास्तविक संदेश का वहन कर सके, पाठकों तक उन्हें सही ढंग से प्रेषित कर सके.

इसीलिये, जब भी आपजैसा है वैसा बयान करेंगे, वह कोरा प्रकृतिवाद नहीं होगा. वह सच स्वत: नहीं, आपके जरिये व्यक्त हो रहा है. उससे आप वास्तव में एक ऐसा पूरा परिप्रेक्ष्य पेश कर रहे होते हैं, ताकि आपकी अपनी बातों के मौन संकेतों को भी पढ़ा जा सके. इसके अलावा, जो सच आपके सामने है, वह आपके मार्फत कैसे अभिव्यक्त होता है, उसी से यह भी जाहिर हो जाता है कि खुद आपने उस सच को कैसे ग्रहण किया है. पिछले दिनों अशोक वाजपेयी के बारे में अपने एक लेख में, आश्विच के वद्यस्थल पर खड़े कवि के भावों की अभिव्यक्ति से हमने जितना आश्विच को नहीं देखा, उससे बहुत ज्यादा खुद लेखक के सत्य को देखा था. 

ऐसी ढेरों बातें होती हैं, जिन्हें हम अपनी कल्पना में महसूस करके ही उसे सच मानने लगते हैं. इनमें वास्तव में जीवन का वस्तु-सत्य नहीं, हमारी अपनी इच्छा-अनिच्छा बोल रहे होते हैं. इससे उचित-अनुचित का हमारा बोध भी व्याहत होता है. यह बात, सिर्फ लेखक पर नहीं, पाठक पर भी, हर व्यक्ति पर लागू होती है. ऐसे में, आम बाजारू लेखक, जब वह पाठ के जरिये अपने पाठक के रूबरू होता है, अक्सर वह किंचित निरपेक्ष होकर अपने लिये एक न्यायाधीश की भूमिका अपना लेता है. वह पाठक का मन टटोल कर उसके हित-अहित के बारे में न्याय सुनाने लगता है. यह पाठक के मनोविज्ञान में बैठ कर न्याय-निर्णय देने वाला एक प्रकार का खोजी नजरिया है जो आम तौर पर बाजार में काफी सफल साबित होता है.

तमाम बाजारू लेखन का यह एक मूल सूत्र है. लेकिन सवाल है कि क्या यह नजरिया पाठक का उसके जीवन के सच से साक्षात्कार कराने वाला नजरिया है ? भले यह पाठक का सामयिक तौर पर हित साधे, उसे लुभाये, उसका मनोरंजन भी करें, लेकिन यह उसे उसके सच से परिचित नहीं कराता. यह अन्तत: एक झूठ ही है, किसी झूठे आश्वासन की तरह का झूठ. इसमें पाठक के अपने विचार के अधिकार तक को छीन लिया जाता है. लेखक उसके लिये उसकी पसंद का एक भला-भला सा संसार रच देता है.
इसके विपरीत, पाठ में वस्तुनिष्ठता का दूसरा रास्ता है स्पष्टवादिता का, साहस के साथ सच को कहने का. बात को जीवन के ठोस संदर्भ के साथ स्थापित करने का. जब पाठक सच को जानने पर भी उसे स्वीकारने से इंकार कर रहा होता है, तब पूरी ताकत के साथ सच को रखने की जरूरत होती है. जब कोई जीवन का मजा भी लेगा, लेकिन भान ऐसा करेगा मानो वह यह मजा अपनी मर्जी से नहीं ले रहा, तो ऐसे में जीवन की ठोस सचाई के बयान से उसके छद्म नैतिक-मूल्यों के जंजाल को खत्म करने की जरूरत रहती है.

तथापि, लेखक के लिये, यह स्पष्टवादिता वाला रवैया ही अंतिम नहीं हो सकता है. पाठ का विश्लेषणात्मक विमर्श यदि कभी किसी छल-छद्म पर निर्भर नहीं करता, तो वह किसी भी प्रकार के बल पर भी आश्रित नहीं हो सकता है, भले वह तर्क का बल हो या न्याय-नैतिकता का बल. सबसे बड़ी सचाई यह है कि भाषा के अपने सारे मौन-मुखर संकेत अंतत: खुद में जीवित तर्क होते हैं. भाषा का प्रयोग ही तो किसी बात को रखने के लिये, किसी बात से इंकार करने या किसी बात को मनवाने के लिये किया जाता है. हर बात के अपने दो पहलू होते हैं. एक पक्ष होता है, दूसरा विपक्ष. हर बात को दूसरी बात से काटा जा सकता है. इसप्रकार, कहा जा सकता है कि अनिर्णय एक सर्व-व्यापी सच है.

प्रश्न यही है कि क्या ऐसे में, किसी भी एक धागे में, कथित तौर पर किसी विचारधारा के धागे में पिरो कर सारे विचारों को किसी प्रकार की स्थिरता प्रदान करने की क्या कोई जरूरत है ? जब विचार पहले से ही स्थिर है, एक निश्चित अर्थ का वहन करते हैं, वे खोखर नहीं होते कि उनमें कुछ भी डाला जा सके. तब फिर उन्हें और ज्यादा बांधने की, एक सूत्र में पिरोने की, एक चादर के तले लाने की क्या जरूरत है ? यहीं से शब्द और विचार की शक्ति के बारे में हम एक नये अभिज्ञान को अर्जित कर सकते हैं.

मूल बात यह है कि जो साफ तौर पर गलत है उसके भूल-भुलैय्ये में और ज्यादा भटकने की जरूरत नहीं है. वह हमारे जीवन में अप्रासंगिक है. कोई इसे किसी भी बहाने से, नैतिक या दूसरे कारणों से स्वीकारे या न स्वीकारे. बाबा रामदेव कैंसर का इलाज कर सकता है या योग में सारे ब्रह्मांड का ज्ञान समाया हुआ है, यह झूठ है. ऐसे झूठ को कोई किसी भी बहाने से कितनी बार भी क्यों न कहा जाए, उनकी जांच के भी चक्कर में पड़ने की जरूरत नहीं है. सच कहने के अलावा लेखक के पास दूसरा कोई रास्ता नहीं है, वह किसी को अच्छा लगे, या बुरा लगे; किसी को दुखी करे या सुखी करे. आदमी पाप के बोझ को लाद कर चले ताकि धर्म से उनका उद्धार किया जा सके, यह धर्माधिकारियों के हित का हो सकता है. लेखक का काम इसके ठीक विपरीत है. भले ऐसा करते हुए वह नितांत अलग-थलग और असामाजिक किस्म का किसी भूत जैसा ही क्यों न दिखाई देने लगे. रिल्के ने कहा था किसुंदरता तो पैशाचिकता का अंतिम आवरण है. हर नई चीज डरावनी प्रतीत होती है.

इस समझ के साथ आगे बढ़ने पर ही, कहना न होगा, लेखक की अपनी भूमिका, पाठक के साथ उसके संबंध के सारे सवाल एक नई अर्थवत्ता ग्रहण करने लगेंगे. तभी हम, यह संसार जैसा है, वैसा ही उसे पेश करने के रास्ते की श्रेष्ठता को और भी अच्छी तरह से समझ सकेंगे. प्रेमचंद का लेखन इसी प्रकार पूरी उत्कटता से सच को कहने वाला लेखन था.

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अरुण माहेश्वरी (जून 1951)
मार्क्सवादी आलोचकसामाजिक-आर्थिक विषयों पर टिप्पणीकार एवं पत्रकार  

प्रकाशित पुस्तकें (१)साहित्य में यथार्थ : सिद्धांत और व्यवहार (2) आरएसएस और उसकी विचारधारा (3)नई आर्थिक नीति : कितनी नई (4) कला और साहित्य के सौंदर्यशास्त्रीय मानदंड (5) जगन्नाथ (अनुदित नाटक) (6) पश्चिम बंगाल में मौन क्रांति (7) पाब्लो नेरुदा : एक कैदी की खुली दुनिया (8) एक और ब्रह्मांड, (9) सिरहाने ग्राम्शी, (10) हरीश भादानी, (11) धर्मसंस्कृति और राजनीति, (12) समाजवाद की समस्याएं, (13) तूफानी वर्ष 2014 और फेसबुक की इबारतें, (14) प्रतिद्वंद्विता से इजारेदारी तक, (15) आलोचना के कब्रिस्तान से, (16) Another Universe .

 संपर्क : सीएफ - 204, साल्ट लेककोलकाता - 700064 

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  1. Tewari Shiv Kishore1 अग॰ 2016, 6:34:00 am

    आदर्शवाद पश्चिम से आयातित शब्द है जहाँ इसका अर्थ वह साहित्यिक शैली है जिसमें चरित्रों और परिस्थितियों की पूर्ण श्रेष्ठता का चित्रण होता है। खोट के लिए जगह नहीं होती। आदर्शवाद का अर्थ राजनीतिक, सामाजिक या नैतिक आदर्शों का प्रचार करना नहीं है। मैं समझता हूँ प्रेमचंद से समझने में भूल हुई। प्रेमचंद के जमाने में भी कथा - साहित्य में पश्चिम की आदर्शवादी शैली का उपयोग लगभग असंभव था। 18 वीं शताब्दी से ही पश्चिम में कथा साहित्य यथार्थवादी शैली में लिखा गया और इस शैली से भिन्न शैली में लिखे गये पूर्ववर्ती कथा- साहित्य को आधुनिक कथा माना ही नहीं जाता। रंगभूमि, कर्मभूमि, सेवासदन जैसे उपन्यासों और पंच परमेश्वर, बड़े घर की बेटी, नमक का दारोगा आदि कहानियों में प्रेमचंद के इस कन्फ्यूज़न ने बड़ा कहर ढाया। जिसे वे आदर्शोन्मुख लेखन समझते रहे वह वस्तुत: सोद्देश्य लेखन था जो प्राय: घटिया होता है।

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  2. कला सिर्फ ईश्वर को प्रकट नहीं करती है, बल्कि यह भी एक मार्ग है जिससे ईश्वर अपने को प्रकट करता है, मूर्त करता है । इस प्रकार यह सिर्फ किसी परम का चित्रण नहीं है, बल्कि परम की खुद की चेतना के विकास का एक चरण है ।
    कला के बारे में हेगेल के ऐसे विचारों से ही आदर्शवाद में श्रेष्ठ कलात्मक अन्विति की धारणा विकसित होती है । कुछ ऐसी ही धारणाओं के कारण हेगेल को आधुनिक कला का सेकुलर रूप उतना पसंद नहीं आता था ।

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  3. यह कहना कि किसी पश्चिमी धारणावश प्रेमचंद ने आदर्शवादी निदानों का रास्ता पकड़ा, रचना में रचनाकार के अभीष्ट की भूमिका से पूरी तरह से इंकार करना है । यह किसी फ़ार्मूले के तहत नहीं होता है । प्रेमचंद ने जो भी निदान दिये, क्या वे पहले से ही हमारी सामाजिक नैतिकताओं में मौजूद नहीं थे, जिनका प्रेमचंद भी वहन करते थे । प्रेमचंद के प्लाट किसी पश्चिमी समाज की पृष्ठभूमि से तैयार नहीं हुए थे । सबसे बड़ी बात यह है कि आगे उनका क्रमिक रचनात्मक विकास यथार्थ की ओर, सच को खुली आँखों से देखने और स्वीकारने की ओर हुआ । रचना का अर्थ उसका अंत मात्र तो नहीं होता । आपने जिन उपन्यासों और कहानियों का जिक्र किया है, उन सबमें अंत के अलावा भी बहुत कुछ ऐसा हैं जो पाठक का हमारे जीवन के कटु सच से साक्षात्कार कराता है । इसीलिये 'गुड़गोबर' करने वाली बात का कोई औचित्य नज़र नहीं आता ।

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  4. शिव किशोर बाबू , क्या यह आयातित शब्द आयातित होने की वजह से अपना लिया गया, या कि अपने परिवेशानुकूल पाकर इसका प्रयोग संभव हो सका ?
    वैश्विक चिंतन धाराओं के संपर्क में आने पर ऐसा होना असंभव नहीं रह जाता , इसलिए केवल पश्चिमी कहकर खारिज न करें।
    और सोद्देश्य लेखन को एकबारगी घटिया कहकर परे ढकेलना भी ठीक नहीं -- बहुत सारे लेखन से हाथ धोना हो सकता है।

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  5. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (02-08-2016) को "घर में बन्दर छोड़ चले" (चर्चा अंक-2422) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  6. अच्छा व सारगर्भित आलेख।
    नवीनता की पुष्टि से प्रोत सुंदर विचारदृष्टि।

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