कथा - गाथा : आकाशदीप : जयशंकर प्रसाद






जयशंकर प्रसाद  :
(३० जनवरी१८९० – १४ जनवरी १९३७)

बीसवीं शताब्दी के महानतम साहित्यकार जयशंकर प्रसाद जितने बड़े कवि हैं उतने ही बड़े नाटककार और कथाकार भी. अभी इतिहास की उनकी समझ और सम्बन्धित लेखन पर चर्चा नहीं हुई है जो उनके स्वतंत्र लेखों में ‘अचेत स्तूप’ की तरह है और जिसका उत्खनन अभी होना है. अपनी गरिमा और उदात्तता के साथ वह एक क्लासिकल रचनाकार के रूप में उपस्थित तो हैं पर  उनकी बौद्धिकता से आँख मिलाने से हिंदी कतराती है.

कवि प्रसाद ने कथा – साहित्य  में  प्रेमचंद के समानांतर  एक स्कूल की ही स्थापना कर डाली थी जिसका विकास जैनेन्द्र, अज्ञेय, निर्मल वर्मा से होता हुआ अनवरत है.

आकाशदीप प्रसाद की सिग्नेचर कहानी है. वरिष्ठ आलोचक रोहिणी अग्रवाल ने इस कहानी को तरह-तरह से समझने की कोशिश की है. यहाँ स्त्री – दृष्टि विशेष रूप से रेखांकित करने योग्य है. समालोचन की ‘कालजयी-कहानी’ श्रृंखला की यह तीसरी कड़ी है.



  



आकाशदीप : जयशंकर प्रसाद                              



"बंदी!''
''क्या है? सोने दो.''
''मुक्त होना चाहते हो?''
''अभी नहीं, निद्रा खुलने पर, चुप रहो.''
''फिर अवसर न मिलेगा.''
''बडा शीत है, कहीं से एक कंबल डालकर कोई शीत से मुक्त करता.''
''आंधी की संभावना है. यही एक अवसर है. आज मेरे बंधन शिथिल हैं.''
''तो क्या तुम भी बंदी हो?''
''हां, धीरे बोलो, इस नाव पर केवल दस नाविक और प्रहरी है.''
''शस्त्र मिलेगा?''
''मिल जाएगा. पोत से संबद्ध रज्जु काट सकोगे?''
''हां.''

समुद्र में हिलोरें उठने लगीं. दोनों बंदी आपस में टकराने लगे. पहले बंदी ने अपने को स्वतंत्र कर लिया. दूसरे का बंधन खोलने का प्रयत्न करने लगा. लहरों के धक्के एक-दूसरे को स्पर्श से पुलकित कर रहे थे. मुक्ति की आशा-स्नेह का असंभावित आलिंगन. दोनों ही अंधकार में मुक्त हो गए. दूसरे बंदी ने हर्षातिरेक से उसको गले से लगा लिया. सहसा उस बंदी ने कहा-''यह क्या? तुम स्त्री हो?''

''क्या स्त्री होना कोई पाप है?'' - अपने को अलग करते हुए स्त्री ने कहा.
''शस्त्र कहां है - तुम्हारा नाम?''
''चंपा.''

तारक-खचित नील अंबर और समुद्र के अवकाश में पवन ऊधम मचा रहा था. अंधकार से मिलकर पवन दुष्ट हो रहा था. समुद्र में आंदोलन था. नौका लहरों में विकल थी. स्त्री सतर्कता से लुढक़ने लगी. एक मतवाले नाविक के शरीर से टकराती हुई सावधानी से उसका कृपाण निकालकर, फिर लुढक़ते हुए, बन्दी के समीप पहुंच गई. सहसा पोत से पथ-प्रदर्शक ने चिल्लाकर कहा - ''आंधी!''

आपत्ति-सूचक तूर्य बजने लगा. सब सावधान होने लगे. बंदी युवक उसी तरह पडा रहा. किसी ने रस्सी पकडी, क़ोई पाल खोल रहा था. पर युवक बंदी ढुलककर उस रज्जु के पास पहुंचा, जो पोत से संलग्न थी. तारे ढंक गए. तरंगे उद्वेलित हुई, समुद्र गरजने लगा. भीषण आंधी, पिशाचिनी के समान नाव को अपने हाथों में लेकर कंदुक-क्रीडा और अट्टहास करने लगी.

एक झटके के साथ ही नाव स्वतंत्र थी. उस संकट में भी दोनों बंदी खिलखिला कर हंस पडे. आंधी के हाहाकार में उसे कोई न सुन सका.
अनंत जलनिधि में उषा का मधुर आलोक फूट उठा. सुनहली किरणों और लहरों की कोमल सृष्टि मुस्कराने लगी. सागर शांत था. नाविकों ने देखा, पोत का पता नहीं. बंदी मुक्त हैं.

नायक ने कहा - ''बुधगुप्त! तुमको मुक्त किसने किया?''
कृपाण दिखाकर बुधगुप्त ने कहा - ''इसने.''
नायक ने कहा - ''तो तुम्हें फिर बंदी बनाऊँगा.''
''किसके लिए? पोताध्यक्ष मणिभद्र अतल जल में होगा - नायक! अब इस नौका का स्वामी मैं हूं.''

''तुम? जलदस्यु बुधगुप्त? कदापि नहीं.'' - चौंककर नायक ने कहा और अपना कृपाण टटोलने लगा! चंपा ने इसके पहले उस पर अधिकार कर लिया था. वह क्रोध से उछल पडा.

''तो तुम द्वंद्वयुद्ध के लिए प्रस्तुत हो जाओ; जो विजयी होगा, वह स्वामी होगा.'' - इतना कहकर बुधगुप्त ने कृपाण देने का संकेत किया. चंपा ने कृपाण नायक के हाथ में दे दिया.

भीषण घात-प्रतिघात आरंभ हुआ. दोनों कुशल, दोनों त्वरित गतिवाले थे. बडी निपुणता से बुधगुप्त ने अपना कृपाण दाँतों से पकड़कर अपने दोनों हाथ स्वतंत्र कर लिए. चंपा भय और विस्मय से देखने लगी. नाविक प्रसन्न हो गए. परंतु बुधगुप्त ने लाघव से नायक का कृपाणवाला हाथ पकड़ लिया और विकट हुंकार से दूसरा हाथ कटि में डाल, उसे गिरा दिया. दूसरे ही क्षण प्रभात की किरणों में बुधगुप्त का विजयी कृपाण उसके हाथों में चमक उठा. नायक की कातर आँखें प्राण-भिक्षा माँगने लगीं.
बुधगुप्त ने कहा - ''बोलो, अब स्वीकार है कि नहीं?''

''मैं अनुचर हूं, वरूणदेव की शपथ. मैं विश्वासघात नहीं करूँगा.'' बुधगुप्त ने उसे छोड़ दिया.

चंपा ने युवक जलदस्यु के समीप आकर उसके क्षतों को अपनी स्निग्ध दृष्टि और कोमल करों से वेदना-विहीन कर दिया. बुधगुप्त के सुगठित शरीर पर रक्त-बिंदु विजय-तिलक कर रहे थे.

विश्राम लेकर बुधगुप्त ने पूछा,''हम लोग कहाँ होंगे?''

''बालीद्वीप सें बहुत दूर, संभवतः एक नवीन द्वीप के पास, जिसमें अभी हम लोगों का बहुत कम आना-जाना होता है. सिंहल के वणिकों का वहाँ प्राधान्य है.''

''कितने दिनों में हम लोग वहाँ पहुँचेंगे?''

''अनुकूल पवन मिलने पर दो दिन में. तब तक के लिए खाद्य का अभाव न होगा.''

सहसा नायक ने नाविकों को डाँड़ लगाने की आज्ञा दी, और स्वयं पतवार पकड़क़र बैठ गया. बुधगुप्त के पूछने पर उसने कहा - ''यहाँ एक जलमग्न शैलखंड है. सावधान न रहने से नाव टकराने का भय है.''

''तुम्हें इन लोगों ने बंदी क्यों बनाया?''
''वाणिक् मणिभद्र की पाप-वासना ने.''
''तुम्हारा घर कहाँ है?''

''जाह्नवी के तट पर. चंपा-नगरी की एक क्षत्रिय बालिका हूँ. पिता इसी मणिभद्र के यहाँ प्रहरी का काम करते थे. माता का देहावसान हो जाने पर मैं भी पिता के साथ नाव पर ही रहने लगी. आठ बरस से समुद्र ही मेरा घर है. तुम्हारे आक्रमण के समय मेरे पिता ने ही सात दस्युओं को मारकर जल-समाधि ली. एक मास हुआ, मैं इस नील नभ के नीचे, नील जलनिधि के ऊपर, एक भयानक अनंतता में निस्सहाय हूँ -अनाथ हूँ. मणिभद्र ने मुझसे एक दिन घृणित प्रस्ताव किया. मैंने उसे गालियाँ सुनाई. उसी दिन से बंदी बना दी गई.'' - चंपा रोष से जल रही थी.

''मैं भी ताम्रलिप्ति का एक क्षत्रिय हूँ, चंपा! परंतु दुर्भाग्य से जलदस्यु बनकर जीवन बिताता हूँ. अब तुम क्या करोगी?''

''मैं अपने अदृष्ट को अनिर्दिष्ट ही रहने दूंगी. वह जहाँ ले जाए.'' - चंपा की आँखें निस्सीम प्रदेश में निरूद्देश्य थीं. किसी आकांक्षा के लाल डोरे न थे. धवल अपांगों में बालकों के सदृश विश्वास था. हत्या-व्यवसायी दस्यु भी उसे देखकर काँप गया. उसके मन में एक संभ्रमपूर्ण श्रध्दा यौवन की पहली लहरों को जगाने लगी. समुद्र-वृक्ष पर विलंबमयी राग-रंजित संध्या थिरकने लगी. चंपा के असंयत कुंतल उसकी पीठ पर बिखरे थे. दुर्दान्त दस्यु ने देखा, अपनी महिमा में अलौकिक एक तरूण बालिका! वह विस्मय से अपने हृदय को टटोलने लगा. उसे एक नई वस्तु का पता चला. वह थी - कोमलता!
उसी समय नायक ने कहा - ''हम लोग द्वीप के पास पहुँच गए.''

बेला से नाव टकराई. चंपा निर्भीकता से कूद पडी. माँझी भी उतरे. बुधगुप्त ने कहा - ''जब इसका कोई नाम नहीं है, तो हम लोग इसे चंपा-द्वीप कहेंगे.''
चंपा हँस पडी.
पाँच बरस बाद -

शरद के धवल नक्षत्र नील गगन में झलमला रहे थे. चंद्र की उज्ज्वल विजय पर अंतरिक्ष में शरदलक्ष्मी ने आशीर्वाद के फूलों और खीलों को बिखेर दिया.
चंपा के एक उच्चसौध पर बैठी हुई तरूणी चंपा दीपक जला रही थी.

बडे यत्न से अभ्र्रक की मंजुषा में दीप धर कर उसने अपनी सुकुमार ऊँगलियों से डोरी खींची. वह दीपाधार ऊपर चढने लगा. भोली-भोली आँखें उसे ऊपर चढते हर्ष से देख रही थीं. डोरी धीरे-धीरे खींची गई. चंपा की कामना थी कि उसका आकाशदीप नक्षत्रों से हिलमिल जाए; किंतु वैसा होना असंभव था. उसने आशाभरी आँखें फिरा लीं.
सामने जल-राशी का रजत श्रृंगार था. वरूण बालिकाओं के लिए लहरों से हीरे
और नीलम की क्रीडा शैल-मालाएँ बन रही थीं - और वे मायाविनी छलनाएँ -
अपनी हँसी का कलनाद छोड़क़र छिप जाती थीं. दूर-दूर से धीवरों का

वंशी-झनकार उनके संगीत-सा मुखरित होता था. चंपा ने देखा कि तरल संकुल जलराशि में उसके कंदील का प्रतिबिंब अस्तव्यस्त था! वह अपनी पूर्णता के लिए सैंकड़ो चक्कर काटता था. वह अनमनी होकर उठ खडी हुई. किसी को पास न देखकर पुकारा - ''जया!''
एक श्यामा युवती सामने आकर खडी हुई. वह जंगली थी. नील नभोमंडल - से मुख में शुद्ध नक्षत्रों की पंक्ति के समान उसके दाँत हँसते ही रहते. वह चंपा को रानी कहती; बुधगुप्त की आज्ञा थी.

''महानाविक कब तक आयेंगे, बाहर पूछो तो.'' चंपा ने कहा. जया चली गई.
दूरागत पवन चंपा के अंचल में विश्राम लेना चाहता था. उसके हृदय में गुदगुदी हो रही थी. आज न जाने क्यों वह बेसुध थी. एक दीर्घकाय दृढ पुरूष ने उसकी पीठ पर हाथ रख चमत्कृत कर दिया. उसने फिर कर कहा - ''बुधगुप्त!''

''बावली हो क्या? यहाँ बैठी हुई अभी तक दीप जला रही हो, तुम्हें यह काम करना है?''
''क्षीरनिधिशायी अनंत की प्रसन्नता के लिए क्या दासियों से आकाशदीप जलवाऊँ?''
''हँसी आती है. तुम किसको दीप जलाकर पथ दिखलाना चाहती हो? उसको, जिसको तुमने भगवान मान लिया है?''
''हाँ, वह भी कभी भटकते हैं, भूलते हैं; नहीं तो, बुधगुप्त को इतना ऐश्वर्य क्यों देते?''
''तो बुरा क्या हुआ, इस द्वीप की अधीश्वरी चंपारानी!''

''मुझे इस बंदीगृह से मुक्त करो. अब तो बाली, जावा और सुमात्रा का वाणिज्य केवल तुम्हारे ही अधिकार में है महानाविक! परंतु मुझे उन दिनों की स्मृति सुहावनी लगती है, जब तुम्हारे पास एक ही नाव थी और चंपा के उपकूल में पण्य लाद कर हम लोग सुखी जीवन बिताते थे - इस जल में अगणित बार हम लोगों की तरी आलोकमय प्रभात में तारिकाओं की मधुर ज्योति में - थिरकती थी. बुधगुप्त! उस विजन अनंत में जब माँझी सो जाते थे, दीपक बुझ जाते थे, हम-तुम परिश्रम से थककर पालों में शरीर लपेटकर एक-दूसरे का मुँह क्यों देखते थे? वह नक्षत्रों की मधुर छाया ... ''
''तो चंपा! अब उससे भी अच्छे ढंग से हम लोग विचर सकते हैं. तुम मेरी प्राणदात्री हो, मेरी सर्वस्व हो.''

''नहीं - नहीं, तुमने दस्युवृत्ति छोड़ दी परंतु हृदय वैसा ही अकरूण, सतृष्ण और ज्वलनशील है. तुम भगवान के नाम पर हँसी उडाते हो. मेरे आकाशदीप पर व्यंग कर रहे हो. नाविक! उस प्रचंड आँधी में प्रकाश की एक-एक किरण के लिए हम लोग कितने व्याकुल थे. मुझे स्मरण है, जब मैं छोटी थी, मेरे पिता नौकरी पर समुद्र में जाते थे - मेरी माता, मिट्टी का दीपक बाँस की पिटारी में भागीरथी के तट पर बाँस के साथ ऊँचे टाँग देती थी. उस समय वह प्रार्थना करती - ''भगवान्! मेरे पथ-भ्रष्ट नाविक को अंधकार में ठीक पथ पर ले चलना.'' और जब मेरे पिता बरसों पर लौटते तो कहते - ''साध्वी! तेरी प्रार्थना से भगवान् ने संकटों में मेरी रक्षा की है.'' वह गद्गद हो जाती. मेरी माँ? आह नाविक! यह उसी की पुण्य-स्मृति है. मेरे पिता, वीर पिता की मृत्यु के निष्ठुर कारण, जल-दस्यु! हट जाओ.'' - सहसा चंपा का मुख क्रोध से भीषण होकर रंग बदलने लगा. महानाविक ने कभी यह रूप न देखा था. वह ठठाकर हँस पडा.

''यह क्या, चंपा? तुम अस्वस्थ हो जाओगी, सो रहो.'' - कहता हुआ चला गया. चंपा मुठ्ठी बाँधे उन्मादिनी-सी घूमती रही.

निर्जन समुद्र के उपकूल में वेला से टकरा कर लहरें बिखर जाती थीं. पश्चिम का पथिक थक गया था. उसका मुख पीला पड़ गया. अपनी शांत गंभीर हलचल में जलनिधि विचार में निमग्न था. वह जैसे प्रकाश की उन्मलिन किरणों से विरक्त था.

चंपा और जया धीरे-धीरे उस तट पर आकर खडी हो गई. तरंग से उठते हुए पवन ने उनके वसन को अस्त-व्यस्त कर दिया. जया के संकेत से एक छोटी-सी नौका आई. दोनों के उस पर बैठते ही नाविक उतर गया. जया नाव खेने लगी. चंपा मुग्ध-सी समुद्र के उदास वातावरण में अपने को मिश्रित कर देना चाहती थी.

''इतना जल! इतनी शीतलता! हृदय की प्यास न बुझी. पी सकूँगी? नहीं! तो जैसे वेला में चोट खाकर सिंधु चिल्ला उठता है, उसी के समान रोदन करूँ?

या जलते हुए स्वर्ण-गोलक सदृश अनंत जल में डूबकर बुझ जाऊँ?'' - चंपा के देखते-देखते पीडा और ज्वलन से आरक्त बिंब धीरे-धीरे सिंधु में चौथाई-आधा, फिर संपूर्ण विलीन हो गया. एक दीर्घ निश्वास लेकर चंपा ने मुँह फेर लिया. देखा, तो महानाविक का बजरा उसके पास है. बुधगुप्त ने झुककर हाथ बढाया. चंपा उसके सहारे बजरे पर चढ ग़ई.दोनों पास-पास बैठ गए.

''इतनी छोटी नाव पर इधर घूमना ठीक नहीं. पास ही वह जलमग्न शैलखंड है. कहीं नाव टकरा जाती या ऊपर चढ ज़ाती, चंपा तो?''

''अच्छा होता, बुधगुप्त! जल में बंदी होना कठोर प्राचीरों से तो अच्छा है.''
''आह चंपा, तुम कितनी निर्दय हो! बुधगुप्त को आज्ञा देकर देखो तो, वह क्या नहीं कर सकता. जो तुम्हारे लिए नए द्वीप की सृष्टि कर सकता है, नई प्रजा खोज सकता है, नए राज्य बना सकता है, उसकी परीक्षा लेकर देखो तो... कहो, चंपा! वह कृपाण से अपना हृदय-पिंड निकाल अपने हाथों अतल जल में विसर्जन कर दे.'' - महानाविक - जिसके नाम से बाली, जावा और चंपा का आकाश गूँजता था, पवन थर्राता था - घुटनों के बल चंपा के सामने छलछलाई आँखों से बैठा था.

सामने शैलमाला की चोटी पर हरियाली में विस्तृत जल-देश में नील पिंगल संध्या, प्रकृति की सहृदय कल्पना, विश्राम की शीतल छाया, स्वप्नलोक का सृजन करने लगी.उस मोहिनी के रहस्यपूर्ण नीलजाल का कुहक स्फुट हो उठा. जैसे मदिरा से सारा अंतरिक्ष सिक्त हो गया. सृष्टि नील कमलों में भर उठी. उस सौरभ से पागल चंपा ने बुधगुप्त के दोनों हाथ पकड़ लिए. वहाँ एक आलिंगन हुआ, जैसे क्षितिज में आकाश और सिंधु का. किंतु उस परिरंभ में सहसा चैतन्य होकर चंपा ने अपनी कंचुकी से एक कृपाण निकाल लिया.

''बुधगुप्त! आज मैं अपने प्रतिशोध का कृपाण अतल जल में डुबा देती हूँ. हृदय ने छल किया, बार-बार धोखा दिया!'' - चमककर वह कृपाण समुद्र का हृदय वेधता हुआ विलीन हो गया.

''तो आज से मैं विश्वास करूँ, क्षमा कर दिया गया?'' - आश्चर्य-कंपित कंठ से महानाविक ने पूछा.

''विश्वास? कदापि नहीं, बुधगुप्त! जब मैं अपने हृदय पर विश्वास नहीं कर सकी, उसी ने धोखा दिया, तब मैं कैसे कहूँ? मैं तुम्हें घृणा करती हूँ फिर भी तुम्हारे लिए मर सकती हूँ. अंधेर है जलदस्यु. तुम्हें प्यार करती हूँ.'' - चंपा रो पडी.

वह स्वप्नों की रंगीन संध्या, तम से अपनी आँखें बंद करने लगी थी. दीर्घ निश्वास लेकर महानाविक ने कहा - ''इस जीवन की पुण्यतम घडी क़ी स्मृति में एक प्रकाश-गृह बनाऊंगा, चंपा! यहीं उस पहाडी पर. संभव है कि मेरे जीवन की धँुधली संध्या उससे आलोकपूर्ण हो जाए!''

चंपा के दूसरे भाग में एक मनोरम शैलमाला थी. वह बहुत दूर तक सिंधु-जल में निमग्न थी. सागर का चंचल जल उस पर उछलता हुआ उसे छिपाए था. आज उसी शैलमाला पर चंपा के आदि-निवासियों का समारोह था. उन सबों ने चंपा को वनदेवी-सा सजाया था. ताम्रलिप्ति के बहुत-से सैनिक नाविकों की श्रेणी में वन-कुसुम-विभूषिता चंपा शिविकारूढ़ होकर जा रही थी.

शैल के एक ऊँचे शिखर पर चंपा के नाविकों को सावधान करने के लिए सुदृढ दीप-स्तंभ बनवाया गया था. आज उसी का महोत्सव है. बुधगुप्त स्तंभ के द्वार पर खडा था. शिविका से सहायता देकर चंपा को उसने उतारा. दोनों ने भीतर पदार्पण किया था कि बाँसुरी और ढोल बजने लगे. पंक्तियों में कुसुम-भूषण से सजी वन-बालाएँ फूल उछालती हुई नाचने लगी.

दीप-स्तंभ की ऊपरी खिडकी से यह देखती हुई चंपा ने जया से पूछा - ''यह क्या है जया? इतनी बालिकाएँ कहाँ से बटोर लाई?''

''आज रानी का ब्याह है न?'' - कहकर जया ने हँस दिया.
बुधगुप्त विस्तृत जलनिधि की ओर देख रहा था. उसे झकझोरकर चंपा ने पूछा - ''क्या यह सच है?''

''यदि तुम्हारी इच्छा हो, तो यह सच भी हो सकता है, चंपा! कितने वर्षों से मैं ज्वालामुखी को अपनी छाती में दबाए हूँ.''

''चुप रहो, महानाविक! क्या मुझे निस्सहाय और कंगाल जानकर तुमने आज सब प्रतिशोध लेना चाहा?''

''मैं तुम्हारे पिता का घातक नहीं हूँ, चंपा! वह एक दूसरे दस्यु के शस्त्र से मरे!''

''यदि मैं इसका विश्वास कर सकती. बुधगुप्त, वह दिन कितना सुंदर होता, वह क्षण कितना स्पृहणीय! आह! तुम इस निष्ठुरता में भी कितने महान् होते!''
जया नीचे चली गई थी. स्तंभ के संकीर्ण प्रकोष्ठ में बुधगुप्त और चंपा एकांत में एक-दूसरे के सामने बैठे थे.

बुधगुप्त ने चंपा के पैर पकड़ लिए. उच्छ्वसित शब्दों में वह कहने लगा - ''चंपा, हम लोग जन्मभूमि- भारतवर्ष से कितनी दूर इन निरीह प्राणियों में इंद्र और शची के समान पूजित हैं. स्मरण होता है वह दार्शनिकों का देश! वह महिमा की प्रतिमा! मुझे वह स्मृति नित्य आकर्षित करती है; परंतु मैं क्यों नहीं जाता? जानती हो, इतना महत्व प्राप्त करने पर भी मैं कंगाल हूँ! मेरा पत्थर-सा हृदय एक दिन सहसा तुम्हारे स्पर्श से चंद्रकांत मणि ही तरह द्रवित हुआ.

''चंपा! मैं ईश्वर को नहीं मानता, मैं पाप को नहीं मानता, मैं दया को नहीं समझ सकता, मैं उस लोक में विश्वास नहीं करता. पर मुझे अपने हृदय के एक दुर्बल अंश पर श्रध्दा हो चली है. तुम न जाने कैसे एक बहकी हुई तारिका के समान मेरे शून्य में उदित हो गई हो. आलोक की एक कोमल रेखा इस निविड़तम में मुस्कुराने लगी. पशु-बल और धन के उपासक के मन में किसी शांत और एकांत कामना की हँसी खिलखिलाने लगी; पर मैं न हँस सका!

''चलोगी चंपा? पोतवाहिनी पर असंख्य धनराशि लादकर राजरानी-सी जन्मभूमि के अंक में? आज हमारा परिणय हो, कल ही हम लोग भारत के लिए प्रस्थान करें. महानाविक बुधगुप्त की आज्ञा सिंधु की लहरें मानती हैं. वे स्वयं उस पोत-पुंज को दक्षिण पवन के समान भारत में पहुँचा देंगी. आह चंपा! चलो.''

चंपा ने उसके हाथ पकड़ लिए. किसी आकस्मिक झटके ने एक पलभर के लिए दोनों के अधरों को मिला दिया. सहसा चैतन्य होकर चंपा ने कहा - ''बुधगुप्त! मेरे लिए सब भूमि मिट्टी है; सब जल तरल है; सब पवन शीतल है. कोई विशेष आकांक्षा हृदय में अग्नि के समान प्रज्वलित नहीं. सब मिलाकर मेरे लिए एक शून्य है. प्रिय नाविक! तुम स्वदेश लौट जाओ, विभवों का सुख भोगने के लिए, और मुझे, छोड़ दो इन निरीह भोले-भाले प्रणियों के दुख की सहानुभूति और सेवा के लिए.''

''तब मैं अवश्य चला जाऊँगा, चंपा! यहाँ रहकर मैं अपने हृदय पर अधिकार रख सकूँ - इसमें संदेह है. आह! उन लहरों में मेरा विनाश हो जाए.'' - महानाविक के उच्छ्वास में विकलता थी. फिर उसने पूछा - ''तुम अकेली यहाँ क्या करोगी?''
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''पहले विचार था कि कभी-कभी इस दीप-स्तंभ पर से आलोक जलाकर अपने पिता की समाधि का इस जल से अन्वेषण करूँगी. किन्तु देखती हूँ , मुझे भी इसी में जलना होगा, जैसे आकाशदीप.''

एक दिन स्वर्ण-रहस्य के प्रभात में चंपा ने अपने दीप-स्तंभ पर से देखा - सामुद्रिक नावों की एक श्रेणी चम्पा का उपकूल छोड़क़र पश्चिम-उत्तर की ओर महाजल-व्याल के समान संतरण कर रही है. उसकी आँखों से आँसू बहने लगे.

यह कितनी ही शताब्दियों पहले की कथा है. चंपा आजीवन उस दीप-स्तंभ में आलोक जलाती रही. किंतु उसके बाद भी बहुत दिन, द्वीपनिवासी, उस माया-ममता और स्नेह-सेवा की देवी की समाधि-सदृश पूजा करते थे.
एक दिन काल के कठोर हाथों ने उसे भी अपनी चंचलता से गिरा दिया.
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