रेत-रेत लहू (कविता-संग्रह)
जाबिर हुसेन
प्रकाशक :
राजकमल प्रकाशन, 1-बी, नेताजी सुभाष
मार्ग, नई दिल्ली-110002
रेत-रेत लहू (जाबिर हुसेन)
रेत पर घटित होते हमारे समय की कविताएँ
शहंशाह आलम
यह समय रेत से युक्त समय है. इस समय को रेतीला कहते हुए
मुझे ज़रा भी आश्चर्य अथवा विस्मय कभी नहीं हुआ क्योंकि इस समय के साथ चलते हुए
अकसर मेरे पाँव जल-जल गए हैं. इसलिए कि ये रेत चाँदनी रात में ठण्ड पड़ चुके रेत
नहीं हैं बल्कि ये रेत वे हैं, जो सूरज के साथ
तपते जाते हैं और हमारे पैरों को सूरज की तपिश का आभास भी दिलाते हैं. कुछ-कुछ ऐसी
ही अनुभूति आपको जाबिर हुसेन की कविताओं को पढ़कर होगी. रेत से आभासित जाबिर हुसेन
की कविताएँ समकालीन हिंदी कविता के लिए बेहद मूल्यवान हैं. ये कविताएँ हमारे आसपास
के जीवन की गहरी छानबीन के बाद लिखी गई हैं. ये वे कविताएँ हैं, जो पूरे साहस से हर तानाशाही के विरुद्ध दहाड़ती
हैं. ये वे कविताएँ हैं, जिसकी आँच कभी
धीमी नहीं पड़ती. ये वे कविताएँ हैं, जिसका दरवाज़ा हमेशा खुला रहता है, हमारी आवाजाही के लिए. इसलिए कि इन कविताओं में हमारे जीवन को जगह दी गई है.
जाबिर हुसेन का कविता-संग्रह 'रेत-रेत लहू'
पढ़कर यही अनुभूति आप भी महसूस करेंगे :
नहीं थे तुम
उस दम कि जब
छीनी गई मुझ से
मेरी गोयाई
और मेरी
बीनाई
नहीं थे तुम
उस दम कि जब
तराशी गई मेरी ज़बान
क़लम हुए मेरे बाज़ू
और छलनी हुआ
ज़हर-बुझे तीरों से
मेरा जिस्म('नहीं थे तुम'/पृ.37).
मेरी नज़र में जाबिर हुसेन मुक्तिबोध, शमशेर, नागार्जुन,
त्रिलोचन, केदारनाथ अग्रवाल की कविता-परंपरा के कवि हैं. इन्हीं महान
कवियों के सादृश्य जाबिर हुसेन की कविताएँ अपनी तासीर, अपनी संवेदना, अपनी छटपटाहट, अपनी सामाजिकता,
अपनी प्रगतिशीलता हिंदी कविता में दर्ज करती
हैं. जाबिर हुसेन की कविताएँ एक बेहद निर्मम, बेहद कठोर, बेहद इंसाफ़ पसंद
आदमी की कविताएँ हैं, जो मनुष्यता के
विरुद्ध खड़े किसी शत्रु को नहीं बख़्शतीं. ऐसे शत्रुओं की तीखी आलोचना जितनी ज़रूरी
है, जाबिर हुसेन अपनी कविताओं,
अपनी कथा-डायरियों के माध्यम से ऊर्जाशील और
प्रखर होकर करते आए हैं. जाबिर हुसेन के पास जो कवि-दृष्टि है, वह विलक्षण है, अद्भुत है, जीवंत है,
और तीक्ष्ण है. जाबिर हुसेन का प्रतिवाद आज के
मनुष्य का प्रतिवाद है :
उसे मारो
ज़िंदगी चाहते हो
मेरी और अपनी, तो
उसे मारो
कि उसकी
रीढ़ की हड्डी
एकदम से
टूट जाए
और वो
सदा के लिए
मुख़ालिफ़ हवाओं में
तनकर खड़ा होना
और सिर बुलंद किए
चलते रहना
भूल जाए('उसे मारो कि'/पृ.49-50).
जाबिर हुसेन की कविताओं को लेकर यह कहना मुनासिब होगा कि ये
कविताएँ एक अभिशप्त आदमी की कविताएँ नहीं हैं. ये कविताएँ एक आक्रोशित आदमी की
कविताएँ हैं. जाबिर हुसेन का आक्रोश उन तत्वों के ख़िलाफ़ है, जो हमारे हिस्से का बहुत कुछ दबाकर बैठ गए हैं. वे तत्व
सदियों से ऐसा करते रहे हैं. आज भी कर रहे हैं, पहले से थोड़ा ज़्यादा. उन तत्वों के ख़िलाफ़ ज़्यादातर कवि आँख
मूँदकर, कोई बीच का रास्ता
निकालकर, किसी पतली गली को पकड़कर
निकल ले रहे हैं. लेकिन जाबिर हुसेन उन कुछेक कवियों में हैं, जो उन तत्वों के आमने-सामने रहकर ललकारते हैं
और मुठभेड़ भी करते हैं. इसीलिए जाबिर हुसेन की कविताएँ अकसर संवादधर्मी, बतियाती-बोलती दिखाई देती हैं. यही-यही वजह है
कि जाबिर हुसेन की कविताएँ आत्मतोष अथवा आत्मगत कविताएँ न होकर आत्मबल की कविताएँ
हैं :
नामंज़ूर कर दी है
ज़िले के हाकिम ने
सायरा की अर्ज़ी
हालाँकि
पुलिस की रपट में
उसके पति का
क़त्ल साबित है('सायरा'/पृ.51)
या,
हम में से
किसी को
जैबुन्निसा की सगाई
की तफ़तीश में
जाने की
ज़रूरत नहीं
और
शायद
हम में से
किसी को
यह भी
जानने की
ज़रूरत नहीं
कि पुलिस के
एक कारिंदे ने
ककोलथ के
डाक बंगले में
एक रात
अपने साथियों समेत
गाँव में
जन्मी
और पली
जैबुन्निसा की
इज़्ज़त उतारी('जैबुन्निसा'/पृ.55).
सवाल यह भी है कि
आज कितनी-कितनी सायरा और कितनी-कितनी जैबुन्निसा इंसाफ़ के लिए अपने मुल्क में
संघर्षरत हैं. हमारे देश का मुखिया कहता फिर रहा कि उसका देश आगे बढ़ रहा है. सच ही
कहता है देश का हर मुखिया कि यह देश उसी का है. आज हमारे देश की राजनीति यही कहती
है, देश की राजनीति की
निर्णयात्मक दृष्टि यही होती भी जा रही है कि यह देश यहाँ की किसी जनता का देश
नहीं है बल्कि उन सत्ताधारियों का होकर रह गया है, जो सत्ताधारी लोग हमारे देश को आदिकाल की खाई में रोज़ थोड़ा
और धकेलते हैं और छाती ठोंकर कहते हैं कि मेरा देश आगे बढ़ रहा है. जबकि मेरी
कवि-दृष्टि यही देखती है कि हमारा देश थोड़ा और पीछे चला गया है :
जब
ज़िले के हाकिम ने
कठघरे में खड़े
सायरा के पति
के कंकाल से
उसका
मज़हब पूछा
तो
सायरा के पति
का कंकाल
मौन रहा('सायरा'/पृ.53).
ऐसे दमघोंट समय के लिए मुनासिब यही है कि हर नया-पुराना कवि
अपने शब्दों के हरबे-हथियार से लैस होकर अपने जीवन में उतरे. इसलिए कि हर
सच्चा-अच्छा कवि वही जीवन जीता आया है, जैसे देश का आम नागरिक जी रहा है. इसलिए भी कि अब धीमी आवाज़ में कुछ कहने का
समय नहीं है. कवियों की दुनिया को पहले से ज़्यादा मुखर होना ही होगा, अपनी कवि-दृष्टि की गहराई के साथ. ऐसा होने के
लिए हम जाबिर हुसेन की कविताओं से थोड़ी शक्ति, थोड़ा साहस, थोड़ा ग़ुस्सा उधार
ले सकते हैं. ताकि हम और सार्थक होकर रचनारत रह सकें. इसलिए कि जाबिर हुसेन वैसे
कवियों में हैं, जिनमें ऊर्जा ही
ऊर्जा बची हुई है. आप समकालीन कविता का मूल्यांकन करते हुए जाबिर हुसेन के
कवि-कर्म को छोड़ना चाहें, तब भी छोड़ नहीं
सकते. इसलिए कि जाबिर हुसेन अपनाइयत के प्रखरतम कवियों में शुमार किए जाते हैं :
एक दिन अचानक मेरे कमरे में
अजनबी-सी एक ख़ुशबू फैल गई
कमरे के दरवाज़े से होकर
मेरी मेज़, मेरी आराम-कुर्सी
और बिस्तर होती हुई
मेरे जिस्म को
मुझे लगा
अपनाइयत की इस अजनबी ख़ुशबू में
मेरे लिए कितना-कुछ छिपा है('रेत-रेत लहू'/पृ.97).
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जाबिर साहब की *रेत रेत लहू* कविता-पुस्तक पर समीक्षा के लिए शहंशाह आलम भाई को बहुत-बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंवाह, बहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंबड़ी और ज़रूरी कविताओं की लाजवाब समीक्षा .
जवाब देंहटाएंकवि और समीक्षक को दिल से बधाई .
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