‘पीली रोशनी से भरा काग़ज़’ विशाल श्रीवास्तव का पहला कविता संग्रह है जिसे साहित्य अकादेमी ने ‘नवोदय योजना के अंतर्गत ’प्रकाशित
किया है. विशाल की कविताएँ पत्र-पत्रिकाओं में प्रशंसित होती रही हैं. कविताओं में
सुघड़ता है, वहीं हमारे समय की विडम्बना, हिंसा, वंचना, आडम्बर आदि बहुरूप कथ्य में
बदल कर सृजनात्मक रूपाकार लेते दीखते हैं. कवि देख रहा है कि इस शातिर ‘कवि-समय’
में हत्यारे भी हत्या के विरुद्ध कविताएँ लिख रहे हैं.
हत्यारों के विरुद्ध कविता ज़रूर लिखना
पर देख लेना कि हाथों पर छिपे हुए
कहीं कत्थई दाग़ न हों
जेतवन में भिक्षुणी
बेहद करीब जाने
और लगभग पांच बार सुनने
के बाद
हम यह जान पाते हैं कि
फेफड़ों की पूरी ताकत से
गाती हुई यह सांवली लड़की
हारमोनियम पर जो गा रही
है
वह बुद्धं शरणं गच्छामि
है
जीर्ण भग्नावशेषों और
नये आलीशान विदेशी मठों
के बीच
जिस जगह पच्चीस बारिशों
में भीगते हुए तपस्या की
बुद्ध ने
लगभग उसी जगह
भारत के सबसे पिछड़े गाँवों
में से
एक से आने वाली यह लड़की
बहुत कुरेदने पर बताती है
कि
उसे नहीं पता है इन
शब्दों का अर्थ
वह केवल रिझाती है
विदेशियों को
जिनकी करुणा से चलता है
पूरे घर का जीवन
अब इस पूरे मसले में
तार्किक स्तर पर कोई
समस्या नहीं है
पर जिन्हें पता है इन
शब्दों का अर्थ
क्या वे ही जानते हैं इस
पंक्ति आशय
आगे का छोड़ भी दें
तो हम कहाँ समझ पाये हैं
बुद्ध का पहला ही उपदेश
भव्यता की आभा में दीप्त
आकाशस्पर्शी इन मठों की
छाया में करुणा नहीं
उपजता है आतंक
विचरती हैं इनके हरित
गलियारों में
अविश्वसनीय चिकनी त्वचाओं
वाली
धवल वस्त्राधारिणी स्त्रियाँ
कौन है असली भिक्षुणी?
जेतवन की बारिशें
बार-बार
पूछती हैं एक ही सवाल.
लिखने से पहले
साथी
लिखने से पहले तनिक रुकना
बहुत ज़रूरी है यह ठहराव
ठहरना और झिझकना भी
कहीं भीतर की एक चमक ही
है
कविता में फूल लिखने से
पहले
सोचना कि कब की थी आखिरी
बार
किसी पत्ती से बातचीत
दुःख लिखने से पहले सोच
लेना कि
अपने जीवन में वह कितना
है और कहाँ
हत्यारों के विरुद्ध
कविता ज़रूर लिखना
पर देख लेना कि हाथों पर
छिपे हुए
कहीं कत्थई दाग़ न हों
प्रेम, वह तो सबसे ज़रूरी विषय है
पर तय कर लेना कि उस पर
नहीं जमी
है व्यभिचार की काई
कविता में क्रान्ति करना
तो पहले
हृदय में अंगार रखना
और यह सब न हो पाये तो
हो सके तो मत लिखना
लिखने से पहले
शब्द की ताक़त पर पूरा
भरोसा कर लेना
याद रखना कि उन्हें
प्रकाश में लाने को
एक पेड़ को खोने होंगे
अपने प्राण.
सुबह
बारिश में भीगी कस्बे की
सुबह
पूरी तरह गीली और उदास है
और अचानक
क्षितिज पर कोई लापरवाही
से
थका हुआ बेढब सूरज
टांककर चला गया है चुपचाप
इस मद्धिम उजाले में
तमाम लोग कन्धों पर
स्याह रंग वाला समय ढो
लाते हैं
अपनी सीली और नम सतह से
सुबह उन्हें उनके हिस्सों
का दुख बाँटती है
बोझिल शोक को सम्भालते
लोग
दुःख भूलने के लिए
आपस में संक्रामक इतिहास
बतियाते हैं
इस तरह, धकियाये और निर्वासित
लोगों का यह जनपद
विलाप को किसी पक्के और
गाढ़े सुर में गाता है
आइये इसे
इस गीली और उदास सुबह का
विलक्षणतम संगीत कहें.
हर आदमी मुस्कुराता है अपने फोटो में
हर आदमी मुस्कुराता है
अपने फोटो में
पता नहीं क्यों
मुस्कुराता है हर आदमी
क्या सिर्फ ‘स्माइल प्लीज’ के जुमले की वजह से
या इस कारण कि मुस्कुराने
में इस्तेमाल होती हैं
नाराज़गी से थोड़ी कम
मांसपेशियाँ
वैसे तो मुस्कुराहटों से
पटी पड़ी है हमारी दुनिया
एक अधिनायक लगभग रोज़
मुस्कुराता है
अपने भव्य सफेद घर के
सामने
और ऐसा वह तब करता है जब
वह
अपने युद्धों और सैनिक
कार्यवाहियों के बारे
दुनिया को देता है तफसील
एक दूसरे देश का
जिम्मेदार आदमी
मुस्कुराते हुए करता है
दोस्ती की पेशकश
कहते हैं उसे मुस्कुराने
में काफी मेहनत लगती है
हमारे देश में भी एक
महानायक लगभग रोज
मुस्कुराता रहता है तमाम
चैनलों पर
लोगों को अमीर बनने के
सपने दिखाता रहता है
यह युवा क्रुद्ध आदमी कभी
पहना करता था
पसीने से भीगी हुई लाल
बुशशर्ट
खेलों का एक चैम्पियन भी
मुस्कुराते हुए
तरह-तरह की चीज़ें बेचता
रहता है
विश्वसुन्दरियाँ
मुस्कुराती हैं प्रतिक्षण
अपनी आने वाली हर सांस के
साथ
(जिसे वह पूरी शाइस्तगी से लेती हैं)
मैं देखना चाहता हूँ इन
लोगों को
जब ये मुस्कुरा न रहे हों
या हो सकता है उनका ऐसा
कोई चेहरा ही न हो
वैसे हम सभी मुस्कुराते
रहते हैं अपने-अपने ढंग से
अनचाहे आदमी के सामने भी
कुशलता से मुस्कुराते हैं
अपना दुःख ढांकना हमें
भला लगता है
अब तो मृत्यु पर भी सोच
समझकर रोते हैं लोग
कुछ तो ऐसे मौकों पर
बाकायदा मुस्कुराते भी हैं
कितना भी हो संताप
कितना भी हो दुःख
कितना भी हो क्षरण
पता नहीं क्या कारण है कि
हर आदमी मुस्कुराता है
अपने फोटो में.
दुख के समय
दुख के समय अक्सर लगता है
कि यह सब जो हुआ है
पहले भी हुआ था ठीक ऐसे
ही
इन सर्दियों में
पास की नदी में जितनी नदी
है
उतना ही आसमान भी
किनारे पर हताशा में लेटे
हुए
पीठ को घास की सतह पर
टिकाए हुए
आसमान को नीचे आते हुए सा
देखना
साबित करता है कि धूप कुछ
और नहीं
हमारे भीतर की कोई
गुनगुनी खलबली है
मैं अपनी मातृभाषा में
रोते-रोते थक गया हूँ
और एक अजनबी भाषा में
रोना चाहता हूँ
कि व्याकरण के शैवाल में
फंस जाते हैं मेरे पैर
क्या मेरा असली दुख यह
छटपटाहट है
यह भी तय है कि
जब कोई दुःख को दुःख
लिखेगा
तो सब एक सा ही लिखेंगे
विलाप सबका अलग-अलग होगा
दुख में
आखिर कितना कम है भाषा का सामर्थ्य
दुख के समय अक्सर यह लगता
है
शायद कुछ भी नहीं चाहिए
मृत्यु को
फिर भी थोड़ा एकांत तो
चाहिए ही.
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विशाल श्रीवास्तव
vis0078@gmail.com
विशाल की कविता की धुन अलग है .वे अपनी चमकती हुई भाषा और कथ्य से आकर्षित करते है .यह एक तरह का आश्वासन है कि अच्छी कविताये लिखी जा रही है .
जवाब देंहटाएंभाई विशाल श्रीवास्तव,कितनी उम्दा कविताएँ लिख रहे हो तुम ! क्या टोन है तुम्हारा - flawless ज़ुबान है, कितनी संतुलित,dignified.मुझसे पहले स्वप्निल श्रीवास्तव की तुम्हारी सराहना करने की हिम्मत कैसे हुई ! साहित्य अकादेमी सरीखी दृष्टिहीन संस्था को तुम्हें पहचानने के लिए कुछ पापों से मुक्त किया जा सकता है.मैं तुम पर गर्व कर रहा हूँ.
जवाब देंहटाएंप्रिय Vishal और Arun, यह मेरे इंतज़ारों का संग्रह है। इसे पाने का प्रयास कर रहा हूं। विशाल मेरे बहुत प्रिय कवियों में एक हैं। उनसे एक अव्यक्त संबंध मेरे मन में है। ऐसे कवि कम हैं, जिन्हें आप पसन्द ही नहीं, प्यार भी करते है - विशाल ऐसा ही कविता है। जतिन मेहता और पीली रोशनी से भरे काग़ज़ मेरी स्मृति का स्थायी बन चुके हैं।
जवाब देंहटाएंअरुणजी, इस संग्रह की सभी कविताएँ अच्छी हैं पर जतिन मेहता एम. ए, बस्ता,खरोंच,बड़ी होती लड़कियों के लिए शोकगीत,डाल्टनगंज के मुसलमान,धीमे,कहीं न कहीं रहता है प्रेम,मुन्नू मिसिर का आलाप,ओ पीले पत्ते आदि कविताएँ अपनी संवेदना और उसके भाषा में बरते जाने के ढंग के नाते विशेष रूप से हमारा ध्यान खींचती हैं। 'कहीं न कहीं रहता है प्रेम' की इन पंक्तियों को देखिये -- मैं चूमता हूँ एक निशान/माथा नहीं है यह तुम्हारा/तकिये पर तुम्हारा सिर रखने से बनी/गोल और सुडौल जगह है यह/इसमें रचा हुआ है/तुम्हारे अदृश्य आंसुओं का नमकीन स्वाद/इस जगह में रहस्य हैं/मेरी जानकारी से बहुत-बहुत ज्यादा/इस जगह पर जमी हुई है पीड़ा/मेरी सामर्थ्य से बहुत बहुत अधिक......फिर भी बहुत सी उम्मीदों का माध्यम है यह निशान/यही बताता है कि तमाम कमियों के बावज़ूद/कहीं न कहीं रहता है प्रेम/हमारी देहों में हल्के बुखार की तरह'
जवाब देंहटाएंन केवल ये कि परम्परागत ढंग का रोमांटिसिज्म यहाँ गायब है बल्कि प्रेम की संवेदना को एक ऐसे काव्यानुभव में बदला गया है जिसकी जटिलता हमें अपनी इमेजेज के नाते आकर्षित करती है और प्रेम के प्रति हमारे भरोसे को बढाती भी। इधर लिखी गई प्रेम-कविताओं में इस तरह की कविता की एक अपनी ख़ास जगह है। कवि को और आपको भी ढेरों शुभकामनाएँ!
अच्छी है पर स्वाभाविक नहीं है। बहुत बनावटी है। हिन्दी साहित्य का यही रोना है। कलम पकड़ते ही लोट लकार विधिलिंग----
उम्दा कविताएँ। हर फ्रेम की अलग मुस्कराहट को कवि ने सही फोकस के साथ क्लिक किया है। कवि को बधाई।
जवाब देंहटाएंबहुत सुन्दर कविताएँ
जवाब देंहटाएंबहुत अच्छी कवितायेँ।
जवाब देंहटाएंबहुत बधाई।
विशाल श्रीवास्तव जी की कविताएँ बहुत गहरी होती हैं और उनके इस संग्रह में उनकी स्थानीयता, तमाम वैश्विक दावों पर भारी पड़ती है। कई कविताएँ तो अनेक बार पढ़ने का मन करता है। सादर,
जवाब देंहटाएंएक टिप्पणी भेजें
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