परख : अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग (राजीव रंजन गिरि)








अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग
राजीव रंजन गिरि
प्रकाशक : अनुज्ञा बुक्स, 1/10206 वेस्ट गोरख पार्क
शाहदरा, दिल्ली – 110032

मूल्य : 750/- रुपये  पृष्ठ 391




साहित्य के  आयाम                                                
रणजीत यादव



राजीव रंजन गिरि की किताब अथ-साहित्य : पाठ और प्रसंग अपनी विविध आयामी अर्थवत्ता के कारण एक सृजनात्मक परखधर्मी साहित्यिक हस्तक्षेप है. विगत दस वर्षों में लिखे गये शोध लेख, समीक्षा, संवाद, टिप्पणी इसमें समाहित हैं, जिसे नौ खण्डों में व्यवस्थित किया गया है.

प्रथम खण्ड, भक्तिकाल पर केन्द्रित, ‘सार-सार को गही रखेके अन्तर्गत चार लेख हैं. भक्ति आन्दोलन का अवसान और अर्थवत्ताशोधपरक विचारोत्तेजक लेख है. साहित्य के समस्त काल खण्डों में भक्तिकाल सबसे ज्यादा चर्चित और विवादित रहा है. ऐसे में यह लेख साहित्य एवं इतिहास के महत्वपूर्ण विद्वानों की स्थापनाओं को प्रस्तुत करते हुए उसके अन्तर्विरोधों, सहमति-असहमति के स्वरों का तटस्थ परीक्षण करता है. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, रामविलास शर्मा, हजारी प्रसाद द्विवेदी, नामवर सिंह, मैनेजर पाण्डेय, वासुदेवशरण अग्रवाल, मुक्तिबोध, हरबंस मुखिया, सतीशचन्द्र, इरफान हबीब, एम.एन. श्रीनिवासन और वीर भारत तलवार के मतों को प्रमुखता से शामिल किया गया है. इनकी मान्यता है वर्तमान अर्थवत्ता के सन्दर्भ में ही रचनाओं की विशिष्टता तथा उनके आपसी अन्तर्विरोध को ध्यान में रखने की दरकार है.भक्ति आन्दोलन अपने समस्त रचनात्मक पहल के कारण आज भी महत्वपूर्ण है. इस खण्ड में तीन और लेख हैंअन्धश्रद्धा भाव से आधुनिकता की पड़ताल, राधा के वस्तुकरण की प्रक्रिया और अस्मितावादी अतिचार से मुखामुखम.

दूसरा खण्ड, नवजागरण पर केन्द्रित, ‘स्वत्व निज भारत गहैशीर्षक के तहत छह लेख हैं. आरम्भिक आधुनिकता की तलाश, सत्यार्थ प्रकाश एवं आर्य-समाज, भारतेन्दु-युग और इतिहास-निर्माण, सारसुधा निधि की रचनाएँ, साम्प्रदायिकता, सत्ता और साहित्य तथा भिखारी ठाकुर की कला.  सत्ता बहुत षड्यन्त्रपूर्ण तरीके  से साम्प्रदायिकता का इस्तेमाल करती है. मैकियावेली ने लिखा है कि सत्ता अपनी सुविधा के लिए सुनियोजित तरीके  से भ्रम फैलाती है. साहित्य और सत्ता का सम्बन्ध द्वन्द्वात्मक होता है. कभी हाँ तो कभी ना. इस मामले में सन्त कवि कुम्भनदास बड़े निर्भीक थे, जो गर्व से कहते थे – ‘सन्तन को कहाँ सीकरी सो काम. उत्तरोतर काल में सत्ता विरोधी स्वर आवश्यकतानुसार घटते-बढ़ते रहे. भारतेन्दु अँग्रेज राज सुख साज सजे सब भारीदेखते हैं तो प्रताप नारायण मिश्र अपने को राजभक्तघोषित करते हैं. ये है आधुनिक युग के समाज हितैषी लेखकों के हाल. वही कुछ रचनाओं और रचनाकार भी हैं जो सत्ता विरोधी स्वर के लिए हमेशा याद किये जाएँगे. प्रेमचन्द का सोजे वतन, तसलीमा नसरीन की आत्मकथा तथा मुक्तिबोध की किताब को प्रतिबन्धित किया गया. इतना ही नहीं कुछ ऐसे स्वनाम धन्य विद्वान भी हैं, जिन्होंने इमरजेन्सी का समर्थन किया, फिर भी प्रतिशील बने हुए हैं. भिखारी ठाकुर की कलाके अन्तर्गत सहज सादगीपूर्ण किन्तु संघर्षशील भिखारी ठाकुर के जीवन के कलात्मक अवदान को प्रस्तुत किया गया है.

तीसरे खण्ड, ‘सघनतम की आँखशीर्षक के तहत नौ लेख हैं, जो प्रेमचन्द की रचनात्मकता से रूबरू कराते हुए, इनकी आलोचना दृष्टि, सृजनात्मक विवेक और समसामयिक विमर्शों के केन्द्र में इनका मूल्यांकन करते हैं. प्रेमचन्द का प्रयोजनमें साहित्य का उद्देश्यके अन्तर्गत मुख्य स्थापनाओं को रेखांकित करने का प्रयास किया गया है. प्रेमचन्द साहित्य की परिभाषा जीवन की अलोचना के रूप में करते हैं. भाव और भाषा में पहले कौन? प्रेमचन्द का मत है – ‘भाषा साधन है, साध्य नहीं.

चौथे खण्ड, ‘कथा प्रान्तरके अन्तर्गत पाँच लेख हैं. इसके केन्द्र में उपन्यास और कहानियाँ हैं. अँग्रेजी ढंग का पहला हिन्दी उपन्यासमें लाला श्री निवासदास के परीक्षा गुरुके साथ नामवर सिंह द्वारा दिये गये व्याख्यान अर्ली नावेल्स ऑफ इण्डियाकी चर्चा है.

पाँचवें खण्ड जहाँ मूल्यवान हैं शब्दके तहत कविता पर विचार-विमर्श किया गया है. इसमें आठ लेख हैं. पूर्वग्रहके अज्ञेय पर एकाग्रअंक की चर्चा अज्ञेय पर पूर्वग्रहशीर्षक से की गई है. साथ ही मुक्तिबोध की अवधारणा जड़ीभूत-सौंदर्याभिरूचिकी खोज-खबर ली गई है.

देखना दिखन कोमें आलोचना एवं आलोचकों की पड़ताल की गयी है. इसमें कुल छह लेख हैं. अयोध्या प्रसाद खत्री का महत्वमें हिन्दी, उर्दू भाषा विवाद के जिक्र के साथ ही खत्री जी की निर्भयता का वर्णन है. एक उदाहरण देखें– ‘बाबू भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ईश्वर नहीं थे. उन्हें शब्दों का (फिलोलॉजी) कुछ भी बोध नहीं था. यदि फिलोलॉजी का ज्ञान होता तो खड़ी बोली में पद्य रचना नहीं हो सकती, ऐसा नहीं कहते.निश्चय ही जिस समय भारतेन्दु की ख्याति चरम पर थी, उस समय ऐसी बात उन्हें कोई नहीं कह सकता था, जो खत्री जी ने कही. इनकी एक उपलब्धि खड़ी बोली का विभाजन भी है. उन्होंने इसे पाँच भागों में बाँटा - ठेठ हिन्दी, पण्डित जी की हिन्दी, मुन्शी जी की हिन्दी, मौलवी साहब की हिन्दी और यूरेशियन हिन्दी!’ ‘दूसरी परम्परा के सर्जकमें भारतीय साहित्य को ऐतिहासिक सांस्कृतिक और मानवीय मूल्यों के आलोक में देखने वाले आलोचक पण्डित हजारी प्रसाद द्विवेदी का पूज्य स्मरण है. जिस कबीर को आचार्य शुक्ल कुछ वाक्यों में पिट गये, उसी कबीर पर ठोस तार्किकता के साथ एक अच्छी पुस्तक कबीर’ (1942) आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने लिखी.

सातवाँ, ‘उड़ान की अकुलाहटमें स्त्री और दलित विमर्श पर केन्द्रित आलोच्य खण्ड है. इसमें आठ लेख हैं. मुक्तिआकांक्षा की रचनाकारमें महादेवी वर्मा के विशिष्ट रचनात्मक पक्ष को मूल्यांकित किया गया है. इसमें इनके द्वारा रचित गद्य एवं पद्य दोनों शामिल हैं. जिस समय महादेवी वर्मा शृंखला की कडिय़ाँलिख रही थीं, सीमोन द बोउवा बच्ची थीं, ऐसा कर महफिल जीतनेवाले बौने आलोचकों से सवाल  भी किया गया है.


सौन्दर्य का मिथक-निर्माणमें पश्चिमी दृष्टिकोण में आये सौन्दर्य के प्रति बदलाव का तार्किक विश्लेषण किया गया है. कई महत्वपूर्ण पुस्तकों के हवाले से, जिसमें सिमोन द बोउवा की सेकेण्ड सेक्सऔर नाओमी वुल्फ की - द ब्यूटी मिथप्रमुख हैं, बताया गया है कि बाजार सौन्दर्य के प्रतिमानों को तय कर रहा है. इसके आँकड़े भी प्रस्तुत किये गये हैं. रह गयी अधूरी पूजा जो साहित्य मेंलेख में स्त्री विमर्श को विभिन्न साहित्यिक एवं ऐतिहासिक पहलू से देखा गया है. सीमान्तनी उपदेश, एक अज्ञात हिन्दू औरत, बंग महिला और केट मिलेट के सेक्सुअल पॉलिटिक्सके वैचारिक तत्वों को निरूपित किया गया है. राजीव का मानना है कि स्त्री रचनाशीलता की परम्परा समृद्ध है – ‘थेरीगाथा की विश्वारा, आयारका, उण्विटी, संस्कृत प्राकृत की विज्जका, रेखा, भक्तिकाल की मीरा, सहजो, अक्क-महादेवी और आधुनिक काल की महादेवी वर्मा, सुभद्रा कुमारी चौहान, उषा देवी मित्रआदि. सुमन राजे के हिन्दी साहित्य का आधा इतिहासके मत की भी चर्चा है.

आठवें खण्ड भाषा बहता नीरमें, भाषिक विमर्श को शामिल कि या गया है. इसमें कुल छह लेख हैं. भाषा, साहित्य और शिक्षणएनसीआरटी के पाठ्य-पुस्तक के अन्तर्गत शामिल किये गये रचनाकार और उनकी रचनाओं का विश्लेषण है. क्षितिज, कृतिका, संचयन और स्पर्शइन चारों किताबों में शामिल पाठ केन्द्र में हैं. पुस्तक कैसी होइस परिप्रेक्ष्य में आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी का कथन उद्धृत किया गया है ‘‘जिस पुस्तक से मनुष्य का अज्ञान, कुसंस्कार और अविवेक दूर नहीं हो जाता, जिससे मनुष्य शोषण और अत्याचार के विरुद्ध सिर उठाकर खड़ा नहीं हो जाता. जिससे वह छीना-झपटी, स्वार्थपरता और हिंसा के दलदल से उबर नहीं पाता, वह पुस्तक किसी काम की नहीं.वास्तव में किसी भी पाठ्य-पुस्तक का उद्देश्य सिर्फ सैद्धान्तिक आदमी तैयार करना नहीं होता, बल्कि उसमें मानवोचित गुण-व्यवहार का विकास भी अपेक्षित होता है, तभी बेहतर समाज बन सकेगा.

सबद निरन्तरइस किताब का आखिरी खण्ड है. इसमें कुल दस लेख हैं, साथ ही कुछ टिप्पणियाँ भी शामिल हैं. प्रथम हैं– ‘बात-बात में बात. यह यशपाल की रचना है. इसमें चौदह चरित्रों की कल्पना है– ‘जिज्ञासु, राष्ट्रीयजी, वैज्ञानिक, शुद्ध साहित्यिक, प्रगतिशील, सर्वोदयी, इतिहासज्ञ, माक्र्सवादी, कामरेड, श्रीमती जी, महिला, भद्रपुरुष, काँग्रेसी और मौजी.बुजुर्गों की कहावत भी उद्धृत किया गया है– ‘ज्यों केला के पात में पात-पात में पात, त्यों चतुरन की बात में बात-बात में बात.इतना ही नहीं तत्व बोध की भी बात शामिल हैवादे वादे जायते तत्व बोध :.

राजीव रंजन गिरि की किताब अथ-साहित्य: पाठ और प्रसंगविचार-विमर्श, शोध, समीक्षा, टिप्पणी और पिछले एक दशक में सर्जनात्मकता के स्तर पर हुई पहल की विद्वतापूर्ण, बौद्धिक पड़ताल है. प्रथम खण्ड में भक्तिकालीन विमर्शों से सार तत्वों को ग्रहण किया गया है. वहीं द्वितीय खण्ड में आधुनिकता के साथ सत्ता और साहित्य की परख की गई है. तृतीय में प्रेमचन्द के रचनात्मक कौशल के साथ ही उन्हें विवाद और विमर्श दोनों स्थितियों में परखा गया है. चतुर्थ खण्ड में उपन्यास सम्बन्धित विश्लेषण हैं वही पंचम में काव्य-कौशल का परीक्षण है. छठे में आलोचना पर दृष्टिपात के साथ ही चर्चित आलोचकों की स्थापना का मूल्यांकन है. सातवें में स्त्री दलित विमर्श की केन्द्रीयता है, वही आठवें में भाषा चिन्तन. नौवें खण्ड में विभिन्न मसलों लेख हैं. इस प्रकार साहित्य की बौद्धिक परख की गई है. सभी लेख पहले की चर्चित पत्रिकाओं - आलोचना, पाखी, पुस्तक वार्ता, वागर्थ, संवेद, वाक्, अनभै साँचा, वसुधा आदि में प्रकाशित हो चुके हैं. समग्रता में पढऩे और समझने का अपना ही आनन्द है.

यह किताब रचनात्मक और वैचारिक ऊष्मा से परिपूर्ण एक सशक्त हस्तक्षेप प्रस्तुत करती है. यह किताब पठनीय और संग्रहणीय है. साहित्य को बहुआयामी कोण से देखने, समझने और सोचने हेतु सहायक भी है.
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रणजीत यादव
शोधार्थी, हिन्दी विभाग
दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली-7

8/Post a Comment/Comments

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  1. रणजीत जी ने अच्छा विवेचन किया है । उनकी समीक्षा बहुत सलीके से राजीव रंजन गिरि की पुस्तक को संपूर्णता में प्रस्तुत करती है।
    लेखक को बधाई और समीक्षक को धन्यवाद।

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  2. राजीवजी की मेहनत के प्रति गहरी कृतज्ञता और रणजी त का आभार

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  3. पुस्तक के लिए बहुत बहुत बधाई राजीव जी। आपकी लेखनी उत्कृष्ट है और शोधपरक है। रणजीत यादव जी की पुस्तक पर समीक्षा पढ़ी। पुस्तक की समीक्षा संपूर्ण पुस्तक की विशेषताओं को प्रस्तुत कर रही है। पुस्तक निश्चित रूप से संग्रहणीय और अतुलनीय है। समीक्षा के लिए रणजीत जी को बधाई। हार्दिक शुभकामनाएँ।

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  4. Good book written by Sh Rajiv ji which is very useful for a common man also he wants to know about Bhaktikal and it's history

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  5. Rajiv ji Hmesa Se Nari sasaktikaran aur Dalit utthan ke bare me apni awaj samay samay Par uthane Rahe Hai.
    Unhone apni isi parmpra ko Age badhane Huye Hindi sahitya Me Nari Shakti Ke Prayas ko joradar Dhang se rakha Hai.

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  6. राजीव सर पुस्तक के लिए सर्वप्रथम आपको बधाई... सर नौ खण्डों में साहित्य की विभिन्न पायदानों की पड़ताल में जुटे आपकी समीक्षा, आलेख,टिप्पणियों के जरिए आपने अवश्य ही साहित्य की परतों को खंगाला होगा...निश्चय ही यह पुस्तक संग्रहणीय है... आपको इस पुस्तक हेतु एक बार फिर बधाई...

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  7. राजीव सर पुस्तक के लिए सर्वप्रथम आपको बधाई... सर नौ खण्डों में साहित्य की विभिन्न पायदानों की पड़ताल में जुटे आपकी समीक्षा, आलेख,टिप्पणियों के जरिए आपने अवश्य ही साहित्य की परतों को खंगाला होगा...निश्चय ही यह पुस्तक संग्रहणीय है... आपको इस पुस्तक हेतु एक बार फिर बधाई...

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  8. गहन विवेचनात्मक समीक्षा

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