विष्णु खरे : सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामि








विष्णु खरे ने अपने इसी स्तम्भ में राजनेताओं और सिने-जगत के सम्बन्धों पर पहले भी लिखा है. सलमान खान के रियो ओलंपिक 2016 में भारत की ओर से गुडविल एंबेसडर बनाए जाने पर यह मुद्दा फिर मौजूं हो गया है ख़ासकर ऐसे में जबकि वह अभी भी तमाम तरह के आरोपों से बे-गुनाहगार साबित नहीं हुए हैं.

सर्वपापेभ्यो मोक्षयिश्यामि                                   
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विष्णु खरे 



पिछले दिनों देश के अखबारों में एक दिलचस्प फ़ोटोग्राफ़ देखा गया था – शायद वह भारतीय टेलीविज़न पर जीवंत भी प्रसारित हुआ हो. एक राष्ट्रीय महत्व के समारोह में देश के कतिपय सर्वोच्च नेता एक अत्यंत लोकप्रिय अभिनेत्री की प्रतीक्षा कर रहे थे. उसे पाबंदी से आना ही था और जब वह आई तो नज़ारा बेहद दिलचस्प हो गया. सभागार में उपस्थित सारे नेताओं  के चेहरे मंत्रमुग्ध हो गए. भारतीय राजनेताओं के मुखमंडलों पर ऐसी कोमलता और लगभग दासता-जैसी मुस्कान पहले कभी देखी नहीं गई. दृश्य ऐसा था कि रियाया या प्रजा मलिका-ए-आलिया या पट्टमहिषी के दीदार या दर्शन कर रही हो. लेकिन चूँकि रिश्ते ऐसे नहीं थे तो होठों से नहीं, चक्षुओं से लार टपकाई गई. वह सुंदरी अपने और उस अवसर के महत्व से वाक़िफ थी इसलिए उसने अपने मुरीदों पर मेहरबानी की लम्बी-गहरी नज़र डाली. फोटो से ऐसा ही लगता था. हमें नहीं मालूम कि नेताओं और उनके परिवारों में से कितनों ने उसके साथ सैल्फ़ी खिंचवा कर अपना जीवन धन्य किया.

नेताओं और अभिनेताओं के बीच भावनात्मक सम्बन्ध पहले भी थे, लेकिन वह धीरे-धीरे विकसित हुए हैं. महात्मा गाँधी या जवाहरलाल नेहरु अपने ज़माने के शायद ही किसी एक्टर-एक्ट्रेस को खुद होकर जानते रहे हों. उस युग के नेताओं का व्यक्तित्व ऐसा था कि उनके सामने फ़िल्मवाले बहुत अदने और निरर्थक मालूम होते थे. उन नेताओं के पास सिनेमा जैसी छिछोरी गतिविधि के लिए वक़्त न था – हाँ, वह कुछ महान अभिनेताओं को जानते रहे होंगे, फ़िल्में तो शायद उनकी भी न देखी होंगी – किसी को चाहे बुरा लगा हो या भला.

लेकिन जब ‘बड़े’ नेता मंच पर न रहे और 1960 के दशक के बाद एक राष्ट्रीय व्यसन के रूप में सिनेमा अभूतपूर्व लतियलों को खींचने लगा तो राजनीति और सिनेमा ने परस्पर ध्यान आकर्षित किया. राजनीति में यदि वास्तविक शक्ति और सत्ता थी तो फिल्मों और अभिनेताओं में करोड़ों के दिल-ओ-दिमाग पर छा जाने की रहस्यमय ताक़त थी. विलक्षण यह था कि राजनीति को अपनी शक्ति का अहसास हमेशा से था लेकिन सिनेमा का मामला हनुमानजी जैसा था, जब उसे अपनी सार्वजनिक सत्ता और ‘अपील’ के बारे में बताया गया तब वह जागा.

अमिताभ बच्चन ने सपरिवार राजनीति में जाकर सफलता और असफलता दोनों अर्जित कीं.  बीच में उन्होंने सियासत को नाबदान कहा. फिर अमरसिंह जैसे राजनीतिक रूप से संदिग्ध ‘’नेता’’ से जुड़े. एक विचित्र पलटी या कुलाटी खाकर आज वह प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और उनकी पार्टी के साथ हैं. लेकिन वह उस तरह ‘’युवा ह्रदय सम्राट’’ नहीं हैं जैसे कि हिन्दू-मुस्लिम दर्शकों के बीच सलमान खान हैं. नरेन्द्र मोदी इन दोनों ‘’भाइयों’’ का इस्तेमाल बखूबी जानते हैं. कभी वह बच्चन तुरुप चलते हैं तो कभी सलमान तुरुप. सिनेमा और राजनीति के वर्तमान जटिल संबंधों पर शोध की दरकार है.


उन्हें मालूम है कि अमिताभ बच्चन कभी भी भारत की ओलिम्पिक टीम के प्रतीक नहीं बन सकते. बन तो सलमान खान भी नहीं सकते लेकिन जो करोड़ों दक्षिण एशियाई युवा खेल-प्रेमी ओलिंपिक खेल देखेंगे भी वह अमिताभ बच्चन की इज्ज़त करते हुए भी उन्हें ओलिंपिक-प्रसारणों के बीच देखना नहीं चाहेंगे. सलमान अपनी ऊलजलूल हिट फिल्मों के कारण ओलिंपिक-आकर्षण बन सकते हैं – भले ही उनके अब तक के सफल खेल सिर्फ सोते हुए आदमियों और कुलांचे भरते हिरणों की निशानेबाज़ी  ही क्यों न रहे हों. हाँ,Being Human टी-शर्ट सिलवाने और बेचने का उनका अनुभव भारत सरकार को ख़फ़ीफ़ भारतीय दस्ते के लिए रेडीमेड ड्रैस सप्लाइ करने के काम आ सकता है.

सलमान को ओलंपिक्स के साथ जोड़ने पर कुछ असली और पदक-विजेता खिलाड़ियों ने असंतोष प्रकट किया है. सच तो यही है कि इस हरकत से खेल-भावना और खिलाड़ियों का निर्लज्ज अपमान हुआ है. लेकिन वह लेखकों द्वारा अपने पुरस्कार लौटाए जाने जैसे राष्ट्रीय-वैश्विक साहित्यिक-बौद्धिक-राजनीतिक आयाम प्राप्त न कर सका. अव्वल तो सलमान को ओलिंपिक टीम का आकर्षण बनाना  दाभोलकर-पानसरे-कलबुर्गी की हत्याओं जैसा जघन्य अपराध नहीं है और एक्टरों-खिलाड़ियों में अपनी राष्ट्रीय टीम को लेकर उतना गर्व और प्रतिबद्धता नहीं हैं. सभी जानते हैं कि भारतीय खेलों की कितनी दुर्दशा है. अमेरिका,रूस,चीन आदि बिना किसी घटिया एक्टर के हर चौथे वर्ष कई किलो मैडल ले जाते हैं. वहाँ कोई आत्म-सम्मानी अभिनेता करोड़ों डॉलरों की लालच में ऐसी अनधिकार चेष्टा करेगा भी नहीं. अगर अमेरिकी राष्ट्रपति अपने किसी विश्वविख्यात एक्टर को ओलिंपिक टीम के साथ भेजता तो सारे देश में दोनों पर अकल्पनीय लानतें भेजी जातीं. लेकिन भारत में यह लेखकों, बुद्धिजीवियों, पत्रकारों का विषय नहीं. रही बात हमारे अंतर्राष्ट्रीय स्टार के खिलाड़ियों तो उनकी घिग्घी इसी पर बंधी हुई है अभी जो मौके मिलते हैं वह कहीं सलमान-सरकार निंदा से हाथ से न निकल जाएँ. इस देश में हर ईमानदार achiever एक आतंक और कई तरह के blackmail के तहत भी जिंदा रहता है. जो स्वयं प्रधानमंत्री का चहेता हो वह बाक़ी सब के लिए Untouchable – अस्पृश्य – हो जाता है – उसे कोई हाथ नहीं लगा सकता.

संसार के पतिततम देश में यह संभव नहीं कि एक मुलजिम-मुजरिम को ओलिंपिक सरीखी वैश्विक महत्व की प्रतियोगिता की परेड में अपने खिलाड़ियों का नेतृत्व करने दिया जाए. यह ऐसा ही है जैसे सनी लेओने को अखिल भारतीय कॉलेज-सुंदरी प्रतियोगिता की निर्णायक बना दिया जाए. ओलंपिक्स में सर्वोच्च खेल और नैतिक मानदंड निबाहे जाते हैं. क्या प्रधानमन्त्री यह सोचते हैं कि कोई भी विदेशी पत्रकार सलमान से उन पर चल रहे मुक़द्दमों के बारे में नहीं पूछ सकता ? क्या आप सारे अख़बारों-चैनलों के मुँह बंद कर देंगे ?

लेकिन सलमान की नामजदगी देश के लिए एक और भयानक पैगाम लिए हुए है. यदि आपके बंगले पर देश के सर्वोच्च नेता आते हों, आपके साथ कनकौएबाज़ी करते हों, सपरिवार फोटो खींचते-खिंचाते हों, तो सुबकती हुई न्यायपालिका को यह स्पष्ट सन्देश है कि वह सोच-समझकर ऐसे रसूखदार जन-नायकों पर फैसले दे क्योंकि कोई भी उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता

स्वयं ऐसे लोग समझ चुके होते हैं कि सब धर्मों को छोड़ कर केवल एक की शरण में जाना होता है और वह उन्हें सारे पापों से मुक्त करवा देता है. प्रशासन और पुलिस तो यह पहले से ही समझे हुए होते हैं, न्यायपालिका कब तक बिसूरेगी.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)

विष्णु खरे
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

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  1. बहुत सटीक एवम् सार्थक लिखा।
    बेलाग तथा निर्भीकता से लिखने वाले आदरणीय विष्णु जी!आपकी लेखनी से निकली सच्चाई गजब की है।
    आभार।

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  2. प्रिय सलोनीजी,आपको बहुत धन्यवाद लेकिन सिर्फ लेखक का बेलागपन और निर्भीकता काफ़ी नहीं होते.उन्हें सम्पूर्णता और प्रभावी सार्थकता तभी मिलती हैं जब उन्हें उतनी ही साहसिकता से आप-जैसे सहभागियों द्वारा पढ़ा और महसूस किया जाए.फ़ाशिज़्म आधा सफल और कारगर उसी वक़्त हो जाता है जब मात्र उसके द्वारा पैदा किए गए भय और आतंक से हम में से अधिकांश चुप होते या कर दिए जाते हैं और कई ''बौद्धिक'' या विचारधारागत पलायन-मार्ग खोजने लगते हैं.अपने समाज में इसके लक्षण लगातार बढ़ते दिखाई दे रहे हैं.कहा नहीं जा सकता कि हम सरीखे लोग भी कब तक अपनी हिम्मत बटोरते रहेंगे और survive कर पाएँगे.यह भी सच है कि अकारण, दिग्भमित और भावुक शहीद बनने की आत्महत्या भी बहुत नुकसान कर सकती है.फ़ाशिज्म अभी पूरी तरह से आया नहीं है,मंज़र बहुत धुँधलके-भरा है, लेकिन महज़ भेड़िया आया भेड़िया आया का क्रंदन भी उसके पक्ष में ही जा सकता है.सच तो यह है कि यह लड़ाई बहुत ज़ल्दी शब्दों और चेतावनियों से परे जाने वाली है.यह बात अलग है कि हम कई औचित्यों का पल्लू थाम कर मात्र एक चुप ''विरोध'' को बड़ी प्रतीकात्मक कार्रवाई समझने लगें.रणनीति बहुत जटिल, बहुआयामीय और विरोधाभासी हो सकती है.यह युद्धपर्व के प्रारंभिक दिन भी हो सकते हैं.संकोच के साथ कहना पड़ता है कि अब कुछ भी अतिनाटकीय नहीं रह गया लगता है.

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