परख : एक थी मैना एक था कुम्हार (उपन्यास ) : राकेश बिहारी








एक थी मैना एक था कुम्हार (उपन्यास)
लेखक – हरि भटनागर

 प्रकाशक – रचना समय, भोपाल
पृष्ठ संख्या – 180
मूल्य – 300 रुपये



समीक्षा
तुम चुप क्यों हो मैना?                        
राकेश बिहारी 
प्यारी मैना!


एक अंजान व्यक्ति का यह आत्मीय सम्बोधन निश्चित ही तुम्हें कुछ अजीब या अटपटा-सा लग रहा होगा, पर तुम नहीं जानती मेरे जैसे जाने कितने और होंगे जिन्होंने तुम्हें भोला कुम्हार के आँगन में देखा होगा और मन ही मन तुम्हें अपना दोस्त मान बैठे होंगे. तुम्हारी मीठी लेकिन उदास आवाज़ में नीम के झुरमुट से छन-छन कर आती उन शोक-लहरियों ने जाने कितने लोगों के भीतर अपनत्व की एक गाढ़ी बेचैनी घोल दी होगी. उस दिन सुबह की पीली धूप में नहाये नीम की कड़वी-मीठी गंध के बीच जब तुम भोला से अपनी आपबीती कह रही थी जाने कितनी  आँखों में तुम्हारे जीवन साथी मैना का खून आंसू बन कर उतर आया होगा. जानती हो मैना! तुम्हारी करुण कहानी सुनकर खून से भींग उठी उन अनगिनत आँखों में एक जोड़ी आँखें मेरी भी थीं. भोला तो भोला ठहरा, उत्साह और भावना में कुछ भी कर जाता है, पर जब से तुम उसके साथ हुई न मेरी नसों में आश्वस्ति का सुकून उतर आया था कि कुछ भी हो जाये तुम उसे सभी संकटों से उबार लोगी,  कि तुम्हारे रहते कोई पटवारी या कलक्टर उसका कुछ नहीं बिगाड़ पाएगा.

क्या तुम्हें याद है कि इसके बहुत पहले जब कुम्हार के घर तुम्हारा आना जाना शुरू ही हुआ था और एक दिन किसी चील से तुम्हारी रक्षा करने का खयाल आने पर जब भोला ने तुम्हारे आगे एक बड़ा सा पिंजरा बनवाने का प्रस्ताव रखा था तो तुम चुप रह गई थी? मिश्री सी आवाज़ वाली मैना! उस दिन पहली बार तुम्हारा न बोलना मुझे बहुत भाया था. थोड़ी देर बाद कुम्हार से कही तुम्हारी वह बात मुझे आज भी शब्दशः याद है - खुला आसमान मेरी छांव है, वही सबसे बड़ा पिंजरा है मेरा. उस क्षण अचानक ही मैं तीस साल पीछे की स्मृतियों में लौट गया था और छठी जमात में पढ़ी शिवमंगल सिंह सुमन की एक कविता की कुछ पंक्तियाँ शब्द-दर-शब्द याद हो आई थीं हम पंछी उन्मुक्त गगन के  पिंजरबद्ध न रह पाएंगे. कनक तीलियों से टकरा कर पुलकित पंख टूट जाएँगे... होती सीमाहीन क्षितिज से इन पंखों की होड़ाहोड़ी या तो क्षितिज मिलन बन जाता या तनती साँसों की डोरी. लगभग तीस साल पहले अपने सहपाठियों के साथ झूम-झूम कर दुहराते हुये याद की गई उस कविता का ठीक-ठीक अर्थ मुझे उसी दिन समझ में आया था. उस दिन से ले कर आज तक मैंने तुम्हें कभी खुद से अलग नहीं माना. शायद हरी भटनागर जी को भी यह नहीं मालूम हो कि भोला के परिवार में उसकी पत्नी, उसका बेटा गोपी, बड़े मियां और तुम्हारे अतिरिक्त मेरे जैसे कितने और लोग चुपचाप शामिल हो चुके हैं. इसलिए तुम भले मुझे न पहचानती हो पर तुम मुझ जैसे कई लोगों की ज़िंदगी में शामिल हो! क्या अब भी मेरा यह आत्मीय सम्बोधन तुम्हें अटपटा लग रहा है मेरी प्यारी मैना?


मैंने अभी जिस कविता का जिक्र किया उसमें जिस सीमाहीन क्षितिज की बात है, तुम्हारा मैना भी तो उसी अनंत आकाश में अबाध उड़ान भरना चाहता था न! लेकिन राजा को पंछी की उड़ान से क्या मतलब, वह तो उसके कंठ में बसे सुर और पंख में छिपी नृत्य-भंगिमाओं को अपने दरबार का हिस्सा बना लेना चाहता है. तुम तो बहुत समझदार हो मैना, जानती हो कि दुनिया की तमाम कलाएं अपने भीतर स्वभावत: प्रतिरोध की चमक छुपाए रहती हैं, इसी कारण सत्तातन्त्र उसे अपने अधीन रखना चाहता है. जिस कलाकार ने लोभ-लाभ या भय के कारण सत्ता की गुलामी स्वीकार ली उसे कोई खतरा नहीं होता लेकिन जिसने उस सत्ता के आधिपत्य को नकारा सत्ता उससे जीने का हक भी छीन लेती है. अपनी कला और अभिव्यक्ति की आज़ादी का सौदा न करनेवाले तुम्हारे मैना की गर्दन मरोड़ कर राजा ने उसे भले मुक्त कर दिया हो पर वह और उसकी दृढ़ता मुझ जैसे तुम्हारे अनगिनत दोस्तों की स्मृतियों में वैसे ही जिंदा है. यकीन करो मैना, हम उसे कभी मरने नहीं देंगे. मुझे तुम पर इस कारण भी गर्व है कि तुमने उस अपार दुख के बोझ तले दबना नहीं स्वीकारा बल्कि भोला के परिवार में शामिल हो कर अपनी दूरदर्शिता और समझदारी से मनुष्य और मनुष्येतर प्राणियों के जीवन की खूबसूरती बचाने में लगी रही.

मेरी मैना! मैं तुमसे एक बात और कहना चाहता हूँ, जब तुम भोला से अपनी आपबीती सुना रही थी न मुझे अपनी दादी की बहुत याद आई. तोता-मैना, राक्षस-परी, आग-समंदर, और राजा-मंत्री की जाने कितनी कहानियाँ थीं उनके पास. कुछ तो मुझे अब भी याद हैं. दो-एक तो मैंने अपनी बेटी को भी सुनाया है. बहुत खुश होती है उन्हें सुन कर वह. कुछ तो मुझसे रिकार्ड कराकर उसने व्हाट्सएप पर अपने दोस्तों को भी भेजा है. जानती हो, इन कहानियों को सुनते हुये उसके भीतर भी ठीक वैसे ही कौतूहल उठते हैं जैसे तब हमारे मन में हुआ करते थे. समंदर और आग के बीच बातचीत कैसे हुई होगी या फिर नन्हीं गौरैया की भाषा राजा को कैसे समझ में आई होगी, इन बातों का जवाब न तो दादी ने मुझे दिया था न  मैं ही अपनी बेटी को दे पाता हूँ लेकिन तुम्हारी कहानी के माध्यम से जब से मैंने कला और सत्ता के संबंधों को समझा है तो दादी की सुनाई उन कहानियों के भी कई अर्थ मेरे भीतर खुलने लगे हैं. सच, तुम्हारी और तुम्हारे मैना की उपस्थिति ने एक साधारण से दिखते कथानक को कितना कलात्मक और अर्थपूर्ण बना दिया है!

और हाँ, यहाँ यदि मैंने बड़े मियां का हालचाल नहीं पूछा तो भोला के परिवार और कथानक के साथ बहुत नाइंसाफी होगी. कैसे हैं वो? अवध ने तो उनके साथ बहुत बुरा सलूक किया. बिना सोचे समझे उसे उस तरह तो नहीं मारना चाहिये था. वैसे भी बड़े मियां गधा होने के बावजूद जिस तरह गधेपन से मुक्त हैं, उसे देख कर एक बारगी विश्वास नहीं होता, समझदार गधा का चुटकुला याद हो आता है, पर बड़े मियां की असली कद्र भोला ही जानता है. और जाने भी क्यों नहीं, श्रम की कद्र तो मजदूर ही कर सकता है, पूंजी तो बस श्रम खरीदना जानती है. तुम्हारा और बड़े मियां का भोला कुम्हार के परिवार का हिस्सा हो जाना मनुष्य और मनुष्येतर के फर्क को बड़ी  सहजता से मिटा देता है. और हाँ जब भी मैं तुमलोगों को आपस में बातें करते, एक- दूसरे के सुख-दुख का साथी होते या फिर अनकही संवेदनाओं को भी महसूस करते देखता हूँ न तो लोक कथाओं के जाने कितने नायक मन-प्राण में अपनी धड़कनें लिए साकार हो उठते हैं. सोरठी-बिरजाभार से लेकर किस्सा तोता-मैना और सीत-बसंत तक की यादों के बीच याज्ञवल्क और काग भुसुंड़ी के संवाद तक सजीव हो उठते हैं.
हरि भटनागर 

तुमलोगों की मौज़ूदगी से उयान्यास में हकीकत और फसाने के बीच आवाजाही का जो सिलसिला बनाता है वह बहुत ही बारीक और खूबसूरत है. लेकिन मेरी समझदार मैना, सच-सच बतलाना कि हकीकत और फसाने की वाजिब आनुपातिकता का  अभाव क्या कथानक के उत्तरार्ध को लुंज और कमजोर नहीं कर देता हैफैक्ट्री और उद्योग धंधों के लिए भूमि-अधिग्रहण या भू-अर्जन कोई नई बात नहीं है लेकिन उयान्यास में इस प्रसंग के आते ही एक खास तरह की रूमानी क्रांतिकारिता अपने पैर पसारने लगती है और इस क्रम में बहुत सी अपरिहार्य  स्थितियों की अनदेखी हो जाती है. विषय की गहराई में उतरने के लिए अपेक्षित तैयारी की कमी हो या कि तुम्हारे सर्जक की दृष्टि-सीमा उन्हें प्रदर्शंकारियों के सिर पर लाल पगड़ी बांधना तो  याद रहता है पर मुआवज़े और पुनर्वास का सवाल उनके हाथों से छूट जाता है. मैं  जानता हूं कि मेरी आशंकाओं के प्रतिपक्ष के तौर पर तुम्हारे भीतर बिचौलियों की भूमिका को लेकर सवाल उठ रहे होंगे. लेकिन मेरी मैना! ऐसा सोचते हुये तुम यह  मत भूल जाना कि तुम अपने सर्जक की नहीं भोला कुम्हार की दोस्त हो. और अब  जब कि तुम्हारे सर्जक ने तुम सब की भूमिकाएँ तय कर दी हैं क्या तुम पूरे  घटनाक्रम से थोड़ी देर के लिए खुद को निस्संग नहीं कर सकती?

मैं जानता हूँ कि राहत और मुआवजे को विस्थापितों तक पहुंचने से पहले बड़े-बड़े अधिकारियों से लेकर पटवारी तक की लंबी शृंखला से गुजरना पड़ता है. और इस  तरह आखिरी व्यक्ति तक पहुँचते-पहुँचते वह राहत इतना आहत हो चुका होता है कि  उसकी शक्ल ही नहीं पहचान में आती है. काश तुम्हारे सर्जक ने इस पूरे प्रकरण की प्रशासनिक और तकनीकी बारीकियों का भी ध्यान रखा होता! मुआवजे की राशि का बिचौलियों में बंट जाना या पुनर्वास की आस में विस्थापितों का दर-बदर हो जाना और इस प्रकरण से इन प्रसंगों का पूरी तरह गायब हो जाना बिल्कुल दो बातें हैं. कभी फुर्सत मिले तो हमारी तरफ आना, इधर बहुत सारी कंपनियों के लिए भूमि अधिग्रहण का काम चल रहा है. तुम्हें न सिर्फ राहत के उन आहत चेहरों से मिलवाऊँगा जिनका मैंने अभी जिक्र किया बल्कि भू-अर्जन की उस वैधानिक प्रक्रिया से भी परिचित कराऊंगा जिस ओर तुम्हारे सर्जक की दृष्टि गई ही नहीं है. तुम ने तो इस पूरे घटनाक्रम को बहुत करीब से देखा है नमुझे एक बात जरूर बताना कि उपन्यास में जिस जमीन का अधिग्रहण हो रहा है, वह किसकी है – सरकार की या बस्ती के लोगों की? इससे पहले कि तुम अपनी ओर से कोई जवाब दो इस बात पर भी गौर करना कि यदि वह जमीन सरकार की थी तो फिर पटवारी ने छलपूर्वक भोला के अंगूठे का निशान लिए गए कागज पर यह क्यों लिखा कि वह स्वेच्छा से जमीन सरकार को सौंप रहा है? और यदि वह जमीन बस्ती के लोगों की ही थी तो बिना अधिग्रहण की कागजी कार्रवाई हुये जमीन खाली करने की सरकारी नोटिस कैसे चिपका दी गई? मेरी उलझन समझ रही हो न मैना?

इससे पहले कि तुमसे तुम्हारी और भोला की आखिरी बातचीत के बारे में कुछ कहूँ, आओ तुम्हें एक प्रसंग सुनाता हूँ. कथा सम्राट कहे जाने वाले प्रेमचंद का एक बहुत ही प्रसिद्ध उपन्यास है– रंगभूमि.  उस उपन्यास के लगभग मध्य में भैरो नाम का एक पात्र सूरदास की झोपड़ी में आग लगा देता है. तब सूरदास का पोता मिठुआ उससे पूछता है- दादा, अब हम रहेंगे कहाँ? जवाब में सूरदास दूसरा घर बनाने की बात करता है. मिठुआ कहता है- कोई फिर आग लगा दे तो? सूरदास ने कहा- तो फिर बनाएँगे. दादा पोते के बीच सवाल का यह सिलसिला थोड़ी देर यूं ही चला जिसमें सूरदास हजार, लाख बार भी घर बनाने की बात करता है.

कुछ याद आया मेरी प्यारी मैना? उस दिन जब भोला जमीन छीने जाने के विरुद्ध प्रदर्शन कर रहे लोगों को छोड़कर सपरिवार जंगल में चला गया था तब तुमने उससे क्या पूछा था? चलो मैं ही बताए देता हूँ –
“मैना ने पूछा – भोला तुम जंगल में भाग चले आए. क्या सोचते हो, दुश्मन तुम्हें यहाँ चैन से बैठने देंगे?

·नहीं बैठने देंगे तो और आगे चला जाऊंगा.
·और जो वहाँ भी टिकने न दें, हंकाल दें तो?
·कोई कितनी बार हमें उजाड़ेगा? हर बार हम बस जाएँगे.“

तुमने गौर किया मैना! सूरदास और भोला की बातें बिल्कुल एक जैसी हैं न? हाँ, पर एक जैसी होकर भी एक दूसरे से बहुत अलग. सूरदास जहां अपनी ही जमीन पर बार-बार झोपड़ी बनाने की बात करता है तो भोला हर बार उजड़ कर जंगल में कहीं और भीतर जा बसने की बात. जानते हो सूरदास कितना पुराना पात्र है? मुझे मालूम है, तुम क्या सोच रहे हो. यही न कि भोला की तुलना सूरदास से ठीक नहीं... भोला के चरित्र की बनत को देखते हुये उससे किसी मजबूत प्रतिरोध की उम्मीद करना बनावटी क्रान्ति होगी. भोला जैसे भावुक इंसान का पलायन ही स्वाभाविक है. न तो वह वर्ग-संघर्ष का परचम लहरा सकता है न ही गांधी की तरह कोई अहिंसक आनदिलन ही कर सकता है. तुम्हारी बातों से मैं भी सहमत हूँ, लेकिन मेरी शिकायत भोला से है ही नहीं. मेरी शिकायत तो तुमसे है मैना!  भोला तो भोला है ही, पर तुम उसकी इन भोली बातों को सुनकर कैसे अवाक रह गई? इतना ही नहीं तुमने तो इसे अपने मैना की तरह हार न माननेवाला, ज़िंदादिल और उम्मीद से भरा इंसान भी मान लिया. सच बताओ मेरी मैना, अपनी शर्तों पर जीनेवाले तुम्हारे साथी मैना का उत्सर्ग और भोला का यह पलायन क्या एक जैसी बातें है? और वो कुम्हारिन, जो हर कदम भोला को राह दिखाती रही, संकट के समय खुद दो कदम आगे निकल कर हमेशा ही साहस और बुद्धिमता का परिचय दिया, उसने चुपचाप भोला के साथ जंगल की रुख कैसे कर ली? चिकनी माटी  काढ़ने और सुंदर-सुंदर बर्तन गढ़ने का भोला का मासूम सपना एक छलावा atmpravanchanaaनहीं तो और क्या है? क्या इस तरह किसी रूमानी सपनों से भर के मिट्टी काढ़ने में होनेवाली समस्याओं का समाधान हो जाएगा? और फिर तुम्हारे सर्जक ने मिट्टी के कुल्हड़ के मुक़ाबले प्लास्टिक के कप की आमद के बहाने बाज़ार के विस्तारवादी स्वरूप का जो मुद्दा उठाया था उसका क्या होगा? क्या यह सच नहीं कि, ये सवाल तुम्हें भी बेतरह परेशान कर रहे थे? लेकिन तुमने इन सवालों को क्यों नहीं उठाया मैना, तुम चुप क्यों हो गई? मैं जानता हूँ, तुम बोलना चाहती थी, लेकिन तुम्हारे सर्जक ने तुम्हें बोलने नहीं दिया. मुझे इसी का दुख है. खैर, हो सके तो मेरा यह खत उन्हें भी पढ़ा देना. और हाँ, कभी शहर जाओ तो श्यामल की माँ को मेरा सलाम कहना. चाहे वह दुनिया के किसी कोने में रहे, कुम्हारिन और उसके बीच पलते बहनापे को मैं हमेशा जिंदा देखना चाहता हूँ.

बहुत देर हुई, मेरे बेटी सोने से पहले मुझसे कहानी सुनने का इंतज़ार कर रही है. उसे आज तुम्हारे मैना की कहानी सुनाऊँगा. अपना ख्याल रखना. भोला, गोपी, कुम्हारिन और बड़े मियां का भी. मुझे अब ही भरोसा है कि जबतक तुम हो उनका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता. और सुनो, कुछ भी हो जाये तुम गाना मत छोड़ना, तुम्हारी चुप्पी अब हमें भी अच्छी नहीं लगती. 

तुम्हरा दोस्त
राकेश 

पुनश्च - ठंडे पानी का इंतज़ार मुझे भी उतना ही है, जितना तुम्हें. तुम्हारी प्यास में हम सब की प्यास जो शामिल है. 
(बनास जन में भी प्रकाशित)
_______________________________________________________________
राकेश बिहारी
न एच 3 / सी 76, एन टी पी सी, विंध्यनगर
जिला सिंगरौली 486885 (म. प्र.)
मो.-  09425823033/  ई-मेल - biharirakesh@rediffmail.com

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  1. कथा और भाषा दोनों स्तर पर यह अत्यंत पठनीय उपन्यास है।बाक़ी संघर्ष और उसकी परिणति की सहजता का अप्रत्याशित वर्णन उसे उल्लेखनीय बनाता है।

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  2. राकेश जी, इस ख़त ने तो रचना में रचना को भर दिया। नए तरह की रोचक समीक्षा है। बहुत दिनों बाद आपका लिखा पढ़ा। आनंदम।

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  3. बेहतरीन। बहुत अच्छा लगा।
    बहुत बधाई।

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    1. एक नए और ख़ूबसूरत अंदाज़ में मैना से बात की है .....ख़त थोडा जल्दी ख़त्म हो गया .....खैर बिटिया को कहानी सुना लें...बहुत बढ़िया लिखा ।

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  4. रोचक समीक्षा। समीक्षा भी इतनी पठनीय हो सकती है यह ऐसी समीक्षा पढ़ कर ही समझ पाई हूँ। उपन्यास के प्रति उत्सुकता जग गई। अब पढ़ना है। बधाई हरि भटनागरजी, समालोचन, राकेश बिहारी!

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  5. राकेश जी बहुत ही उम्दा ।

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  6. राकेश जी बहुत ही उम्दा ।

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  7. अभी पढ़ी समीक्षा। यानी मैना से सम्वाद। एक पाती मैना के नाम। उपन्यास अभी पढ़ना शेष है पर पढ़ने को तय किया इस समीक्षा ने। रचना की उर्वर भूमि से निकली आलोचना। आलोचना में आपकी अपनी छाप। बधाई।

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  8. शानदार! शब्दातीत! समीक्षा भी इतनी पठनीय और रोचक हो सकती है, आज पहली बार जाना। शैली और दृष्टि दोनों का बेजोड़ संतुलन है इस समीक्षा में। समीक्षा के नाम पर ठकुरसुहाती भी नहीं की है समीक्षक ने। उपन्यास की खूबियों पर बात करते हुये जिस बेबाकी से उसकी सीमाओं पर बात की गई है वह इसे महत्वपूर्ण और विश्वसनीय भी बनाता है। बहुत कम पुस्तकों को नसीब होती है ऐसी समीक्षाएं। समीक्षक, लेखक और समालोचन तीनों को बधाई!

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  9. बहुत ही सुन्दर ,प्रभावशाली ,संवेदनात्मक स्तर पर पकड़ लेने वाली एक भिन्न ही धरातल पर लिखी रचना .
    पाठक का सीधा रचना से जुड़ जाना --वाह ---बधाई

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  10. बहुत ही सुन्दर ,प्रभावशाली ,संवेदनात्मक स्तर पर पकड़ लेने वाली एक भिन्न ही धरातल पर लिखी रचना .
    पाठक का सीधा रचना से जुड़ जाना --वाह ---बधाई
    गलती से नीरजा शाह के नाम से चला गया .क्षमा .
    प्रणव भारती

    2/5/16, 8:39 am

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  11. बेहद दिलचस्प अंदाज़ में की गई है समीक्षा ...। कहानी की तरह पढ़ने को बाध्य करने का अंदाज़ बेहद प्रभावशाली लगा .....इस निराले अंदाज़ में की गई अगली समीक्षा का इंतज़ार ...जो लेखक की रचना पढने के लिए प्रेरित करे ।
    हाल ही में हरि जी की कहानी -किस्सा तोता भाई का " पढ़ी बढ़िया लगी ।समीक्षक और लेखक को बधाई

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  12. बेहद दिलचस्प अंदाज़ में की गई है समीक्षा ...। कहानी की तरह पढ़ने को बाध्य करने का अंदाज़ बेहद प्रभावशाली लगा .....इस निराले अंदाज़ में की गई अगली समीक्षा का इंतज़ार ...जो लेखक की रचना पड़ने के लिए प्रेरित करे ।
    हाल ही में हरि जी कहानी -किस्सा तोता भाई का " पढ़ी ...बढ़िया लगी ।
    समीक्षक और लेखक दोनों को बधाई...।

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