विष्णु खरे : प्रत्यूषा बनर्जी






प्रत्यूषा बनर्जी की ‘आत्महत्या/हत्या’ ने चमक दमक से भरे सिने संसार के अँधेरे को फिर से बेपर्दा कर दिया है. इस अँधेरे में तमाम तरह की सामाजिक – आर्थिक संस्थाएं अपने नग्न और क्रूर रूप में हमारे सामने आ खड़ी हुई हैं.
विष्णु खरे जब इस तरह की किसी मानवीय क्राइसिस पर लिखते हैं तब अजब एक काव्यात्मक ट्रेजिडी लिए हुए उसका विस्तार संस्कृति तक चला जाता है, वह मनुष्यता और मानवीयता के पक्ष में एक जिंदा बयाँ बन जाता है.
आप पढिये.     



चरम सफलता का ऐसा ग़ैर-आनंदी अंत                                    
विष्णु खरे 



भी छः वर्ष पहले वह झारखण्ड के औद्योगिक नगर जमशेदपुर में सिर्फ एक सुसंस्कृत बंगाली परिवार की इकलौती मेये थी. किन्तु होनी को मंज़ूर यह था कि उसका चुनाव एक ऐसे टेलीविज़न सीरियल के शीर्षक रोल के लिए हो जाए जिस नाम पर बरसों पहले दो कमोबेश कामयाब फ़िल्में बन चुकी थीं - बाँग्ला में 1967 में और हिंदी में 1976 में. किन्तु नाम को छोड़कर फ़िल्मों और सीरियल ‘’बालिका ब(व)धू’’ में कोई समानता न थी. टेलीविज़न की सारी संस्कृति और नैतिकता पिछले 50-40 वर्षों में बदल चुकी थीं. धारावाहिक में यौनाकर्षण का सांकेतिक पुट उसे और उत्तेजक बनाता था. यह अकारण नहीं है कि हमारे टप्पों, दादरों, ठुमरियों, लोकगीतों और लोकप्रथाओं में अदालती जुर्म होते हुए भी बाल-विवाह तथा –सुहागरात अब भी पर्याप्त लोकप्रिय हैं.

प्रत्यूषा बनर्जी को सुंदर, भोली-भाली, उद्दीपक, अक्षतयोना आनंदी की भूमिका में जो ख्याति मिली वह बहुत कम छोटे और बड़े पर्दे की अभिनेत्रियों को नसीब होती है. हम यहाँ धारावाहिक ‘’बालिका वधू’’ की नैतिकता और कामोद्दीपन पर बहस नहीं कर रहे लेकिन प्रत्यूषा की ऐन्द्रिक उपस्थिति ने उसे लोकप्रिय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी. वही उसका केंद्र थी. वह करोड़ों दर्शकों की चहेती बहू-बाला बन गई. मीडिया और विज्ञापनों  में उसे लाखों बार दिखाया गया, उसके बारे में असंख्य शब्द लिखे गए. कोई भी दर-दिल-दिमाग़ उसके लिए बंद न था. वह करोड़ों किशोरियों और भावी वधुओं का आदर्श बन गई. वैसे प्रियंका चोपड़ा, सिमोन सिंह, ईषिता दत्ता और तनुश्री दत्ता भी जमशेदपुर से हैं.

भारत में जो आस्था-अनास्था, भक्ति-एवं-घृणा-भाव सिनेमा और टी वी के अभिनेता-अभिनेत्रियों को लेकर है वह संसार में अन्यत्र कहीं नहीं है. इसके जो मानसिक, मनोवैज्ञानिक, नैतिक, सामाजिक, पारिवारिक, सांस्कृतिक, धार्मिक. कलात्मक, राजनीतिक, बौद्धिक  परिणाम हो रहे हैं इसका अहसास और चिंता और इसे लेकर कोई समुचित कार्रवाई कहीं दृष्टिगोचर नहीं है.

जब तक प्रत्यूषा बनर्जी आनंदी मानी जाती रही तब तक समाज में उसका स्थान किसी कुमारी किशोरी देवी से कम न था. वह कुछ भी शर्मनाक़ या आपत्तिजनक कर ही नहीं सकती थी. हिन्दू समाज का फ़ॉर्मूला मानवीय-दैवीय-दानवीय का है. उसे मनुष्य को देवदूत और देवदूत को राक्षस बनाने में न केवल देर नहीं लगती बल्कि उसे शायद ऐसा करते रहने में एक बीमार-सा आनंद मिलता प्रतीत होता है. लेकिन प्रत्यूषा और उसकी नियति ने जो आनंदी के साथ किया, उससे हिन्दू समाज थर्रा गया. क्षिप्रा के पोखर में कितने ही पाखंडी साधुओं-अखाड़ों  के करोड़ों की लागत के कौआ-स्नान भारतीय समाज की आत्मा पर लगे ऐसे दाग़ों को धो नहीं सकते.

अचानक मालूम पड़ता है कि आनंदी के जीवन में कोई आनंद न था. शायद उसका पेशेवर जीवन उतार पर था या/और  उसकी निजी ज़िंदगी सर्वनाश के गर्त में जा रही थी. पुरुषों से उसके सम्बन्ध बने और बिगड़े. हम नहीं जानते कि वह कारण क्या थे कि उसे ‘’बालिका वधू’’ जैसा लम्बा, अच्छे मुआवज़े वाला काम क्यों नहीं मिला. लेकिन आप इस बीच अपनी सीरियल के बाहर की ‘लाइफ़-स्टाइल’ के शिकार हो चुके होते हैं. आपको खुद को अपने सुनहरे दिनों की तरह ‘मेन्टेन’ करना पड़ता है. अभी आप सिर्फ 24-25 बरस की हैं. आपके नित नए फ्रेंड बनते-बिछड़ते जाते हैं. हर शाम आप लेट-नाइट पार्टियों में अपने प्रेमियों द्वारा ले जाई जाती हैं. आपको ड्रग्स और भारी ड्रिंकिंग की आदत हो जाती है या डाल दी जाती है. आप ‘थर्ड पेज’ पर आने के लिए सब कुछ लुटाने के लिए तैयार रहती हैं. आपके क्रेडिट कार्ड पर लाखों ड्यू हो जाते हैं जिनकी वसूली के लिए आपको गन्दी-से-गन्दी भाषा में घर आकर धमकियाँ दी जाती हैं. आपके प्रेमी आपके बैंक से लाखों रुपये खुर्दबुर्द कर देते हैं. वह आपके माँ-बाप को आपके घर से निकलवा देते हैं. यह भी मालूम पड़ता है कि आपके पिता ने जाने किसके हवाले से लाखों रुपया क़र्ज़ ले डाला है.

आपके जीवन का भयावहतम क्षण तब आता है जब आपको यह मालूम पड़ता है कि आप अपने उस नवीनतम प्रेमी के बच्चे की माँ बनने वाली हैं जो अभी आपको अपनी वधू नहीं बनाना चाहता. फिर आपको गर्भपात के लिए अस्पताल ले जाया जाता है. मालूम नहीं होता कि बाद में हमल डॉक्टर गिराती है या दवाओं के ज़रिए खुद आप और आपका प्रेमी. कहाँ ? यह खतरनाक कार्रवाई क़ानूनी है या ग़ैरक़ानूनी पता नहीं चलता. क्या वह आपकी पहली भ्रूणहत्या थी ? उसके कुछ दिन बाद आपके फ्लैट में एक पार्टी होती है जिसमें कहते हैं  कि आप ख़ूब शराब पी लेती हैं. आपको बेहोश छोड़कर जब आपका प्रेमी दवाएँ लेकर लौटता है तो बगल के घर से एक परिचित नौकर को आपकी खुली बालकनी से चढ़ाकर आपके बैडरूम में दाखिल करवाया जाता है क्योंकि फ्लैट का दरवाज़ा अन्दर से बंद होता है  जहाँ आपकी लाश सीलिंग-फैन से बंधी लटकी मिलती है और दरवाज़ा तोड़कर ही आपके प्रेमी को अन्दर आने दिया जाता है. सबसे पहली अफ़वाह तो यही फैलती है कि आपके इस प्रेमी ने ही आपकी हत्या की है. आपके माता-पिता भी कई पुरानी कहानियाँ सुनाते हुए इस इल्ज़ाम की ताईद करते हैं. अभी आपके बहुत सारे कागज़ात,फ़ोन-कॉल्स और ई-मेल वगैरह की जाँच बाक़ी है. लेकिन यदि गर्भपात अवैध है तो आप भी तो मुजरिम हैं न ?

कभी-कभी आरुषि तलवार हत्याकांड झलक जाता है. कल से अदालत में सुनवाई है और प्रत्यूषा ‘’आनंदी’’ बनर्जी ने ख़ुदकुशी की है या उसका क़त्ल हुआ है यह जानने में वक़्त लगेगा. लेकिन यह ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी’ का युग है क्योंकि आज लोगों का विश्वास सरकार, पुलिस, डॉक्टरों और अदालतों से उठ चुका है. इसमें कोई शक़ नहीं कि कई सनसनीखेज़ तथ्य सामने आएँगे जिनसे दुर्भाग्यवश प्रत्यूषा की  चाही-अनचाही  चरित्र-हत्या हो सकती है. यह तीसरी हत्या होगी क्योंकि एक अबोध भ्रूण को मारा जा चुका है और यदि प्रत्यूषा के जीवन में ऐसे हालात पैदा कर दिए गए थे कि उसे आत्महत्या के अलावा कोई मुक्ति दिखाई न दी तो वह भी हत्या ही कही जाएगी. मृत्यु के समय आनंदी न तो बालिका थी न वधू, वह बहू और माँ दोनों बनना चाहती थी. उसने अपने त्रासद जीवन में ऐसी स्थितियां निर्मित कर दीं कि वह कुछ न बन सकी – प्रत्यूषा बनर्जी भी नहीं.

आज से ढाई सौ वर्ष पहले,जब इंग्लैंड में भी यौन-संबंधों को लेकर वह लोक-लाज-कुल-की- मर्यादा-नियंत्रित नैतिकता थी जो आज भारत में हैं, सुविख्यात कवि ऑलिवर गोल्डस्मिथ ने यह अमर आठ पंक्तियाँ लिखी थीं (बाद में जिनका अद्भुत आधुनिक संशोधन टी एस एलियट ने ‘’दि वेस्ट लैंड’’ में किया है) :

When lovely woman stoops to folly
And finds too late that men betray,
What charm can soothe her melancholy,
What art can wash her guilt away ?
The only art her guilt to cover
To hide her shame from every eye,
To give repentance to her lover,
And wring his bosom – is to die

(‘’जब सुन्दर स्त्री पतित हो जाती है अपनी नादानी से
और देर बाद पाती है कि देते हैं दगा पुरुष
तब कौन सा मंतर-गंडा उसकी मायूसी को मरहम दे,
कौन-सी कला धो पाए उसके पाप का कलुष ?
अपना गुनाह ढँकने का है बस एक हुनर –
अपनी रुसवाई को हर निगाह से छिपाना
अपने प्रेमी को पशेमानी देकर
उसका मन मसोस डालना – खुद मर जाना’’.)



भारत में आज भी प्रति वर्ष सैकड़ों बालिकाएँ-वधुएँ यही करती हैं. जमशेदपुर की आनंदी को इसके लिए मुंबई की इस हत्यारी विश्वासघाती अँधेरी दुनिया में आकर खुद मर जाना पड़ा.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल)

विष्णु खरे 
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

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  1. बहुत दुखद है यह सब, प्रत्युषा ने आत्महत्या की या ह्त्या हुई पर मामले का और जिन्दगी के तौर तरीके का खुलासा हुआ किन्तु कई लडकिया इस दौर में ऐसी होंगी जो देहिक आत्महत्या तो नहीं कर पाती होंगी बेशक वे कोख के भ्रूण की ह्त्या करती होंगी और स्वयम अपने अंतस की ह्त्या कर तिल तिल जीवन को लाश सी ढोती होंगी, यह तभी होता होगा जब पाश्चत्य रहन सहन के लाभ के साथ हम मानसिक रूप इससे उत्पन्न हानि के लिए तैयार नहीं| आत्महत्या या ह्त्या तो फोरेंशिक मेडिसिन से एकदम क्लीयर हो गया होगा अब तक क्यूंकि एंटीमोरटम हेंगिंग और पोस्टमोरटम हेंगिंग के साइन अलग अलग होते हैं| किन्तु यह सब कुछ बहुत दुखद है| हम बदलते परिवेश के साथ नयी पीड़ी को किस तरह सुझाव दें यह भी संकट है ... विष्णु जी के इस कोलम ने आत्महत्या के पीछे चल रही इतनी मानसिकताओं की परतें खोली है| धन्यवाद समालोचन इस लेख को साझा करने के लिए .. काश कि हम कुछ सीखें इस लेख से काश की हमारी युवा पीड़ी को जीवन के वो तौर तरीके समझ आये जिसमें वे टूटे नहीं ......

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  2. इस लेख में एक अलग ही विष्णु खरे सामने आते हैं। उनको साधुवाद।

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  3. सब कुछ साफ देखने के लिए यह जरूरी है । लेख मानसिक विश्लेषण है

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  4. सचाई बयान करती अंतर्कथा का गहरा और मार्मिक विश्लेषण

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  5. हमारे पास पितृसत्ता के इतने महाकाव्यत्व और महिमा से भरे सुपर स्ट्रक्चर्स हैं कि औरत की हत्या या आत्महत्या यहाँ गौण हो जाती है और उसका चरित्र हनन मौत के पूर्व या मौत के बाद एक उपलब्धि. इस महान स्ट्रक्चर में स्त्री-द्वेष भी शामिल है.
    पुरुष की आत्महत्या उन सवालों और कटघरों से नहीं गुज़रती जहाँ से औरत को नामालूम करने की साजिश चलती है. बोको हराम औरत की कोख को कंटेनर बना देता है, पर दुनिया के पास सिर्फ आंकड़े हैं.
    प्रत्यूषा एक धूल-धूसरित सनसनी है! वाकई ‘कॉन्सपिरेसी थ्योरी’का युग है. हम और आप अदालत का इंतज़ार करें!

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  6. एक ग्लैमरस,हिंसक और निहायत बेमुरव्वत समय में अभिशप्त जिंदगियों की अंदरूनी पर्तों को नश्तर की तरह से छीलती और उनका ह्रदयविदारक विश्लेषण करती हुई थर्रा देने वाली दृष्टि।समय के भयावह अंतर्विरोधों को तटस्थता से देखने के इस दुर्लभ उपक्रम को स्त्री या पुरुषवादी मानसिकता के कटघरों में डालने का क्या मतलब है ?क्या इसमें करुणा की एक अंतर्धारा दिखाई नहीं दे रही ?

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  7. एकदम अवांछित सरलीकरण । आधुनिक जीवन की नियति के बारे में पारंपरिक नैतिकता का फ़तवा । आज के मनोविश्लेषण से इससे बहुत ज़्यादा ज़िम्मेदारी की उम्मीद की जाती है । सिर्फ़ व्यक्ति के बारे में नहीं, बल्कि जो व्यक्ति के सचेत नियंत्रण के बाहर है, उसके बारे में भी । इस प्रकार के सरलीकरण से पहले तो हर आदमी की निजी स्वायत्तता को नकारा जाता है और फिर उलट कर इस नकार को भी नकार उसे उसकी निजी फाँस बता कर दुत्कारा जाता है ।
    इसके विपरीत देखा यह जाता है कि कामनाओं का दमन और ज़्यादा विकृत कामनाएँ पैदा करने का कारण बनता है । धर्मसंस्थानों में फैली हुई तमाम विकृतियाँ इसी का उदाहरण है । टीकाधारी बाबू बजरंगी सबसे जघन्य क़िस्म का बलात्कारी साबित हो सकता है ।
    गोल्डस्मिथ की कथित 'अमर पंक्तियां' शुद्ध फतवेबाजी है । विष्णु खरे ने इनका प्रयोग करके मृतक के प्रति न्याय नहीं किया है, एक प्रकार की धार्मिक भर्त्सना की है ।

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  8. यही फर्क होता है एक लेखक की प्रतिक्रिया या सामान्य नागरिक की टिप्पणी में.विष्णु जी ने भी घटना को सिर्फ 'बताया' ही है, मगर यह विवरण बिना किसी तरह के दावे के पूरी तरह प्रमाणिक लगाता है, शायद है भी.
    सचमुच इन दिनों समाज बदल गया है, इससे भी ज्यादा उसके सरोकार.

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  9. स्त्री विरोधी खांटी पुरुषवादी विचार

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  10. प्रत्यूषा बैनर्जी पर बहुत लिखा जा चुका है और टीवी पर भी आज भी उसकी हत्या की खबर उतनी ही फ्रेश बनी हुई है |
    आज श्री अरुण जी की वाल पर श्री विष्णु खरे जी का लेख पढ़ा |
    वाकई !! पुरुष [ विष्णु खरे ] स्वयं तय कर लेता है कि यहाँ ' स्त्री ' दोषी है |
    सेकण्ड हैण्ड प्रेमी या पति बिलकुल भी दोषी नहीं होता , आखिर प्रेम में स्त्रियाँ ही क्यों अपनी जान देती है !!
    पॉलिटिकल परिवेश में भी अतीत में झाँककर देखेंगे तो पायेंगे कि कितनी ही स्त्रियों ने अपनी जान दी या मार दी गयी |
    [ हमने पूरा लेख पढ़ा ]
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    प्रत्यूषा ! तुमको ऐसे नहीं जाना चाहिए था .....

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  11. प्रसंगवश आया उद्धरण लेखक का निजी वक्तव्य नहीं कहा जा सकता. विष्णु जी एक दुखद आइरनी का ज़िक्र कर रहे हैं और उन्हें इन पँक्तियों की याद आती है.'वेस्ट लैंड' का हिन्दी अनुवाद उन्होंने अपने विद्यार्थी काल में ही कर डाला था.

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  12. इन पंक्तियों के उद्धरण से चमत्कार पैदा करने के लोभ में वे समझ ही नहीं सके कि वे क्या कह गये हैं । लेखन में ऐसी असंगतियों से चमक लाने का व्यामोह सब कुछ गुड़गोबर कर देता है ।
    इसके बाद यह कहते कितनी देर लगेगी कि लड़के-लड़कियों के बढ़ते हुए मेल-जोल से ही बिन-ब्याही माएँ और उनकी मनोवैज्ञानिक समस्याएँ पैदा होती है !

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  13. फिल्मी दुनियां में क्रूरतायें कई शक्लों में आती है .फिल्मों में अच्छे किरदारों का अभिनय करनेवाले अपने निजी जीवन में बेहद लुच्चे और पांजी होते है .यह छिपा तथ्य नही है कि सफलता का रास्ता बेडरूम से होकर जाता है .महत्वाकाक्षाओं के लिये देह बाधक नही होती .पूंजी के इस मारक खेल में आदमी का दीन-इमान दोनो बिक जाता है यहां प्रेम की जगह देह होती है और उसके शोषक होते है.प्र्त्यूषा का अंत हमे चौकाता नही है .इस राह पर जानेवाली अभिनेत्रियों की तादाद कम नही है .विष्णु जी का विअश्लेषण अदभुत है .

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  14. पिछले दिनों हुई एक और कलाकार की असमायिक मौत से सम्बंधित ये लेख पढ़ा |इस पर टिप्पणीकारों के विचार भी पढ़े |मुझे विष्णु जी के इस लेख में ‘’विचारणीय’’ के अतिरिक्त कुछ भी ऐसा नहीं लगा जिस पर इस लेख को सही या गलत ठहराया जाए |सब वही मीडिया की खबरों की कतरने हैं| जहाँ तक प्रत्युषा की मौत और उसकी वजहों की पड़ताल का मसला है , इस घटना को पहली बार टी वी पर देखते और उसे परत दर परत उघडते ,नयी नयी बातें उसमे जुड़ते देखते वैसा ही लगा जैसा अभिनेत्री परवीन बाबी,दिव्या भारती, जिया खान की मौत की ख़बरों को सुनकर लगा था | जब स्थितियां ( राजनैतिक – सामाजिक या और कुछ )‘’हद से गुज़र जाने’’ वाली हो जाती हैं , कहीं कोई समाधान नज़र नहीं आता तब सोच कुंद सी पड़ जाती है | आज हम विवशता की उसी ‘’सन्निपातिक अवस्था’’ से गुज़र रहे हैं | प्रतिक्रियायों का धारदार होना इसी अवस्था का एक हिस्सा है ( ये जानते हुए भी कि हमारी इन प्रतिक्रियाओं का असर जहाँ और जैसा होना चाहिए कुछ नहीं होगा ,बावजूद इसके )| प्रत्युषा की मौत से सम्बंधित ( ख़बरों के आधार पर ) अब कुछ प्रशन
    (१)- दुनिया में कौन सा ऐसा देश है जहाँ की स्त्रियों को वो दर्जा प्राप्त हैं जो उन्हें होना चाहिए
    (२)- मुम्बई को माया नगरी कहते हैं |माया जो छलती है , माया जो चमत्कारों के गर्भ से पैदा होती है ,माया जिसका अर्थ जितना सकारात्मक है , नकारात्मकता की उसकी जड़ें उतनी ही गहरी धंसी हैं और जड़ों का स्थान ज़मीन के भीतर के अंधेरों में होता है |
    (३)- महत्वाकांक्षी होना और अपने सपनों को पूरा करने का स्त्री का भी उतना ही अधिकार है जितना पुरुष का | लेकिन क्या स्त्री को उतनी ही आजादी और सामाजिक सुविधाएँ प्राप्त हैं कि वो इन्हें निर्विघ्न पूरा कर सके ?
    (४)- ये कितने दुःख और आश्चर्य की बात है कि प्रत्युषा ने पिछले कुछ वर्षों में उसके कैरियर या उसकी आर्थिक -सामाजिक स्थिति को लेकर जो दुःख और त्रास झेले वो उसके किसी मित्र , शुभचिंतक, यहाँ तक कि उसके अपने माता पिता को भी दिखाई नहीं दिए ?जबकि जवान बेटी एक महानगर में, बिलकुल अकेली अपने सपनों ,अपनी पहचान के लिए जूझ रही थी ? ये एक अजीब सी बात है कि किसी मशहूर हस्ती के आत्महत्या करने के बाद उसके मित्र, रिश्तेदार सब अपनी उस ‘’अज़ीज़’’ के गुणों , उसकी त्रासदियों, उसके भोगे गए यथार्थ का लंबा चौड़ा वर्णनं करते हैं |उस वक़्त वो सब कहाँ होते हैं जब वो ये खतरनाक स्टेप लेने वाली महिला इन सब पीडाओं को झेल रही होती है ?
    (५)- हम नारी मुक्ति पर कितने ही भाषण दे लें, आन्दोलन कर लें, कहानियाँ उपन्यास लिख लें लेकिन इस सच को नकार नहीं सकते कि समाज में स्त्री को लेकर सोच अब भी वही सत्तर साल पुरानी है |आज भी लडकी को जान देकर अपने को बेगुनाह और पीडिता सिद्ध करना पड़ता है | आज भी वो महत्वाकांक्षाओं और असुरक्षा के बीच लटकी हुई है |

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  15. लेकिन यदि गर्भपात अवैध है तो आप भी मुजरिम हैं, आत्महत्या(?) भी उसी का जुर्म हुआ फिर। ये निष्कर्ष सहमति योग्य नही

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  16. हमारे मित्र द्विवेदी जी को ज्ञात नहीं है कि भारतीय दंड संहिता की धारा 309 के अंतर्गत अभी भी आत्महत्या करने की कोशिश करना और उस आत्महत्या में मदद करना दोनों गंभीर अपराध हैं.

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  17. इसी तरह गर्भपात भी गर्भ-धारण के केवल पहले 20 हफ़्तों तक ही कानूनी है.शर्तें यह हैं कि 1.इन 20 हफ़्तों में भी गर्भपात तभी करवाया जा सकता है जब उस गर्भ से गर्भवती महिला के जीवन को या उसके शारीरिक या मानसिक स्वास्थ्य को गंभीर खतरा हो या 2.यदि बच्चे का जन्म हो तो उस बच्चे में गंभीर शारीरिक या मानसिक दोष होने की पर्याप्त आशंका हो.
    'परिवार नियोजन','बदनामी' से डरने,निर्बाध शरीर-सुख,पेशेगत सुविधा,शादी,नारी-स्वातंत्र्य और महिला-अधिकार आदि के नाम पर ऐसा कोई भी गर्भपात जुर्म है.

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  18. कविता में बहुत कुछ जनरलाईज़ कर दिया गया है। सुंदर स्त्री पतित! इन शब्दों ही में बहुत अटपटा है। पहला हर स्त्री सुंदर है। प्रेम में ट्रायल एंड एरर को 'पतित' आज की जेनरेशन मानती नहीं। गुनाह, ऐब, पतन हर चीज स्त्री पर ढाल देने से "महत्वाकांक्षाओं" के आकाश और पाताल के देवता छूट नहीं पा जाते।

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  19. गरिमा श्रीवास्तव25 अप्रैल 2016, 7:11:00 pm

    गौर करने लायक बात है कि विकास की दौड़ में स्त्री ने कहाँ कहाँ क्या खोया है,ग्लैमर और चकाचौँध में वह मात्र पण्य में reduced है,यह लेख इसकी पड़ताल करता है।

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  20. आदरणीय विष्णु जी के लेख में लिजलिजेपन की इंतहा हो गई है। इस लेख में स्त्रीविरोधी पुरुषप्रधान समाज में एक स्त्री की त्रासदी के लिए केवल स्त्री की कथित " चरित्रहीनता" को जिम्मेदार समझने वाली मनुवादी नज़रिए का मुज़ाहिरा किया गया है।पुरुष दृष्टिपात की लंपटता भी स्पष्ट है।

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  21. मैं पुरुष दृष्टिपात या male gaze की बात कर रहा हूँ। जिसे यही दिखता है कि वह स्त्री क्लाकार के अभिनय में यौनाकर्षण ही सबसे महवपूर्ण तत्व होता है। स्त्री नादान होती है। वह अपनी नादानी से पतित हो जाती है। वह पुरुष साथियों द्वारा पार्टियों में 'ले जाई जाती है।'इस पुरुष दृष्टिपात में स्त्री पतित हो जाने के लिए अभिशप्त है, यह तो एक बात है। लेकिन वह पतित भी अपनी इच्छा से, अपने चुनाव से नहीं होती। वह तो बेचारी 'नादान होती है । पुरुषों का खिलौना बन जाती है।


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  22. गरिमा श्रीवास्तव25 अप्रैल 2016, 7:26:00 pm

    हम सावधानी से देखें तो बेहद दुःख और लगाव से लिखा है विष्णु जी ने।इसे कवि की टिप्पणी के रूप में देखा जाये,और समग्र प्रभाव में पाठक के मन में मौजूदा समाज,जिसमें स्त्री परंपरागत मूल्य लिए हुए ग्लैमर की दुनिया में दाखिल है,जिसमे दाखिल होना आसान,निकलना मुश्किल।उसके शोषण के कितने आयाम हैं,मुस्कराहट के कितने छद्म उसे मेन्टेन करने हैं।इस दृष्टि से यह सीख है उनके लिए जो इस राह के राही बनने को उत्सुक हैं।इस राह में खोना ज्यादा है पाना कम।इसे मेरे निजी विचार समझें,किसीका विरोध नहीं।सादर।

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  23. मुझे विष्णु जी की टिप्पणी वेधक और मार्मिक लगी। पुरुष वर्चस्व और मनोरंजन की मंडी का शिकार बनी एक लड़की की दुखांतकी।

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  24. परमेश्वर फुंकवाल25 अप्रैल 2016, 8:38:00 pm

    यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि क्या यह आलेख तथ्य परक है या फिर जो मीडिया के द्वारा कहा गया है उसे ही तथय मानकर विश्लेषण किया गया है। जब विष्णु जी लिखते हैं तो अनेक पाठकों के लिए वह प्रामाणिक हो जाता है।

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  25. विष्णु खरे जी ने उस चमकती दुनिया के अन्धेरे की पड़ताल की है। 'मेल गेज़' एक वास्तविकता है और ग्लैम वर्ल्ड में यह एक तरह का हासिल भी समझा जाता है। सेक्सी दीखना, डिज़ायरेबल कहलाना, यह कॉम्प्लिमेंट की तरह लिया जाता है। ये बातें टेली सीरियल्स में भी देखी जाती हैं। चाहे वह पारीवारिक कथा हो या धर्म कथा, आपका आकर्षक दीखना, डिज़ायरेबल लगना (डिज़ायरेबल, सिर्फ देह की सतह पर) बड़ा जरूरी इंडेक्स होता है। फिर अगर वह शिव की भूमिका हो तो पुरुष कलाकार को 'माचो' या फिर 'हंक' दीखना चाहिये। देवी की भूमिका में भी उस स्त्री में एक सटल सेक्सुअल अपील भी खोजा जाता है।
    इस पृष्ठभूमि में प्रत्यूषा की बात करना मुझे स्त्री विरोधी नहीं लगता है। ना ही इसमें किसी 'पेट्रिअार्कल मेल सिंड्रोम' सा ही नज़र आता है। इन बातों को अलग अलग करके देखना ठीक नहीं है। उस पूरे संदर्भ को देखें जिसमें ग्लैमर की अचानक उत्तेजक चकाचौंध में हड़बड़ाया हुआ एक कम उम्र व्यक्ति अपने परिवार और समाज को अपने साइके में लिये सुन्दर भविष्य की बेशुमार तमन्ना में ऊभ-चूभ कर रहा है। अचानक 'लाइफ स्टाइल' एक 'स्टेटस सिम्बल' और 'प्रोफेशनल कम्पलशन' में बदल जाता है। दोस्त दौलत और दिल !!
    शराब, ड्रग्स और जिस्म। मोहब्बतें, चाहतें और जन्नतें। सब कुछ एक साथ घुल कर गड्ड मड्ड हो रहा होता है। शिखर बस अब हाथ आया कोई पका हुआ फल हो जैसे ! और एक दिन अचानक सब बिखरने लगता है। जैसे कोई सपना दरक गया हो। हताशा, निराशा और अचानक बेमुरौव्वत होती दुनिया जेहन में गड़ने लगती है।

    प्रत्यूषा के साथ दरअसल क्या हुआ था, हम नहीं जानते। लेकिन उसकी रजामन्दी और जानकारी में बने उसके न्यूड वीडियो को जिस कमीनगी से वाट्सएप पर निर्बन्ध कर दिया गया है, वह इस पुरुष प्रधान, लोलुप दुनिया का मन में घृणा पैदा कर देने वाला सच है जिसे प्रत्यूषा ने जरूर झेला होगा।

    प्रत्यूषा का गुनहगार कौन है यह बात शायद कभी सामने न आ सके (पुलीस की जाँच, सबूतों के चरित्र, जिरहों की जुगलबन्दी और मीडिया की ललचाई जुगाली में सब दब जायेगा। हाँ मैं सिनिकल हूँ ।) । लेकिन इतना तो तय है कि यह चमकदार और खोखली दुनिया उसे निगल गई।

    इस दुनिया और उसकी दैहिक और चारित्रिक नंगई को मैं ने नजदीक से देखा है। उसके वर्ल्ड व्यू को भी समझने की कोशिश करता रहा हूँ।

    अपने इन अनुभवों के आधार मैं विष्णु खरे जी के लिखे से सहमत हूँ। मुझे यह लेख तथ्यों की समाजशास्त्रीय-मनोवैज्ञानिक पड़ताल की तरह लगा जिसमें किसी इंटेलेक्चुअल स्टैंड प्वाइंट की आवश्यकता नहीं है। हम चाहें कितना भी कोस लें, पूँजी का आग्रह किसी महिला को सेक्सी और डिज़ायरेबल कहवाता है तो उस दुनिया में वह महिला इसे कॉम्प्लीमेंट की तरह लेती है। क्या वह सिर्फ देह मात्र ही है ? वह अगर डिज़ायरेबल है तो अपने होने मात्र में क्यों नहीं, सिर्फ देह से ही क्यों ? यह एक कमेंट से अधिक कॉम्प्लिमेंट क्यों बन जाता है? यह वैल्यू इंटरनेलाइज़ेशन का भी प्रश्न है। बहुत बार लगने लगता है कि हमारी आलोचनाओं और विमर्शों से किसे क्या फर्क पड़ रहा है !

    हाँ, इतना जरूर है कि विष्णु जी की पड़ताल प्राय: मीडिया में आ रही बातों के आधार पर ही है जो सही ही हो, इसकी निश्चितता नहीं है।

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  26. मनोज कुमार झा25 अप्रैल 2016, 10:34:00 pm

    Shandaar lekh hi vishnuji ka..aisa we hi likh sakte hai-witty,maarmik or intellectualy tough ek sath..titlee ko titlee kahna purushvaad nhi hi,intellectual necessity hi

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  27. तुषार धवल , ' पुरुष प्रधान' लोलुप दुनिया का एक सच यह भी है कि विक्टिम या शिकार को गिल्टी या गुनाहगार बना दिया जाता है। खरे जी का लेख भी यही करता है। दो नज़रियों में फर्क़ इतना ही है। वे जिसे गुनहगार ठहराते हैं , हम उसे शिकार हुआ समझते हैं। लेख में भले ही यह बात सीधे सीधे नहीं कही गई है , लेकिन भाषा , अंदाज़ और तेवर में स्पष्ट रूप से अन्तर्ध्वनित है।
    और मीडिया की बातों के आधार पर ऐसी चरित्रहन्ता पड़ताल तो और भी खतरनाक है।

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  28. ओलीवर गोल्डस्मिथ की कविता बहुत सार्थक है और विष्णु जी ने इस आलेख के द्वारा सफलता से डरा दिया है !!

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  29. इस लेख को जिस तरह की प्रशस्ति के साथ प्रस्तुत किया गया है, सबसे पहले तो उससे अपनी असहमति दर्ज कराना चाहती हूँ. भाषा और कथ्य किसी भी स्तर पर यहाँ न कोई काव्यात्मकता के दर्शन होते हैं और न ही मानवीय ट्रेजेडी के प्रति आवश्यक संवेदनशीलता ही नज़र आती है. तो मनुष्यता के पक्ष में इसे जिंदा बयान की तरह तो इसे नहीं ही पढ़ा जा सकता.

    मृत्यु को मृत्यु की गरिमा भी यह बयान नहीं देता. अपनी पूरी बुनावट के यह लेख सेक्सिस्ट रिमार्क की तरह दिखाई देता है जिसके प्रमाण पूरे आलेख में जगह जगह भरे पड़े हैं. लेखक अपनी बात कहने के लिए इलीयट की लगभग 100 साल पुरानि कविता का सहारा लेते हैं. तब के वहां के समाज से आज के भारतीय समाज की तुलना कर रहे हैं. उनके जैसे कद्दावर लेखक से यह अपेक्षा न थी कि वे समाज को इस तरह मोनोलिथिक फिनोमेना की तरह देखते होंगे. भारतीय समाज एक ही समय पर कई स्टारों पर जीता है, विविध अस्मिताएँ, विविध मान्यताएं और नैतिकताएं यहाँ एक साथ सांस लेती हैं. सुन्दर स्त्री का पतित होना महज पुरुष पूर्वाग्रहों को व्यक्त करता है, जिसमे सुन्दरता को रेखांकित कर स्त्री का वस्तुकरण किया जा रहा है और पतित होने के बहाने उसे पितृसत्ता के खांचों में फिट किया जा रहा है. बाकि सारा लेख इन्ही दो बातों को अलग अलग तरह से कहने की कोशिश करता है.

    मेरी दिलचस्पी न बालिका बधू धारावाही को देखने में रही और न प्रत्युषा की मृत्यु की खबर में ही एक सीमा से अधिक दिलचस्पी मेरी हो सकी. लेकिन विष्णु खरे ने यदि कुछ लिखा है तो मेरी स्वाभाविक दिलचस्पी उसमे होती है. खासतौर से बैंडिट क्वीन पर करीब बीस बरस पहले उनका लिखा आलेख आज भी मेरे जहाँ में उतना ही ताज़ा है. मैं यह देख कर निराश होती हूँ कि लेख भारतीय मानस सिनेमा में काम कारणों वालों के प्रति किस तरह के आग्रह रखता है उसका उल्लेख तो करता है, लेकिन उसकी किसी गहरी संस्कृति या मानवीय पड़ताल में जाने की बजाय आगे चल कर खुद भी उन्हि मान्यताओं का प्रदर्शन मात्र बन कर रह जाता है.

    एबॉर्शन की बहस इस सन्दर्भ में कितनी प्रासंगिक है यह मेरे लिए एक प्रश्न ही है, लेकिन इसी इंडस्ट्री में नीना गुप्ता और सुष्मिता सेन जैसी तारिकाएँ भी हैं जो अकेली मातृत्व का बहुत आत्मविशवास के साथ निर्वहन करती हैं. इस प्रकरण में जिस तरह के रिश्ते में लेखक एबॉर्शन को अनैतिक बताना चाहते हैं, वैसे में वे बच्चे के लिए किस तरह के भविष्य और जीवन की कल्पना करते हैं. स्त्री को अपनी देह पर यह अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए कि वह स्वयं इस सम्बन्ध में निर्णय ले सके. उसे किस वक़्त पार्टी में जाना है, किसके साथ जाना है यह निर्णय उसके चरित्र प्रमाण पात्र के रूप में क्यों पेश किये जाने चाहिए? और यहाँ तक कि यह भाषा कि "आपके नित नए फ्रेंड बनते-बिछड़ते जाते हैं. हर शाम आप लेट-नाइट पार्टियों में अपने प्रेमियों द्वारा ले जाई जाती हैं." उस व्यक्ति के आत्म निर्णय को किस कदर कमतर कर देते हैं, क्या लेखक ने इस पर विचार भी किया है. आखिर यह कल्पना करने के आधार क्या है की वह एक स्त्री है तो उसके प्रेमी ही उसे "ले जाते हैं".

    महानगरों की व्यस्त ज़िन्दगी, अकेलापन, आर्थिक दबाव और प्रेम में टूटना समेत ऐसे अनेक कारण हैं जिनकी रोशनी में इस आत्महत्या या हत्या की पड़ताल की जा सकती है, लेकिन इस मर्दवादी नज़रिए के साथ पड़ताल करेंगे तो न आप अपने समय को सही बयान करे सकेंगे और इस समय में बदलती स्त्री के जीवन को तो आप छू भी नहीं पाएंगे.

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