विष्णु खरे : एक ‘भाई’ मुजरिम एक ‘भाई’ मुल्ज़िम











अभिनेता संजय दत्त मार्च 1993 के मुंबई सिलसिलेवार बम धमाकों के मामले में 42 महीने  कैद की सजा काट कर रिहा हुए हैं. (अंध/छद्म) राष्ट्रवाद के इस उन्मादी दौर में इस रिहाई को आप कैसे देखते हैं ? अगर जे.एन.यू. में कन्हैया का नारा लगाना आपको देशद्रोह लगता है तो फिर संजय दत्त द्वारा कालाशनिकौफ़ जैसा खतरनाक हथियार ख़रीदना और जमा करना क्या था?
विष्णु खरे का यह आलेख बड़ी सबलता से इस रिहाई के उस नैतिक संकट पर प्रकाश डालता है जिससे हम बचते रहते हैं और जो अक्सर चमक-दमक और रसूख में दिखता नहीं है.
हिंदी में ऐसी जानदार भाषा क्या कोई और लिख रहा है ?   



एक ‘भाई’ मुजरिम एक ‘भाई’ मुल्ज़िम              
विष्णु खरे



हालाँकि फिल्मों में दूसरी पीढ़ी ही चल रही है लेकिन हैं दोनों ख़ानदानी. फिर यह भी है कि दोनों के वाल्दैन एक-दूसरे को जानते रहे थे इसलिए बच्चों के बीच एक मौसा-मौसी का रिश्ता बन ही जाता है. हिन्दू-मुस्लिम गंगो-जमनी वल्दियत की एकता अलग. एक्टरों के रूप में बेपनाह कामयाबी. सियासी रसूख. प्रधानमंत्रियों, मुख्यमंत्रियों, सत्ताधारी पार्टियों से तकरीबन घरोवे की कुर्बत. बदक़िस्मती यही रही कि एक के यहाँ से पाकिस्तानी कालाशनिकौफ़ बरामद हुईं तो दूसरे की भारी गाड़ी के नीचे से एक अभागी मुस्लिम लाश. फिर कभी अदालत सधी तो कभी पुलिस न सधी और कभी सियासत न सधी. रहमदिल महक़मा-इ-ज़िन्दान अलबत्ता सधता रहा. मुजरिम भाई का कुफ़्र टूटा सज़ा-सज़ा कट के. ’बीइंग ह्यूमन’, मुल्ज़िम भाई ने सुप्रीम कोर्ट में घसीटे जाने से पहले फ़ौरन अपने दिल और दौलतख़ाने के दरवाज़े अपने बदराह ‘बड़े’ बिरादर के लिए खोल दिए. सवाल पब्लिसिटी का भी है.

कौन किसको अपने यहाँ मेहमान रखता है, कौन किसे उसकी रिहाई पर निजी पार्टी देता है यह उनके ज़ाती मामले हैं. हमें मालूम है कि सिसीलियन माफ़िया से लेकर मुम्बइया के झपटमार भी ऐसा करते हैं. अपने गिरोह का अदना मेम्बर भी छूट के आ जाता है तो दावत तो बनती है. अगर सलमान खान पहले कुछ दिनों संजय दत्त को अपने यहाँ पत्रकारों और पाप्पारात्सी से पनाह देता है, प्राइवेट जलसे रखता है तो हमें या किसी और को उस दस्तरख़ान की मिर्च क्यों लगे? सुनियोजित ढंग से प्रायोजित सैल्फ़ी तो लीक किए ही जाएँगे.

समस्या तब खड़ी होती है जब ऐसे मुजरिम को एक राष्ट्रीय शहीद या जननायक ‘विक्टिम’ बनाकर पेश किए जाने का कारोबार शुरू किया जाता है. संजय दत्त ने कहना चालू कर दिया  है कि वह टैररिस्ट नहीं है. वह यह नहीं जानना चाहता कि उसे सिर्फ़ उन रूसी राइफ़िलों के इस्तेमाल करने-करवाने का मौक़ा नहीं मिला, जो उसने चाँदमारी सीखने के लिए तो ऑर्डर की नहीं होंगी. ऐसे हथियार ख़रीदने और उनपर हाथ माँजने में कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं है. क़ानून में ‘सर्कम्स्टैंन्शियल एविडेंस’ और ‘मैंस रेआ’ जैसी चीज़ें भी होती हैं. मैं मानता हूँ कि संजय दत्त को अदालतों और जेल में बहुत रियायतें इसलिए भी मिलीं कि उनके पास दौलत, रसूख, मीडिया और लोकप्रियता के हथियार भी रहे.

सभ्य, सुसंस्कृत और जुर्म से डरने और परहेज़ रखनेवाले मुल्कों में संजय दत्त जैसे भयानक अपराधी के बचाव तो क्या, उससे क़ुर्बत रखने का भी सवाल न उठता. पश्चिम में अनेक प्रसिद्ध व्यक्तियों ने आपत्तिजनक, ग़ैर-सियासी, फ़ौजदारी जुर्मों में सज़ाएँ पाई हैं और उसके बाद उन्हें समाज ने कभी नैतिक रूप से न तो मुआफ़ किया और न सिविल सोसाइटी में उनका पुनर्वास हो सका. यह हमारे यहाँ ही संभव है कि हत्यारे, बलात्कारी, स्त्री-शोषक, डकैत, जालसाज़, और देश में लाखों करोड़ की घूसखोरी, ग़बन, और विदेशी बैंकों में काला पैसा रखनेवाले कुपरिचित मुजरिम और उनके गुर्गे विधायिका, न्यायपालिका, कार्यपालिका, मीडिया, सभी बिज़नेसों, पुलिस, और अब तो सेना तक में घुसपैठ कर चुके हैं, वह यूनिवर्सिटियों, कॉलेजों और स्कूलों में भी हैं, यहाँ तक कि नौकरपेशा महिलाएँ भी पर्याप्त भ्रष्ट हो चुकी हैं और सब बाज़्ज़त सक्रिय हैं. दरअसल अब भारत में किसी भी तरह के जुर्म न जुर्म रहे न अपराधी अपराधी. हिन्दू धर्म और भारत राष्ट्र का इतना पतन पहले कभी नहीं हुआ था, लेकिन विडंबना यह है कि अभी और की गुंजाइश बनी हुई है. ये मुल्क माँगे मोर.

यदि सलमान खान के ज़बरदस्त मुरीदों को छोड़ दें, तो भले ही वह सुप्रीम कोर्ट में अपने पूरे सामर्थ्य से बरी हो जाएँ, नैतिक रूप से वह मुजरिम माने जा चुके हैं. ऐसे में उनका कूद कर मुजरिम संजय दत्त का सरपरस्त खैरख्वाह बन जाना मानीखेज़ है. यह एक चुनौती है कि मैं संजय को न सज़ायाफ्ता कहता-मानता हूँ न उन्हें पनाह देने से डरता हूँ. निजी दोस्ती के आदर्श के ई.एम. फोर्स्टर स्तर पर हम इसका बचाव कर भी लें, लेकिन यह न भूलें कि भारत जैसे अभागे, पिछड़े  देश के लाखों दिग्भ्रमित बच्चों, किशोर-किशोरियों तथा युवक-युवतियों के लिए यह दोनों अपनी निहायत धोखादेह फिल्मों के कारण रोल-मॉडल भी हैं. शायद अभी ही इनके दर्शक इनके इल्ज़ाम और जुर्म को कोई तरजीह नहीं देते. आगे यदि उनकी और फ़िल्में सफल होती हैं तो रघुवीर सहाय की पंक्ति ‘’लोग भूल गए हैं’’ और सही होती चली जाएगी. यानी यदि आप अकूत पैसे कमा रहे हैं और कमाने दे रहे हैं और लोकप्रिय हैं तो आपके सौ जुर्म मुआफ हैं – क्योंकि वह आपने किए ही नहीं, आपको फँसाया गया है, जिन्होंने उन्हें अंजाम दिया था उन्हें फरार करवा दिया गया है.

हाल में एक बेहद अमेरिकी फिल्म आई थी ‘’डाल्टन ट्रंबो’’, जिसका ज़िक्र कभी इस कॉलम में किया गया था. वह उस अन्याय और ‘’विच-हंट’’ पर थी जो कम्युनिस्ट होने के शक़ की वजह से हॉलीवुड के पूँजीवादी सरगनाओं ने 1950 के दशक में कुछ सिने-अभिनेताओं और बुद्धिजीवियों के विरुद्ध  किए थे. दोनों पक्ष उसे अब तक नहीं भूले हैं, वर्ना यह फिल्म बनती ही क्यों. ज़ाहिर है भारत में यह फिल्म नहीं समझी गयी इसलिए नहीं चली. सलमान और संजय कम्युनिस्ट नहीं हैं, लेकिन एक पर नरहत्या का आरोप है और दूसरा भीषण हथियार रखने की सज़ा काट कर आया है. हिंदी सिनेमा फ़ौरन संजय दत्त की रिहाई को भुनाने में जुट गया है. ज़ाहिर है सलमान के यहाँ जो पार्टी होगी उसमें इंडस्ट्री के प्रभावशाली एक्टर, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर और डिस्ट्रिब्यूटर भाग लेंगे. ’प्रॉडिगल सन’ को ‘’शुद्धि’’ के बाद बिरादरी में शामिल किया जाएगा. सन्देश यही होगा कि हम संजू बाबा को मुजरिम नहीं मानते.

मुजरिम हम भी नहीं मानते, यदि संजय जेल के भीतर या बाहर से यह सार्वजनिक वक्तव्य देता कि जो कुछ उसने किया वह भयानक भूल थी, जिसकी उसे सज़ा मिल चुकी है, फिर भी वह इस देश की जनता और अपने प्रशंसकों से क्षमा माँगता है. उसे किशोरों और युवकों से साफ़ कहना चाहिए था कि वह उसके उदाहरण से सबक़ लें और कोई ऐसा ख़तरनाक क़दम न उठाएँ. संजय दत्त का जुर्म बहुत संगीन था. उसे उसकी आगामी चंद चालू फ़िल्मों की संभावित बॉक्स-ऑफिस कामयाबी से न तो भुलाया जाना चाहिए न उचित ठहराया जाना चाहिए. वह अपनी किसी फिल्म में यह भी दिखाने की कोशिश न करे कि जो उसने किया वह अपने बचकानेपन में ‘’राष्ट्रविरोधी’’ तत्वों के बहकावे में आकर किया. मुमकिन हो तो अपनी भूल पर एक मार्मिक ‘’कन्फैशनल’’ पिक्चर बनाए.

वह यह तो जानता ही होगा कि आज सारे देश में देशभक्ति और देशद्रोह को लेकर बहुत तीखी बहस चल रही है. संजय दत्त द्वारा कालाशनिकौफ़ खरीदा जाना स्पष्टतः जन-विरोधी और देश-विरोधी कृत्य था. लेकिन ज़ाहिर है कि एक प्रतिक्रियावादी विचारधारा, पार्टी या सरकार द्वारा लागू की जानेवाली देशभक्ति या देशद्रोह की परिभाषाएँ क़तई स्वीकार्य नहीं हो सकतीं. वह व्याख्याएँ स्वयं देशद्रोही हो सकती हैं. सच तो यह है कि आज हमारी शासन-प्रणाली और अर्थ-व्यवस्था ही गरीबों, मजलूमों और मुल्क के साथ गद्दारी पर टिकी हुई हैं. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में कथित रूप से जो हुआ उसकी तुलना पूँजीवादी देशद्रोह तो क्या, कालाशनिकौफ़ ख़रीदने और जमा करने से भी नहीं की जा सकती. कन्हैया संजय दत्त नहीं है. जो लोग संजय दत्त को जादू की जफ़्फ़ी देने को उतारू हैं उन्हें बेशक़ उसे मुआफ़ कर देना चाहिए लेकिन उसके जुर्म को और उस मानसिकता को समझ कर. भारत कुमार छाप देशभक्ति देशभक्ति नहीं होती. वह अब एक जटिल अवधारणा हो चुकी है. सलमान और संजय का सिनेमा और विधायिकाओं की बचकाना बहसें भी इसे समझ नहीं सकते. हमें उसके लिए एक नया सिनेमा,एक नई समझ चाहिए. वर्ना अंग्रेज़ी की यह कहावत सही होती दीख रही है कि Patriotism is the last refuge of scoundrels. “देशभक्ति बदमाशों की आख़िरी पनाह है’’.




(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल. फोटो ग्राफ गूगल से साभार)
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विष्णु खरे 
(9 फरवरी, 1940.छिंदवाड़ा, मध्य प्रदेश)
vishnukhare@gmail.com / 9833256060

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  1. आजादी की लड़ाई में जब लोग जेल से रिहा होते थे तो जनता स्वागत के लिये उमड़ पड़ती थी अब उनकी जगह अपराधियों ने ले ली है .आजादी के बाद यह बेशर्मी आम होती जा रही है .रसूखदार के जेब में कानून रहता है .उसके पास क्रय शक्ति है .विष्णु जी यहां भी अपने फार्म में है .

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  2. Kahrey sahab ne ekdum sahi kaha. Kanahiyya ko bhi 42 mahiney ke baad riha kar diya jana chahiye varna ye ghor anyay hoga uskey saath.

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  3. बहुत सुंदर लेख ! शुक्रिया !

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  4. और कितने पतन की गर्त में जायेगा हमारा समाज।देखते हैं।

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  5. राज किशोर उपाध्याय28 फ़र॰ 2016, 7:20:00 pm

    ग्लानि और पश्चाताप से मुक्त अपराध- कर्म , पैसा , रसूख और मुक्ति के सेलेब्रेशन का यह समय कितना भयानक हो चुका है

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  6. True this time is more dark than what is being perceived. Definition of Hero and villain has lost its meaning Dawood is also hero to millions of his followers.!!!!.

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  7. विष्णु खरे ने इस टिप्पणी में एक मूल सवाल को उठाया है कि ''मुजरिम हम भी नहीं मानते, यदि संजय जेल के भीतर या बाहर से यह सार्वजनिक वक्तव्य देता कि जो कुछ उसने किया वह भयानक भूल थी, जिसकी उसे सज़ा मिल चुकी है, फिर भी वह इस देश की जनता और अपने प्रशंसकों से क्षमा माँगता है''। विष्णु खरे ने हमारे वर्तमान समय में जन समाज में लोकप्रिय ' आइकॉन ' की छवि और संगीन अपराधी के बीच निरन्तर धुंधली पडती हुई सीमारेखाओं को स्पष्ट किया है ।विशाल जन साधारण के सामूहिक अवचेतन में निर्मित किये जाते हुए ग्लैमर बिम्बों, न्याय व्यवस्था के दोहरे चरित्र , किसी भी आत्म- ग्लानि, शर्म और पश्चाताप से मुक्त अपराध- कर्म , पैसा , रसूख और मुक्ति के सेलेब्रेशन का यह समय कितना भयानक हो चुका है

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  8. ये जो ख़ास पंजेंट और शार्प भाषा है सर के पास, वह जरूरी को और जरूरी बनाता है।
    स्वप्निल जी ने सही लिखा है।

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