सहजि सहजि गुन रमैं : आशुतोष दुबे (३)












‘विदा लेना बाक़ी रहे’ आशुतोष दुबे का चौथा कविता संग्रह है जो इस वर्ष प्रकाशित हुआ है. उनकी कुछ कविताओं के अनुवाद  भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और जर्मन में भी हुए हैं. उनकी इस सृजनात्मक यात्रा में जहाँ खुद उनका काव्य-विवेक विकसित हुआ है वहीँ हिंदी कविता का दायरा भी विस्तृत हुआ है. इन कविताओं की भंगिमा और संकेत खुद उनके अपने हैं. ये कविताएँ किसी तात्कालिक जरूरत के दबाव में लिखी कविताएँ नहीं हैं दरअसल इन कविताओं के पीछे वह तनाव है जिसका अनुभव कला कराती है. उम्मीद है कि यह संग्रह रूचि से पढ़ा जाएगा और ‘सह्रदय – वृत्त’ में सराहा जाएगा.  




आशुतोष दुबे की कवितायेँ                        






॥ स्पर्श ॥

मेरे आसपास का संसार 
आविष्ट है 
एक छुअन की स्मृति से

आकाश में से थोड़ा 
आकाश लेता हूँ
पृथ्वी में से लेता हूँ 
थोड़ी सी पृथ्वी

एक आवाज़ की
ओस भीगी उंगलियों से 
छुआ गया हूँ

एक दृष्टि की कहन में 
जैसे घोर वन में 
घिरा हुआ 
रास्ता ढूँढता हूँ

असमाप्त स्पन्दनों की
लगतार लय में 
बह निकलने के पहले 
सितार के तारों में 
उत्सुक प्रतीक्षा का तनाव है

थोड़े से आकाश में उड़ता हूँ 
थोड़ी सी पृथ्वी पर रहता हूँ

उसकी देह में रखे हैं मेरे पंख 
मेरी देह उसके स्पर्श का घर है.






॥ मौत के बाद ॥ 

फिर सूरज निकलता है 
हम फिर कौर तोड़ते हैं
काम पर निकलते हैं 
धीरे-धीरे हँसते-मुस्कुराते हैं 
बहाल होते जाते हैं
एक पल आसमान की ओर देखते हैं 
सोचते हैं अब वह कहीं नहीं है
और फिर ये कि अब वह कहाँ होगा ?

यक़ीन और शक में डूबते- उतराते
हम उस कमरे की ओर धीरे-धीरे जाना बन्द कर देते हैं
जो हमारे मन में है
और जहाँ रहने वाला वहाँ अब नहीं रहता 
पर ताला अभी भी उसी का लगा है.






॥ शिकायतें ॥ 
    
वे बारूद की लकीर की तरह सुलगती रहती हैं भीतर ही भीतर 
हमें दुनिया से दुनिया को हमसे बेशुमार शिकायतें हैं

एक बमुश्किल छुपाई गई नाराज़गी हमें जीवित रखती है 
वह मुस्कुराहट में ओट लेती है और आँख की कोर में झलकती है पल भर

वे आवाज़ के पारभासी पर्दे में खड़ी रहती हैं एक आहत अभिमान के साथ 
वे महसूस होती हैं और कही नहीं जातीं

ईश्वर जिसे हमारे भय और आकांक्षाओं ने बनाया था 
शिकायतों से बेज़ार शरण खोजता है हमारी क्षमा में

हममें से कुछ उन्हीं के ईंधन से चलते हैं उम्र भर
हममें से कुछ उन्हीं के बने होते हैं

मां-बाप से शिकायतें हमेशा रहीं 
दोस्तों से शायद सबसे अधिक 
भाई-बहनों से भी कुछ-न-कुछ रहा शिकवा 
शिक्षकों और अफसरों से तो रहनी ही थीं शिकायतें
उन्हीं की धुन्ध में विलीन हुए प्रेमी-प्रेमिकाएं 
बीवी और शौहर में तो रिश्ता ही शिकायतों का था

सबसे ज़्यादा शिकायतें तो अपने-आप से थीं
क्योंकि उन्हें अपने आप से कहना भी इतना मुश्किल था कि
कहते ही बचाव के लचर तर्क न जाने कहाँ से इकट्ठा होने लगते
देखते देखते हम दो फाड़ हो जाते
और अपने दोनों हिस्सों से बनी रहती हमारी शिकायतें बदस्तूर.






॥ अन्धे का सपना ॥

मैं एक अन्धे का सपना हूँ 
एक रंग का दु:स्वप्न 
एक रोशनी मेरे दरवाज़े पर दस्तक देते-देते थक जाती है 
जो आकार मेरे भीतर भटकते हैं वे आवाज़ों के हैं 
जो तस्वीरें बनतीं-बिगड़ती हैं वे स्पर्शों की हैं

मेरी स्मृतियाँ सूखे कुएँ से आतीं प्रतिध्वनियाँ हैं 
वे खंडहरों में लिखे हुए नाम हैं जिनका किसी और के लिए कोई अर्थ नहीं है

मेरे भीतर जो नदी बहती है वह एक आवाज़ की नदी है 
और मेरी हथेलियों में जो गीलापन उसे छूने से लगता है
वही पानी की परिभाषा है

मेरी ज़मीन पर एक छड़ी के टकराने की ध्वनि है 
जो किसी जंगल में मुझे भटकने नहीं देती.







॥ धूल ॥

धूल अजेय है.

बुहार के ख़िलाफ़ वह खिलखिलाते हुए उठती है और जब उसे हटाने का इत्मीनान होने लगता है तब वह धीरे-धीरे फिर वहीं आ जाती है. वह चीज़ों पर, समय पर, सम्बन्धों पर, ज़िन्दा लोगों और चमकदार नामों पर जमती रहती है. उसमें अपार धीरज है. वह प्रत्येक कण, प्रत्येक परत की प्रतीक्षा करती है जिससे वह चीज़ों को ढँक सके. वह शताब्दियों से धीरे-धीरे छनती रहती है और शताब्दियों पर छाती रहती है.

वह कहीं नहीं जाती और हमेशा जाती हुई दिखाई देती है.

धूल उड़ाते हुए जो शहसवार गुज़रते हैं वे उसी धूल में सराबोर नज़र आते हैं.

धूल और स्त्रियों की आज तक नहीं बनी. जब एक स्त्री आँगन में धूल बुहार रही होती है तो धूल उसकी छत पर जाकर खेलने लगती है. आईने पर जमी धूल हटती है तो अपने चेहरे की रेखाओं में जमी धूल दिखाई देती है. वह तब भी रहती है जब दिखाई नहीं देती. कहीं से धूप की एक लकीर आती है और उसके तैरते हुए कण सहसा दिखाई देने लगते हैं.

एक दिन आदमी चला जाता है, उसके पीछे धूल रह जाती है.




॥ जाना ॥

जाना ही हो,
तो इस तरह जाना
कि विदा लेना बाक़ी रहे
न ली गई विदा में इस तरह ज़रा सा
हमेशा के लिए रह जाना !
फोटो द्वारा : Tanveer Farooqui


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सम्पर्क: 
6, जानकीनगर एक्सटेन्शन,इन्दौर - 452001 ( म.प्र.)
ई मेल: ashudubey63@gmail.com 

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  1. बहुत ही सुंदर कविताये है ,आभार आपका

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  2. एक भी शब्द अनावश्यक नहीं,एक भी पंक्ति फालतू नहीं.जो भी कहा जा रहा है वह पानी में रंगों के granules की तरह ज़ेहन में पुच्छलदार फैलता है.आशुतोष दुबे की कविताओं का पुराना प्रशंसक हूँ और वैसा न रहूँ इसका अब भी कोई कारण सूझ नहीं पड़ता.

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  3. पारखी नजर की बेहतरीन कविताएँ ।

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  4. परमेश्वर फुंकवाल19 जन॰ 2016, 6:18:00 pm

    बेहतरीन कविताएँ...

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  5. कंडवाल मोहन मदन19 जन॰ 2016, 6:21:00 pm

    आपकी एकदैशिकता समालोचन का सम्बल अरुण देव जी।
    आप जो दिग दिगंत से मोती छान छान लाते यहाँ। उसका आभार देना प्रकाश को तिल्ली दिखाने सा।
    साहित्य साधु ऐंसा चाहिए अकस्मात याद आता

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  6. विदा लेना बाकी रहे, बाजवक्त कविताएँ आपसे इस तरह मिलती हैं जैसे डायग्नीस की रोशनी. कबीर को सुनते हुए आज इन कविताओं का पढ़ा. गगन में आवाज़ हो रही झीनी झीनी.
    आपकी साइलेंट पाठक हूँ.

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  7. Every single poetry of his is a gem , intuitive ,piercing and intense with laconic use of words ! A reader's delight smile emoticon

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  8. बेहद सधी,बेहद गहरी,हमारे दैनिक जीवन के रोजमर्रा पन को इतने चौकाउं ढंग से रखते हैं कि हमारी आँखे चौधिया जाती हैं।हमारी दैनिक सम्बेदना को आशीषती और अनंत आकाश देतीं कविताये।बधाई।।

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  9. आशुतोष हमारे समय का बहुत ही महत्वपुर्ण कवि है। अपने पहले संग्रह से ही इस कवि ने हिन्दी कविता में जो हस्तक्षेप दर्ज किया है। उसका विस्तार परवर्ति और बाद के कवियों में दिखाई देता है। अशुतोष से भाषा का वर्ताव और कवि के ऑबजर्वेशन की तकनीक को सीखनी चाहिए। उसकी कविता में लाउड और अंडरटोन का समंजस्य गज़ब का है। मैं शुरू से आशुतोष का प्रसंशक रहा हूँ। - प्रदीप मिश्र

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