‘तंगनज़री’ एक खतरनाक बीमारी है, यह शको-सुब्हा से पैदा होती है, गलतफहमी से पलती बढ़ती है, मज़हबी खुराक पाते ही लाइलाज़ हो
जाती है. इससे ‘सेंटिमेंट
हर्ट’ टाइप की
महामारी फैलने का भारी खतरा होता है.
फिल्मी दुनिया जो इतनी चमकदार
और भाईचारे टाइप की दिखती थी, एक आमिर खान के बयाँ से बेपर्दा हो गयी है. गलतबयानी करने से
क्या यह बेहतर नहीं है कि कलाकार इस मुद्दे पर कुछ रचनात्मक लेकर आते- कम से कम
अदद डाक्युमेंट्री ही सही.
प्रत्येक दूसरे सप्ताह-रविवार
की सुबह के इस स्तम्भ के अंतर्गत हिंदी के आलोचक और सिने- मीमांसक विष्णु खरे का
यह मानीखेज़ आलेख खास आपके लिए.
अपनी सिने-दुनिया और ‘’असहिष्णुता’’
विष्णु खरे
हिंदी का ‘असहिष्णुता’ नहीं,
उर्दू का ‘तंगनज़री’ नहीं,
बुद्धिजीवी समझे जानेवाले अभिनेता आमिर
खान द्वारा प्रयुक्त अंग्रेज़ी का ‘इंटॉलेरेंस’ शब्द इस समय मुख्यधारा और सामाजिक
मीडिया द्वारा लगभग सड़क से संसद तक प्रचलित और शायद लोकप्रिय कर दिया गया है,
हालाँकि इसकी शुरूआत लेखकों-बुद्धिजीवियों ने की थी. यों यदि वह
अंग्रेज़ीभाषी नहीं थे तो उनके बीच भी वह नया था. ’इंटॉलेरेंस’
कोई स्वतंत्र भाववाचक संज्ञा नहीं है. हर व्यक्ति दिन में कई बार
व्यक्तियों, समाज और ईश्वर तक के प्रति असहिष्णु हो जाता है.
विडंबना यह है कि वह समझता है कि वह भी उसके प्रति असहिष्णु हैं,शायद होते भी हों. अकारण और
सन्दर्भ के बिना असहिष्णुता असंभव है, हालाँकि बुग्ज़े-लिल्लाही भी एक शय होती है.
आज समाज, संस्कृति और संसद के भीतर ‘तंगनज़री’ या ‘नाबर्दाश्तगी’
को लेकर जो विवाद व्याप्त है वह आध्यात्मिक या अस्तित्ववादी नहीं है,
वह व्यापक है और सीमित भी, और वह राजनीतिक,
धार्मिक और सांप्रदायिक भी है. सच तो यह है कि इन आखिरी तीनों
विशेषणों का प्रयोग करते ही बात एक अपरिहार्य दुतरफ़ा असहिष्णुता की ओर झुकने लगती
है. विशेषतः उस समय जब विवादित असहिष्णुता के बीज राजनीति में देखे जा रहे हों और
उसे धार्मिक और साम्प्रदायिक माना जा रहा हो.
राजनीति
ने शायद हमारे सिने-विश्व में इंदिरा गाँधी और शिव सेना के अलग-अलग प्रादुर्भावों से
प्रवेश किया. ध्यान दें कि यहाँ बात सिनेमा या फिल्मों की नहीं हो रही, सिने-जगत की आतंरिक और बाह्य ठोस राजनीति – ‘रेआलपोलिटीक’
– की हो रही है. 1964 तक मुम्बइया फिल्म-उद्योग के राजनीति से
सम्बन्ध जवाहरलाल नेहरू की नायक-पूजा – हीरो-वर्शिप –
से आगे नहीं गए थे. सारे नायक-नायिकाएँ, निर्माता-निदेशक-पत्रकार
भी, नेहरूजी के साथ तत्कालीन सैल्फी खिंचाने के लिए आपसी
संघर्ष करते थे. कारणों में जाना यहाँ संभव और ज़रूरी नहीं, लेकिन
पिछले पचास वर्षों में धीरे-धीरे हिंदी फ़िल्मी दुनिया राजनेताओं, पुलिस अफसरों, इनकम-टैक्स मुहकमे,’ हाइ-मीडिया’ (अपनी खुशफहमी में शायद यह शब्द लेखक ने
गढ़ा है) और विज्ञापनदाताओं की गुलाम बनती गई. संसार में किसी भी दूसरी
फिल्म-इंडस्ट्री का ऐसा पतन नहीं हुआ.
हिंदी
सिनेमा में आज आप किसी को वामपंथी या लेफ्टिस्ट समझने-कहने की हिमाकत नहीं कर
सकते लेकिन नेहरूजी के ज़माने से आज तक कुछ फ़िल्मवाले खुल्लमखुल्ला या
अंदरखाने किसी कथित कांग्रेसी विचारधारा से जुड़े हुए होंगे. उस ज़माने में दिलीप
कुमार, देवानंद तथा
राज कपूर-नर्गिस आदि इसके उदाहरण थे. सोवियत रूस का उल्लेख भी किया जा सकता है.
नेहरू के बाद उन्हीं के परिवार को लेकर अपने सर्वाधिक
प्रकट रूप में यह रुझान अमिताभ बच्चन (और उनकी पत्नी जया) में देखा गया था और अब सभी जानते हैं कि दोनों अपने-अपने राजनीतिक हश्र
में फिलहाल कहाँ हैं. इसी तरह पिछले क़रीब बीस वर्षों में फ़िल्मी दुनिया के बहुत
सारे लोग भारतीय जनता पार्टी और शिव सेना की ओर आकृष्ट हुए हैं और उनके बहुत सारे
सैल्फी अटल बिहारी वाजपेयी, लालकृष्ण आडवाणी,(अब दिवंगत) बाल ठाकरे तथा वर्तमान ठाकरे परिवार के साथ देखे गए हैं. आज
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ फोटो खिंचवा पाने पर तो निस्संदेह बड़ा
प्रीमियम होगा. साफ़ है कि अभी मुंबई फिल्म-जगत मुख्यतः इन दो राजनीतिक खेमों
के बीच बंटा हुआ है – ज़्यादा समर्थन मुंबई-दिल्ली में
वर्तमान सत्तारूढ़ दलों को है.
राष्ट्रीय
स्तर पर इंटॉलरेंस और सहिष्णुता का संघर्ष दो समूहों के बीच होता माना जा रहा है -
एक ओर कथित वामपंथी, धर्मनिरपेक्ष,
प्रबुद्ध, आधुनिकतावादी पार्टियाँ, लेखक, बुद्धिजीवी, उनके संगठन
और समर्थक मीडिया हैं और दूसरी ओर कथित दक्षिणपंथी पार्टियाँ और उनके समर्थक ऐसे
ही तत्व. लेकिन यदि सरलीकरण का अपरिहार्य सहारा लिया जाए तो झगड़ा मुख्यतः सत्तारूढ़
पार्टी भाजपा और भाजपा-विरोधियों के बीच देखा जा रहा है और यह माना जा रहा है कि
सरकार-सहित सभी ‘सांप्रदायिक’ राजनीतिक-गैर
राजनीतिक व्यक्ति और समूह अपने विरोधियों पर हमले करवा रहे हैं, उनकी हत्याओं के लिए ज़िम्मेदार हैं, उनपर आतंक बरपा
जा रहा है, उनका इस देश में शांति, सुरक्षा,
आत्म-सम्मान और गरिमा के साथ रहना कठिनतर होता जा रहा है. अंततः बात
फिर ‘’आया न देखो फ़र्क़ हिन्दू-मुसलमान के बीच’’ तक पहुँच गई है. पहले आमिर खान के स्कूली बेटे ने अपनी माँ से कहा,
फिर किरण राव ने अपने खाविंद से कहा और
फिर आमिर खान ने राष्ट्र से कहा कि उनके परिवार का किसी विदेश में ही बस जाना
बेहतर होगा. बाद में, खैर, उन्होंने
अपने सारे विवादित वक्तव्य वापस ले लिए हैं लेकिन उनके पुतले जलाए गए,
उन्हें तमाचे मारने के लिए ईनाम के ऐलान हुए और कई अदालतों में उनपर
मुक़द्दमे दायर हुए हैं, हालाँकि काश पूछो कि मुद्दआ क्या है.
सवाल और
भी हैं. हम उच्च बौद्धिकता तक नहीं जाते, दाभोलकर,पानसरे,कलबुर्गी की अभी तक अनसुलझी हत्याओं का ज़िक्र तक नहीं करते, क्योंकि
वर्तमान सन्दर्भ फिल्म लाइन का है, लेकिन तब तो मामला और
गंभीर हो जाता है. विश्व में सिनेमा से अधिक लोकप्रिय और प्रभावशाली कला आज कोई
नहीं है. यदि जाति-प्रथा को भी एक पांच हज़ार वर्ष पुरानी अंतर्देशीय अमानवीय
असहिष्णुता मान लिया जाए तो हमारे देश के करोड़ों नागरिकों के लिए इन्टॉलरेंस कोई
नई चीज़ नहीं रही, अभी भी नहीं है, भले
ही मुस्लिम होने के कारण आमिर कह सकते हैं कि आंतरिक हिन्दू असहिष्णुता से मेरा
कोई वास्ता नहीं. किन्तु सुन्नी-शिया तंगनज़री भी कई सौ वर्ष पुरानी है और
हिंदुस्तान में भी उसके चलते कुछ लाख मुस्लिम तो मारे गए होंगे.’सवर्ण’ मुस्लिम बोहरों और अहमदियों आदि को लेकर क्या
सोचते हैं यह भी छिपा हुआ नहीं है. जिस तरह आमिर हिन्दुओं की आतंरिक अमानवीय
असहिष्णुता को अपना मामला नहीं समझते उसी तरह हिन्दू फिल्म निर्माता भी अंदरूनी
मुस्लिम असहिष्णुता को छूने से डरते हैं.
आमिर
खान और उद्योग के अन्य मुस्लिम-हिन्दू यदि मानते हैं कि मुसलमानों को लेकर भाजपा
और केंद्र सरकार की असहिष्णुता असह्य हो चुकी है तो उन्हें ‘ट्विटर’,’व्हाट्सअप’
और Faecesbook आदि के साथ-साथ उसके बारे में
फिल्म-निर्माण तक आना चाहिए. संसार भर में उनके करोड़ों देशी-विदेशी मुस्लिम-ग़ैर
मुस्लिम प्रशंसक हैं. यह सही है कि भाजपाई या हिन्दू तंगनज़री पर ईमानदार और साहसिक
फ़िल्म बनाना आसान नहीं है. लेकिन उस फिल्म या ऐसी फिल्मों के माध्यम से यह तो खोजा
जा सकता है कि हिन्दू-मुसलमानों के बीच किस तरह की समस्याएँ हैं – वह हैं भी या नहीं या हिन्दू-मुसलमान तो मुहब्बत और भाईचारे से रह रहा है,
सिर्फ शेख-बिरहमन-मुल्ला-पाण्डे उन्हें परस्पर जानी दुश्मन बनाए दे
रहे हैं. क्या हमारा फिल्म-संसार सांप्रदायिक सीमाओं से बंटा हुआ है? मैं पिछले करीब साठ वर्षों से हिंदी फिल्मों के बारे में पढ़-सुन रहा हूँ
लेकिन ऐसी कोई चीज़ मेरे संज्ञान में नहीं आई. पाकिस्तान
बनने पर कुछ मुस्लिम फिल्मकार वगैरह भारत छोड़कर चले गए थे, लेकिन उनमें से कुछ लौट भी आए थे और जो नहीं लौटे उनमें से लगभग सभी पछताते रहे.
आज भी यदि सारे पाकिस्तानी फिल्म-टीवी कलाकारों को भारत आने दिया जाए तो मुमकिन है
आमिर खान, शाहरुख़ खान, सलमान खान और
अनेक दुसरे युवतर भारतीय मुस्लिम कलाकार उन्हें लेकर असहिष्णु हो जाएँ.
यह मसला
एक ऐसा युद्ध-क्षेत्र है जिसमें बारूदी सुरंगें बिछी हुई हैं. ऐसी फ़िल्में करोड़ों
दर्शकों को हिला सकती हैं. लेकिन जो फिल्मीजन भाजपाई या हिन्दू तंगनज़री महसूस करते
हैं उन्हें इस विषय पर अपनी फीचर फ़िल्में लेकर सामने आना ही चाहिए. डाक्यूमेंट्रीज़
भी बनाई जा सकती हैं. आज किसी भी फिल्म को दबाया नहीं जा सकता. तब यह देखा
जाएगा कि उन्हें बनने कैसे दिया जाता है, वह किस तरह सेंसर होती हैं, उन्हें वितरक और
सिनेमाघर मिलते हैं या नहीं, किस तरह के दर्शक उन्हें देखने
आते हैं और उन्हें लेकर सिनेमा के भीतर और बाहर कौन, क्या,
कब तक करता है. आखिर ईरान में अब भी कई डायरेक्टर जेल में हैं. अरब
देशों में सैकड़ों फ़िल्में बनाई-दिखाई नहीं जा सकतीं. असहिष्णुता इतनी बहुआयामीय है
कि उसे लेकर कोई सरलीकरण नहीं किया जा सकता. यह
टिप्पणी भी बहुत संतोषजनक नहीं है. तंगनज़री एक बहुत खतरनाक मसला तो है ही और वह
अभी लम्बे अरसे तक वैसा बना
रहेगा.
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(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )
vishnukhare@gmail.com / 9833256060
(विष्णु खरे का कॉलम. नवभारत टाइम्स मुंबई में आज प्रकाशित, संपादक और लेखक के प्रति आभार के साथ.अविकल )
विवेचन बहुत सटीक है खास कर इतिहास का उल्लेख। ... मैं अब भी मानता हूँ की जनता और राजनीती के साथ साथ आमिर और खान की तरह ही दो भाग बनते बिगड़ते रहतें है वर्तमान या यु कहें पीछे २ दसकों से। पर मुझे लगता है जितना बड़ा कलाकार बात का बतंगड़ उतना ही बड़ा होता जाता है। .. भारी पेटे की कमी सच में दोनों और से ( इतिहास हावी होने की कगार पर) उदाहरण एक se बढ़ कर एक (राजनीती -बॉलीवुड ) जनता अभी भी टक टकी लगाए अचंम्भित है (मजे और TRP अपने चरम पर )!!!! ये सच और भी कड़वा है !!!
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