सहजि सहजि गुन रमैं : राकेश रोहित








जब पूरा वातावरण कट्टरता, हिंसा और असहिष्णुता से भयाक्रांत हो और सत्ता के पहियों के नीचे मासूम, निर्दोष और खरे जन पिस रहे हों तब कविता क्या कर सकती है ?


ऐसे थरथराते समय में अगर वह प्रेम को पाने, बचाने और सहेजने में जुटी है तो वह अपनी ज़िम्मेदारी को मैं समझता हूँ कि समझ रही है. जो सुंदर है, सहज है और जो मासूम है आज उसकी रक्षा सबसे पहले की जानी चाहिए. अगर कवि प्रेम के गीत नहीं गा सकता तो वह विद्रोह को भी नहीं लिख सकता. राकेश की कवितायेँ विकट कोलाहल में इसी मानवीय संवेदना के साथ खड़ी हैं और यह भी देख रही हैं कि ‘अंधेरे ब्रह्मांड में दौड़ रही है पृथ्वी’. 



राकेश रोहित की कवितायेँ                                      





कोलाहल में प्यार

कभी- कभी मैं सोचता हूँ
इस धरती को वैसा बना दूँ
जैसी यह रही होगी
मेरे और तुम्हारे मिलने से पहले!

इस निर्जन धरा पर
एक छोर से तुम आओ
एक छोर से मैं आऊं
और देखूँ तुमको
जैसे पहली बार देखा होगा
धरती के पहले पुरूष ने
धरती की पहली स्त्री को!

मैं पहाड़ को समेट लूँ
अपने कंधों पर
तुम आँचल में भर लो नदियाँ
फिर छुप जाएं
खिलखिलाते झरनों के पीछे
और चखें ज्ञान का फल!

फिर उनींदे हम
घूमते बादलों पर
देखें अपनी संततियों को
फैलते इस धरा पर
और जो कोई दिखे फिरता
लिए अपने मन में कोलाहल
बरज कर कहें-
सुनो हमने किया था प्यार
तब यह धरती बनी!





कवि, पहाड़, सुई और गिलहरियां

पहाड़ पर कवि घिस रहा है
सुई की देह
आवाज से टूट जाती है
गिलहरियों की नींद!

पहाड़ घिसता हुआ कवि
गाता है हरियाली का गीत
और पहाड़ चमकने लगता है आईने जैसा!

फिर पहाड़ से फिसल कर गिरती हैं गिलहरियां
वे सीधे कवि की नींद में आती हैं
और निद्रा में डूबे कवि से पूछती हैं
सुनो कवि तुम्हारी सुई कहाँ है?

बहुत दिनों बाद उस दिन
कवि को पहाड़ का सपना आता है
पर सपने में नहीं होती है सुई!

आप जानते हैं गिलहरियां
मिट्टी में क्या तलाशती रहती हैं?
कवि को लगता है वे सुई की तलाश में हैं
मैं नहीं मानता
सुई तो सपने में गुम हुई थी
और कोई कैसे घिस सकता है सुई से पहाड़?

पर जब भी मैं कोई चमकीला पहाड़ देखता हूँ
मुझे लगता है कोई इसे सुई से घिस रहा है
और फिसल कर गिर रही हैं गिलहरियां!
मैं हर बार कान लगाकर सुनना चाहता हूँ
शायद कोई गा रहा हो हरियाली का गीत
और गढ़ रहा हो सीढ़ियाँ
पहाड़ की देह पर!

गिलहरियां अपनी देह घिस रही हैं पहाड़ पर
और कवि एक सपने के इंतजार में है!






पीले फूल और फुलचुही चिड़िया

वो आँखें जो समय के पार देखती हैं
मैं उन आँखों में देखता हूँ.
उसमें बेशुमार फूल खिले हैं
पीले रंग के
और लंबी चोंच वाली एक फुलचुही चिड़िया
उड़ रही है बेफिक्र उन फूलों के बीच.

सपने की तरह सजे इस दृश्य में
कैनवस सा चमकता है रंग
और धूप की तरह खिले फूलों के बीच
संगीत की तरह गूंजती है
चिड़िया की उड़ान
पर उसमें नहीं दिखता कोई मनुष्य!
सृष्टि के पुनःसृजन की संभावना सा
दिखता है जो स्वप्न इस कठिन समय में
उसमें नहीं दिखता कोई मनुष्य!

दुनिया के सारे मनुष्य कहाँ गये
कोई नहीं बताता?
झपक जाती हैं थकी आँखें
और जो जानते हैं समय के पार का सच
वे खामोश हो जाते हैं इस सवाल पर.
सुना है
कभी- कभी वे उठकर रोते हैं आधी रात
और अंधेरे में दिवाल से सट कर बुदबुदाते हैं
हमें तो अब भी नहीं दिखता कोई मनुष्य
जब नन्हीं चिड़ियों के पास फूल नहीं है
और नहीं है फूलों के पास पीला रंग!

इसलिए धरती पर
जब भी मुझे दिखता है पीला फूल
मुझे दुनिया एक जादू की तरह लगती है.
इसलिए मैं चाहता हूँ
सपने देखने वाली आँखों में
दिखती रहे हमेशा फुलचुही चिड़िया
फूलों के बीच
ढेर सारे पीले फूलों के बीच.






विदा के लिए एक कविता

और जब कहने को कुछ नहीं रह गया है
मैं लौट आया हूँ!

माफ करना
मुझे भ्रम था कि मैं तुमको जानता हूँ!


भूल जाना वो मुस्कराहटें
जो अचानक खिल आयी थी
हमारे होठों पर


जब खिड़की से झांकने लगा था चाँद
और हमारे पास वक्त नहीं था
कि हम उसकी शरारतों को देखें
जब हवा चुपके से फुसफुसा रही थी कानों में
भूल जाना तुम तब मैं कहाँ था
और कहाँ थी तुम!

वह जो हर दीदार में दिखता था तेरा चेहरा
कि खुद को देखने आईने के पास जाना पड़ता था
और बार- बार धोने के बाद भी रह जाती थी
चेहरे पर तुम्हारी अमिट छाप


वह जो तुम्हारे पास की हवा भी छू देने से
कांपती थी तुम्हारी देह
वह जो बादलों को समेट रखा था तुमने
हथेलियों में
कि एक स्पर्श से सिहरता था मेरा अस्तित्व
हो सकता है एक सुंदर सपना रहा हो मेरा
कि कभी मिले ही न हों हम- तुम


कि कैसे संभव हो सकता था
मेरे इस जीवन में इतना बड़ा जादू!
भूल जाना वो शिकवे- शिकायतों की रातें
कि मैंने पृथ्वी से कहा
क्या तुम मुझे सुनती हो?


वह जो दिशाओं में गूँजती है प्रार्थनाएं
शायद विलुप्त हो गयी हों
तुम तक पहुँचने से पहले
कि शब्दों में नहीं रह गई हो कशिश
शायद इतनी दूर आ गए थे हम
कि हमारे बीच एक फैला हुआ विशाल जंगल था
जो चुप नहीं था पर अनजानी भाषा में बोलता था
और जहाँ नहीं आती थी धूप
वहाँ काई धीरे-धीरे फैल रही थी मन में!

सुनो इतना करना
तुम्हारी डायरी के किसी पन्ने पर
अगर मेरा नाम हो
उसे फाड़ कर चिपका देना उसी पेड़ पर
जहाँ पहली बार सांझ का रंग सिंदूरी हुआ था
जहाँ पहली बार चिड़ियों ने गाया था
घर जाने का गीत
जहाँ पहली बार होठों ने जाना था
कुछ मिठास मन के अंदर होती है.


वहीं उसी कागज पर कोई बच्चा
बनाए शायद कोई खरगोश
और उसके स्पर्श को महसूसती हमारी उंगलियां
शायद छू लें उस प्यार को
जिसमें विदा का शब्द नहीं लिखा था हमने!







एक दिन

सीधा चलता मनुष्य
एक दिन जान जाता है कि
धरती गोल है
कि अंधेरे ने ढक रखा है रोशनी को
कि अनावृत है सभ्यता की देह
कि जो घर लौटे वे रास्ता भूल गये थे!


डिग जाता है एक दिन
सच पर आखिरी भरोसा
सूख जाती है एक दिन
आंखों में बचायी नमी
उदासी के चेहरे पर सजा
खिलखिलाहट का मेकअप धुलता है एक दिन
तो मिलती है थोड़े संकोच से
आकर जिंदगी गले!


अंधेरे ब्रह्मांड में दौड़ रही है पृथ्वी
और हम तय कर रहे थे
अपनी यात्राओं की दिशा
यह खेल चलती रेलगाड़ी में हजारों बच्चे
रोज खेलते हैं
और रोज अनजाने प्लेटफार्म पर उतर कर
पूछते हैं क्या यहीं आना था हमको?


इस सृष्टि का सबसे बड़ा भय है
कि एक दिन सबसे तेज चलता आदमी
भीड़ भरी सड़क के
बीचोंबीच खड़ा होकर पुकारेगा-
भाइयों मैं सचमुच भूल गया हूँ
कि मुझे जाना कहाँ है?
_________________________

राकेश रोहित : 19 जून 1971 (जमालपुर)
कहानी, कविता एवं आलोचना में रूचि और गति
पहली कहानी "शहर में कैबरे" 'हंस' पत्रिका में प्रकाशित.
"हिंदी कहानी की रचनात्मक चिंताएं" आलोचनात्मक लेख शिनाख्त पुस्तिका एक के रूप में प्रकाशित और चर्चित..  

rkshrohit@gmail.com

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  1. कविताएँ अच्छी हैं "एक दिन" और गिलहरी वाली विशेष रूप से.. बधाई

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  2. बहुत सुन्दर कवितायेँ। इस बौखलाए हुए समय में प्रेम सहेजने की यह कोशिश खुद को कैसे खड़ा किये हुए है,यह विस्मयकारी है। बधाई और शुभकामनायें।

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  3. बहुत अच्छी कविताएं है।इस मुश्किल समय में प्रेम पर ही सबकी आशा टिकी हुई है।राकेश जी इसे सहेज कर अपनी कविताओं में बखूबी व्यक्त कर रहें है।बधाई।

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  4. Rakesh ji ki kavitain padhta rahta hun. Chaloo muhaavare se alag sapna jagaati inki kavitain prakriti se taadatmya sthapit karvaati hain. Abhyastta ko todti hain... Sabhi kavitain achchhi lgi. Bhai Rakesh ji ki Haardik Shubhkaamna !!
    - Kamal Jeet Choudhary .

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  5. शानदार रचनाएँ... बहुत बहुत बधाई

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  6. समकालीनों में राकेश मेरे पसंदीदा कवियों में से हैं | "कोलाहल में प्यार" और "विदा के लिए..." उनकी लिखी हुई कविताओं में पहले से पसंद हैं | तमाम शोरगुल के बीच जिस तरह से कविता के लिए उनका सारोकार चुपचाप अपनी जगहें बनाता जा रहा है, उसे देखकर आह्लादित होता हूँ |

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  7. बधाई । बहुत अच्छी कविताएँ ।

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  8. मगर इस उन्मुक्तता के दृश्य के बीच एक दृश्य और है जहां कवि प्रश्न करता है कि क्या यह उन्मुक्तता बची रह पाएगी ? जब वह प्रश्न करता है कि -

    दुनिया के सारे मनुष्य कहाँ गये
    कोई नहीं बताता ?
    झपक जाती हैं थकी आँखें
    और जो जानते हैं समय के पार का सच
    वे खामोश हो जाते हैं इस सवाल पर
    सुना है
    कभी- कभी वे उठकर रोते हैं आधी रात
    और अंधेरे में दिवाल से सट कर बुदबुदाते हैं
    हमें तो अब भी नहीं दिखता कोई मनुष्य
    जब नन्हीं चिड़ियों के पास फूल नहीं है
    और नहीं है फूलों के पास पीला रंग!

    किंतु कवि प्रकृति की अकूत सृजनात्मक संभावनाओं की ओर इशारा कर रहा है कि हमें आज यह जानना होगा कि :-

    इसलिए धरती पर
    जब भी मुझे दिखता है पीला फूल
    मुझे दुनिया एक जादू की तरह लगती है.
    इसलिए मैं चाहता हूँ
    सपने देखने वाली आँखों में
    दिखती रहे हमेशा फुलचुही चिड़िया
    फूलों के बीच
    ढेर सारे पीले फूलों के बीच.


    मगर वह अपनी दूसरी कविता में पुऩः यह प्रश्न कर समझाना चाहता है कि

    विकास का मतलब यह नहीं कि हम केवल तेज चलते जाएं और इस प्रक्रिया में अपनी राह से ही भटक जाएं :-
    इस सृष्टि का सबसे बड़ा भय है
    कि एक दिन सबसे तेज चलता आदमी
    भीड़ भरी सड़क के
    बीचोंबीच खड़ा होकर पुकारेगा-
    भाइयों मैं सचमुच भूल गया हूँ
    कि मुझे जाना कहाँ है?

    आज हमें वर्तमान समय में यह तो समझना ही होगा कि प्रेम का स्पर्श एक सभ्रांत जीवन का आकाँक्षी है और उसमें उछृंखलता नहीं होनी चाहिए, वह देह से परे एक अनुरागपूर्ण अनुमूति है जो जीवन के मिठास को महसूसने से ही संभव है, स्पर्श करने से उसकी यत्ता हिल जाती है, वह मन के स्पर्श में अनावृत हो सकती है पर उसके लिए गहन संवेदनात्मक अनुभूति अपेक्षित है, जहां असहजता से सब कुछ भंग हो जाता है इसलिए प्रकृतिस्थ प्रज्ञता वहां अपेक्षित है । देखिए इन पंक्तियों को :-

    सुनो इतना करना
    तुम्हारी डायरी के किसी पन्ने पर
    अगर मेरा नाम हो
    उसे फाड़ कर चिपका देना उसी पेड़ पर
    जहाँ पहली बार सांझ का रंग सिंदूरी हुआ था
    जहाँ पहली बार चिड़ियों ने गाया था
    घर जाने का गीत
    जहाँ पहली बार होठों ने जाना था
    कुछ मिठास मन के अंदर होती है.

    जीवन में यह जानना बेहद जरुरी है कि कब और कहां वह घटित हुआ जो था मन में

    जहाँ पहली बार सांझ का रंग सिंदूरी हुआ था

    विदा का गीत सही पर दिल और दिमाग सिंदूरी साँझ का बिम्ब रच रहा . अनुराग में सुहाग का यह विम्ब रागात्मकता की पूरी कहानी कह रहा है । कविता कहां हो जाती है कवि भी नहीं जानता पर राकेश की कविताओं में पुराने शब्द नए अर्थ भर जाते हैं । यही उनके सृजन की रचनाधर्मिता है ।

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  9. वह जो हर दीदार में दिखता था तेरा चेहरा
    कि खुद को देखने आईने के पास जाना पड़ता था
    और बार- बार धोने के बाद भी रह जाती थी
    चेहरे पर तुम्हारी अमिट छाप

    बढ़िया कविताएँ...

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  10. इन कविताओं में अपना एक आकर्षण है! पहली और अंतिम कविता तो बहुत अच्छी लगी| जब दुनिया में कोलाहल-ही-कोलाहल हो तब शांत और लीन पृथ्वी की कल्पना करना साथ ही कोलाहल को बरजने का विश्वास मोहक है| अंतिम कविता अपने अंतर्भाव में गहरी व्यथा को लेकर चलती है| वे बच्चे कौन हैं और कैसे हैं, जो किसी अनजान स्टेशन पर उतर पड़ने को विवश हैं? इस कविता की शुरुआत की एक पंक्ति मन में रह गयी कि लौट जाने वाले रास्ता भूले लोग हैं| विदा और पीला फूल वाली कविता भी अच्छी है| जबकि पीला फूल और चिड़िया वाली कविता में आखिर में सपने में भी मनुष्य का न होना खटकता है| पहाड़-गिलहरी वाली कविता आकर्षित करती है, किन्तु मैं इसे खोल नहीं पा रहा हूँ, यह अपनी कमी है|

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  11. *मेरी टिप्पणी का प्रथमांश न जाने कैसे हटगया है, उसे मैं देख नहीं पा रहा ब्लॉग पर अतः उसे दूबारा यहां दर्ज कर रहा हूं । इसके बाद ऊपर की टिप्पणी को जोड़ कर पढ़ा जाए :


    "सृजन एवं विध्वंस के बीच इस सकल ब्रह्माण्ड में पृथ्वी की यत्ता को पूरी प्रकृति के साथ बचाए रखने और उस पृथ्वी पर चेतन जगत का सारा संसार, प्रेम से अभिसिंचित कर, उसके चिरंतन आनंद के आस्वाद का पान करने का यत्न करने के लिए उत्प्रेऱित करती बेहद सुकुमार प्रतीमानों के साथ जीवन का जीवंत बिम्ब का निर्माण कर, यथार्थ को महसूसने की हद तक अनहद नाद करती राकेश की कविताओं की हर पंक्तियां, मन को विभोर कर देती हैं । एक ही स्वर में पढ़ लेने की ललग जगाती ये कविताएं वर्तमान समय में मनुष्य के अंदर सूख रही संवेदनाओं को सिंचित कर रही हैं । कहीं विद्रोह , कही आरोप-प्रत्यारोपकी भाषा नहीं, कोई ऐसा शब्द नहीं जो साहित्य की राजनीति से जुड़ा हो, और कोई ऐसा बिम्ब नहीं जो किसी कविता की प्रतिकृतिन हो । मौलिकता में ये कविताएं आदिम राग-विराग से जुड़ कर वर्तमान के आक्रांत विध्वंसक जीवन में सृजन का लेख हैं, प्रेम की अकथ्यता की व्यक्त ऐसी गाथा हैं - जिसे सुने और जाने बिना, मनुष्य, मनुष्य नहीं कहला सकता, देखें ये पंक्तियां :

    "सुनो इतना करना
    तुम्हारी डायरी के किसी पन्ने पर
    अगर मेरा नाम हो
    उसे फाड़ कर चिपका देना उसी पेड़ पर
    जहाँ पहली बार सांझ का रंग सिंदूरी हुआ था
    जहाँ पहली बार चिड़ियों ने गाया था
    घर जाने का गीत
    जहाँ पहली बार होठों ने जाना था
    कुछ मिठास मन के अंदर होती है.


    वहीं उसी कागज पर कोई बच्चा
    बनाए शायद कोई खरगोश
    और उसके स्पर्श को महसूसती हमारी उंगलियां
    शायद छू लें उस प्यार को
    जिसमें विदा का शब्द नहीं लिखा था हमने!"

    देह के दो पुटों ने पहली बार जाना था – कुछ मिठास मन के अंदर होती है :

    जहाँ पहली बार होठों ने जाना था
    कुछ मिठास मन के अंदर होती है.

    यह मिठास की आकाँक्षा और उसकी याचकता की अद्वितीय कविता है ।
    कवि उन आंखों में झांकता है जो समय के पार देख रही हैं - वह उन्हें देखता है ! क्यों और क्या देखता है :

    “वो आँखें जो समय के पार देखती हैं
    मैं उन आँखों में देखता हूँ.
    उसमें बेशुमार फूल खिले हैं
    पीले रंग के
    और लंबी चोंच वाली एक फुलचुही चिड़िया
    उड़ रही है बेफिक्र उन फूलों के बीच । ”

    जीवन की उन्मुक्तता के बेहद सुंदर बिम्ब एवं एक सार्थक प्रतीक - लम्बी चोंच वाली फुलचुही चिड़िया !
    उड़ रही है उन फूलों के बीच, उमुक्त हो वह फुदकती है, उसे जीवन रस मिलता है - जहां ।
    "

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  12. ऊपर की टिप्पणी में "प्रतिकृति न हो' के स्थान पर यह पढ़ें "प्रतिकृति हो". शेष तद्वत् पढ़ें ।
    प्रेषक- उदय कुमार सिंह, नवी मुंबई ।

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