प्रेम के असम्भव गल्प में : आशुतोष दुबे











‘प्रेम के असम्भव गल्प में’ कवि आशुतोष दुबे का लिखा गद्य है, उनकी कविताओं की ही तरह भाषा के सौन्दर्य और लयात्मकता से भरपूर. भाषा में लिखने की शुरुआत प्रेम पर भी लिखने की शुरुआत है.  न जाने ऐसा क्या है प्रेम में कि हर बार बात अधूरी रह जाती है. सबने लिखा. सब जगह लिखा गया फिर भी ये गलियाँ बिनपहचानी हैं, ये रास्ते नए नए से लगते हैं इसके मुसाफिरों को. फ़िराक ने ठीक ही लिखा है – ‘हज़ार बार ज़माना इधर से गुज़रा है/ नई नई सी है तेरी रहगुज़र फिर भी’.
  


प्रेम के असम्भव गल्प में                                                                    
आशुतोष दुबे



॥ एक ॥
कहन में नहीं अंटता; कहना पड़ता है. बिन कहे समझ लिया जाता है, लेकिन कहना पड़ता है. दो लोगों के बीच की हवा में जो अदृश्य है, उसे कहना पड़ता है. उसका होना उसकी कहन को साँसत में डालता है. उसका कहना उसके होने को भी बाज़ दफ़ा संकट में डालता है. मुसलसल एक मुसीबत है. एक यातना. बेचैनी. अनिश्चितता. और फिर भी कदम ज़मीन से कुछ ऊपर. प्रेम के अंतरिक्ष में यथार्थ की गुरुता के बोध का निषेध है. उसके गुरुत्वाकर्षण का प्रतिरोध. उसका अपना यथा-अर्थ है जिसकी उधेड़बुन में स्वप्न है, स्वैर-कल्पना है, धड़-धड़ है, नींद से खाली रातें हैं, एक तड़प भरी ख्वाहिश का मिस्डकॉल है, सरगोशियाँ हैं, अनायास-औचक मुस्कान है, उतनी ही औचक और बेवजह उदासी है, कुछ हो रहा है का अहसास है और उसके होने-न होने के शुबहे हैं. यह ज़मीन रपटीली है, भुरभुरी है कि यहाँ वह दलदल है जिसमें धँसते हुए जान पर बन आएगी- कहा नहीं जा सकता. पर कदमों को उठना है और ज़मीन से कुछ ऊपर चलना है. ‘सावधान, आगे ख़तरा है’ के नियोन साइन का मन में जलना-बुझना है. किसी परछाँई की बाँह थाम लेना है. लड़खड़ाने के खिलाफ जूझना है. भरोसे, डर और अचरज के रोमांचकारी सफ़र का सिन्दबाद होना है पर सिकन्दर हो पाएंगे या नहीं इस धड़के का बना रहना है. एक अनिश्चित नदी में उतरी हुई नाव में बिन पतवार डगमगाते हुए बैठ जाना है. नाव को ही खेवनहार होना है. निमिष भर को चमकी बिजली में दूर तक देख लेना है और फिर चमक के बाद के अँधेरे में लापता हो जाना है. एक अनुभूति में वास करना है जिसका अनुभव अभी एक स्वप्न है. एक शाश्वत गल्प की नागरिकता है. भरे भुवन में शब्दों की बेदख़ली है मगर संलाप-संवाद की कायमी बदस्तूर है. आँखों को ज़्यादा काम करना पड़ रहा है. बात पहुँची या नहीं इसका अन्देशा है. पहुँचना समझना है. पहुँच गई समझाना है. एक कठिन डगर  जो अभी बनाई जानी है, बनाने से पहले ही कठिन है.





॥ दो ॥
प्रेम करने वाले एक लगातार बारिश में खड़े रहते हैं. याद की बारिश में. वे न छाता ढूँढते हैं न छत. खुले में रहते हैं. खुला ख़तरनाक होता है. बारिश होती है लेकिन बिजलियाँ भी गिरती हैं.  कहते हैं, पेड़ के नीचे खड़े हो गए तो ख़तरा और बढ़ जाता है.

नहीं, संयोग नहीं यह
वियोग भी नहीं
यह श्मशान-श्रृंगार है
जिसमें विरह शोभा में दीप्त
एक शव दूसरे की प्रतीक्षा में
कातर होता है
देखो
एक पेड़ जल रहा है सामने
वह देखो
उसके नीचे
बारिश से बचने के लिए खड़े हुए हम
राख हो रहे हैं

एक उम्मीद में प्रेम आकार लेता है लेकिन नाउम्मीदी में राख नहीं होता. वह असम्भवता के बरअक्स भी उतना ही उदग्र है, जितना प्रत्याशा में. कामना है लेकिन साध्यता के गणित से बाहर. इसीलिए एक गणना-सर्वस्व समाज में प्रेमी, पागल और कवि एक पँक्ति में गिने जाते हैं. दरअसल, वे तीन अलग-अलग लोग हैं भी नहीं. प्रेम उन्हें घंघोल देता है.






॥ तीन ॥
समय में जो सूख गया प्रेम
और अब जिसकी ठीक-से याद भी नहीं रह गयी
बस मन पर उस सूखे निशान की धुंधली स्मृति भर है

प्रेम जो किताबों में दबे सूखे फूल सा नहीं
सहेज कर रखी गई उस चिट्ठी सा नहीं
जिसके पीले पड़ गए कागज़ की तहों को खोलते हुए
उसके टूटने का डर लगता है

प्रेम जो अपनी याद दिलाने से बचता है
छुपता है जो अपने आप से
जो लौ के खत्म हो जाने के बाद
धुँए की उस छोटी सी वर्तुल लकीर का अंतिम लेख है

उचट गई नींद में
अंधेरे में आंखें खोले
जो दिखाई नहीं देता
जिसका सूखा हुआ निशान मन पर उभर आता है
वही है प्रेम
जो अब नहीं है

लेकिन कुछ भी कहा नहीं जा सकता यक़ीन से






॥ चार ॥
हीरामन ने पूछा था हीराबाई से : मन समझती हैं न आप ?

रोग यहीं पर था. हीराबाई ने हीरामन का मन ही तो समझा. उसी का अनमोलपन जाना. जिस बाज़ार में वह खड़ी थी, वहाँ यह मन हीरे-सा चमकता था. जाना तो महुआ घटवारिन को सौदागर के साथ ही था. लेकिन उसका मन उस गाड़ीवान की छप्पर वाली गाड़ी में ही रह गया. हीराबाई रेल में चली गयी. लेकिन हम जानते हैं, वह हीरामन की उस बैलगाड़ी में ही बैठी रह गई. प्रेम के असम्भव गल्प में.

और इसी असम्भव गल्प से बाहर निकलने को छटपटाती हुई पार्वती जब अपने घर के बाहर पेड़ के नीचे मरते हुए देवदास के पास जाने को बाहर दौड़ी तो भुवन चौधरी ने नौकरों से हवेली के दरवाज़े बन्द करवा दिए. एक दूसरे समय में अपने कठिन दरवाज़ों को खोलकर वह आधी रात को अकेली देवदास के पास उसे अपना मन बताने आई थी. प्रेम की कहानियों में प्रेमियों को उसके लिए अप्रस्तुत रह जाने की भारी क़ीमत चुकानी पड़ती है.

और  लहनासिंह ? उसे एक अकथ प्रेम का शहीद होना था क्योंकि ‘उसने’ कहा था. कहीं कुछ नहीं था और फिर भी था. वह लड़की वह नहीं थी जिससे वह छेड़खानी में उसकी कुड़माई के बारे में पूछता था. वह भी वह नहीं था जो उसके कहने पर कि हाँ हो गई, देखते नहीं, यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू...  सड़क पर सबसे टकराते और अन्धे की उपाधि पाते किसी तरह घर पहुँचा था. प्रेम की कील में अटका चिन्दी-चिन्दी मन था जो हवा में फरफराता था. कहीं कुछ नहीं था और फिर भी था.




      
॥ पाँच ॥
वे दो हैं. दोनों के बीच आजकल एक आविष्ट हवा है. वह उसे भी छूती है, इसे भी. लेकिन पहल कौन करेगा? सारी ज़िम्मेदारी उस दरमियानी हवा की ही तो नहीं है. कहीं ऐसा न हो कि दोनों ठिठके रहें और बीच में निर्वात आ जाए.

प्यार में पहल कौन करेगा
प्रेमी एक-दूसरे की ओर देखते हैं
मौसम एक-दूसरे से हाथ मिलाते हैं
साथ चलते हैं कुछ दूर तक इसी तरह
फिर एक विदा लेता है
और इस तरह कि अपनी याद भी नहीं छोड़ता

प्रेम भी प्रतीक्षा करता है
दोनों प्रेमियों की ओर टकटकी लगाए
किसके कन्धे पर पहले किसका सिर टिकेगा

प्रेम दूरी से नहीं
देरी से डरता है
वह घटित होना चाहता है
और सिर्फ स्मृति में नहीं

इस उधेड़बुन में नहीं कि
प्यार में पहल कौन करेगा ?

वे तमाम प्रेम जो सिर्फ कल्पनाओं में घटित होकर रह गए; जिनमें शब्द कन्नी काट गए; जिनका घर सिर्फ यादों में बन पाया  अपना हिसाब माँगने किसी असावधान पल में औचक चले आते हैं. उन्हें जवाब देना मुश्किल होता है.





॥ छह ॥
प्रेम एक एकांत का द्वार खोलता है जिसमें दूसरा एकांत प्रवेश करता है. दोनों एकांत एक-दूसरे की हिफ़ाज़त करते हैं. लेकिन दोनों के बीच की दीवार घुलती रहती है. तब प्रेम का एक विस्तृत एकांत बनता है.

वह है चाहे वे न हों.
उसमें सब कुछ मधुर ही नहीं, बल्कि कोई कटु-तिक्त बीज भी है उसके भीतर जिससे कतराना मुश्किल है.

वह कुनकुनी धूप है, ठिठुरन के विरुद्ध. लेकिन उसमें जो आँच है, उसकी ताब लाना भी मुश्किल.

वह कामना का असमाप्त विन्यास है.

तृप्ति एक बार फिर
कामना को जगह देती है
कामना एक बार फिर
तृप्ति के जल में डूबती है
और फिर बाहर निकल आती है
अनाहत
कमल की तरह
उस पर पानी की जो यहाँ-वहाँ बूँदें हैं
वह तृप्ति की स्मृति है
कामना हमेशा इस स्मरण से संतप्त है


स्मरण है. मरण है. राख के ढेर में से फिर साकार होना है.  सिलसिला है. सरोवर में मन की छाया को किसी ने जकड़ लिया है. उसे मुक्त कराने के लिए मन वहाँ बार-बार लौटता है. बार-बार की कैद में.






॥ सात ॥
रोज़मर्रा के क्लेश में, संताप में, जद्दोजहद में भी वह किसी सेंध से घुस कर लड़ाई के लिए ज़रुरी जीवट की आँच अपनी अदीठ उंगलियों से ज़रा-ज़रा बढ़ा देता है.

कभी-कभी वह प्रिय से छुपने की कोशिश करता है. कभी-कभी खुद से भी.
वह परस्पर विलोमों का समवाय है. वह जितना विरुद्धों का सामंजस्य है उतना ही समानताओं का असमंजस भी.

वह अछोर आकाश है. निरवधि काल और विपुल पृथ्वी की एकांत उपस्थिति.

उसके विष से नीली पड़ रही है मन की देह. उसी में प्राण फूंकेगा वह अपनी संजीवन छुअन से.
उसके अपने उजाले हैं - अपने अंधेरे.

उसका हृदय में जगना है कि गले में टंगे एलबेट्रॉस के शव का स्वत: टूट कर गिरना है. वही है जो त्रास से त्राण तक ले जाएगा. वही भाव-उर्मि है, जो शाप का परिहार है.
उसमें होना भारहीन होना है. ढाई आखर के सा-भार जीवन में होना है.

वह प्रतीक्षा है. प्रतीक्षा की असहनीयता भी. उसकी यातना, रोमांच और आनन्द भी.

वह अनश्वरता में ओट लेते अध्यात्म पर एक गुपचुप मुस्कुराहट के साथ अपनी धुरी को उतने ही गुपचुप-पन से बदल सकता है. उसका यही कर सकना प्रेमियों को एक अन्देशे और अंतत: सकते में डाले रखता है. वह एक प्रश्नवाचक चिन्ह है जिसके पथ में न अल्प, न पूर्ण; कोई विराम आता ही नहीं.

वह अपनी कथाओं में रहता है. अलग-अलग कथा-घरों में. कविताएं उसकी खुशबू को तितलियों की तरह पकड़ने की कोशिश करती हैं. उसके सुखान्त और दुखान्त हैं मगर उसका कोई कथान्त नहीं है. कवि और कथाकार उसे बूझने की जद्दोजहद में एक बुखार में कागज़ों पर भटकते हैं. इबारतें खत्म हो जाती हैं; अर्थ फिर भी शेष रह जाते हैं.

उसके आसपास की दुनिया बदलती जाती है. उसके ढब-ढंग भी. पर उसकी ज़रुरत, उसकी तलाश, उसके लिए द्वन्द्व, उसकी प्यास कभी नहीं बदलती.वह धारा-वाहिक है लगातार.

जो प्रेम में रहने की ताब नहीं ला पाते वे भी प्रेम के अभिनय या आभास में रहने की ज़रुरत से इंकार नहीं कर पाते. अभिनय धीरे-धीरे विदा ले लेता है. वही बच रहता है जिसे मंजूर करना इतना मुश्किल रहा.
प्रेम करना मनुष्यता की बहुत पुरानी, लाइलाज, चीठी आदतों में शुमार है. जो इस संसार में कुछ भी अच्छा कर सके, इस संसार से प्यार करने के चलते ही कर सके. क्योंकि प्रेम करना अपने और दूसरों के बैठने के लिए अपने हिस्से के संसार को थोड़ा साफ-सुथरा बनाना है.


संवाद प्रेम को सींचते हैं. और इसके लिए वे हमेशा शब्दों पर निर्भर नहीं होते.






॥ आठ ॥
प्रेम कभी असफल नहीं होता. यह शब्द प्रेम के शब्दकोष में तिरस्कृत है.बल्कि वह सफलता जैसे बाज़ारु शब्दों को भी तुच्छ ही मानता है. उसकी गरिमा उसके होने में है, उसके नतीजों में नहीं.


अब तुम वहाँ हो जहाँ मैं तुम्हें देख सकता हूं
अब मैं वहाँ हूँ जहाँ से तुम मुझसे बात कर सकती हो
हम एक-दूसरे के जीवन में नहीं हैं
पर एक-दूसरे की दुनियाओं को देख सकते हैं
काँच की दीवार के पार से

जब परिभाषाओं की दस्तक दरवाज़े पर होनी ही थी
पता नहीं क्या हुआ
हम क्यों लौट गए
कभी-कभी समय अपनी गेंद को ऐसे स्पिन कर देता है
कि होने वाला अघटित रह जाता है
और अनसोचा हो कर रहता है

लेकिन हम अफसोस में नहीं, खुश हैं
और एक-दूसरे को खुश देखकर भी खुश हैं
और इसका कोई तर्क ढूंढना मुश्किल है कि ऐसा क्यों है

सच तो यह है कि हम अब और ज़्यादा बातें करते हैं
हंसते हैं, तुनकते हैं, वक़्त बिताते हैं
क्योंकि इस सबको कहीं और नहीं पहुंचना है
ज़्यादा से ज़्यादा काँच की दीवार के उस तरफ

जहाँ से तुम मुझे देख सकती हो और मैं तुम्हें
अपनी-अपनी दुनियाओं की खुशियों और झंझटों में मसरुफ
जहाँ कामना पीली पड़कर झर चुकी
और शुभकामना को हम सींच रहे हैं.

वह है तो हम हैं. उसके तिनकों से बना हुआ है हमारा घोंसला. हम यहाँ से संसार में उड़ान लेते हैं और यहीं लौटते हैं बार-बार.  वह एक ठंडी हथेली है हमारे तपते हुए सिर पर. एक स्पर्श. एक संवाद. एक दृष्टि. मन ही मन का सारा व्यापार. कभी-कभी वह भी किसी स्वप्न में ही. कोई स्मृति भर. दरअसल कहीं नहीं. दरअसल यहीं कहीं. वह दरअसल और तसव्वुर के बीच की सरहद पर दोनों तरफ तस्करी करने वाला अय्यार है.




॥ नौ ॥
प्रेम इतना नामाकूल है कि अंतत: वह ऐसी तमाम सूक्तियों, सुभाषितों और वाक्यों से चुपके से निकल भागता है. वे बेचारे हक्के-बक्के से फिर उसके पीछे-पीछे भागते हैं. हाँफते हुए, थक कर कागज़ों पर टूट कर बिखरते-गिरते हुए. ज़रा दम लेकर फिर उस छलिए के पीछे दौड़ते हुए. यह एक हारी हुई होड़ है.  लेकिन सच यह भी है कि प्रेम के असम्भव गल्प में प्रवेश करने के लिए हार और जीत जैसे शब्दों को अपनी ग्लानि और अपने गुरुर को जूतों की तरह बाहर उतार कर आना पड़ता है.

(फ़िल्म- चित्र 'एक दूजे के लिए' से )

 

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आशुतोष दुबे (1963)
कविता संग्रह : चोर दरवाज़े से, असम्भव सारांश, यक़ीन की आयतें
कविताओं के अनुवाद कुछ भारतीय भाषाओं के अलावा अंग्रेजी और जर्मन में भी.
अ.भा. माखनलाल चतुर्वेदी पुरस्कार, केदार सम्मान, रज़ा पुरस्कार और वागीश्वरी पुरस्कार.
अनुवाद और आलोचना में भी रुचि./ अंग्रेजी का अध्यापन.
सम्पर्क: 6, जानकीनगर एक्सटेन्शन,इन्दौर - 452001 ( म.प्र.)
ई मेल: ashudubey63@gmail.com/098263 70577

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  1. हाँ, अपनी ग्लानि और अपने गुरूर को जूतों की तरह बाहर निकाल कर आना पड़ता है।
    हाँ, शुभकामनाओं को हम सींच रहे हैं।
    हाँ, उसने कहा था, देखते नहीं यह रेशम से कढ़ा हुआ सालू

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  2. bahut achchha... you made my day...

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  3. प्रेम के रसिया प्रेमी कब शब्दबद्ध हो सके हैं वो तो प्रेम की चादर ही ओढ़ते और बिछाते हैं और कब प्रेम हो जाते हैं पता ही नहीं चलता ........

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  4. ·
    प्रेम का अद्भुत विश्लेषण

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  5. और क्या कहूं....... जियो भाई।

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  6. "संवाद प्रेम को सींचते है और इसके लिए वे हमेशा शब्दों पर निर्भर नहीं होते"...बेहतरीन लेख । बधाई आशुतोष जी..

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  7. निःशब्द... इससे मैं कुछ ओर नहीं कह सकता।

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  8. यह भी असंभवता की ही शिल्प है जिसे साधना से ही साधना होता है। हम तो आशुतोष की अनेक सायं सायं करने वाली कविताओं के बीच उस कविता के मुरीद हैं जो एकांत केे विलयन की धीरज से प्रतीक्षा करती है और जब यह एकांत सृजित होता है यानी उस एक काा अंत भी होता है जिसकी उपस्थिति एक कागज की आवाज की तरह भी एकांत में खलल डालती है, तब शायद एक सुकूनदेह एकांत सुलभ होता है। प्रेम में बहुधा ऐसा एकांत दुर्लभ होता है। इस कोलाहल भरे समय में आज ऐसे एकांत की टोह लेने वाले यज्ञविध्वंसक तत्व भी हैं, इसलिए प्रेम एक असंभवता का नाम है। अचरज नही कि कुंवर नारायण तक तभी इसे एक यूटोपिया मानते हैं। आदर्श प्रेम को एक सपना भर। यह उस दुर्लभता का पर्याय है जिसे आशुतोष असंभवता का गल्प कहते हैं।
    हमारी बेख़बरी में
    हमारे एकान्त इतने क़रीब आ गए
    कि हम ज़रा-ज़रा एक-दूसरे के एकान्त में भी आने-जाने लगे
    इस तरह हमने अपने सुनसान को डरावना हो जाने से रोका
    निपटता की बेचारगी से ख़ुद को बचाया
    और नितान्त के भव्य स्थापत्य को दूर से सलाम किया
    दोनों के एकान्त की अलबत्ता हिफाज़त की दोनों ने
    उनके बीच की दीवार घुलती रही धीरे-धीरे
    फिर एक साझा घर हो गया एकान्त का
    उसकी खिड़कियों से दुनिया का एकान्त दिखता था
    हम टहलते हुए उस तरफ भी निकल जाते हैं अक्सर
    ताज्जुब से देखते हुए
    कितने एकान्तों की दीवारें विसर्जित होती हैं लगातार
    तब कहीं संसार का एकान्त होता है

    एक आवाज़ की ओस भीगी उंगलियों से छुआ गया यह कवि भी यह महसूस करता है कि
    उसकी देह में रखे हैं मेरे पंख
    मेरी देह उसके स्पर्श का घर है.

    आशुतोष दुबे की कविताएं जीवन को बारीकियों में देखती हैं। वे उस स्वप्न को ताउम्र सहेजे रखना चाहती हैं जो एकांत की नीेदों में कौंधते हैं और हमारे पूूरेे जीवन को स्वप्नमय बनाए रखते हैं।
    कविताएं एक मखमली अहसास से भरी हैं,
    जिसेे शब्द देने के लिए आशुतोष को हार्दिक बधाई।
    वे हिंदी के कुछ इने गिने अधेड़ होते युवा कवियों में हैं।

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  9. आह! प्रेम इतने संदर रूप में!!!

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  10. प्रेम के घेरे से निकलना असंभव है। ताऊम्र बांधे रखता है। हर पल समय सा आभासित उसका होना हमारे होने का पर्याय बन जाता है। निश्चित रूप से बेहद उम्दा प्रेम निरूपण।

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