सहजि सहजि गुन रमैं : प्रदीप मिश्र














‘क्या अँधेरे वक्त में
गीत गाये जायेंगे
हाँ, अँधेरे के बारे में
गीत गाये जायेंगे.’ 
(बर्तोल्त ब्रेख्त)


साहित्यकार अपनी रचनाओं के द्वारा सतत संघर्ष में है, गाहे–ब-गाहे प्रतिपक्ष के अन्य मोर्चों पर भी सक्रिय होता है. 
वह संकेत करता है, सचेत करता है, सावधान करता है. वह यह सब इसलिए करता है कि वह समाज का संवेदनशील हिस्सा है, वह यह ज़िम्मेदारी सदियों से उठाता आया है. 
कबीर के शब्दों में कहें तो –‘ बिबेक बिचार भरौं तन’ हालाकिं उसे अक्सर यह लगता है – ‘संतों ई मुरदन के गाँव’.

इस निराशा में भी वह ‘बीज बन कर बिखरने’ की कामना करता है. अँधेरे से जूझती प्रदीप मिश्र की कविताएँ





प्रदीप मिश्र की कविताएँ                          


लौटा रहा हूँ अपना ही अपनों को


शब्दों को निचोड़ता हूँ
टपकता है समय का विचलित पसीना
भावों को धौंस देता हूँ
आँसू ढुलकने लगते हैं
संस्कृति के गालों पर
मन को समझाता हूँ
थोड़ा और बर्दास्त कर ले
गुर्राते हुए पूछता है
कितना  और कब तक

एक दिन सुबह
क्षितिज पर चमकते हुए सूर्य के बावजूद
बनी रहती है गहरी अंधेरी रात
और नीला पड़ जाता है
मेरा सर्जक

विद्रोह कर देते हैं शब्द
अकड़ कर खड़े हो जाते हैं भाव
अनसन पर बैठ जाता है मन

फिर भी तुम आदेश देते हो
कहूँ अच्छा-सुन्दर-वाह
मैं भाट
मैं चारण

नहीं मैं एक कवि
शब्द मेरी हड्डियाँ
भाव प्राण
और मन ऊर्जा
इनके बिना मैं कुछ भी नहीं
और भाट-चारण तो कदापि नहीं

इसलिए लौटा रहा हूँ
अपना ही
अपनों को
इस काली रात जैसी सुबह के खिलाफ़.





स्वयं को ख़ारिज करता हूँ

सुनों मैं इतना नृशंस नहीं
जो तुमको गोली मार दूं
मुल्ला मौलवी भी नहीं हूँ
जो जारी कर दूँ फतवा
सत्ता के गलियारे में मेरी जगह नहीं है
जिसकी चमक से अंधा कर दूँ
सारे मनुष्यों को और तुम्हारा महिमागान करूँ
आतंकी या आतातायी भी नहीं कि
संवेदनाओं की लाश पर खड़े हो कर
अच्छे दिनों की बात करूँ

हमारे इस वक्त में
मनुष्यता कराह रही है दर्द से
मंजर बर्दास्त बाहर है
इसलिए मैं स्वंय को खारिज कर रहा हूँ

एक कवि हूँ
हर बार
स्वयं को ही ख़ारिज करता हूँ
मनुष्यता के पक्ष में.





मैं एक रचनाकार
(एक)

मैं एक रचनाकार
मेरे पास सिर्फ मेरा वजूद
जिसमें शामिल सब मेरे अपने
मेरे अपने मेरी ताकत

तुम एक राजनीतिज्ञ
तुम्हारा लक्ष्य सिंहासन
सिंहासन को चाहिए प्रजा
प्रजा यानि मैं और मेरे अपने

तुमने एक चमक भर दिया मेरे वजूद में
इस चमक में चौंधियाया फिरता रहा मैं
देश-गांव-जवार
और तुम्हारे कोड़ों से छिलती रही
मेरे अपनों की पीठ

अपनों का दर्द
अपनों तक पहुँचता ही है
और मैं बिलबिलाने लगा दर्द से
देखा मेरी वजूद में
सिर्फ चमक बची है
चमक यानि दुम हिलाने की आदत

मैं अपने इस वजूद को
को लौटा रहा हूँ तुमको
और स्वतंत्र हो रहा हूँ
दुम से

मेरी स्वतंत्रता
मनुष्ता से भरे समाज में
लौटना है

जहां खड़ा होकर चिल्लाउंगा
नहीं...बस अब और नहीं
और भर भरा कर ढह जायेगा
तुम्हारा सिंहासन और राजमहल.




(दो) 
मैं गोली नहीं चलाऊंगा
बम भी नहीं फाड़ूँगा
ना ही करूँगा कोई ध्वंस 
लेकिन तुम बौखला जाओगे
अपने कुत्तों को छोड़ दोगे मुझ पर
शताब्दियों से यही करते आए हो

नोंचा-खसोटा जाता रहूँगा
और लौटाता रहूँगा सारे सम्मान और पुरस्कार
जिनपर तुम्हारी सत्ता की मुहर है

सावधान शहंशाह
मैं लौटा रहा हूँ
वह सब कुछ जो तुमको सुरक्षित करता है

मैंने बचा लिया है
उम्मीद को फांसी के फंदे से
बचाकर रख दिया है
शब्दों के बंकर में
भावों की खोह बनाकर
जिसकी पहरेदारी कर रही है संवेदना
रचनाकार यही करता है
हर बार

अब मैं फूटकर बिखर जाऊँगा
बीजों की तरह

बीज बनकर बिखर रहा हूँ
शहंशाह
रोक सको तो रोक लो

मेरी फसल को लहलहाने से.

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प्रदीप मिश्र 
कविता संग्रह फिर कभी (1995) तथा उम्मीद(2015), वैज्ञानिक उपन्यास अन्तरिक्ष नगर (2001) तथा बाल उपन्यास मुट्ठी में किस्मत (2009) प्रकाशित. परमाणु ऊर्जा विभाग के राजा रामान्ना प्रगत प्रौद्योगिकी केन्द्र, इन्दौर में वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर कार्यरत.
ईमेल – mishra508@gmail.com /०९१-७३१-२४८५३२७


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