सोशल मीडिया से आज आप इंकार नहीं कर सकते, फेसबुक-वाट्सअप आदि से मध्यवर्ग का अब लगभग
रोज का सम्बन्ध है. इस पर बनती-बिगडती मित्रताओं से भी सभी परिचित हैं. साहित्य में
इसे लेकर कविताएँ- कहानियाँ लिखीं जा रही हैं.
यहाँ तीन कवितायेँ इस से सम्बन्धित हैं. शेष चार कवितायेँ इस डिजिटल
लोकवृत्त के बाहर घटित होती हैं. जहाँ दूसरे तरह की यातना है. भूख, नींद और सपने
हैं.
दोनों में अंतर है तो समानताएं भी. आखिरकार आभासी भी किसी वास्तविकता का ही
आभास देता है.
हरे प्रकाश उपाध्याय की कवितायेँ
फेसबुक
दोस्त चार हज़ार नौ सौ सतासी थे
पर अकेलापन भी कम न था
वहीं खड़ा था साथ में
दोस्त दूर थे
शायद बहुत दूर थे
ऐसा कि रोने-हँसने पर
अकेलापन ही पूछता था क्या हुआ
दोस्त दूर से हलो, हाय करते थे
बस स्माइली भेजते थे....
अमित्रता
आज कुछ मित्रों को अमित्र बनाया
यह काम पूरी मेहनत व समझदारी से
किया
ज़रूरी काम की तरह
ज़िंदगी में ज़रूरी है मित्रताएं
तो अमित्रता भी गैरज़रूरी नहीं
जो अमित्र हुए
हो सकता है वे मित्रों से बेहतर
हों
मेरी शुभकामना है कि वे और थोड़ा
सा बेहतर हों
किसी मित्र के काम आएं
इतना कि अगली बार जब कोई उन्हें
अमित्र बनाने की सोचे
तो उसकी आत्मा उनकी रक्षा करे
तब तक मेरी यह प्रार्थना है
अमित्रों का दिल
उनके दल से मेरी रक्षा करे
अमित्र उन संभावनाओं की तरह हैं
जिन्हें अभी पकना है
जिनका मित्र मुझे फिर से बनना
है
आत्मीयता
दिल्ली भोपाल लखनऊ पटना धनबाद
से बुलाते हैं दोस्त
फोन पर बार-बार
अरे यार आओ तो कभी एक बार
जमेगी महफ़िल रात भर
सुबह तान कर सोएंगे
शाम घूमेंगे शहर तुम्हारे साथ
सिगरेट के छल्ले बनाएंगे
आओ तो यार आओ तो यार
बार-बार का इसरार
बार-बार लुभाता है
दफ़्तर घर पड़ोस अपने शहर अपने
परिवार को झटक कर
बड़े गुमान से सुनाता हूँ
टिकट कटाता हूँ
दोस्तों के शहर में पहुँचकर फोन
मिलाता हूँ
दोस्त व्यस्त है
ज़रूरी आ गया है काम
कहता है होटल में रूको या घर आ
जाओ
खाओ पीओ मौज़ मनाओ
मुझे तो निपटाने हैं काम
अर्ज़ेंट बहुत
अगली बार आओ तो धूम मचाते हैं
सारी कोर-कसर निभाते हैं
लौटकर वापस फेसबुक पर लिखता हूँ
शिकायत
कुछ दोस्त उसे लाइक कर देते हैं
कुछ स्माइली बना देते हैं
कुछ देते हैं प्रतिक्रिया-
हाहाहा...
रंग
कई बार चीज़ों को हम
उनके रंगों से याद रखते हैं
रंगों को कई बार हम
रंग की तरह नहीं फूल, चिड़िया या स्त्री की तरह देखते हैं
रंगों की दुनिया इतनी विविध
इतनी विशाल, इतनी रोचक
कि कई बार हमें लगा है
कि हम आदमी से नहीं रंगों से
करते हैं प्यार
रंगों से ही नफ़रत
कुछ रंग इतने प्यारे
कि हम हम उन्हें पोशाक की तरह
पहनना चाहते हैं
कुछ लोगों की कुछ रंगों से नफ़रत
भी ऐसी ही
हम हर रंग को फूल की तरह देखें
अपने पसंदीदा फूल की तरह
तो कम हो कुछ रंग भेद- मुझे ऐसा
लगता है
कि रंग को हम सि़र्फ फूल की तरह
देखें
तो हर रंग से हो जाए धीरे-धीरे
प्यार
ढेर सारे रंगों से कर-करके
प्यार
बनाया जाये एक विविधवर्णी
संसार...
भ्रम
देर रात टीसता है दर्द कहीं
आप बेचैन हो उठते हैं
रात इतनी गयी
कौन मिलेगा
कैसे आराम मिलेगा
आप विवश हैं ताला मारकर चला गया
है मुहल्ले का दवा वाला
करवट बदलते आहें भरते बीतती है
रात
पहर भर भोर के पहले आती है नींद
नींद में सपने में जूता पहनकर
निकल लेते हैं आप
सारी दुकानें खुली हैं
दवा वाला कर रहा है आपका इंतज़ार
आपका हो जाता है काम
सुबह नींद टूटती है
आपको लगता है पहले से कुछ
आराम...
जबकि दर्द अभी कुनमुना रहा
है...
खयाली पुलाव
न बर्तन है न ईंधन है
न राशन न पानी
आओ खयाली पुलाव पकाते हैं...
खयाली पुलाव से पेट कैसे भरेगा?
न भरेगा पेट न सही
कम-से-कम दिल तो बहल जाएगा...
सपना
नींद आएगी, तो सपने आएंगे
कहा माँ ने बच्चे से
पता नहीं माँ ने ऐसा क्या सोचकर
कहा
पर कहा माँ ने ऐसा
तो बच्चे को अच्छा लगा
बच्चा नींद से पहले सपने के
बारे में सोचता रहा
सपने में एक गेंद होती
या एक गुलाब ही होता तो कितना
अच्छा होता
बच्चे ने सोचा
बच्चे ने गेंद के बारे में
सोचते हुए
उस दु:ख के बारे में सोचा
जो गेंद न होने की वजह से उसे
सहना पड़ता है
बच्चा दु:ख के बारे में सोचते
हुए
स्कूल चला गया
स्कूल में गुलाब का फूल खिला था
बच्चा गुलाब के बारे में सोचते
हुए
मुस्कराया
बच्चे ने गुलाब का फूल तोड़ लिया
और माली से मार खाया
बच्चा मार खाने से नहीं
मारे खाने के बारे में सोचने से
उदास हो गया
वह उदासी में अवसाद में नींद
में समा गया
पता नहीं नींद में उसने क्या सोचा
क्या देखा
सपना देखा कि क्या देखा...।
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जीवंत, सरल, सहज कविताएँ हरे जी . आपके लिए स्माइलीज़ :)
जवाब देंहटाएंइन कविताओं को लिखते हुए आपको यकीनन अपने प्रिय सम्पादकों,प्राप्त पुरस्कारों,अपने साथ खड़ी संस्थानिक गैंगों का आत्मविश्वास रहा होगा..इसलिए पूरी बेप्रवाही से आपने न केवल इन कविताओं को लिखा वरन समालोचन ने इसे छाप दिया | इतिहास को इसे संजोने का स्वर्णिम अवसर देने के लिए अरुण देव जी और हरे प्रकाश जी को इस साहसिक कविता लेखन के शिल्प विकसित करने के लिए मैं आप दोनों का तहे दिल से आभारी हूँ |
जवाब देंहटाएंरे प्रकाश उपाध्याय की कविताएँ पढ कर लगा कि वे फेसबुक के बारे में कुछ वैसा ही सोचते हैं जैसा मैं सोचता हूँ । कविताओं के लिए उपाध्याय को बधाई और अरुण जी को धन्यवाद । वे हीरे खोज ही लेते हैं ।
जवाब देंहटाएंइमानदार कविताएँ ..यदि किसी मासूम बच्चे से पूछा जाये इस समय में वह क्या सोचता है तो उत्तर ये कविताएँ होंगी. शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंहरेप्रकाश उपाध्याय उन कवियों में हैं जिनकी चेतना का निर्माण 20वीं और 21वीं शताब्दी के संधि विंदु पर हुई बदलावपूर्ण स्थितियों में हुआ । जिसमे सामाजिक-राजनैतिक परिस्थितयों के साथ सोशल नेटवर्किंग साइडस का भी महत्वपूर्ण योगदान है । समालोचना ब्लॉग पर प्रकाशित कवि की कवितायें सोशल साइड्स पर बन रही दुनिया की कवितायेँ हैं सपना कविता को छोड़कर ।सपना कविता एक ऐसी कविता है जो हरेप्रकाश उपाध्याय की कविताओ में मुझे बेहद पसंद है । इस कविता को पढ़ते हुए मुझे राजेश जोशी की दो कवितायेँ 'बच्चे काम पर जा रहे हैं'और 'गेंद खेलते बच्चे' बराबर याद आती रही । बच्चों का बचपन किस तरह गायब होता जा रहा है इसे कवि रेखांकित करता है । इसी के साथ साइबर संसार ने जो एक दुनिया बनाई है उसपर हरे भाई लोभते नही हैं बल्कि उसकी विसंगतियों की ओर हमारा ध्यान दिलाते हैं ।हरेप्रकाश की कविताओं को पढ़ना एक नए जीवनानुभवो से गुजरने जैसा होता है
जवाब देंहटाएंपता नहीं नींद में उसने क्या सोचा
जवाब देंहटाएंक्या देखा
सपना देखा कि
क्या देखा ....... कितना कुछ कह गयी यह कविता इस अनकहे में ...
रंग कविता का ख्याल मेरा ख्याल है ..मेरे ख्याल सी कविता अच्छी लगी क्यूंकि मैं भी दुनियां की विविधता को हमेशा रंगबिरंगे फूलों की तरह देखती हूँ | आत्मीयता , भ्रम अच्छी कविता लगीं ..फेसबुक, फेसबुक के कटु सत्य को उजागर करती है ... नयी दुनियां के नयें रंगों की कविताएं ..धन्यवाद समालोचन
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