सहजि सहजि गुन रमैं : सिद्धांत मोहन











सिद्धांत मोहन की कविताएँ यत्र-तत्र प्रकाशित हुई हैं. हर कवि अपनी संवेदना और शैली लेकर आता है, यही नव्यता उसकी पहचान बनती है. सिद्धांत की इन कविताओं को देखते हुए यह पता चलता है कि कवि समकालीन कविता-रूढ़ि में कुछ तोड़–फोड़ कर रहा है. वह कुछ ऐसा अभिव्यक्त कर रहा है जो अब तक अदेखा है. कहीं कहरवा की लय मनुष्यता की लय है, तो दीवार रास्ते का आमन्त्रण है. ऐसे तमाम प्रसंग कविता में कायांतरण करते हैं.  


सिद्धांत मोहन की कविताएँ                 



कहरवा

सरल होने का अभिनय करते हुए
सरलतम रूप में स्थापित कहरवा हमेशा
हमारे बीच उपस्थित होता है
जिसकी उठान मैनें पहली दफ़ा सुनी थी
तो पाया कि युद्ध का बिगुल बज चुका है
तिरकिट तकतिर किटतक धा
मज़बूत हाथ
इसके मदमस्त संस्करण को जन्म देता है
उम्र में आठ मात्रा बड़ा भाई तीनताल
मटकी लेकर चलने और मटक कर चलने जैसे
तमाम फूहड़ दृश्यों को समझाता है

मटकी लेकर तेज़ी से भागने
पहाड़ों को तोड़कर निकल जाने
नदियों का रास्ता रोकने की क्रिया में
बजा कहरवा

कहरवा पत्थरों के टूटने की आवाज़ है

मिट्टी, पत्थर, पेड़, शहर, गांव
राम-रवन्ना, अल्ला-मुल्ला
सभी कहरवा बजाते हैं
पहाड़ी-तिक्काड़ी और खेती-बाड़ी
सभी की आवाज़ों में कहरवा खनकता है

कहरवा की दृश्य अनुकृति
घड़े होते हैं
कहरवा खुशदिल तो नहीं है लेकिन दुःख में भी नहीं
हमेशा अनमनेपन के लापरवाह पराक्रम से
कहरवा की आवाज़ निकलकर आती है

कई चीज़ें कहरवा बनने के लिए बनीं
और बजने के लिए भी
जब नाल या ढोलक बने
तो कहरवा ही बजा उन पर

तबले पर कहरवा बज ही नहीं सका
आज भी दालमंडी में कहरवा ही सुनाई देता है
जो तीनताल और दादरा की अनुगूंजों में व्याप्त है

कहरवा. तुम तो इन्सान हो
कई रूपों में बजा करते हो.




नशा

छूट बहुत ली है तुमने
कहते रहे लोग कि लड़का कोई नशा नहीं करता
और तुम अपनी औकात से बाहर की सिगरेट पीना शुरू कर चुके थे
और कुछ हद तक औकात से बाहर जाने वाली दारू भी

एक दोस्त को कहा
कब तक मुसलमान बनते फिरोगे
कभी तो काफ़िर बनो
तो उसने पहली दफ़ा रेड वाइन चखी

एक और दोस्त से कहा कि सुपारी खा लो
तो वह डराने लगा और कहा
कि उसके फूफा माउथ कैंसर से मरे थे

छूट को और विस्तार दिया जाए
तो कहना होगा कि इन सारे के बीच तुम थे
जो किसी बहाने-बहकावे में नहीं
अपने ज़मीर को विदा करने के लिए नशामंद हुए थे.






छिनरा घोषित होने की रवायत

कहा था किसी भले ने
नहीं मिला पाता जो नज़र
वो ‘छिनरा’ होता है
और नहीं होता अपने सर्वविदित बाप का वीर्यांश

ज़रूरी है आपसे पूछना
क्या आप भी नहीं मिला पाते नज़र
क्या आप नज़र मिलाने की बात को
“मैं तवज्ज़ो नहीं देता” – कहकर
टाल जाते हैं, मेरी तरह
या आप थोड़े गम्भीर हो जाते हैं इस प्रश्न पर

जब तक आपका जवाब आए
सिर्फ़ तब तक
भला हो शत-प्रतिशत मानव जाति का
जो किसी न किसी से नज़र मिलाने से हमेशा
कहीं न कहीं ज़रूर बचती रहती है.





छुटकारा

हर उस चीज़ से छुटकारा पाना ज़रूरी है
जो ‘इस समय में’ से शुरू होती है
लिखने में सबसे अधिक
बोलने में उससे थोड़ा और अधिक

इनसे ऐसे छुटकारा पाने की कोशिश करो
जैसे ये प्रेत हों
चेष्टा वैसी ही रखो जैसे अब लेखक ‘स्मृति’ से बचने के लिए करते हैं
और अपनी कमबख्त आवाज़ को ‘बुलंद’ होने से ऐसे बचाओ
जैसे कविता दुनिया बचाती है.



बारिश

बारिश के बाद की कल्पना ध्यान में रखते हुए भी
हम उसे नज़रंदाज़ करते हैं
पहले की बात तो बस यही है
कि बारिश
अपने-अपने परवरदीगार का पेशाब है.





दीवार

सभी रास्तों को तभी से बंद मानते आ रहे थे
जब तक हमने पहली बार रास्ते में पड़ने वाली दीवार न देख ली

आप एक पुराने तरीके से सोचने लगे होंगे
कि दीवार दिखने के पहले ही महाशय रास्तों को यदि बंद समझने लगे थे
तो क्या दीवार दिखने के बाद दीवार को दरवाज़ा समझने लगे होंगे?

इस सोच के साथ खत्म होने वाले लोगों को मेरी आखिरी विदाई
अभी से ही

जो अभी भी उधेड़बुन में हैं
वे यह जान लें और सभी सम्भव तरीकों से दर्ज़ कर लें
कि हम दीवारों को कुछ नहीं मानते
हमारे लिए अंतहीन रास्ते दीवारों का पर्याय बनते हैं
और दीवार के नाम पर
मैं
एक अट्टहास के साथ
उसका टूटना लिखता हूं.

______________________________________
सिद्धान्त मोहन 
बनारस में पैदाईश.
पत्रकार, लेखक, वैज्ञानिक  

9/Post a Comment/Comments

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  1. उम्दा, काफी अच्छी उलट पुलट नजरियों की और सोच ..अपने में अलग सी कवितायें
    छिनरा घोषित होने की रवायत, छुटकारा, दीवा,र नशा अच्छी लगी

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  2. तिरकिट तकतिर किटतक धा..'कहरवा' पर व्योमेश जी की एक कविता याद हो आई. मंगलेश जी की रागों पर कविताएँ मन दोहरा गया. दीवारें कवियों का प्रिय विषय रही हैं. द मेंडिंग वॉल मुझे प्रस्थान बिंदु की तरह लगती है, कोई भी दीवार पर लिखी कविता मुझे रोबर्ट फ्रॉस्ट तक ले जाती है.
    नयी कहन की कविताएँ हैं. श्रम और बार-बार पढ़ने की मांग करती हैं.

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  3. दीवार कविता बहुत अच्छी लगी

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  4. वाह कविताओं में भी वही अक्खड़पन वही मिजाज मजा आ गया गुरु

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  5. ...और अपनी कमबख्त आवाज़ को
    बुलंद होने से ऐसे बचाओ
    जैसे
    कविता दुनिया बचाती है

    सिद्धांत मोहन की कवितायेँ मुझे कई कारणों से अच्छी लगीं।सभी कवितायें अलग अलग हैं मतलब उनसे कोई प्रेडिक्टेबल सा पैटर्न नहीं बन रहा जिससे हर अगली पंक्ति को पढ़ने का मन होता है।कहने और चुनने के ढंग में कवि पर कोई दबाव काम करता नहीं दिख रहा है और वह अपनी स्मृति और तिक्तता और आश्वस्ति को मनचाहे ढंग से सामने रख पा रहा है।बहुत बधाई

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  6. एक अ्टटहास के साथ उसका टूटना लिखता हूूं----यहां अाकर मन रम गया।

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  7. कुछ तो ता़ज़गी दिखी, बनारसी ठसक के साथ, वरना आजकल कविता पढ़ने का मन नहीं करता है।

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  8. अंतहीन रास्ते दीवारों का पर्याय बनते हैं, और दीवारों के नाम पर----बहुत ही उम्दा

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