पेंटिग : Abir Karmakar (Room)
प्रारम्भ से ही पहचाने और रेखांकित किये गए पंकज चतुर्वेदी, हिंदी कविता के समकालीन परिदृश्य में अपनी कविता के औदात्य के साथ पिछले एक दशक से उपस्थित हैं, हाल ही में उनका तीसरा कविता संग्रह प्रकाशित हुआ है. उनकी कविताओं की मार्मिकता विमोहित करती है और मन्तव्य बेचैन. अक्सर कविताएँ किसी सहज से लगने वाले प्रकरण से शुरू होती हैं और सामाजिक विद्रूपताओं पर चोट करती संवेदना तक पहुंच जाती हैं, उनमें (कई कविताओं में) एक व्यंग्यात्मक भंगिमा रहती है और वे नाटकीय ढंग से कई बार अर्थ को प्राप्त होती हैं.
इस संग्रह से शीर्षक कविता और साथ में कुछ
कवितायेँ.
पंकज चतुर्वेदी
की कवितायेँ
उम्मीद
जिसकी आँख में
आँसू है
उससे मुझे हमेशा
उम्मीद है.
आते हैं
जाते हुए उसने
कहा
कि आते हैं
तभी मुझे दिखा
सुबह के आसमान
में
हँसिये के आकार
का चन्द्रमा
जैसे वह जाते
हुए कह रहा हो
कि आते हैं.
प्रिय कहना
प्रिय कहना
कितना कठिन था
तुम्हें चाह
सकूँ
चाहने में कोई
अड़चन न हो
और तुम भी उसे
समझ सको
शब्द का
तभी कोई मतलब था
प्रिय कहना
कितना कठिन था.
यह एक बात है
लेटे हुए आदमी
से
बैठा हुआ आदमी
बेहतर है
बैठे हुए आदमी
से
खड़ा हुआ
खड़े हुए आदमी
से
चलता हुआ
किताब में डूबे
हुए
ख़ुदबीन से
संवाद में शामिल
मनुष्य
बेहतर है
संवाद में शामिल
इंसान से
संवाद के
साथ-साथ
कुछ और भी करता
हुआ
इंसान बेहतर है
यह एक बात है
जो मैंने अपने
बच्चे से
उसके जन्म के
पहले साल में
सीखी.
मैं तुम्हें इस तरह चाहूँ
तुम आयीं
थकान और अवसाद
से चूर
एक हार का निशान
था
तुम्हारे चेहरे
पर
वह तुम्हारी
करुणा
उसका क्या उपचार
है
मेरे पास ?
और वह आक्रोश
जो मुझपर सिर्फ़
इसलिए है
क्योंकि मैं हूँ
कोई बुहार दे इन
रास्तों को
तुम्हारे लिए
अगर तुम्हारी
ख़ुशी में
मेरे होने का
कोई दाग़ भी है
मैं तुम्हें इस
तरह चाहूँ
कि तुम्हारी
चाहतों को भी
चाह सकूँ.
जाति के लिए
ईश्वर सिंह के
उपन्यास पर
राजधानी में गोष्ठी
हुई
कहते हैं कि
बोलनेवालों में
उपन्यास के
समर्थक सब सिंह थे
और विरोधी
ब्राह्मण
सुबह उठा तो
अख़बार के
मुखपृष्ठ पर
विज्ञापन था:
‘अमर सिंह को
बचायें’
और यह अपील
करनेवाले
सांसद और विधायक
क्षत्रिय थे
मैं समझ नहीं
पाया
अमर सिंह एक
मनुष्य हैं
तो उन्हें क्षत्रिय
ही क्यों बचायेंगे ?
दोपहर में
एक पत्रिका
ख़रीद लाया
उसमें कायस्थ
महासभा के
भव्य सम्मेलन की
ख़बर थी
देश के विकास
में
कायस्थों के
योगदान का ब्योरा
और आरक्षण की
माँग
मुझे लगा
योगदान
करनेवालों की
जाति मालूम करो
और फिर लड़ो
उनके लिए नहीं
जाति के लिए
शाम को मैं
मशहूर कथाकार
गिरिराज किशोर
के घर गया
मैंने पूछा: देश
का क्या होगा ?
उन्होंने कहा:
देश का अब
कुछ नहीं हो
सकता
फिर वे बोले:
अभी
वैश्य महासभा
वाले आये थे
कह रहे थे - आप
हमारे
सम्मेलन में
चलिए.
रक्तचाप
रक्तचाप जीवित
रहने का दबाव है
या जीवन के
विशृंखलित होने का ?
वह ख़ून जो बहता
है
दिमाग़ की नसों
में
एक प्रगाढ़ द्रव
की तरह
किसी मुश्किल
घड़ी में उतरता है
सीने और बाँहों
को
भारी करता हुआ
यह एक अदृश्य
हमला है
तुम्हारे
स्नायु-तंत्र पर
जैसे कोई दिल को
भींचता है
और तुम अचरज से
देखते हो
अपनी क़मीज़ को
सही-सलामत
रक्तचाप बंद
संरचना वाली जगहों में--
चाहे वे
वातानुकूलित ही क्यों न हों--
साँस लेने की
छटपटाहट है
वह इस बात की
ताकीद है
कि आदमी को जब
कहीं राहत न मिल रही हो
तब उसे बहुत
सारी आक्सीजन चाहिए
अब तुम चाहो तो
डाक्टर की बतायी
गोली से
फ़ौरी तसल्ली पा
सकते हो
नहीं तो चलती
गाड़ी से कूद सकते हो
पागल हो सकते हो
या दिल के दौरे
के शिकार
या कुछ नहीं तो
यह तो सोचोगे ही
कि अभी-अभी जो
दोस्त तुम्हें विदा करके गया है
उससे पता नहीं
फिर मुलाक़ात होगी या नहीं
रक्तचाप के
नतीजे में
तुम्हारे साथ
क्या होगा
यह इस पर निर्भर
है
कि तुम्हारे
वजूद का कौन-सा हिस्सा
सबसे कमज़ोर है
तुम कितना सह
सकते हो
इससे तय होती है
तुम्हारे जीवन
की मियाद
सोनभद्र के एक
सज्जन ने बताया--
(जो वहाँ की
नगरपालिका के पहले चेयरमैन थे
और हर साल
निराला का काव्यपाठ कराते रहे
जब तक निराला जीवित
रहे)--
रक्तचाप अपने
में कोई रोग नहीं है
बल्कि वह है
कई बीमारियों का
प्लेटफ़ाॅर्म
और मैंने सोचा
कि इस
प्लेटफ़ाॅर्म के
कितने ही
प्लेटफ़ाॅर्म हैं
मसलन संजय दत्त
के
बढ़े हुए
रक्तचाप की वजह
वह बेचैनी और
तनाव थे
जिनकी उन्होंने
जेल में शिकायत की
तेरानबे के
मुम्बई बम कांड के
कितने
सज़ायाफ़्ता क़ैदियों ने
की वह शिकायत ?
अपराध-बोध, पछतावा या
ग्लानि
कितनी कम रह गयी
है
हमारे समाज में
इसकी तस्दीक़
होती है
एक दिवंगत
प्रधानमन्त्री के
इस बयान से
कि भ्रष्टाचार
हमारी जि़न्दगी में
इस क़दर शामिल
है
कि अब उस पर
कोई भी बहस
बेमानी है
इसलिए वे रक्त
कैंसर से मरे
रक्तचाप से नहीं
हिन्दी के एक
आलोचक ने
उनकी जेल डायरी
की तुलना
काफ़्का की
डायरी से की थी
हालाँकि काफ़्का
ने कहा था
कि उम्मीद है
उम्मीद क्यों
नहीं है
बहुत ज़्यादा
उम्मीद है
मगर वह हम जैसों
के लिए नहीं है
जैसे भारत के
किसानों को नहीं है
न
कामगारों-बेरोज़गारों को
न पी. साईंनाथ
को
और न ही वरवर
राव को है उम्मीद
लेकिन
प्रधानमन्त्री, वित्तमन्त्री
और योजना आयोग
के उपाध्यक्ष को
बाबा रामदेव को
और मुकेश
अम्बानी को उम्मीद है
जो कहते हैं
कि देश की बढ़ती
हुई आबादी
कोई समस्या नहीं
बल्कि उनके लिए
वरदान है
मेरे एक मित्र
ने कहा:
रक्तचाप का
गिरना बुरी बात है
लेकिन उसके बढ़
जाने में कोई हरज नहीं
क्योंकि सारे
बड़े फ़ैसले
उच्च रक्तचाप के
दौरान ही लिये
जाते हैं
इसलिए यह खोज का
विषय है
कि अठारह सौ
सत्तावन की
डेढ़ सौवीं
सालगिरह मना रहे
देश के
प्रधानमन्त्री का
विगत ब्रिटिश
हुकूमत के लिए
इंग्लैण्ड के
प्रति आभार-प्रदर्शन
बहुराष्ट्रीय
कम्पनियों के लिए
वित्त मन्त्री
का निमंत्रण--
कि आइये हमारे
मुल्क में
और इस बार
ईस्ट इण्डिया
कम्पनी से
कहीं ज़्यादा
मुनाफ़ा कमाइये
और नन्दीग्राम
और सिंगूर के
हत्याकांडों के
बाद भी
उन पाँच सौ
विशेष आर्थिक क्षेत्रों को
कुछ संशोधनों के
साथ
क़ायम करने की
योजना--
जिनमें भारतीय
संविधान
सामान्यतः लागू
नहीं होगा--
क्या इन सभी
फ़ैसलों
या कामों के
दरमियान
हमारे हुक्मरान
उच्च रक्तचाप से
पीडि़त थे ?
या वे असंख्य
भारतीय
जो अठारह सौ
सत्तावन की लड़ाई में
अकल्पनीय
बर्बरता से मारे गये
क़जऱ् में डूबे
वे अनगिनत किसान
जिन्होंने पिछले
बीस बरसों में
आत्महत्याएँ कीं
और वे जो
नन्दीग्राम में
पुलिस की गोली
खाकर मरे--
अपना रक्तचाप
सामान्य नहीं रख
पाये ?
यों तुम भी जब
मरोगे
तो कौन कहेगा
कि तुम उत्तर
आधुनिक सभ्यता के
औज़ारों की
चकाचैंध में मरे
लगातार अपमान
और विश्वासघात
से
कौन कहता है
कि इराक़ में
जिसने
लोगों को मौत की
सज़ा दी
वह किसी इराक़ी
न्यायाधीश की नहीं
अमेरिकी निज़ाम
की अदालत है
सब उस बीमारी का
नाम लेते हैं
जिससे तुम मरते
हो
उस विडम्बना का
नहीं
जिससे वह बीमारी
पैदा हुई थी
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जन्म: 24 अगस्त,
1971, इटावा
(उत्तर-प्रदेश)
जे. एन. यू से उच्च शिक्षा
कविता के लिए वर्ष 1994 के भारतभूषण अग्रवाल स्मृति पुरस्कार, आलोचना
के लिए 2003 के देवीशंकर अवस्थी
सम्मान एवं उ.प्र. हिन्दी संस्थान के रामचन्द्र शुक्ल पुरस्कार से सम्मानित.
एक संपूर्णता के लिए (1998), एक ही चेहरा (2006), रक्तचाप और अन्य कविताएँ (2015) (कविता संग्रह)
आत्मकथा की संस्कृति (2003), रघुवीर सहाय (2014,साहित्य अकादेमी,नयी दिल्ली के लिए विनिबंध), जीने का उदात्त आशय (2015) (आलोचना) आदि प्रकाशित
सम्पर्क : सी-95, डॉ हरीसिंह गौर विश्वविद्यालय,सागर (म.प्र.)-470003
मोबाइल: 09425614005/ cidrpankaj@gmail.com
अच्छा लगा आपकी कविताएँ पढ़ना.
जवाब देंहटाएंपंकज को बधाई। वे अपने आलोचक का भार अपनी कविताओं पर बिल्कुल नहीं डालते। मुझे उनकी कविताएं अच्छी लगती हैं। इस संग्रह पर मंगलेश जी के आग्रह पर 'शुक्रवार' के लिए लिखा है।
जवाब देंहटाएंबिना शब्दों को क्लिष्ट किये इतने सहज ढंग से अपनी बात कह देना और कई तो चंद शब्दों में ही...लाजवाब !
जवाब देंहटाएंसरल दिखने वाली विरल कविताएं.. कवि को बधाई, आपका अाभार..
जवाब देंहटाएंइन कविताओं के लिए शुक्रिया समालोचन.
जवाब देंहटाएंपंकज चतुर्वेदी की कवितायेँ बहुत शानदार है।मैं उनके कविताओ का पुराण प्रशंशक रहा हूँ और ये देख कर बहुत ख़ुशी होती है की उनकी कविता उत्तरोत्तर अधिक से अधिक धारदार होती जा रही है।और कही से भी वे अपने आपको रिपीट नही करते हैं।नही तो आमतौर पर हिंदी में धीरे धीर कवि मुहवराविहीन हो कर अपनी लय और चमक खो देते हैं।इसके प्रमाण एक नही अनेक हैं।यह भी ठीक है की हर पाठक की अपनी दृष्टि होती है उसके आधार पर वह अपनी राय तय करता है लेकिन यह राय पूर्वाग्रह से ग्रसित नही हो तो बेहतर है।पाठक को उन्हें अपनी राय रखने का पूरा अधिकार है पर कृपया लोगो को अपने विश्लेषण में अतिसरलीकरण से बचने का प्रयास करना चाहिए।
जवाब देंहटाएं''जिसकी आँख में आँसू है
जवाब देंहटाएंउससे मुझे हमेशा
उम्मीद है'' उत्तम अभव्यिक्ति.........जिसमें चेतना है, विचार हैं, चेतना और विचार का संयोजन ही चिंतन है । चिंतन ही भावोत्पत्ति करने तथा भावोत्पत्ति ही चिंतन की अोर मनुष्य को प्रवृत्त करती हैं। जहां आंसू हैं वहां संभावना है। भाव शून्य और सूखी आंखों में नाउम्मीदी होती है। पंकज भाई को साधुवाद।
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