सहजि सहजि गुन रमैं : फरीद खाँ

F. N. Souza
 (PORTRAIT OF A MAN IN SHADOW)

इक्कीसवीं शताब्दी की युवा हिंदी कविता का बीज शब्द है – ‘भय’. यह अपने साये से डर जाने वाला अस्तित्वादी भय नहीं है. यह भय पूंजी, व्यवस्था और सत्ता  द्वारा पैदा किया गया है, जो साम्प्रदायिकता और हिंसा के निर्मम और नापाक गठजोड़ से और सघन हुआ है. यह भय अनेक शक्लों में हर जगह उपस्थित है. फरीद खान की कविताओं में कभी वह शेर के पंजे के रूप में आता है तो कभी अफवाहों के रूप में. इसकी दहशत को आप इन कविताओं में महसूस कर सकते हैं, और उस विवशता को भी जिसमें अच्छे बने रहने के लिए आपका चुप रहना अब एक नागरिक उत्तरदायित्व है.  


फरीद खाँ की कविताएँ                    


अफ़वाह 
(एक)


हर बस्ती में अफ़वाहों के तालाब के लिए छोटे बड़े गड्ढे होते हैं.

पहले बादलों के फाहे की तरह ऊपर से गुजरती है अफ़वाह,
थोड़ी बूँदा बाँदी करती हुई.
फिर अफ़वाहों का घना बादल आता है
और पूरी बस्ती सराबोर हो जाती है.
छतों, छप्परों और दीवारों को भिगोते हुए 
छोटी से छोटी नालियों से गुज़रते हुए
अफ़वाह इकट्ठी होती है नदी, तालाब, झीलों में.

कई शहरों में तो पीने के लिए भी सप्लाई की जाती है
इन झीलों की अफ़वाह.



अफ़वाह
(दो)


अफ़वाहें कर रही हैं नेतृत्व.

लाल किले पर फहराई जाती हैं अफ़वाह
और मिठाई बांटी जाती है लोगों में.

कल ही संसद में पेश की गई एक अफ़वाह
दो तीन दिन बहस होगी उस पर
फिर पारित हो जाएगी क़ानून बनकर.

पुरातत्ववेत्ताओं ने खुदाई से निकाल कर दी हैं अफ़वाहें.
संग्रहालय में रखी हैं अफ़वाहों की तोप-तलवारें. 
स्कूलों का उसी से बना है पाठ्यक्रम. उसी से बनी है प्रार्थनाएँ.

कक्षा में भूगोल का शिक्षक ब्लैक बोर्ड पर लकीरें खींच कर
बनाता है अलग अलग अफ़वाहों के मानचित्र. 

चिंतन समिति बड़ी मेहनत और लगन से तैयार करती है
अफ़वाहों का ड्राफ़्ट.
अफ़वाहों पर विस्तार से होती हैं बातें.
समाज में फैलाई जाती है उनके प्रति जागरुकता.
मुहल्लों में बनाए जाते हैं इस पार, उस पार.

दुश्मनों को देख नसों में रक्त का प्रवाह तेज़ हो,
सरहदों पर लगाए जाते हैं अफ़वाहों के कंटीले तार.



अफ़वाहों की पलटन

अफ़वाहों की पलटन उतरी.
उसने घेर लिया पूरे मुहल्ले को.
रात का सन्नाटा और दरवाज़े पर लगाते हुए निशान
अफ़वाहें खटखटा रही थीं लोकतंत्र का मकान. 

नींद बहुत गहरी थी लोगों की. 
सुबह जब वे उठे,
वे घिर चुके थे अफ़वाहों से.



अफ़वाहों के प्रवक्ता

एक अच्छे अमानवीय शासन में ही स्थापित की जा सकती हैं
आफ़वाहों की ऊँची ऊँची प्रतिमाएँ, जो घृणा के बिना संभव नहीं है.
ख़ून पसीना एक करना होता है, त्याग करना होता है.
झोला लेकर नगरी नगरी द्वारे द्वारे घूमना होता है.
घृणा से प्रेम का परिवेश निर्माण करना होता है.
अफ़वाहों की स्थापना के लिए एक कर्तव्यपरायण घृणित समाज का निर्माण करना होता है. 

मित्रों के रूप में आते हैं अफ़वाहों के प्रवक्ता.
शिक्षक के रूप में भी आते हैं.
मुहल्ले के बुज़ुर्ग के रूप में भी आते हैं.
सभी हितैषी समझाते हैं लाभ और हानि अफ़वाहों के.

टीवी में भी दिखाई जाती हैं अफ़वाहें,
लेकिन ठीक उसके पहले घृणा का एक स्लॉट होता है.
मास मीडिया के ऊर्जावान नौजवान बड़ी मशक्कत से घृणा की ख़बरें लाते हैं.




राम इज़ गुड ब्वॉय

हम आम आदमी हैं.
किसी आम जानवर की तरह.
किसी आम पेड़ पौधे की तरह.

सभ्यता की ज़रूरत के मुताबिक,
अलग अलग जगह पर हमारा पुनर्वास होता रहता है.
न हमारी समझ हमारी है,
हमारा फ़ैसला हमारा.

हमें रोटी मिलती है तो हम खाते हैं.
हमें शब्द मिलते हैं तो हम बोलते हैं
नहीं तोराम इज़ गुड ब्वॉय बन कर चुप रहते हैं.  




सोनरूपा

नानी ने सुनाई थी एक कहानी.
उनकी नानी ने उनको सुनाई थी वह कहानी
और उन्हें बताया था
गाँव से हट कर बने एक पकवा इनारने.

जिसमें अनगिनत लड़कियाँ कूद गईं या फेंक दी गईं थीं मार के.

कोई उनसे पानी नहीं खींचता था, कि लड़कियाँ रस्सी पकड़ कर फिर से ऊपर न आ जाएँ,
कि फिर से बरखा न शुरु हो जाये.
वह जो हवा गुज़रती है पेड़ों से हो कर,
उन्हें छू न जाये फिर से.

भरी दुपहरी में, लू के थपेड़ों में,
अवाक सा अकेला खड़ा रहता है पकवा इनार’.
केवल सोनरूपा झुक आती है थोड़ा सा उसके ऊपर ताकि छाया हो.

असली कहानी तो सोनरूपा की ही है.
यह एक पेड़ है. जो बरगद था कभी.
इलाके का सबसे बड़ा पेड़, अडिग.

जो मिट्टी में दबी और दीवारों में चुनवा दी गईं कहानियाँ खोज नहीं पाये.
वे लोग हैरत करते कि पूरे ज़िले में अपनी तरह का यह इकलौता पेड़ है.
न जाने कहाँ से आ कर उग गया और इनराके साथ हो लिया. 

मेरी नानी की नानी जब खेत से बाँध खोल कर लौटतीं पानी का,
तो थक कर बैठ जातीं थीं वहीं सोनरूपा की छाँव में.
जहाँ उनके थोड़ा करीब सरक आता पकवा इनार और फिर दुनिया भर की बातें.
दो लड़कियाँ थीं वे. सोना और रूपा. 
दोनों भागी चली आ रही थीं पकवा इनार की तरफ़.
लोग भी लट्ठ लिये पीछे दौड़े आ रहे थे.
उन सब को यक़ीन था कि लड़कियाँ कूद जायेंगी पकवा इनार में,
या वे मार कर डाल देंगे उन्हें इनार के भीतर.
पर ऐन वक़्त पर नक्षत्रों की दिशा बदल गई.

लड़कियाँ चढ़ गई पास खड़े बरगद के ऊपर, बहुत ऊपर.
आज तक किसी लड़की ने हिम्मत नहीं की थी ऊपर चढ़ने की,
और वह भी इतना ऊपर. हतप्रभ थे सब.
घूंघट के बीच से रास्ता बनाती एक आँख भी फटी की फटी रह गई.
पर लोग नहीं मानें,
और चढ़ने लगे ऊपर उनके पीछे.

बरगद अचानक बढ़ने लगा और ऊपर.
ईश्वर की बनाई हर चीज़ की सीमा है,
लेकिन नफ़रत सभी सीमाओं का अतिक्रमण कर बढ़ती गई, कम नहीं हुई.
लोग नहीं माने.  

अंत में थक कर, बरगद ने अपनी छाती खोल दी और 
समा लिया सोना और रूपा को अपने भीतर.  

गाँव से अलग, अभी भी कहते हैं, कि,

ज़िद्दी औरत की तरह खड़ा है सोनरूपा का पेड़. 
__________________
फरीद खान : 29 जनवरी 1975.पटना. 
पटना विश्वविद्यालय से उर्दू में एम. ए., इप्टा से वर्षों तक जुडाव.
भारतेन्दु नाट्य अकादमी, लखनऊ से नाट्य कला में दो वर्षीय प्रशिक्षण.
कवितायेँ प्रकाशित और रेखांकित
फिलहाल मुम्बई में व्यवसायिक लेखन में सक्रिय
 kfaridbaba@gmail.com

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  1. सारी कविताएँ सहेजने वाली.विशेषकर सोनरूपा !

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  2. गहरे राजनैतिक बोध की कविताएं। जिंदाबाद...

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  3. सोनारूपा से न जाने क्यों डैफ्नी का लॉरल पेड़ में बदल जाना याद आता रहा. फ़रीद की कविताएं गहरे सामाजिक बोध की कविताएं हैं, इसलिए राजनैतिक बोध कवि दृष्टि बींध कर कर चलती है.

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  4. फरीद की कवितायें स्तब्ध कर गईं। अफवाह (दो) अतिशयोक्ति तक चली जाती है, इतनी कि यह हर कुछ का नकार बन जाती है और 'डाडा वाद' से आगे चल कर

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  5. फरीद की कवितायें स्तब्ध कर गईं। अफवाह (दो) अतिशयोक्ति तक चली जाती है, इतनी कि यह हर कुछ का नकार बन जाती है और 'डाडा वाद' से आगे चल कर घोर निराशा में चली जाती हैं। शेष सभी कवितायें बहुत ही प्रभावित करती हैं। फ़रीद के पास भाषा, शिल्प, विचार, भाव और कल्पना का अच्छा संतुलन है। मैं उन्हें बधाई देते हुए इतना कहना चाहूँगा कि उनकी और भी कई कवितायें पढ़ने का मन हो रहा है।

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    1. मुझे लगा कि सोनरूपा को छोड कर अन्य सभी को लगभग एक सीक्वल के रूप में पढा जा सकता है और मानों इधर काफी दिनों से एक्जेकटली यही कहना चाह रहा था। हताशा के बजाय तसल्ली मिली कि हम से इत्तेफाक रखने वाले और भी लोग हैं ।

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  6. बहुत अच्छी कविताएं।

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  7. अच्छी कविताएँ हैं फरीद की। अपने समय की विद्रूपताओं को, जो अब एक सांस्कृतिक उद्यम के रूप में हमारे सामने है उसको रेखांकित करती और उसकी ढेर सारी सूक्ष्म अवस्थितियों की पड़ताल करती मार्मिक कविताएँ।

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  8. फरीद खान की पिछली कविताओं की तरह ये कविताएं भी अच्‍छी लगीं। धीरगामी मैदानी नदी की तरह शांत दिखतीं पर वज़नदार।

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  9. तुषार, ये आकस्मिक नहीं है कि अचानक इतिहास का चक्का तेज़ कर दिया जाता है, एक पूरा दौर नृत्तवशास्त्रियों के अध्ययन में बीतता है, अस्मिताओं और संस्कृतियों के बहाने धार्मिक बाज़ारों को तैयार किया जाता है, छद्म पोस्टमॉर्डनिज़्म और ताकतों की गठजोड़ में डंकले प्रस्ताव दुनिया के लिए ज़रूरी हो जाता है..फ़रीद की अफ़वाह2 बहुत सफ़लता से, कम शब्दों में अतियों के सामने खड़ी है.

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  10. अपर्णा, मैं आपसे पूरी तरह सहमत होते हुए यह दुहराना चाहता हूँ कि मेरा वह कमेंट सिर्फ "अफवाह (दो)" पर था। उसमें भी, उस कविता की कुछ ही पंक्तियों पर। पूरी कविता पर नहीं। मैं दुबारा कहता हूँ कि फ़रीद की कवितायें स्तब्ध कर गईं। सभी कवितायें बहुत अच्छी हैं। सिर्फ 'अफवाह' नाम की दूसरी कविता में कुछ पंक्तियाँ मुझे अखर रही हैं। मैंने उन्हीं पंक्तियों की तरफ इशारा किया था। मैं यहाँ कुछ विस्तार से उन पंक्तियों पर अपनी राय लिख रहा हूँ :

    "लाल किले पर फहराई जाती हैं अफ़वाह
    और मिठाई बांटी जाती है लोगों में."

    लालकिले पर आजादी के दिन झंडा फहराया जाता है। हम कह सकते हैं कि हमारे देश में आजादी अभी तक एक अफवाह ही है। लेकिन सिर्फ अफवाह कह कर नकार देने से अपने रोज मर्रा के जीवन में हम अपनी आजादी को जैसे भी जीते हैं, उसका भी नकार हो जाता है। यहाँ अदम की वे पंक्तियाँ भी जेहन में आती हैं
    "...दिल पर रख कर हाथ कहिये देश क्या आजाद है"
    यह सही है कि हम अब तक पूरी तरह से आजाद नहीं हो पाये हैं। बल्कि अब तो और अधिक गुलाम होते जा रहे हैं। लेकिन फिर भी क्या हमारी आजादी, हमारा लोकतंत्र पूरी तरह से सिर्फ अफवाह ही है ? मुझे ऐसा नहीं लगता। व्यवस्था जैसी होनी चाहिये थी, नहीं है। यह सच है। पर फिर भी कुछ तो है ही। इसलिये, इस सच्चाई को आरेखित करने के लिये 'अफवाह' शब्द अनुपयुक्त लग रहा है और, इसीलिये, यह सिर्फ 'एम्पटी रेटॉरिक' भर रह गया है।

    मेरी दृष्टि में हमारा लोकतंत्र अभी लंगड़ा है। मुझे यह भी लगता है कि लोकतंत्र में वोट 'psychic manipulation of masses' के जरिये हासिल किये जाते हैं। कि, हमारा स्वतंत्र विचार भी कितना स्वतंत्र है, इस पर भी विवाद के लिये काफी जगह बचती है। लेकिन हमारे यहाँ एक संविधान है और कितनी भी त्रुटिपूर्ण क्यों न हो, एक लोकतांत्रिक व्यवस्था तो है ही। और यह अफवाह नहीं है। हमारा राष्ट्रीय ध्वज अफवाह नहीं है। हमारी राजनीति और पूँजी इसे कितना भी मलिन कर ले, लेकिन फिर भी हम देशवासियों के लिये यह तो है ही। हमारा लोकतंत्र महज कोरा अफवाह नहीं है। इसके कई अच्छे पहलू भी हैं जिसे हम रोज़ जीते हैं। उससे इन्कार करना महज एक 'कमिटेड रेटॉरिसिज़्म' से अधिक कुछ नहीं है। पढ़ने में यह पंक्ति आकर्षक अवश्य है, पर मुझे यहाँ अतिकथन महसूस होता है।

    "उसी से बनी है प्रार्थनाएँ."

    प्रार्थनाओं का अफवाहों से बना होना मुझे मानवीय जिजीविषा और उसकी प्रेक्षाओं को कमतर करके आँकने जैसा लगा । प्रार्थना धार्मिक गठन की ही हो, जरूरी नहीं है। कोई कह सकता है कि ईश्वर अफवाह है, लेकिन जिन भावों और आकांक्षाओं से प्रार्थना उगती है, वे भाव और इच्छायें सहज मानवीय बोध से उगती हैं । अत: प्रार्थना को अफवाहों से उगा हुआ कहना मुझे अतिकथन लगा। मसलन, किसी मरते हुए मित्र के लिये जीवन की प्रार्थन हमेशा ही सहज मानवीय बोध से उपजी हुई रहेगी। वे प्रार्थनायें अफवाह नहीं होंगी। पूँजी और आतंक कितना भी हमें बदल दें, हमारे कुछ मानवीय बोध कभी नहीं बदलेंगे।

    "कक्षा में भूगोल का शिक्षक ब्लैक बोर्ड पर लकीरें खींच कर
    बनाता है अलग अलग अफ़वाहों के मानचित्र."

    भूगोल कैसे अफवाह हो सकता है ? देश, पर्वत, सागर अफवाह कैसे हो सकते हैं? देशों के मानचित्र और मानव को लताड़ती, सत्ता की हवस में लिप्त राजनीति बद से बदतर हो सकती है, लेकिन भूगोल का शिक्षक किन अफवाहों के मानचित्र बना सकता है, यह ज्ञान मेरी मोटी बुद्धि में नहीं उतर पाता है। भूगोल एक जेनेरिक टर्म है। भूगोल में physical, political, social कई आयाम जुड़ते हैं। समस्त भूगोल को ही अफवाह कह देना इस एक टर्म को जेनेरलाइज़ कर देना, मुझे 'रेटॉरिकल एक्सेस' लगता है। क्या हिमालय का भूगोलीय मानचित्र (physical map/ contour map) कभी अफवाह हो सकता है ? क्या अरब सागर, हिन्द महासागर, एंटार्टिक या फिर एक भौगोलिक परिस्थिति में हुआ सामाजिक गठन महज अफवाह हो सकता है ? भूगोल का राजनैतिक आयाम अफवाह हो सकता है, समस्त भूगोल नहीं।
    कह सकते हैं कि कवि ने भूगोल को शिक्षण के प्रतीक की तरह इस्तेमाल किया है। लेकिन तब भी, क्या समस्त शिक्षण ही अफवाह है ? क्या ज्ञान के सभी आयाम अफवाह हैं ? वह भी, जो अब खुद कवि का ज्ञान है और जिसकी बदौलत उसे ये तमाम बातें अफवाह लग रही हैं ? क्या अफवाह को पकड़ने वाली यह बुद्धि भी अफवाह है ? क्या एक अफवाह दूसरे अफवाहों को बेनकाब करती हुई एक और अफवाह (कविता) लिख रही है ?

    यदि यह सब सही है और कवि सच कह रहा है तो कवि की यह कविता भी अफवाह ही है। हमारा भोजन अफवाह है, माँ-बाप भाई-बहन बच्चे, हमारे दोस्त दुश्मन, यह हवा पानी, यह जीवन भी अफवाह है! इस कविता पर लिखी टिप्पणियाँ भी अफवाह हैं । जैसे सब कुछ माया है, वैसे ही सब कुछ अफवाह है ।

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  11. सारांश यह कि मुझे सिर्फ और सिर्फ इस कविता में 'अफवाह' शब्द का प्रयोग, उससे पैदा हुए भाव का, एक 'वाइड एंगल लैंस' से देखे गये समस्त दृश्य पर आरोपण अनुचित या फिर अतिकथन जैसा लगा।

    अन्य कविताओं में जो कुछ भी लक्षित किया गया है, कहा गया है, वह सटीक है। कवि को उन सभी कविताओं के लिये बधाई।

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  12. देखिए एक वार्सा जब जलकर युद्धाग्नि को भेंट हुआ तो उसके भूगोल का क्या हुआ? ऑकलैंड की स्थिति इन स्वतंत्र भौगोलिक परिधियों में क्या है? उस यूक्रेन की सीमाओं को हम कैसे कुंठित होकर देखते रह जाते हैं? मानचित्र केवल भौगोलिक विस्तार, कोंटोर नहीं, उससे अधिक है. रेखाएं हमने नाप जोख या समझ के लिए तय नहीं कीं- सब कुछ जीत लेने की चाह ने भी बहुत सी कतर-ब्यौंत की.
    दुनिया की ताकतों ने हमें वस्तुओं में बदला और हमारे कष्टों को अफ़वाह बनाकर उड़ा दिया.
    किसी लातिनी देश को ड्रग में बदल देना, हांस एंडर्सन के परी देश को परियों के कभी खत्म न होनेवाले रुदन में बदल देना..कितना आसान है सब. विश्वास टूटता है तुषार. एक झटके में हम लोकतंत्र के पैर एम्प्यूट करते हैं और उसके लंगड़ेपन को अपनी लाचारी समझते हैं. तुषार मेरी टिप्पणी भी अफ़वाह 2 के लिए ही थी. आपकी बात सही है कि जनरलाइज़ेशन जैसा लगता है..पर यह भी सही है कि हमारे कोर्स तक किसी आंख के इशारे पर बदले गये. हम लंगड़े- लूले बनाए जा रहे हैं. डमी लोकतंत्र. मुक्तिबोध की लकड़ी का बना रावण याद आ रही है. अब गिरे, तब गिरे..

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  13. अतिकथन जैसा लगता है..सहमत हूं. साहित्य वैसे सब कुछ उलट कर देखता है. मंटो की कहानी टोबा टेकसिंह के अंत को याद करिए.. वहां केवल विभाजन की विडंबना ही अकेली नहीं है..उस लोकतंत्र की बुनियाद भी उधड़ी पड़ी है जिसके लिए गांधी लड़ता रहा, वह कैसे अकेला पड़ गया? बिशन सिंह कहीं वही गांधी तो नहीं? खंडित होता गया. शायद मैं भावुक होकर लिखने लगी हूं. विराम ज़रूरी है. इर्रैलेवैंट हो गई मैं..

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  14. मैं सहमत हूँ आपसे। आपके द्वारा उकेरी बातों का मैंने भी अपने ढंग से ज़िक्र किया है। जैसे भूगोल का राजनैतिक आयाम अफवाह हो सकता है, समस्त भूगोल नहीं। लोकतंत्र के नाम पर हो रहे हिंसा के हुलास को हम रोज देखते हैं लेकिन अब भी कुछ है जो सुन्दर है, और हमेशा रहेगा। पूर्ण नकार निराशा की तरफ भी ले जाता है।

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  15. अफ़वाहों पर विस्तार से होती हैं बातें.
    समाज में फैलाई जाती है उनके प्रति जागरुकता.............. देख रही हूँ जितने आयामों से अफवाह को देखा गया है इन कविताओं में यहाँ बातें भी उतने ही विस्तार से हो रही है उन पर .... अफवाहों के इतर सोनरूपा भी देर तक बैठती है मन में एक टीस के साथ ..........

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