निर्देशक आनन्द एल. राय २०११ में ‘तनु वेड्स मनु’ लाये थे, २०१५
में ‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’ सिनमा घरों में जहाँ दर्शकों को खींच रही है वहीँ अपनी
पठकथा और दृश्य –बंध को लेकर आलोचकों और समीक्षकों के बीच भी चर्चा का विषय बनी
हुई है. एक समय हिंदी सिनेमा में समानांतर सिनेमा ने बड़े बजट की मसाला फिल्मों के
समक्ष रचनात्मक चुनौती पेश की थी, आज ‘आफ बीट’ फिल्में उसी तरह की भूमिका में हैं.
युवा फ़िल्म समीक्षक सारंग उपाध्याय लगातार ऐसी फिल्मों पर लिख रहे
हैं. ‘तनु वेड्स मनु, रिटर्न्स’
के बहाने सारंग ने इस परिदृश्य का जायजा लिया है.
शर्माजियों के मोहल्लों में लाइट कैमरा एक्शन : संदर्भ
‘तनु वेड्स मनु रिटर्न्स’
(डिस्क्लेमर : इस फिल्म में संवाद नायक हैं और पटकथा नायिका.
फिल्म केवल इसलिए देखें क्योंकि शर्मा दंपती की शादी टूटते-टूटते
बची.)
दृश्य-1
एक पुरानी शादी के कुछ टुकड़े. ऐसा
कहें कि पिछली फिल्म के. शादी तनुजा त्रिवेदी और मनोज शर्मा की.
दूल्हा-दुल्हन एक दूसरे को वरमाला पहनाते हुए.
हंसती-खिलखिलाती दुल्हन और शरमाता-लजाता
डॉक्टर साहब दूल्हा. नाचते चाचा-चाची, मौसी पर फिदा होते मौसा जी, दारू की बॉटल में लिपटकर, लेटकर
डांस करता जिगरा यार. बदहवास सी नाचती खुद दुल्हन. मां
को छेड़ते पिताजी और तिरछी आंख से जाने कितने लड़कों से पटती लड़कियां.
गांव, कस्बों और मोहल्ले के शर्माजियों, त्रिवेदियों और वर्माजियों की एक भरी पूरी कम्प्लीट शादी. यह
बदलता सिनेमा है, जहां मुंबई और उसके आसपास के इलाकों, चंद हिल स्टेशनों, खूबसूरत वादियों की बजाय ठेठ यूपी की संस्कृति है. ठसक
से समझ लीजिए निर्देशक भी वहीं के हैं. नाम नीचे देखेंगे. आइए, शादी के चार साल बाद श्रीमती तनूजा शर्मा और मनोज शर्मा दांपत्य
जीवन के शोर को सुनते हैं और दृश्यों में केवल उत्तर
प्रदेश देखते हैं.
दृश्य-2
लंदन को एक कमरे में बंद कर दिया गया है. हां
यह एक कमरा है, जहां तनुजा त्रिवेदी और मनोज शर्मा की तलाक पर नोंकझोंक हो रही है. वह
भी वकीलों के सामने, ठेठ कनपुरिया देसी अंदाज में झिकझिक. नो
इंग्लिश, नो मैनर्स इन लैंग्वेज. जिंदगी के झंड होने से लेकर, संतरे में रस भरने और तेल हंडा जैसे गली मोहल्ले की मुंडेर पर
सूखते जैसे शब्दों और संवादों के साथ की आप चकरा जाएंगे कि ये मान लेंगे की क्रिएटिविटी ने आज फैशन शो किया
है. जरा इधर देखिए, पति पागलखाने पहुंच गया है और कैमरा फोन से होता हुआ कानपुर छू रहा
है. बाकी जो लंदन है, उसे नमस्ते लंदन किया गया है. बस
एक कॉलोनी, चंद व्यवस्थित मकान, कमरे में पति की अनमनी याद, उससे उबती पत्नी, या कहें दारू पीकर टीवी देखती तनु और कुछ सड़कें और कुछ अन्य
औपचारिक दृश्य दिखाकर. फिर एयरपोर्ट, प्लेन से भारत लौटती तनु शर्मा. फिर
लंदन एयरपोर्ट. हां कुछ दृश्य और हैं. दूर पीछे टैम्स नदी का पुल और वेस्टमिनिस्टर, लेकिन
कैमरे का फोकस केवल एक कस्बाई चरित्र पप्पी पर.
उसके संवादों से खिलखिलाते दर्शक. एक पागलखाना, कुछ चुंटीले संवाद, हंसता हुआ थियेटर.
एक बार फिर एयरपोर्ट और आखिरी में कानपुर जैसे अच्छे खासे महानगर
का एक मोहल्ला और उसकी कुछ तंग गलियां, जहां दबंग अंदाज में मायके लौटती एक विवाहिता.
रिक्शेवाले से फ्लर्ट करती हुई, जो उसका एक पुराना आशिक है. लंदन से घर आई दीदी की खुशी में चंद बच्चों की चिल्लाती आवाजें.
बाहर निकल बेटी को देखने पहुंचे मां-पिता और परिवार के दूसरे लोग.
बेटी बाप सामने
रिक्शे वाले से गले मिलकर विदाई दे रही है, अपने पुराने आशिक को. यह हिंदी फिल्म का एक दृश्य है, वह भी यूपी का. आइए जरा और आगे चलते हैं.
दृश्य-3
कानपुर की इन तंग गलियों में, एक दूसरे से सट कर खड़े मकान, आपस में छल कपट, ईर्ष्या, मनमुटाव, झगड़े, अनबन के बाद भी एक दूसरे से मिली हुईं छतें.
मकान तनु शर्मा का, जिसके भीतर बरामदा, बरामदे से लगी दीवारों के भीतर के कमरों के दरवाजे, एक ब्लेड
की तरह धारदार छह माह से किराया न देने वाला किरायेदार, और
खुदा कसम उसका वह शेर जिसकी याद भर है, जो यू ट्यूब में ता उम्र बना रहेगा. फिर
उसका कमरा, मोगरी से कपड़े धोता वह खुद और कुछ महिलाएं, पास
में बर्तन धुलने की आवाजें, रोजमर्रा के काम, घूमते-खेलते बच्चे, किसी अज्ञात बलमा के इंतजार में सजती संवरती लड़कियां. रात
को टीवी पर शादी की सीडी और ढेर सारी आवाजों की आवाजाही और लड़की देखने आए लोगों के
औपचारिक परिवेश के बीच तनु शर्मा की अनोखी एंट्री, जो
हिंदी सिनेमा के इतिहास में कभी नहीं हुई होगी. काम के बोझ से ऊबकर थक चुकी, पति पर खीज उतारती और बड़बडाती पत्नी की आवाज.
शराब पीते तीन मर्द और गुस्से में ट्यूलाइट फोड़ता एक पति.
जोरों के खिलखिलाता थियेटर. फिर…! फिर वही यूपी, वही यूपी जिसे कैमरे ने कभी नदिया के पार तक, तो
बंबई से बाहर के गांव में अम्मा-बापू की याद तक ही समेट कर रखा गया था, लेकिन
2015 बॉलीवुड के पूरे केंद्र में हैं और पिछले कुछ सालों से अपने ह्यूमर, टैलेंट
और पूरे परिवेश के साथ हिंदी सिनेमा की धारा ही बदल रहा है.
परिवेश ही नहीं निर्देशकों का टैलेंट भी आ रहा है. स्वागत
है भाई. आइए अब जरा हरियाणा को देखते हैं, जिसकी
छवि हर दर्शक के मन में फिल्म खाप से लेकर हाल ही में आई एनएच-10 के
बाद क्या हुई है. आइए देखें, दत्तो और उसका परिवार कितने हौले से हमारे मन में जगह बना रहा है.
(नोट: यहां
दिल्ली के दृश्य शामिल नहीं किए हैं कृपया नाराज न हों)
दृश्य-4
हरियाणा के झज्जर की गलियां, वहां का एक मोहल्ला, उसमें कुसुम का घर-परिवार के लोग, उनका पहनावा, रहन-सहन, बोली-भाषा, आचार-विचार, व्यवहार, रीति-रिवाज, परंपरा और संस्कृति. दो मोहल्ले पार कर एक चौराहा, उसकी चौपाल, चादर ओढ़कर सोया बंगाली बाबा, ब्यूटी पार्लर, कस्बे और गांव का प्रतिनिधित्व करते लोग.
शादी, मेहंदी, गीत संगीत, कढ़ाई, आलू-प्याज, टमाटर का ठेला, कढ़ाई में बनते पकवान, मंडप, कमरे के भीतर सजती दुल्हन, छोटे से आगंन में तिलक और चंद लोग.
बारात के लिए इकट्ठे हुए लोग, घोड़ी चढ़ता दूल्हा. यही सबकुछ और बहुत ज्यादा भी. माफ
करना मैं कैमरा नहीं हूं. फिल्म किसी नजदीकी थियेटर में जरूर देखिए. हंस
खेलकर और मन हल्का कर, तनाव रहित होकर. देखने लायक फिल्म है. हां कुछ बारिकियों को नजर अंदाज कर देना क्योंकि वह नजर अंदाज ही
रहेंगी. जीवन में खुदको भी कभी-कभी नजर अंदाज करना चाहिए.
आइए, फिलहाल इस फिल्म के बहाने छोटी सी बात करते हैं, इस
खुशी में की शर्माजियों और वर्माजियों के मोहल्ले से इन दिनों लाइट कैमरा एक्शन
की आवाजें आ रही हैं.
ऊपर तनु वेड्स मनु रिर्टन्स के दृश्यों की यह फेरहिस्त बेहद
लंबी है और माफी चाहूंगा कि आप बोर हो गए होंगे.
लेकिन इस फिल्म के दोनों ही भाग, उत्तर भारत के सामाजिक ताने-बाने
नई झांकी है. कुछ फिल्में रांझना, बुलट-राजा, इसी फिल्म का पहला भाग, और भी कईं. लेकिन ये फिल्म, अहा...! क्या अप्रतिम सुंदर पात्रों, दृश्यों और परिवेश का कोलाज है ये फिल्म.
इसे भारतीय सिनेमा का कौन सा दौर कहें? समानांतर, कमर्शियल, या
ठेठ कस्बाई सिनेमा. क्या कहा जाए? कैमरा
यहां किसी स्टूडियो का मोहताज नहीं है और न ही उसमें कैद होने वाले चेहरे किसी बड़े
महानायक के इंतजार में बटन बंद कर बैठे हैं. कोई तड़क-भड़क मैकअप वाला स्टार नहीं. महंगे कपड़े नहीं, भव्य मकान नहीं, महंगी गाड़ी नहीं, बड़े होटल्स नहीं और न ही टिम टाम वाला कोई बड़ा भारी संगीत.
यहां तो पटकथा ही नायिका है, जबकि परिवेश, संवाद और कुछ पात्र मिलकर एक बड़े केंद्रीय नायक को रच देते हैं.
रांझना में स्वरा भास्कर को सब देखना चाहते थे, जबकि इस फिल्म में भी गिलास में दारू की चुस्की लेती स्वरा को लोग
भुला नहीं पाएंगे. पप्पी के रूप में दीपक डोब्रियाल आपको आंखें चुराने नहीं देगा. यह
कभी न विस्मृत होने वाला पात्र है. फिर किराएदार साहब तो रांझना से होते हुए यहां अभी आपको आकर्षित
करेंगे. आर माधवन और कंगना हैं, पर इस फिल्म में और भी लोग हैं. सच इस
समय सिनेमा में सब हीरो हैं और बड़ा बेहतरीन दौर है ये. अब
अशोक कुमार, देविका रानी और सुरैया के अलावा भी कुछ लोग हैं, जो
फिल्म में बतौर नायक और नायिका काम करते हैं. पीकू
में जूही चतुर्वेदी ने स्क्री प्ले में जादू भर दिया, तो
इस फिल्म में हिंमाशु राय ने. उन्होंने
ने इस फिल्म का पहला भाग लिखा था जबकि रांझना उन्हीं की कलम से कैमरे ने आंखों
में उतारी है.
हां तो पहले यह कह रहा था कि फिल्म में यूपी केंद्र में है, जो
पहले नहीं था, वह भी महानगरीय यूपी. उसका परिवेश किसी दूर कोने में अछूत सा पड़ा परिवेश था, (जैसे
और भी कई परिवेश हैं) जिसे पर्दे पर लाने की हिम्मत चाहिए थी, जो आ
नहीं पा रही थी. (संभव हो इसके कई और कारण हों) बिहार
को दिखाने में प्रकाश झा सफल रहे, मृत्युदंड, गंगाजल, अपहरण के
रूप में, उन्होंने बिहार की एक तस्वीर सामने रखने की कोशिश की. इसी
तरह विशाल भारद्वाज,फिल्म ओमकारा और मकबूल लेकर आए, बाद
में उन्होंने इश्किया में गोरखपुर की पृष्ठभूमि का चयन किया. दबंग-1 दबंग-2 और चुलबुल पांडे सभी को याद हैं.
अनुराग कश्यप गैंग्स ऑफ वासेपुर के दोनों भाग बनाकर बहुत आगे पहुंच गए और
उन्होंने एक पूरा समय दर्ज भी किया और कैद भी. इम्तियाज
अली और इधर कई और निर्देशक हैं, जो
उसी परिवेश से आकर सिनेमा की कहानी और परिवेश दोनों बदल रहे हैं. ऐसे
ही यशराज बैनर की बंटी और बबली, लागा चुनरी में दाग, इशकजादे, जॉली एलएलबी
जैसी फिल्में भी हैं, जहां यूपी अपनी छटा बिखेर रहा है.
हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि पहले हिंदी सिनेमा के भीतर एक ऐसी ही समानांतर
धारा थी, जो यूपी के गांवों, कस्बों और वहां के जीवन के यथार्थ को सामने लाने के लिए बनी थी.
निश्चित ही वह कुछ बेहतरीन फिल्में थीं, जो श्याम बेनेगल, सई परांजपे, कुंदन शाह, ऋषिकेश मुखर्जी, गुलजार, सहित कई शानदार निर्देशकों ने बनाई थीं, और
वह आज भी वह हमारे एक सदी की आयु वाले सिनेमा का सबसे बेहतरीन तोहफा है.
लेकिन वहां यूपी का ग्रामीण परिवेश था, वह अपनी उपयोगिता के मुताबिक था, यदि
था तो वैसा नहीं था, जो आज हमें दिखाई दे रहा है. (यदि
हों तो फिल्मों के जानकार इस पर प्रकाश डालें.)
बहरहाल, ये अच्छी बात है और शुभ संकेत है कि सिनेमा कला के उच्चतम मानकों
के साथ पैसा कमा रहा है और उसके विषय, परिवेश और समाज का विस्तार हुआ है. इस
दौर में सिनेमा में आपको कुछ सार्थक भी देना होगा. दत्तो
को उसके हरियाणा वाले घर में रात को सोते देखना, आने
वाले समय में फिल्मों के कथानक और विषय विस्तार के प्रति आश्वस्त करता है.
फिलहाल तनु वेड्स मनु रिटर्न्स की पूरी टीम को बधाई, और कंगना को तो विशेष रूप से खासतौर पर दत्तो के किरदार के लिए. और हिमांशु राय को तो विशेष रूप से कि, पहले शादी में बुलाया, फिर तलाक की नोकझोंक में इतना
बेहतरीन स्क्रीन प्ले रच दिया. रांझना आप लोग उनकी देख ही चुके हैं. अंतिम बधाई निर्देशक आनंद एल राय को बनती है. यूपी के मानों कोने-कोने में रचे बसे हैं जबकि वे वहां के हैं नहीं. वे दिल्ली में पैदा हुए हैं, और महाराष्ट्र के औरंगाबाद से उन्होंने इंजीनियरिंग की है. और बना क्या चुके हैं तनु वेड्स मनु (2011), रांझना (2013) और अब तनु वेड्स मनु, रिटर्न्स (2015).
तीनों ही फिल्मों में यूपी का छौंक हैं, वहां की महानगरीय जिंदगी के रंग है. वे कमाल के निर्देशक हैं. पात्रों के चयन और उनसे निकलवाई गए अदाकारी के लिए माशा अल्ला वे याद रखे
जाएंगे. खैर, निर्देशक निरीक्षण करता है और मान लेता हूं कि दिल्ली से कानपुर ज्यादा दूर
नहीं है, पर दर्शकों अब उनसे एक ठेठ मराठी कल्चर की फिल्म की उम्मीद है
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(मद्रास कैफे/लंच बाक्स/बी.ए.पास/हैदर/एन एच -१०/पीकू )
सारंग उपाध्याय : sonu.upadhyay@gmail.com |
Wonderful article!
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