विश्वयुद्ध की
पृष्ठभूमि में इतिहास और भूगोल की यात्रा करती 2013 के आस्कर से
सम्मानित पावेल पाव्लिकोस्की की पोलिश फिल्म ‘’ईदा’’ कई कारणों से
चर्चा में है. इस फ़िल्म के सभी पहलुओं को टटोलता विष्णु खरे का लेख.
ऑस्कर ऐसी फ़िल्मों को मिलता है, स्टुपिड
विष्णु खरे
स्तालिन-युग के बाद के पोलैंड की एक युवती है
अन्ना, जो यतीम थी और 1960 के
बाद के बरसों में में एक कॉन्वेंट में पली-बढ़ी है. उसे चर्च में ‘नन’ या ‘सिस्टर’ बनना ही है लेकिन अंतिम
दीक्षा के पहले उसकी वरिष्ठ पुरोहितानियाँ उसे बताती हैं कि वह पैदाइशी ईसाई नहीं,
यहूदी है और उसका असली नाम ईदा था. अब सिर्फ़ उसकी
असली मौसी वान्दा ग्रूज़ जिंदा है और अन्ना उर्फ़ ईदा चाहे तो नन बनने-न बनने का
फ़ैसला लेने से पहले उससे कुछ दिनों के लिए पहली और आख़िरी बार मिल सकती है. मौसी वान्दा स्तालिन-युग में एक जज थी, अभी भी है और उसने कई पोलिश देशभक्तों को फाँसी
दी थी. वह अब एक अधेड़ अल्कोहलिक
और सैक्स-विक्षिप्त हो चुकी है. ईदा जानना चाहती
है कि उसके माता-पिता हिटलर, स्तालिन और दूसरे
विश्व-युद्ध के ज़माने के पोलैंड में कैसे मारे गए थे और उनकी कब्रें अगर हैं तो
कहाँ हैं. के भान्जी के साथ मौसी
वान्दा भी यह मालूम करना चाहती है. यह जटिल और
जोखिम-भरी तलाश उन्हें पोलैंड के अंदरूनी गाँवों में ले जाती है और आखिरकार उनका
सामना इस सचाई से होता है कि जिस ईसाई पोलिश किसान ने जान का ख़तरा उठाकर ईदा के
माँ-बाप को पनाह दी थी उसी ने उनकी ज़मीन-जायदाद की लालच में उनकी ह्त्या कर दी थी. ईदा और वान्दा उस किसान का क्या फैसला करें ?
ईदा कैथलिक-ईसाई नन बने या अपनी ‘’असली’’ यहूदियत में लौट जाए ? मौसी जिस शहराती
दुनिया में रहती है उसमें जवान लड़के हैं, नाइट क्लब हैं, नाच-गाना-नशा है, आलिंगन-चुम्बन हैं, ’लाइफ़’ है. ईदा लौट कर गिरजाघर की सन्यासिन बन जाए या रुक
कर मौसी के भौतिक ‘सुखों’ के संसार को गले लगा ले ?
इस बरस का विदेशी फिल्म ऑस्कर जीतनेवाली निदेशक
पावेल पाव्लिकोस्की की पोलिश फिल्म ‘’ईदा’’ सिर्फ़ इतनी-ही चुनौतियाँ
पेश करती तब भी कोई बात थी - तत्कालीन इतिहास, समाज, संस्कृति और
राजनीति के जो प्रश्न वह उठाती है उन्होंने पोलैंड और यूरोप, ईसाइयों और यहूदियों, दक्षिणपंथियों और वामपंथियों के बीच एक गहरा विवाद खड़ा कर
दिया है जिसकी छाया सैकड़ों वर्षों और लाखों वर्ग-किलोमीटरों तक पहुँचती है. एक कैथलिक-समर्थक प्रतिक्रियावादी वैबसाइट ने उसे ‘देश-विरोधी’
कहा है. यूरोपीय संसद के एक पोलिश
सदस्य ने कहा है कि यह एक अजीब फिल्म है जिसमें यहूदी-संहार Holocaust तो है, जर्मन नहीं हैं, यहूदियों को नात्सी नहीं मारते, लालची और घिनौने पोलिश किसान मारते हैं. ’पोलिश मानहानि-विरोधी लीग’ ने हज़ारों दस्तखतों के साथ माँग की है कि
‘ईदा’ के प्रोड्यूसर फिल्म की शुरूआत में यह प्रति-वक्तव्य (‘डिस्क्लेमर’) दें कि
पोलैंड पर उन दिनों नात्सी जर्मनी का कब्जा था, जर्मनों ने पोलिश यहूदियों की हत्याएँ कीं, हज़ारों पोलिश
नागरिकों को यहूदियों को शरण देने के कारण मार डाला गया फिर भी वह बाज़ नहीं आए, पोलैंड की तत्कालीन ‘देशभक्त भूमिगत सरकार’ ने यहूदियों को
संकट में डालनेवाले पोलिश नागरिकों को सज़ा दी, और इजराइल के ‘याद वाशेम संस्थान’ ने नात्सियों के ज़माने में यहूदियों की मदद करने
के लिए सबसे अधिक पदक पोलिश नागरिकों को ही दिए हैं.
उधर वामपंथियों ने ’ईदा’ को
यहूदी-विरोधी क़रार दिया है. वर्षावा के ‘यहूदी
ऐतिहासिक संस्थान’ की हेलेना दात्नर ने कहा है कि इस फिल्म की सह-नायिका यही
बतलाना चाहती है जो पोलिश लोग उन लोगों के बारे में सोचते हैं जो कभी सच्चा
समाजवाद लाना चाहते थे : कि एक वैसी यहूदिन (वान्दा ग्रूज़) रंडी और पियक्कड़ थी. वामपंथी प्रकाशन ‘क्रितीका पोलीतीचना’
की नारीवादी संपादिका आग्निएश्का ग्राफ़ का मानना है कि ‘ईदा’ सिर्फ एक इन्तकाम की
कहानी है जिसमें एक यहूदिन जज को अपने बहन-बहनोई को मारने के जुर्म में पोलिश लोगों को फाँसी की सज़ा देते दिखाया गया
है.
सच तो यह है कि सदियों के पारम्परीण यहूदी-ईसाई
द्वेष, हिटलर, दूसरे विश्व युद्ध, स्तालिन तथा पूर्व सोवियत संघ और ब्लॉक ने मिलकर सभी यूरोपीय देशों के बहुआयामीय इतिहासों को
शायद हमेशा के लिए बहुत जटिल बना डाला है और उनकी सारी गुत्थियों को सुलझाने के
लिए सामूहिक संतुलित मन-मस्तिष्क की दरकार
है. ’ईदा’ यह कहीं नहीं कहती
कि सभी ईसाई पोलिश नागरिक या किसान लालची हत्यारे थे या सभी यहूदी और वामपंथी
वास्तविक या काल्पनिक अपराधों के लिए ईसाई पोलिश नागरिकों से हिसाब बराबर कर रहे
थे. ईदा जैसे सैकड़ों बच्चों को करीब एक हज़ार कैथलिक कान्वेंट की सिस्टरों ने ही तो
बचाया था. यदि ’ईदा’ पर
यहूदी-विरोधी होने का आरोप है तो समनाम नायिका सभी को क्षमा करती हुई, सारे प्रलोभनों का त्याग करती हुई सन्यासिनी
बनती है. वान्दा ग्रूज़ का चरित्र भले
ही एक वैसी वास्तविक महिला हेलेना वोलिंस्का पर आधारित है, पर फिल्म में अपने गहरे
अपराध-बोध के कारण न्यायाधीश वान्दा आत्महत्या पर विवश होती है.
इसमें संदेह नहीं कि दक्षिणपंथियों, साम्यवादियों और तटस्थों तीनों के द्वारा ‘ईदा’
पर जो आपत्तियाँ उठाई गई हैं उनमें से भले ही बहुत कम लेकिन कुछ सही ज़रूर हैं. लेकिन निदेशक पाव्लिकोव्स्की का कहना है
कि मेरी फिल्म का का मक़सद न तो इतिहास पढ़ाना है और न दर्शकों को अतीत के बारे में
ज्ञान या उपदेश देना. इसे आप चाहें तो एक आध्यात्मिक कहानी कह सकते
हैं. ईदा की तलाश यह है कि वह ख़ुद है कौन – ईसाई,यहूदी या एक
मानवी ? क्या वह सचमुच एक कैथलिक सन्यासिन बनना चाहती है ? शराब और उच्छ्रंखल
सैक्स के माध्यम से अपनी आध्यात्मिक मृत्यु को निमंत्रण देने वाली उसकी मौसी
वान्दा उसे अपनी-ही जैसी ज़िंदगी की ओर ले जाना चाहती है लेकिन अंत में शास्त्रीय
संगीत सुनते हुए पश्चात्ताप की मृत्यु का ही वरण करती है, और वह किसान, जिसने ईदा के माता-पिता
को लोभवश मार डालने के लिए ही अस्थायी रूप से बचाया था, क्या रोते हुए उनकी कब्र खोदकर उनकी बची हुई करुण अस्थियाँ
भांजी-मौसी को नहीं सौंपता ?
यह सच है कि एक ठोस, ऋजु कथानक होते हुए भी ‘ईदा’ सही, सर्वोच्च अर्थों में एक ‘कला फिल्म’ है. इसे देखना उतना आसान नहीं है और इसकी व्यापारिक
कामयाबी तो नामुमकिन है. इसे जान-बूझकर काले-सुफ़ेद में बनाया गया है ताकि सेपिआ भी
दिखे और हमें अस्तित्व के ‘ग्रे’ यानी धूसर-संसार में ले जाए. इसे देखकर 1950-60 के दशकों के महान निदेशकों
की महान फ़िल्में याद आती हैं. ऐसा नहीं है कि
प्रबुद्ध भारतीय दर्शक को इसमें कुछ न मिलेगा लेकिन यदि आप यूरोप के पिछले सौ वर्षों
के इतिहास को कमोबेश जानते हैं, अंदरूनी यूरोप के
भूदृश्य से यत्किंचित् परिचित हैं,तो आप मनाते रहते हैं कि ऐसी फ़िल्में कभी ख़त्म न
हों.फिर आपको यह याद आता है कि हमारे देश में ही पिछले हज़ारों वर्षों के कितने दलित-हिन्दू-मुसलमान-सिख
कंकाल गड़े हुए हैं, हमने और हमारे
पुरखों ने कितनी हत्याएँ की हैं, हमारे जीवन, दिल
और दिमाग़ किस किस्म के श्मशान और कब्रस्तान हैं, हमारे बीच कितने हत्यारे इसी वक़्त मौजूद हैं और होते रहेंगे, तो आप पूछते हैं हमारे यहाँ ‘ईदा’ जैसी एक भी
फिल्म क्यों नहीं है ?
यहूदियों के मन पर Auschwitz (द डेथ फैक्ट्री) जैसी तमाम घटनाओं के घाव इतने गहरे हैं कि इस तरह की फ़िल्मों को तठस्थ हो कर देख पाने की संभावना कम ही होगी।
जवाब देंहटाएंइदा को जल्द ही देखूँगी।इस एक और बहुत बढ़िया पोस्ट के लिए एक और बार धन्यवाद।
अमानवीय Gulag और Holocaust के ज़ख्म आज भी स्मृतियों में हैं कि फ़िल्में अब भी बन रही हैं और इन्हें निरपेक्ष होकर देखना संभव नहीं. Schindler's List,The Boy in the Striped Pajamas जैसी फ़िल्में जब आप देखते हैं तो आपके लिए इनसे बाहर आना बहुत कठिन हो जाता है. ईदा ज़रूर देखूंगी . ऑस्कर ऐसी फ़िल्मों को मिलता है, स्टुपिड !समालोचन की इस पोस्ट के लिए शुक्रिया.
जवाब देंहटाएंसमीक्षा फ़िल्म देखन के लिए कह रही है।
जवाब देंहटाएंबेहद संतुलित और नितांत प्रभावी
जवाब देंहटाएंविष्णु जी की खरी समीक्षा ने इदा को देखने के लिए प्रेरित किया है. इस बेहतरीन पोस्ट के लिए शुक्रिया समालोचन.
जवाब देंहटाएंबचपन में माँ पिता जी के साथ नाज़ी और यहूदीयो के संघर्ष की रौंगटे खड़े करने वाली फिल्मे देखी थी ... नाम याद नहीं है पर हां .. अजीब लगता रेल और लोग भेजे जा रहे काम करते हुए मारे जाते हुए .... ४-५ उपन्यास भी पढ़े ..... बाद में Schindler's list कई कई बार देखी .. पर कभी भी ये पिक्चेर इनकी कहानिया कितनी भी बार देखने के बाद भी बोर नहीं करती थी बल्कि हर बार उतनी ही असहज, उतनी ही अमानवीय और परिवेश भी अलग सो नयापन ही होता ..... शायद यह भी उसी तरह की कहानी हो ... एक भीड़ एक समाज का दुसरे समाज के साथ कैसा व्यवहार था हम भी जानते हैं फिर भी कभी कभी मानवीय संवेदनाओं में हेर फेर हो सकती है व्यक्तिगत तौर पर कोई पात्र समाज से अलग भी जा सकता है ... अतः फिल्म इतिहास को सिद्ध करने वाली प्रमेय नहीं होती जब तक उस पर ऐसी मोहर न हो ... ईदा की इस समीक्षा ने ईदा के प्रति मन में एक रुझान पैदा किया है अतः ईदा तो अब देखनी बनती है ... समालोचन को धन्यवाद
जवाब देंहटाएंउम्दा फिल्म है।इदा ठंडी,श्वेत श्याम,सन्नाटे,वैराग्य और लिप्सा ,जीवन की शर्तों और आदर्शों की फिल्म है।
जवाब देंहटाएंसर्वसु/श्री अपराजिता शर्मा,अर्पणा मनोज,सारंग उपाध्याय,ब्रजरत्न जोशी,संतोष चतुर्वेदी,डॉ नूतन डिमरी गैरोला-नीति तथा अर विन्द को बहुत धन्यवाद कि उन्होंने ‘’ईदा’’ की इस समीक्षा को इतना सराहा.सबसे बड़ी चीज़ मुझे यह लगी कि आप सबको नात्सियों द्वारा यहूदियों पर किए गए पाशविक अन्यायों-अत्याचारों का बख़ूबी पता है और आप पुराने-नए यूरोप की भयावह समस्याओं से भी परिचित हैं.ऐसे कई मित्र और होंगे जिन्हें फिल्म की चर्चा उपयोगी लगी होगी लेकिन अपने-अपने कारणों से लिख नहीं पाए होंगे.’नवभारत टाइम्स’ में ऐसी चीज़ों के लिए पत्र-प्रतिक्रिया स्तम्भ की गुंजाइश तो निकल नहीं सकती लेकिन भूले-भटके कुछ फ़ोन और एस एम एस आ जाते हैं.’समालोचन’ जैसे सार्थक और संजीदा ब्लॉग पर पत्रों के साथ-साथ प्रकाशित होने का अर्थ और महत्व कुछ और ही होता है.शायद अर विंद जी ने फिल्म देख ली है,उनकी टिप्पणी में ऐसी ध्वनि है, वर्ना शेष सभी ने ‘’ईदा’’ देखने की जो उत्कंठा प्रकट की है उससे मालूम होता है कि उन्हें उसका महज़ बयान ही कितना सार्थक लगा है.यदि आपके पास कम्यूटर ‘परिवार’ का कोई भी ‘सदस्य’ है तो आप जानते ही हैं कि ’’ईदा’’ जैसी फिल्मों को डाउनलोड करना ‘’ग़ैरक़ानूनी’’ भले ही हो,कठिन वह बिल्कुल नहीं है.आप सभी लोग साहित्य की किसी-न-किसी विधा से सर्जनात्मक रूप से जुड़े हुए हैं,सुश्री नूतन गैरोला की उम्दा नई कविताएँ अभी-अभी पढ़ने को मिली हैं,और मेरी कामना है कि ‘’ईदा’’ जैसी फ़िल्में हम सब को अधिकाधिक देखने को मिलें क्योंकि कम-से-कम मेरे हक़ीर लेखन,और जीवन में भी, अच्छा सिनेमा शुरू से ही बहुत मदद कर रहा है.
जवाब देंहटाएंविष्णु जी आपकी टिप्पणी पढ़ी अभी. इन दिनों मैं सार्त्र का एक निबन्ध पढ़ रही हूँ . हिंदी में मिलता तो शायद और बेहतर इसे समझ पाती . Anti-Semite and Jew. घृणा की बीमारी की खोज का दस्तावेज है ये. ईदा को डाउनलोड करुँगी. यद्यपि मैं किसी ख़ास विचारधारा से नहीं जुडी हूँ पर समाज को घर बैठ कर देखने का पर्सपेक्टिव तो तैयार हो ही सकता है . आपके लेख यहाँ , इस संजीदा मंच पर पढ़ती रही हूँ . आपका हेब्दो वाला लेख यहीं पढ़ा था.
जवाब देंहटाएंआपका बहुत -बहुत शुक्रिया विष्णु जी . सादर ! अपर्णा मनोज
पत्र देखा और मुम्बई में हुई मुलाकात की याद भी आई। सम्मान की बात है की देश के इतने बड़े फ़िल्म समीक्षक ने इस तरह याद किया। फ़िल्म अब अब डाउन लोड की जायेगी।
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