परख : हत्या की पावन इच्छाएँ (भालचन्द्र जोशी) : राकेश बिहारी














प्रेम, प्रकृति और पुनर्वास का त्रिकोण       
राकेश बिहारी



थार्थ और कला हमेशा से हिन्दी कहानी में दो स्कूल या शैली की तरह ही नहीं बल्कि परस्पर प्रतिद्वंद्वी रचनात्मक धाराओं की तरह आमने-सामने होते रहे हैं. जाने अंजाने प्राय: यह भी माना जाता रहा है कि कलात्मकता सामाजिक सरोकारों से विमुख होती है. कई बार कलाविहीनता को जनपक्षधरता की अनिवार्य शर्त की तरह भी पेश किया जाता रहा है. भालचंद्र जोशी की कहानियाँ कला और यथार्थ की परस्पर प्रतिद्वंद्विता से उत्पन्न ऐसे चालू निष्कर्षों का सार्थक और प्रामाणिक विलोम रचती हैं. इनके छठे कहानी-संग्रह हत्या की पावन इच्छाएँ में संकलित कहानियों में भी इनकी ये विशेषताएँ सहज ही रेखांकित की जा सकती हैं. इन कहानियों में यथार्थ न तो किसी ठूंठ अवधारणा की तरह प्रकट होता है न कला सिर्फ कला के अवयवों की तरह उपस्थित होती है. बल्कि कला और यथार्थ का एक ऐसा संतुलित और रचनात्मक सहमेल इन कहानियों में देखा जा सकता है जो  समय और उसकी दरारों में सहजता से स्थित असहज करनेवाली सच्चाईयों को कलात्मक दक्षता के साथ अनावृत करता चलता है. नंगी आँखों से देखा जाने वाला और त्वचा की ऊपरी सतह से महसूस किया जाने वाला यथार्थ कैसे एक प्रभावशाली और दीर्घजीवी कथारूप में परिणत होता है इसकी रचनात्मक समझ विकसित करने के लिए भी इस संग्रह की कई कहानियों को पढ़ा जा सकता है. उदाहरण के तौर पर मैं यहाँ संग्रह की दो महत्वपूर्ण कहानियों राजा गया दिल्ली और पल-पल परलय को उद्धृत करना चाहता हूँ.

दोनों में से एक गोरी रंगत वाला लंबे कद का जगन्नाथ है जो पचास की उम्र तक आते-आते सम्बोधन की गंवई सुविधा में घिसकर जगन रह गया है. दूसरा औसत ऊंचाई का साँवले रंग का कालू है. वह कालू ही पैदा हुआ था और आज इस संक्षिप्त नाम कालू से जाना जाता है. इस सम्बोधन से उसे कोई एतराज भी नहीं है. हालांकि जगन को भी कभी जगन्नाथ कहलाने की ख़्वाहिश पैदा नहीं हुई लेकिन उसे इतना याद है कि कभी उसका नाम जगन्नाथ हुआ करता था. संग्रह की महत्वपूर्ण कहानी राजा गया दिल्ली की इन पंक्तियों में कलात्मकता के भीतर गहरे पैठे उस सामाजिक विमर्श को पहचाना जा सकता है जिन पर यथार्थवादी कहानियों के पैरोकार जाने कब से अपनी कॉपी राइट सुरक्षित कराये रखने के विशिष्टताबोध में जीते रहे हैं. आज जब नामों का संक्षिप्तीकरण एक फैशन होता जा रहा है, नामों की घिसाई के पीछे के तिक्त  सामाजिक यथार्थ को भालचंद्र जोशी यहाँ एक कलात्मक सधाव के साथ अभिव्यक्त करते हैं. कालू का कालू सम्बोधन पर ऐतराज न होना और जगन के भीतर अपने वास्तविक नाम जगन्नाथ से पुकारे जाने की ख़्वाहिश पैदा न होना महज एक ऐसे व्यक्ति का सच नहीं है जो पहचान का महत्व नहीं जानता बल्कि इसके पीछे प्रताड़णा और वंचना की सुनियोजित साजिश की लंबी कहानी है जिसकी जड़ें हमारी मांस-मज्जा में गहरे धँसी हुई हैं. 

यह कहानी जिस तरह वर्ग और नाम के अंतर्संबंधों के पीछे काम करनेवाली संहिताओं के रगो-रेश में उतरने के साथ शुरू होकर शनै:-शनै: शासक और शोषित वर्गों के चरित्र का समाजशास्त्रीय मूल्यांकन करती है वह बहुत ही प्रभावी है. मंत्री जी के नाम सरपंच की सिफारिशी चिट्ठी और दो-चार दिनों के खाने की पोटली लिए कालू और जगन मंत्री जी से मिलने शहर क्या जाता है, उसके भीतर भय, आशंका, संस्कार, उम्मीद, उपेक्षा, और आशा-निराशा की एक गहरी कश्मकश साथ हो लेती है जिसका पटाक्षेप एक लम्बी प्रतीक्षा के बाद मंत्री जी द्वारा ठगे जाने के साथ होता है. यह भालचन्द्र जोशी की रचनात्मक कल्पनाशीलता है कि वे लंबी उम्मीद और प्रतीक्षा के बाद ठगे जाने के साथ कहानी का अंत नहीं करते बल्कि जगन और कालू को कुछ और आगे ले जाते हैं दोनों चलते हुये उसी मंदिर के पास से निकले तो आदत अनुसार प्रणाम के लिए दोनों के हाथ उठे फिर सहसा रुक गए, देखा, मंदिर के दरवाजे पर ताला लगा है. लंबी उम्मीद के नाउम्मीदी में बदलेने के साथ जब मनुष्य के भीतर की आस्था क्षतिग्रस्त होती है तो जाने कितने भगवानों के मंदिर पर ताला जड़ जाते हैं. कहानी मंदिर के दरवाजे पर ताला लगाने में नहीं बल्कि प्रणाम के लिए उठे हाथ के रुक जाने में है, वरना बंद पट के बावजूद दंडवत होनेवाले भक्तों की कोई कमी नहीं है.

आर्थिक उदारीकरण के बाद जहां एक खास तबके की दहलीज चमचमाती रोशनी से रोशन हुई है है वहीं प्रलोभनों के जंजाल में फंस कर समाज का एक तबका लगातार निस्तेज भी हुआ है. मांगन मरन समान है के सिद्धान्त के विपरीत आज कर्ज लेना-देना एक व्यवसाय के रूप में लगातार विकसित हो रहा है. लेकिन विडम्बना यह है कि एक तरफ रोशनी से नहाये वर्ग के लिए सरकार की कर्ज नीति लगातार उदार होती जा रही है तो वहीं स्याह अंधेरे में डूबा व्यक्ति कर्ज लेने के बाद रिकवरी एजेंट्स से बचते-फिरने के बाद एक दिन आत्महत्या को विवश हो जा रहा है. यद्यपि कुछ छोटे-बड़े प्रलोभनों के बूते व्यवस्था उन्हीं लोगों के बीच अपने पैरोकार भी पैदा कर रही है लेकिन प्रलोभन की रोशनी में चमकते उनके तर्क तभी तक मुखर होते हैं  जबतक आग उनके अपने घर में नहीं लगती है. इस व्यवस्था ने सबसे ज्यादा जिसे अपना शिकार बनाया है वह है किसान वर्ग. यह अकारण नहीं है कि एक  तरफ खुद व्यवसायी वर्ग जहां खुद को दिवालिया घोषित कर अपनी समस्त लेनदारियों से मुक्त हो रहा है  तो दूसरी तरफ कर्ज के बोझ से झुका किसान आत्महत्या को मजबूर हो रहा है. संग्रह की एक और कहानी पल-पल परलय किसानों की आत्महत्या से जुड़े मसले को बहुत शिद्दत से उठाती है. अधिक पैदावार के प्रलोभन में धरती को बंजर करने वाले बीज और अधिक मुनाफे के प्रलोभन में आत्महत्या को विवश करनेवाली सरकारी कर्ज नीति  ने जिस तरह की त्रासदियों को जन्म दिया है उसे इस कहानी में आसानी से देखा जा सकता है.   

यथार्थ को कला के साथ जोड़ कर घटनाओं के प्रभावी निरूपण की जो कथा-प्रविधि राजा गया दिल्ली और पल-पल परलय में हमें उत्साहित करती है वही अपनी अतिशय कलात्मकता के कारण नदी के तहखाने  में उलझाती भी है. इस कहानी के केंद्र में डूब, प्रेम और पुनर्वास है. लेकिन यदि इसी कहानी की एक पंक्ति को सूत्र के रूप में इस्तेमाल करें तो यह कहानी प्रकृति के सरलतम यथार्थ को अबूझ बनाकर फिलौसफी की ओर टाल देती है.  डूब और पुनर्वास की समस्या में उतरती यह कहानी जिस तरह दार्शनिकता के आवरण में लिपट कर दांपत्य और देह के अबूझ गुंजलक में उलझ जाती है उससे कहानी में कला और यथार्थ का अनुपात बिगड़ जाता है. लेकिन संग्रह की एक अन्य कहानी प्रेम गली अति साँकरी में भालचन्द्र जोशी प्रेम की विरल अनुभूति को संवेदना के सूक्ष्मतम स्तर पर अभिव्यक्त करते हैं. अपरा और नमिता के सूक्ष्म मानसिक हरकतों को जिस तरह यह कहानी दर्ज़ करती है वह बहुत ही जीवंत और स्पर्शी है. प्रेम, जिसका कोई निश्चित रसायन नहीं होता हमारे जीवन को किस तरह प्रभावित करता है, कामनाओं के कोमल रेशमी तन्तु कब-कैसे तन-सिकुड़ कर हमारे जीवन-व्यवहार को उद्वेलित करते हैं उसे नमिता के भीतर आकार ले रहे बदलावों में महसूस किया जा सकता है. नमिता, जो मूलत: एक पढ़ाकू लड़की है और जिसका प्रेम से दूर-दूर तक कोई रिश्ता नहीं है जब अपने भीतर प्रेम के आलोड़न महसूस करने लगती है तो जैसे उसके अंतस और बहिर्जगत के अंतर्संबंधों के सारे व्याकरण बदल जाते हैं. प्रेम, प्रकृति और मानव मन के बीच घटित होनेवाली अभिक्रियाओं के अनकहे संवादों की मजबूत ध्वनियाँ मौजूद हैं इस कहानी में. 

भालचन्द्र जोशी की कहानियों का मर्म प्रेम में विन्यस्त है. लेकिन यह प्रेम समय और समाज से कटे युगल के बीच का वायवीय भावोच्छवास भर नहीं है बल्कि समय, समाज और मानवीय व्यवहारों के जीवंत तार ही इन कथा-पात्रों को परस्पर आबद्ध रखते हैं. गहरी उम्मीद और रह-रह कर डराती आशंकाओं के बीच जीवन और मृत्यु की संभावनाएं हमारे भीतर प्रार्थना के लिए जगह बनाती हैं. लेकिन एक दूसरे के प्रेम में डूबे दो लोगों के तात्कालिक हित आपस में टकराते हैं तो उनकी प्रार्थनाएँ अलग-अलग उम्मीद और अर्थ-विधान ले कर उपस्थित होती हैं. ऐसे में प्रार्थनाओं की परस्पर अदला-बदली या एक की प्रार्थना में दूसरे की प्रार्थना का विस्तार आस्था और ईश्वर की नईनई परिभाषाएँ गढ़ता है. संग्रह की अत्यंत ही महत्वपूर्ण कहानी प्रार्थना आलोक और कंचन के प्रेम-व्यवहार के बहाने  प्यार, आस्था, प्रार्थना और नियति की टकराहटों से उत्पन्न ऐसी ही मर्मभेदी स्थितियों को हमारे सामने लाती है.

प्रेम, प्रकृति और पुनर्वास के त्रिकोणीय भूगोल में स्पंदित होती ये कहानियाँ यथार्थ को देखने-परखने का एक ऐसा रचनात्मक परिवेश तैयार करती हैं जहां समकालीनता को तात्कालिता में परिसीमित करने की कोई हड़बड़ी नहीं है. अनुभव और कलात्मकता की संयुक्त आंच पर पकी ये कहानियाँ यथार्थ की जमीन पर खड़ी हो कर यथार्थ के पार जाने का रचनात्मक उद्यम हैं.
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राकेश बिहारी
संपर्क: एन एच 3/सी 76, एनटीपीसी, पो.-विंध्यनगर, जिला - सिंगरौली 486885 (म. प्र.)
मो.-  09425823033   ईमेल - biharirakesh@rediffmail.com

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  1. बहुत अच्छी समीक्षा की है राकेश बिहारी जी ने.

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  2. bahut achhi samiksha.badhai rakesh ji ko

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  3. रूप और यथार्थ का अनबोला तो आज भी है. पर हमें आज भी कुछ कहानियां खूब बेचैन कर देती हैं..उसने कहा था, रजुआ, परिंदे,गदल .....अज्ञेय की लम्बी कहनी (उपन्यासिका) अपने अपने अजनबी भले ही सफल कहानी न रही हो पर सेल्मा और योके मेरी फ़िक्र में शामिल हो गए थे.
    भालचंद्र जी को मैंने नहीं पढ़ा है, पर आपकी समीक्षा वहां ले जायेगी मुझे.

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