कला कृति Abdullah M. I. Syed
राकेश बिहारी कथा–आलोचना में सक्रिय हैं. वह खुद कथाकार भी हैं. उनका कहानी संग्रह ‘वह सपने बेचता था’ प्रकाशित है. प्रतीक्षा कहानी फाइनान्स में कार्यरत एक ऐसे युवा की कहानी है जो दुनियावी नज़र में सब कुछ पा लेने के बाद भी न जाने किस चीज़ की प्रतीक्षा में है. कहानी का शिल्प कथ्य के अनुसार है और उसमें आफिस के रोजमर्रा के जीवन के ब्योरे दर्ज़ हैं. कहानी आपके सामने है. पढिये और कहिये कैसी लगी.
प्रतीक्षा
राकेश बिहारी
गहरी मशक्कत के बाद आज देर
शाम ऑडिटर ने बैलेंस शीट साइन कर दी. मिस्टर देसाई का शांत चेहरा उनकी नसों में एक
रेशमी सुकून के उतरने
की
गवाही दे रहा था.
बैलेंस शीट तो साइन होनी
ही थी,
लेकिन
उन्हे सुकून इस बात का था कि अकाउंट्स सेक्शन के हेड तेजपाल की नीच और चापलूस
हरकतों से
खुश
होकर ऑडिटर जाते-जाते अपनी सारी बड़ी क्वालिफीकेशन्स ड्रॉप कर गया. मैं तो बस इस
बात से खुश था कि पूरे एक महीने और तेईस दिन के बाद कल पहली बार दफ्तर में लेट
सिटिंग नहीं करनी होगी.
मिस्टर मोहन का फोन नहीं लगा.
उनका हवाट्सऐप भी
शायद
बंद पड़ा है. पिछले साल बैलेंस शीट साइन होने के बाद देर रात तक हमदोनों ओफिसर्स
क्लब के बार में बैठे रहे थे. ह्वाइट मिसचीफ वोद्का और फ्रेश लेमन जूस की तांबई घूंट के साथ अहमद
हुसैन महमद हुसैन की आवाज़ का जादू किसी खूबसूरत नशे की तरह हमारे रगो रेश में घुल
रहा था- "मैं
हवा
हूँ,
कहाँ
वतन
मेरा,
दस्त
मेरा
न ये चमन मेरा..." संयोग से उस दिन हम दोनों के अलावा कोई और बार में नहीं था और वह कमसिन पहाड़ी बार ब्वाय मिस्टर मोहन के कहे पर
बार बार अहमद-महमद की वही ग़ज़ल प्ले करता जा रहा था. दफ्तर की महीन राजनीति से
शुरू होकर मीर-गालिब के दर्शन तक की ऊंचाई और गहराई मापती वह रात आज भी मेरे जेहन में उसी तरह ताज़ा है. कुछ
रातें बीत कर भी कहाँ बीतती हैं!
आज भी सोनाली देर तक
अपनी छत पर मेरा इंतज़ार करने
के बाद नीचे किचेन में चली गई. वहाँ मोबाइल का
नेटवर्क ही नहीं आता लिहाजा अब उसे भी फोन नहीं किया जा सकता, और जबतक वह ऊपर
अपनी स्टडी में आएगी उसे फोन करने का समय बीत चुका होगा. पूरे ऑडिट के दौरान
उससे ठीक से बात नहीं हुई है. पिछले संडे जब तेजपाल ऑडिटर को ज्वालामुखी मंदिर दर्शन के
लिए लेकर गया था,
उम्मीद थी उससे ठीक से बात हो पाएगी, लेकिन उस दिन उसे कनाडा से आए अपने
भाई-भाभी और उनके बच्चों के लिए गिफ्ट लेने बाज़ार जाना था.
पिछले हफ्ते शैलेंद्र
का फोन आया था. सचिवालय सहायक वाली परीक्षा के परिणाम पर लगा कोर्ट का स्टे ऑर्डर हट गया है.
शायद अगले ही महीने वह ज्वाइन कर ले. हमारी सर्किल में एक वही तो था जो अब तक कहीं
सेटल नहीं हो सका था. उस दिन तो
काम के दबाव में मैंने नहीं सोचा लेकिन अब लग रहा है कि यदि उस दिन हम साथ होते तो
यह हमारे लिए सेलिब्रेशन की शाम होती. सेलिब्रेशन का शायद ही कोई ऐसा मौका रहा हो
जब हमने ब्लैक
टी की गरम घूंट में घुली
उसकी आवाज़ में जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लेने का फकीराना उत्सव न
मनाया हो! शैलेंद्र हमारी सर्किल में सबसे ज्यादा शार्प और टैलेंटेड था, लेकिन उसकी खुशी ही
सबसे ज्यादा स्थगित होती रही थी. अब आई भी है तो पूरी तरह नहीं. अभी उसे अनुकूल
जगह पर पोस्टिंग के लिए दो लाख रुपये देने होंगे, वरना पता नहीं उसे किस इंटीरियर में
फेंक दिया जाएगा. यह वही शैलेंद्र है जो हम सब में सबसे ज्यादा आदर्शवादी था.
यशवंत की दीदी की शादी में जाते हुये जब हम रात को गहरी नींद में होने के कारण नागपुर के बदले चंद्रपुर तक चले गए थे, उसने टी टी को पूरे
नियम कानून के मुताबिक जुर्माना सहित भाड़े का अंतर भुगतान करके सरकारी रसीद ली थी.
टी टी तो कुछ ऊपर के पैसे लेकर हमें सस्ते में छोडने को तैयार था लेकिन उसकी आदर्शवादी
जिद ने हम सबकी जेबें हल्की करवा दी थी.
वक्त हमें कितना कुछ सिखा देता है! पता नहीं अबतक वह पैसों का जुगाड़ कर पाया या नहीं.
किसी
रालेगण सिद्धी या रामलीला मैदान में जूम होता कैमरा क्या कभी इधर की भी रुख करेगा? खैर, कल सुबह ही उसे फोन
करूंगा.
नसें चटख रही हैं.
कनपटी के ऊपर नीली धारियाँ उग आई
हैं.
अकेलेपन को धकेलने के
लिए रेडियो ऑन करता हूँ.
एफ एम गोल्ड पर जगजीत
सिंह की हरारत भरी आवाज़ गूंज रही है- ‘सीधा-सादा डाकिया जादू करे महान, एक ही थैली में भरे आँसू
और मुस्कान...’
और अब पंकज उधास –
‘चिट्ठी आई है, आई है चिट्ठी आई
है...’ रेडियो जौकी की आवाज़
जो अमूमन चहकती-फुदकती रहती है, ने आज एक गाढ़ी-सी भाव
प्रवण उदासी ओढ़ रखी है. आज के एपीसोड का थीम है-
चिट्ठी. मुझे सहसा पंकज और मुरारी के साथ मुजफ्फरपुर के जवाहर टॉकीज में देखी
फिल्म ‘मैंने
प्यार किया’
की भाग्यश्री की खूबसूरत और मासूम लेकिन दर्द में डूबी आँखें याद हो आती हैं – ‘कबूतर जा जा जा...
पहले प्यार की पहली चिट्ठी साजन को दे
आ...' पता नहीं वे दोनों
अब कहाँ हैं! पंकज के मामाजी ने जरूर उसकी नौकरी लगवा दी होगी. मुरारी अपनी योजना
के मुताबिक शायद बाज़ार समिति में अपने जीजाजी की गल्ले की गद्दी संभाल रहा हो.
कितनी शार्प थी उसकी नंबर मेमोरी... किसी गाड़ी का नंबर प्लेट एक बार देख भर ले वह, नंबर हमेशा के लिए
उसके दिमाग में स्कैन हो जाता था. मुझे तो नंबर याद ही नहीं रहते, सब आश्चर्य करते
हैं- फाइनांसवाला होकर भी इतनी वीक
नंबर मेमोरी! लेकिन लिखावट मैं कभी भी नहीं भूलता. मेरी फाइलों और ड्राअर में
सुरक्षित
अनगिनत सफेद-पीले-ज़र्द
खतों की हस्तलिपियों में जाने कितने अपने-परायों के अक्स कैद हैं- समय और अहसासों की बेपनाह सिलवटें और खूशबू
समेटे. हर दिल अज़ीज़ गौहर रज़ा शब्बा खैर कहते हुये माइक्रोफोन से दूर हट
चुका है–
‘चिट्ठी न कोई संदेश, जाने वो कौन सा देश
जहां तुम चले गए...’
जगजीत सिंह की पुरसुकून आवाज़ मेरी आँखों में जुगनू
बन कर कौंधती है. मैं लाइट ऑन करता हूँ. रीडिंग टेबल की ड्राअर में कब से उपेक्षित
पड़ा लेटर पैड मेरी हल्की-सी छुअन भर से कुनमुनाया
है- ‘कहाँ थे अबतक? कबसे तुम्हारी राह देख
रहा हूँ?’
किसी गहरे कुंये से आती-सी उसकी आवाज़ को
मैं बिना किसी देरी के पूरी इज्जत बख़्शता हूँ! लैपटॉप की तरफ देखता भी नहीं. लेटर
पैड की बोसीदा गंध को मेरी लिखावट की गर्मी ने हौले-हौले
पिघला कर भाप बनाना शुरू कर दिया है...
मोहन सर!
आज बैलेंस शीट साइन
हो गई और आप बहुत-बहुत याद आए.
इस बार तेजपाल ने तो
सारी हदें पार कर दीं. उस खूसट ऑडिटर के तो वह पैर ही पड़ गया- 'आप मेरे पिता जैसे
हैं, मुझे आशीर्वाद
दीजिये कि हम हर क्वार्टर और ईयर एंड में समय से पहले अपना अकाउंट सबमिट कर पाएँ!' मुझे आश्चर्य से ज्यादा उस पर
गुस्सा आ रहा था कि एक प्रोफेशनली क्वालीफाइड इंसान इतना कैसे गिर सकता है!
कल प्रसाद जी का
फेयरवेल हुआ. हमेशा की तरह वह देरी से आया, एच ओ डी के भी बाद, और वह भी हाथ में ‘कॉस्ट शीट’ लिए हुये. जबतक यह
है, यहाँ कुछ नहीं बदलने
वाला. हफ्तों चुपचाप रहने के बाद आखिरी मोमेंट में इमरजेंसी क्रिएट कर शाम को
रोकनेवाली इसकी आदत अबतक नहीं गई. आपको याद है, मुझे इसकी इस आदत से
कितनी कोफ्त होती थी. पर अब मैंने भी खुद कों समझा लिया है. सारे दिन गूगल बुक्स
पर किताबें पढ़ता हूँ और शाम कों एम आई एस की फाईल या कोई वाउचर लेकर हाँफते-काँपते
उस तक जरूर हो आता हूँ. वह मेरी मिहनत से बहुत खुश है इन दिनों.
पिछले हफ्ते रीजनल कल्चरल मीट सम्पन्न
हुआ. इस बार का थीम था- पंचतत्व. बिलासपुर
यूनिट ने बहुत अच्छी नृत्य नाटिका प्रस्तुत की. अपने मिस्टर देसाई को छोड़ के सारे
एच ओ डी’ज़
आए थे. अगली सुबह हाजिरी बनाते हुये उनसे पूछा तो वही पुराना जवाब– ‘फाइनेंस में रहते
हुये यह सब भूल जाना पड़ता है’ और मुझे ऐसी निगाहों से देखा जैसे
मैंने जाकर कोई अपराध कर दिया हो. लेकिन ई डी- मिस्टर वर्मा के पब्लिक फेयरवेल
में वह सबसे पहले आ गए थे. मुझसे हिन्दी में भाषण भी लिखवाकर रख लिया था. झेंप
मिटाने के लिये प्रोटोकॉल का बहाना बनाया, लेकिन आप तो जानते
ही हैं कि मिस्टर वर्मा बहुत जल्दी बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स में शामिल
हो रहे हैं इसलिए...
हाँ, एक और मजेदार बात-
पिछले महीने कारपोरेट
से
मिसेज मूर्ति आई थीं. मिस्टर देसाई
ने उन्हें अपने घर डिनर पर बुलाया था. जब वे उन्हें लेने गेस्ट हाउस गए, मिसेज मूर्ति संध्या वंदन कर रही
थीं. उसके बाद तो बिना आगे-पीछे देखे मिस्टर देसाई ने खुद के आस्तिक और पूजापाठी
होने का बकायदा प्रमाण ही पेश कर दिया- गायत्री मंत्र और दुर्गा सप्तशती के कुछ
श्लोकों का सस्वर पाठ कर के. हम अबतक नाहक ही उन्हें चंपू और कम बोलनेवाला समझते
रहे थे...
बॉटम टेन परसेंट मे आनेवालों
को एनुअल इनसेंटिव नहीं मिलने के कारण लोगों में बहुत रोष है. मिनिस्ट्री की गाईड लाईन के नाम पर एसोसिएशन भी अपने हाथ
खड़े कर चुका
है.
लेकिन लगभग
हर तीसरे दिन दिखावटी
गेट मीटिंग हो
रही
है. एक दिन हमने काला रिबन भी लगाया. मल्लिक जैसों ने इस गाईड लाइन की आड़ मे नया
धंधा शुरू कर दिया है. सुना है ये लोग सी आर में अच्छे अंक देने के लिए अपने
सबार्डिनेट्स से एनुअल इनसेंटिव में हिस्सा मांगने लगे हैं.
खैर, बातें तो बहुत सारी
हैं जो कभी खत्म भी नहीं होंगी. दफ्तर की कहानियों के चक्कर में मैंने आपकी खैरियत
भी नहीं पूछी. नौकरी से अवकाश ग्रहण करने के बाद कैसा लग रहा है? रश्मि मोरवाल ने फिर
फोन किया कभी?
शायद न किया हो, वरना आपने बताया जरूर होता. खैर, यह तो होना ही था... हम ठीक सोचते थे कि
वह तभी तक भाव देगी जबतक आप उसे कवि सम्मेलन में बुलाने की स्थिति में रहेंगे.
हमारी पड़ोसन मां बननेवाली है. एकदिन हमारे घर आई थी तो आपके बारे में
पूछ रही थी. क्लब
की
पार्टीज़ में
जब भी उसे देखूँ आपकी याद जरूर
आती है.
अपना ध्यान रखिएगा...
मॉर्निंग वॉक पर जा रहे हैं न? मेरा तो आपके जाने के बाद छूटा सो अबतक
छूटा ही है.
आपका स्नेहाधीन
हेमंत
चिट्ठी लिखने के बाद
जैसे मिस्टर मोहन की कमी और ज्यादा खलने लगी है. जबतक वे यहाँ थे, मैं लगभग हर सुबह उनकी
केबिन में
जाता
था. दफ्तर
की उठापटक से लेकर फिल्म, संगीत, साहित्य और दुनिया जहान की कितनी
बातें हम किया करते थे. फाइनेंस डिपार्टमेन्ट में होकर भी कभी हमने एक टीपिकल फाइनेंस
वाले की तरह व्यवहार नहीं किया. वरना मिस्टर
देसाई और तेजपाल जैसे लोग तो जन्मजात मुनीम हैं और बने भी रहना चाहते हैं. मैं फोन की फोटो गैलरी में जाता हूँ. आठ महीने
हो गए पर मिस्टर
मोहन की फेयरवेल पार्टी जैसे कल की ही बात लगती है... उस पार्टी के लिए
कितना उत्साहित था मैं. सारा दिन घूम-घूम कर लोगों के साथ खाने-पीने, बुके, मोमेंटों आदि की
व्यवस्था में लगा रहा. कितनी सारी बातें सोच रखी थी उनकी विदाई के मौके पर कहने के लिए लेकिन
एन मौके जैसे मैं सब कुछ भूल गया या मेरी आवाज़ ही बंद हो गई...
मेरी आँखों के कोर एक बार
फिर से पनिया गए हैं.
पंखे की आवाज़ के
बावजूद मेरे दिल की धड़कन मुझे साफ-साफ सुनाई पड़ रही है...
एक सांस में पानी की पूरी
बोतल गटक जाता हूँ...
छत की सफेदी सामने पड़ी चिट्ठी पर गिरती है. उसे डस्टबिन में
झाड़ने
के बाद लेटर
पैड
एक बार फिर से मेरे हाथों में है-
प्रिय शैलेंद्र,
कैसे हो? उस दिन जब तुम्हारा
फोन आया मैं ऑडिटर्स के साथ था.
अकाउंट सबमिशन की लास्ट डेट सिर पर थी. ठीक से तुम्हारी खुशी में शामिल नहीं हो
पाया. माफ करना.
यह पूछते हुये भी
अजीब लग रहा है कि रुपये का बंदोबस्त हुआ या नहीं? तुम जानते ही हो कि
जबसे होम लोन की ई एम आई कटने लगी है, हाथ टाइट हो गया है. सिर्फ आठ
हजार रुपये ही तुम्हारे खाते में रख पाया था. लेकिन वह भी किसी तकनीकी दिक्कतों के
कारण वापस आ गया. कल बैंक स्टेटमेंट देखने पर पता चला. दो लाख में आठ हजार की क्या
औकात,
पर
मन निराश हो गया.
इन दिनों बहुत अकेला
महसूस करता हूँ. यशवंत, राजीव, नवीन सब तो अपने काम
में व्यस्त हो गए. एक तुमसे ही लगातार संवाद बना हुआ है... अब तुम भी व्यस्त हो
जाओगे. पर तुम बच्चों को चेस सिखाने का सिलसिला मत छोडना. चेस तुम्हारा पहला
प्यार है. मैं इस सपने को हमेशा तुम्हारी आँखों मे चमकते देखना चाहता हूँ.
बिटिया कैसी है? अब तो बड़ी हो गई होगी.
किस क्लास में गई? उसे मेरा प्यार देना. दिव्या से मिले मुझे छ: महीने हो गए. उसे तो
मैं अपने साथ ही रखना चाहता था लेकिन अनुष्का को यह मंजूर नहीं था. तुम तो जानते हो कितनी
मानिनी है वह. दिव्या का खर्च उठाने का मेरा प्रस्ताव भी उसने नहीं माना. पता नहीं
एन जी ओ की छोटी-सी नौकरी में कैसे
चलता होगा सबकुछ. दो
दिन पहले जब वह घर पर नहीं थी, दिव्या ने फोन किया था - 'पापा, मुझे कैडबरी का बड़ा
वाला गिफ्ट
पैक चाहिए,
ममा
नहीं दिलवाती, कहती है- दाँत खराब हो जाएँगे'. इस संडे उससे जरूर
मिलने जाऊंगा.
तुम्हारी पोस्टिंग
शायद शहर से दूर हो. ऐसे में तुम्हें और भाभी को अलग-अलग नौकरी पर
जाने में कुछ शुरुआती कठिनाई होगी, पर हड़बड़ी में उनकी नौकरी छुडवाने का
कोई निर्णय मत कर बैठना. धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा. उनका नौकरी करना तुम दोनों के
हक में है,
बिटिया के हक में
भी.
नहीं जानता
ऐसा कहने का मुझे कोई हक है भी या नहीं पर हमारे बीच तो कभी कोई दूरी रही नहीं, इसलिए खुद को रोक नहीं
पाया.
पिछली बार तुमने कुछ पारिवारिक
परेशानियों की बात भी की थी. भाइयों के बीच यदि एक बार दरार पड़ गई
तो फिर वह रोज चौड़ी ही होती जाती है. लेकिन चाचा-चाची की तुम्हारे
प्रति बेरुखी की बात जानकर मुझे हैरानी हुई. शायद तुम्हारी नौकरी होने के बाद उनके
व्यवहार में कोई अंतर आए. तुमने जिस तरह खुद को संयमित रखते हुये बड़े भैया या दीपक के आगे संपत्ति बांटने का कोई दावा नहीं
किया,
उसे
देख
तुम पर गर्व होता है. तुम्हारी यह बात भाभी को ठीक न लगी हो
और शायद उनकी दृष्टि से यह उचित भी है. भले इस मामले में उनके मन का तुम कुछ न कर पाओ, लेकिन उनकी बातें
सुनना जरूर. उन्हें अभी तुम्हारी बहुत जरूरत है.
सोनाली से अक्सर बात होती
है.
अनिकेत
के साथ उसके सेपरेशन का केश अब लगभग अंतिम स्थिति में है. मैं बड़ी उम्मीद से
प्रतीक्षा कर रहा हूँ.
अनुष्का
तुम्हारी बहुत अच्छी दोस्त है, जाहिर है तुम्हें मेरी यह बात
अच्छी नहीं लग रही होगी. पर सिर्फ नहीं बोलने से कोई सच तो झूठ नहीं हो जाता न! और फिर अपनी बातें
तुम्हें न बताऊँ यह भला कैसे हो सकता है?
ज्वाइन करते ही बताना.
तुम्हारी पहली सैलरी मिलने पर जरूर आऊँगा. हम इसे साथ-साथ सेलिब्रेट करेंगे. मैं
ब्लैक टी बनाऊँगा और तुम पहले की ही तरह खुले मन से गाना – ‘जो मिल गया उसी को
मुकद्दर समझ लिया...’
तुम्हारी बहुत याद आ रही है.
कल सुबह बात होती है.
तुम्हारा अज़ीज़
हेमंत
बाहर बरस रहे अंधेरे
की आवाज़ मेरे अंतस मे लगातार बज रही है और मैं अपनी यादों का सिरा पकड़े चिट्ठियों की
दुनिया में अपने लिए
रोशनी
के कुछ कतरे तलाश रहा हूँ. शैलेंद्र को खत लिखते हुये आज अनुष्का की भी याद आई.
क्या उसे
भी
कभी मेरी याद आती होगी? अच्छा होता हम दोस्त
ही रह गए होते... कभी अलग नहीं होना पड़ता... लेकिन कई बार दोस्त भी तो अलग हो जाते
हैं... यदि सोनाली को यह सब कहूँ तो वह कैसे रिएक्ट करेगी? मेरे भीतर चिलकता है
कुछ... यह प्रश्न पलट के भी तो पूछा जा सकता है- कभी सोनाली ने मुझसे अनिकेत को
लेकर इस तरह की बातें की तो मैं कैसे रिएक्ट करूंगा?
मेरी कनपटी के ऊपर की नीली
धारियाँ और गहरी हो गई हैं...डिस्प्रिन कई दिनों से नहीं है. कल याद से खरीद
लाऊँगा. सोनाली से बात करने की तलब और तेज़ होती जा रही है....
प्रिय सोनाली,
लगभग दो महीने से ऑडिट
की व्यस्तता में पता ही नहीं चला कि मैं कितना अकेला हो गया हूँ. शाम को जब ऑडिटर चले गए, अचानक से इस
अकेलेपन का एहसास बहुत ज़ोर से हुआ. कई दिनों से तुमसे बात नहीं हुई. कई दिन
तुम्हें इंतज़ार
भी करना
पड़ा. सब के लिए इकट्ठे माफी चाहता हूँ.
कल कोर्ट की तारीख थी
न!
क्या
हुआ? अगली तारीख कब की मिली
है?
माधवी
की कस्टडी
को लेकर क्या सोचा है? उसे मेरा प्यार देना. उसकी तस्वीर देखकर बड़ी बेटी के बाप होने का-सा
अहसास होने लगा है.
दिव्या कभी-कभी तुम्हारे बारे में
पूछती
है.
क्या तुमने माधवी
को कभी मेरे
बारे में बताया?
इस बार रीजनल फाइनन्स रिव्यू
मीटिंग खंडाला में हो रही है. तारीख अभी तय नहीं. शायद 16 से 18 अगस्त तक. क्या उन
दिनों या दो-एक दिन आगे पीछे मुंबई या पुणे आ सकोगी?
तुम्हें देखने का
बहुत मन हो रहा है.
तुमसे मिलकर बहुत कुछ
बांटना है.
अपना ध्यान रखना.
असीम प्यार सहित, तुम्हारा ही
हेमंत
मेरे ही हाथ की लिखी
चिट्ठियाँ मुझे किसी अजायब घर से आई हुई महसूस हो रही हैं.
इन पत्रों पर लिखे
मिस्टर मोहन,
शैलेंद्र और सोनाली के नामों कों मैं बारी-बारी से अपनी उंगलियों के पोरों से छूता हूँ... अपनी पलकों से लगाता हूँ...
मेरी नज़र सामने दीवार
पर टंगी घड़ी पर जाती है- सुबह के चार बजे हैं... मिस्टर मोहन
कुछ देर बाद जगेंगे, उन्हें मॉर्निंग वाक
पर जाना होगा... शैलेंद्र तो पहले देर तक सोता था, भाभी और बिटिया की
स्कूल ने उसकी यह आदत शायद बदल दी हो... पता नहीं सोनाली अभी सोई भी
होगी या नहीं...
सोचता हूँ इन पत्रों कों
अभी ही पास के किसी लेटर बॉक्स में डाल आऊँ. लेकिन ड्राअर में लिफाफे
नहीं हैं. मेरे अंदर तीन अलग-अलग पुल बन रहे हैं एक दूसरे से जुदा पर एक दूसरे में घुले-मिले, जिनसे गुजर कर मैं उन तीनों तक पलक
झपकते पहुँच जाना चाहता हूँ.
डाक में डाला तो कम
से कम चार-पांच दिन... भीतर कुछ ट्यूब लाइट की तरह जलता है... हाँ इन्हें स्कैन
करके मेल कर देना ही ठीक रहेगा.
मेरी लिखावट बरास्ता
स्कैनर मेरे लैपटॉप के स्क्रीन पर चमक रही है.
मैं नेट कनेक्ट करने की कोशिश में हूँ कि अचानक बिजली गुल हो गई है...
मिस्टर मोहन, शैलेंद्र और सोनाली
की तस्वीरें अपने-अपने फ्रेम से निकल कर एक दूसरे में समा जाना चाहती हैं... मैं
उन सब के
पास एक
ही समय में एक ही साथ पहुँच जाना चाहता हूँ... बेचैनी का शोर बढ़ता ही जा रहा है...
बिजली
और
नींद दोनों की
प्रतीक्षा है...
देखें पहले कौन आती है...
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राकेश बिहारी
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राकेश बिहारी
वह सपने बेचता था (कहानी-संग्रह), केन्द्र में कहानी, भूमंडलोत्तर समय में उपन्यास (आलोचना), स्वप्न
में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियाँ), पहली कहानी : पीढ़ियाँ
साथ-साथ (‘निकट’ पत्रिका का विशेषांक) समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी (‘संवेद’ पत्रिका का
विशेषांक) आदि प्रकाशित.
संप्रति : एनटीपीसी लि. में कार्यरत/ 09425823033/ : biharirakesh@rediffmail.com
(यह कहानी बनास जन के नए अंक में प्रकाशित है.)
एक अनुत्पादक माहौल में मानवीय रिश्तों को परे धकेले जाने की मुहिंम् के विरुद्ध मानवीय रिश्तों को निरन्तर सृजनशील और ऊर्जावान बनाये रखने की कहानी है प्रतीक्षा। चिट्ठियां संवाद के पुख्ता इंसानी पुल को रचती हैं और अनगिनत मानवीय सरोकारों की तस्वीर पेश करती हैं। जीवन में तमाम प्रतिकूलताओं के बावजूद कला धड़कन प्रेम स्नेह सबकी प्रतीक्षा दरअसल जिंदगी के खालीपन और खोखलेपन को रिश्तों के उजास से भरने की कोशिश ही तो है। बधाई राकेश जी।
जवाब देंहटाएंबहुत उम्दा कहानी पढ़ी। गुजरे समय को बांधने की चाह और बहुत से बिखराव को समेटने की तड़प साफ़ साफ कहानी के हर हर्फ़ में मौजूद है। बावजूद इसके बेहद सरस और पठनीय कहानी।
जवाब देंहटाएंRakesh ji ki shaili bohot chust aur bunawat masboot hai .
जवाब देंहटाएंकहते हैं जिसे क्रिकेट खेलना नहीं आता वह अंपायर बन जाता है। आलोचकों के विषय में भी लोग अक्सर यही विचार रखते हैं। मगर राकेशजी पर यह बात लागू नहीं होती। वे एक सक्षम कथाकार हैं। उनकी भाषा भी विषय के अनुरूप बदलती है। समीक्षा की भाषा जितनी बौद्धिक कहानी की भाषा उतनी ही कोमल और संवेदनशील। यह कहानी अच्छी लगी। संतुलित और मानवीय संवेदना से भरी। राकेशजी और कथालोचन को बधाई! कहानी को अपने लेखन की मुख्य विधा न बना कर राकेशजी हम लेखकों का एक तरह से भला ही कर रहे हैं।
जवाब देंहटाएंrakesh ji pahle kahanikar hain fir aalochak.ek achhi aur marmik kahani ke liye badhai
जवाब देंहटाएंअभी तक एक आलोचक के रूप में राकेश जी से परिचय था -कि छलनी और मथनी दोनों औज़ार लिए गाथा - कथाओं का मंथन करता हुआ अदीब.. अब उन्हें कहानीकार के रूप में यहाँ पढ़ा अभी . प्रज्ञा रोहिणी जी और जयश्री जी से सहमत होते हुए, राकेश जी को बहुत -बहुत बधाई .
जवाब देंहटाएंकहानी ख़त्म हो गई पर अब भी इसके प्रभाव में हूँ। मिस्टर मोहन के बहाने जहाँ कारपोरेट वर्ल्ड की बारीकियों से परिचय हुआ वही शैलेन्द्र और सोनाली के नाम लिखे पत्रों ने अंतस को कहीं गहरे छुआ। आँखें अब भी सजल हैं। आज के समय में रिश्तों के टूटने की छटपटाहट और उसे नए सिरे से जोड़ने की कोशिश में निरंतर अकेला होता जाता हेमंत कहीं हम सब के भीतर मौजूद है। एक बेहद ही मर्मस्पर्शी कहानी के लिए कथाकार और समालोचन दोनों को बधाई।
जवाब देंहटाएंBadhai. Achhi kahani hai. Beech ke hisse marm sparshi hain.
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