मेघ - दूत : नदी का तीसरा किनारा : जोआओ गुइमारेस रोसा




ब्राज़ील के जोआओ गुइमारेस रोसा João Guimarães Rosa (27 June 1908 – 19 November 1967), बीसवीं शताब्दी के महान कथाकारों में शामिल हैं. उनकी कहानी ‘The Third bank of the River’ उनकी लिखी हुई प्रसिद्ध कहानी है जिसके मन्तव्य को लेकर आलोचकों में घनघोर मत भिन्नता है, इस कहानी को लेकर इसी नाम से एक फ़िल्म भी बनी है. इसका हिंदी में अनुवाद सुशांत सुप्रिय ने किया है.


नदी का तीसरा किनारा                              

जोआओ गुइमारेस रोसा
अनुवाद : सुशांत सुप्रिय



पिता एक ज़िम्मेदार, भरोसे के क़ाबिल और व्यावहारिक आदमी थे. बचपन से ही वे ऐसे ही थे. जब मैंने पिता को जानने वाले लोगों से उनके बारे में पूछा तो उन सभी लोगों ने पिता के बारे में यही राय व्यक्त की. मुझे याद नहीं आता कि वे मुझे अपने आस-पास के लोगों की तुलना में कभी ज़्यादा धुनी या रूखे मिजाज़ वाले लगे हों . हाँ, वे बातें कम ही किया करते थे. हमारी माँ ही हर रोज़ हम तीनो को -- मुझे , मेरी बहन और मेरे भाई को, डाँटती-फटकारती या आदेश दिया करती थी. लेकिन एक दिन मेरे पिता ने अपने लिए एक नाव मंगवाई.

उन्होंने इस मामले को गम्भीरता से लिया. उन्होंने अपने लिए बढ़िया मिमोसा काठ की नाव बनवाई. वह आकार में छोटी थी और उसमें केवल एक आदमी के बैठने की जगह थी. वह पूरी तरह से हाथ से बनी हुई मज़बूत क़िस्म की लकड़ी की नाव थी, जो बीस-तीस बरस तक आराम से चल सकती थी. माँ नाव बनाने के विचार तक का मज़ाक़ उड़ाती रहती. वह पूछती -- जिस व्यक्ति ने अपने समूचे जीवन-काल में कभी ऐसे करतबों में अपना समय व्यर्थ नहीं गँवाया, वह अपने जीवन के इस मुक़ाम पर अब नाव में बैठ कर मछली पकड़ने और शिकार पर जाने की बात सोच भी कैसे सकता है? पिता कुछ नहीं कहते.

तब हमारा घर नदी से एक मील से भी कम की दूरी पर था, हालाँकि अब यह दूरी बढ़ गई है. घर के इतने क़रीब वह नदी बहती रहती -- चौड़ी, गहरी और शांत. सदा ख़ामोशी से बहती हुई. वह इतनी चौड़ी नदी थी कि उसका दूसरा किनारा नज़र ही नहीं आता था. मैं वह दिन कभी नहीं भूल सकता जिस दिन नाव बन कर तैयार हो गई.    

पिता ने न कोई ख़ुशी ज़ाहिर की, न उत्साह, न ही निराशा. सदा की तरह उन्होंने अपनी टोपी पहनी, हमें अलविदा कहा और चल पड़े. उन्होंने एक भी शब्द और नहीं कहा, किसी भी तरह का खाना या और कोई सामान नहीं लिया और न ही जाते-जाते हमें कोई सलाह ही दी. हमें लगा जैसे माँ को चीख़ने-चिल्लाने का दौरा-सा पड़ जाएगा लेकिन ऐसा कुछ नहीं हुआ. केवल उनके चेहरे का रंग उड़ गया और दाँतों से अपने होठ काटते हुए वे कड़वाहट से भर कर बोलीं -- "तुम्हारी मर्ज़ी है, जाओ चाहे यहीं रहो. लेकिन अगर जा रहे हो तो फिर कभी लौट कर नहीं आना!" 

पिता की चुप्पी रहस्यमयी बनी रही. उन्होंने प्यार से मेरी ओर देखा और मुझे अपने साथ ले कर चलने लगे. मैं माँ के ग़ुस्से से डर रहा था,  लेकिन मैं फिर भी पिता के साथ हो लिया. हम नदी की ओर बढ़ने लगे. मैं उनके साथ आश्वस्त महसूस कर रहा था. रोमांच से भर कर मैंने उनसे पूछा -- "पिताजी , क्या आप अपनी नाव में मुझे भी ले चलेंगे?"

लेकिन उन्होंने मुझे आँख भर कर देखा,  अपना आशीर्वाद दिया और इशारे से मुझे लौट जाने के लिए कहा. मैंने उन्हें दिखाने के लिए लौटने का नाटक भी किया पर जैसे ही वे मुड़े,  मैं उन्हें देखने के लिए घनी झाड़ियों से ढँके एक गड्ढे में छिप कर बैठ गया. पिता नाव में बैठे , नाव की रस्सी खोली और उसे खेते हुए दूर निकल गए. नाव की लम्बी परछाईं पानी में किसी मगरमच्छ की तरह फिसलती चली गई.

पिता कभी नहीं लौटे. असल में वे कहीं ज़्यादा दूर गए भी नहीं थे. वे नदी के ही एक हिस्से में नाव खेते रहे. उनकी नाव बीच नदी के उसी हिस्से में इधर-उधर आती-जाती रही. वे हमेशा नाव में ही रहते. उन्हें किसी ने फिर कभी नाव से बाहर नहीं देखा. यह अजीब सच्चाई हम सभी को भयभीत करने के लिए काफ़ी थी. जो आज तक कभी नहीं हुआ था,  वह हो रहा था. हमारे रिश्तेदार, पड़ोसी और जान-पहचान वाले , सभी इस अद्भुत घटना पर चर्चा करने के लिए इकट्ठा हुए.

माँ ने बेहद समझदारी से काम लिया. उन्होंने धीरज बनाए रखा. हालाँकि किसी ने भी यह बात नहीं कही , लेकिन लगभग सभी का यही मानना था कि पिता पागल हो गए थे. केवल कुछ लोग ही ऐसे थे जिनका यह मानना था कि शायद पिता ईश्वर को दिया गया कोई वचन निभा रहे थे. कुछ लोगों ने यह भी कहा कि सम्भवत: पिता को कोढ़ जैसी कोई भयानक बीमारी होगा थी जिसकी वजह से वे एक दूसरा जीवन जीने के लिए हमें छोड़ कर दूर चले गए थे. किंतु दूर हो कर भी वे हम सब के पास ही रहना चाहते थे.

नदी के किनारे रहने वाले लोगों और यात्रियों से यह ख़बर चारो ओर फैल गई थी कि पिता अब ज़मीन पर क़दम कभी नहीं रखते थे -- न दिन में, न रात में. इंसानों से दूर वे अकेले और दिशाहीन-से नदी में भटकते रहते. माँ और हमारे अन्य रिश्तेदारों का मानना था कि पिता ने ज़रूर नाव में कुछ खाना छिपा कर रखा होगा जो जल्दी ही ख़त्म हो जाएगा. ऐसी हालत में उन्हें यहाँ नहीं तो किसी और जगह नाव को किनारे पर ला कर ज़मीन पर आना ही पड़ेगा. इसका मतलब यह होगा कि या तो वे हमेशा के लिए हमसे दूर कहीं चले जाएँगे या फिर अपने किए पर पछता कर वे घर लौट आएँगे. 

लेकिन वे सब ग़लत थे. मैं गोपनीय तरीक़े से प्रतिदिन पिता के लिए कुछ खाना चुरा लेता था. यह विचार मेरे मन में उस पहली रात को ही आ गया था जब पिता के जाने के बाद परिवार के हम सब सदस्य नदी के किनारे लकड़ियाँ जला कर प्रार्थना करते रहे थे और अधीर हो कर पिता को पुकारते रहे थे. उस दिन के बाद से हर रोज़ मैं पिता के लिए एक पूरी पाव रोटी , शक्कर या केले का गुच्छा ले कर नदी के किनारे जाता. एक बार एक घंटे तक बेचैनी से प्रतीक्षा करने के बाद पिता नज़र आए. आइने-सी चिकनी नदी में वे अपनी थिरकती नाव में शांत बैठे हुए थे. उन्होंने मुझे देखा पर न तो वे मेरी ओर आए, न कोई इशारा ही किया. मैंने खाना उन्हें दिखाया और फिर नदी के किनारे पत्थरों के घिसने से बनी एक खोह के अंदर रख दिया. जानवरों, बारिश और ओस से वहाँ खाना सुरक्षित रहेगा, मुझे इसका यक़ीन था. हर रोज़, लगातार , मैंने ठीक वैसा ही किया. हालाँकि बाद में मैं यह जानकर हैरान हुआ कि माँ को सब पता था. माँ जानबूझ कर खाना ऐसी जगह रख देती थी जहाँ से मैं आसानी से ले जा सकूँ. पिता के बारे में अपनी भावनाओं को उन्होंने कभी ज़ाहिर नहीं किया. 

बाद में खेती-बाड़ी और हिसाब-किताब में मदद के लिए माँ ने अपने भाई को अपने पास बुला लिया. हम बच्चों के लिए भी एक शिक्षक नियुक्त कर दिया गया ताकि हमारी पढ़ाई ठीक तरह से हो सके. माँ के कहने पर एक दिन एक पुरोहित पूजा का लिबास पहन कर नदी के किनारे गया और झाड़-फूँक करके पिता पर हावी भूत-प्रेत को भगाने लगा. उसने चिल्ला कर पिता से कहा कि उन्हें यह मूर्खतापूर्ण ज़िद छोड़ कर अपनी पारिवारिक ज़िम्मेदारियों को निभाना चाहिए.

अगली बार माँ ने पिता को डरा-धमका कर वापस बुलाने के लिए दो सिपाहियों को नदी के किनारे भेजा. लेकिन ये सभी उपाय बेकार साबित हुए. पिता किनारे से दूर बने रहे. कई बार वे इतनी दूर चले जाते कि नदी के धुँधलके में वे बड़ी मुश्किल से नज़र आते. चूँकि कोई उनकी नाव के क़रीब नहीं जा पाता इसलिए न तो कभी कोई उन्हें छू पाया , न उनसे बात ही कर पाया. चिल्लाने पर भी वे जवाब नहीं देते.

कुछ अख़बार वाले जब एक बार एक बड़ी नाव में बैठ कर उनकी तसवीर खींचने गए तो वे भी बाक़ी लोगों की तरह असफल रहे. पिता अपनी नाव खे कर दूसरे किनारे पर चले गए. वहाँ वे झाड़ियों में जा छिपे. दूसरे किनारे पर मीलों तक दलदल और घनी झाड़ियाँ थीं. केवल वे ही नदी के उस इलाक़े का चप्पा-चप्पा जानते थे. अन्य लोग वहाँ रास्ता खो जाते थे. इसलिए भूल-भुलैया जैसी अपनी निजी पनाहगाह में वे महफ़ूज़ थे. 

हमें इस सब का आदी हो जाना चाहिए था ,  लेकिन यह मुश्किल था और हम कभी ऐसा नहीं कर सके. मेरा तो यही मानना है. चाहे-अनचाहे मेरी सोच घूम-फिर कर उसी बिंदु पर आ जाती थी. मैं पिता के बारे में फ़िक्र करने से ख़ुद को नहीं रोक पाता था. मैं समझ नहीं पाता था कि वे ऐसा जीवन कैसे जी पा रहे थे. रात-दिन, कड़ी धूप,

मूसलाधार बारिश और आँधी-तूफ़ान जैसे कष्टों में भी वे नाव में डटे हुए थे. भयानक गर्मी और ठिठुरती सर्दी में, यहाँ तक कि साल के बीच के मुश्किल समय में भी वे बिना छत या सुरक्षा के कैसे जी पा रहे थे ? उनके सिर पर केवल एक टोपी थी और तन ढँकने के लिए बेहद कम कपड़े थे. फिर भी वे सप्ताह-दर-सप्ताह, महीने-दर-महीने, साल-दर-साल, एक अर्थहीन, लक्ष्यहीन, जीवन जीते चले जा रहे थे. पिता कभी ज़मीन पर नहीं आए. उन्होंने कभी रेतीले किनारे या  घास पर पाँव नहीं रखा. वे कभी नदी में मौजूद किसी छोटे द्वीप पर भी नहीं उतरे. यह सम्भव है कि झपकी लेने के लिए कभी-कभार वे अपनी नाव को किसी टापू के गुप्त कोने में झाड़ियों से बाँध देते होंगे. लेकिन उन्होंने कभी किनारे पर आ कर आग नहीं सुलगाई,  न ही कभी लालटेन या मोमबत्ती जलाई. यहाँ तक कि उन्होंने कभी माचिस की तीली भी नहीं जलाई. उनके पास कोई टाॅर्च भी नहीं थी. अंजीर के पेड़ की जड़ों के पास बने खोखल में या नदी के किनारे की चट्टान की खोह में मैं उनके लिए जो खाना रख आता था उसमें से वे बहुत कम ही खाते थे. क्या केवल उतना ही जीवित रहने के लिए पर्याप्त था? क्या वे कभी बीमार नहीं होते थे? नाव को क़ाबू में रखने के लिए लगातार चप्पू चलाते रहने की शारीरिक ताक़त उन में कहाँ से आती होगी ? वह भी तब जब बीच-बीच में नदी में बाढ़ के तेज बहाव के साथ मरे हुए पशुओं और जड़ से उखड़े पेड़ों की वजह से ख़तरा और भी बढ़ जाता था. ऐसी दशा में वे ख़ुद को और अपनी छोटी-सी नाव को कैसे बचा पाते होंगे ? यह सब कितना डरावना और ख़तरनाक होता होगा.

पिता ने कभी किसी जीते-जागते इंसान से बात नहीं की. हम भी अब उनकेबारे में आपस में बात नहीं करते थे , हालाँकि हम उनके बारे में सोचते ज़रूर थे. पिता को कभी भुलाया नहीं जा सकता था. यदि कभी-कभार पल भर के लिए हम उन्हें अपने ज़हन से निकाल देते तो भी कुछ देर बाद अचानक उनकी याद हमें एक वेग के साथ जगा जाती -- वे जिस भयावह स्थिति में अपना जीवन जी रहे थे वह हमें बार-बार चौंका देने के लिए काफ़ी थी. 

मेरी बहन का ब्याह हो गया,  किंतु माँ ने यह समारोह बिना किसी ताम-झाम के, बेहद सादगी से पूरा किया. जब भी हम कुछ अच्छा खाते-पीते तो हमें पिता का ख़्याल आ जाता. यह बात हमें दुखी कर देती. और यह भी कि मूसलाधार बारिश वाली सर्द, तूफ़ानी रातों में जब हम आरामदेह बिस्तरों में होते  पिता अकेले अपनी असहायता में ख़ुद को और नाव को बचाने की जद्दोजहद में जुटे होते.

जान-पहचान वाले लोग अक्सर मुझे  देख कर कह देते कि मेरी शक्ल अब मेरे पिता से मिलने लगी है. लेकिन मैं जानता था कि अब उनके बाल बढ़ चुके होंगे और दाढ़ी बेहद खुरदरी और सफ़ेद हो चुकी होगी .उनके नाख़ून भी बेहद बढ़ गए होंगे. मैं कल्पना कर सकता था कि अब वे कितने दुबले-पतले,  कमज़ोर और बीमार लगते होंगे. हालाँकि मैं कभी-कभार खोह में उनके लिए कपड़े रख आता था,  मुझे पता था कि अब वे लगभग नग्न ही होंगे. धूप में झुलसी उनकी त्वचा भी अब बड़े-बड़े बालों वाले किसी जानवर-सी हो गई होगी. पिता के बारे में सोचते ही मेरे ज़हन में उनकी यही छवि उभरती थी.

पिता ने हमारे बारे में जानने की कभी कोई कोशिश नहीं की. क्या उन्हें हमारी ज़रा भी परवाह नहीं थी ? लेकिन मैं उनसे अब भी प्यार करता था,  उनकी इज़्ज़त करता था. जब भी कोई किसी बात के लिए मेरी तारीफ़ करता तो मैं यही कहता -- "यह सब करना मुझे पिताजी ने सिखाया था."

यह बिलकुल सच तो नहीं था लेकिन इस झूठ में सच्चाई भी थी. यदि पिता अब हमें भूल चुके थे और हमारे बारे में नहीं सोचते थे तो वे हमसे दूर नदी में और आगे क्यों नहीं चले जाते थे जहाँ से न वे हमें देख सकते, न हम उन्हें देख पाते? वे क्यों हमारे आस-पास ही बने हुए थे?  इन प्रश्नों के उत्तर तो केवल वे ही दे सकते थे.

जब मेरी बहन ने बेटे को जन्म दिया, उसने ठान लिया कि वह पिता को उनका नाती दिखाएगी. परिवार के हम सब सदस्य नदी के किनारे पहुँचे. वह एक ख़ुशनुमा दिन. मेरी बहन ने शादी का सफ़ेद जोड़ा पहन रखा था. उसने अपने बेटे को ऊपर उठाया और बच्चे के पिता ने उन दोनों के ऊपर एक छतरी तान दी. हमने पिता को आवाज़ दी और फिर इंतज़ार करते रहे.बार-बार पुकारने के बावजूद पिता नहीं आए. मेरी बहन फूट-फूट कर रोने लगी. अंत में वहाँ एक-दूसरे के गले लग कर हम सब बिलख-बिलख कर रोए. किंतु पिता नहीं आए.

इस घटना के बाद मेरी बहन और मेरे जीजा रहने के लिए कहीं दूर चले गए. मेरा भाई भी रहने के लिए किसी और शहर में चला गया. समय तेज़ी से गुज़रता रहा. माँ बूढ़ी हो रही थी. अंत में वह भी रहने के लिए मेरी बहन के पास चली गई. केवल मैं वहीं रह गया. अकेला. शादी करके फिर से परिवार बसा लेने का ख़्याल मेरे मन में कभी नहीं आया. अपने जीवन की विडम्बनाओं से घिरा हुआ मैं वहीं रुका रह गया. हालाँकि पिता ने कभी मुझे नदी में अपने निर्धारित भटकने का कारण नहीं बताया, मुझे पता था कि उन्हें मेरी ज़रूरत थी. अंत में मैंने निश्चय किया कि मुझे पिता के इस अजीब व्यवहार का कारण जानना ही है. तब लोगों ने बताया कि शायद पिता ने अपनी यात्रा की वजह उस आदमी को बताई होगी जिसने उनकी नाव बनाई थी. लेकिन अब उसकी भी मृत्यु हो चुकी थी और किसी को भी ठीक से इस बारे में कुछ भी पता या याद नहीं था. हाँ, कुछ लोगों ने ज़रूर कुछ मूर्खतापूर्ण बातें बताईं. उन लोगों के मुताबिक़ बहुत पहले एक बार नदी में भयानक बाढ़ आई थी. तब सब को लगा था कि लगातार हो रही मूसलाधार बारिश की वजह से आई वह प्रलयंकारी बाढ़ सब को लील जाएगी. उन लोगों का कहना था कि शायद पिता आने वाले प्रलय या तबाही के अंदेशे की वजह से नाव बनवा कर पहले ही निकल पड़े. मैंने भी यह कहानी बहुत पहले सुनी थी हालाँकि अब मुझे यह ठीक से याद नहीं थी. कुछ भी हुआ हो, मैं अपने पिता को कभी दोष नहीं दे सकता था. अब तो मेरे सिर के बाल भी सफ़ेद होने लगे थे.

मेरे पास कहने के लिए केवल अफ़सोसनाक बातें थीं. इस सब के लिए बराबर मैं ख़ुद को दोषी क्यों मानता था? क्या इसकी वजह मेरे पिता थे? उनका इस तरह चला जाना था ? उनकी कमी का शिद्दत भरा अहसास था ? या फिर वह नदी थी जो अनंत से अनंत तक बहती थी ? सदा नवजीवन से भरी हुई. जिस में पिता भटक रहे थे.

मैं बूढ़ा होने लगा था. यह अवश्यंभावी था, मेरा यह जीवन केवल उसे मुल्तवी कर रहा था. मैं चिड़चिड़ा हो गया था. बीमार और बेचैन रहने लगा था. और पिता? आख़िर उन्होंने ऐसा क्यों किया ? यक़ीनन वे बहुत कष्ट झेल रहे होंगे. अब तो वे बहुत बूढ़े हो चुके थे. हो सकता है,  अपने जीवन के इस अंतिम समय में किसी दिन वे नाव को उलट जाने दें. या जब नदी में बाढ़ आए तो वे चप्पू चलाना बंद करके नाव को उफ़नती धारा के हवाले कर दें ताकि नाव किसी शोर मचाते जल-प्रपात की विराट् ऊँचाई से गिर कर नदी की अतल गहराई में सदा के लिए विलीन हो जाए. मेरा जीवन तनावपूर्ण बना हुआ था. पिता वहाँ नदी में भटक रहे थे. यहाँ मेरी सुख-शांति हमेशा के लिए छिन गई थी. पता नहीं क्यों, मैं हमेशा अपराध-बोध से घिरा रहता था. मेरा अंतर्मन भीतर तक छलनी हो चुका था. काश, मुझे पता होता. काश, चीज़ें कुछ अलग होतीं. और तब, एक दिन मेरे ज़हन में एक ख़्याल आया.

वह विचार ऐसा था कि मैं अगले दिन के भी नहीं रुक पाया. क्या मैं पागल हो गया था ? नहीं. हमारे घर में यह शब्द ज़बान पर नहीं लाया गया था. इतने बरसों में कभी नहीं. किसी ने किसी को कभी पागल नहीं कहा था. कोई पागल था भी नहीं. या फिर सभी पागल थे. उस दिन मैं नदी के किनारे चला गया. मेरे हाथ में केवल एक कपड़ा था जिसे हिला कर मैं पिता का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता था. मैं अपने पूरे होशोहवास में था. मैं इंतज़ार करने लगा. आख़िर वे मुझे बहुत दूरी पर नज़र आए. उनकी धुँधली आकृति धीरे-धीरे स्पष्ट दिखने लगी. वे नाव में बैठे हुए थे. मैंने उन्हें बार-बार पुकारा. और तब मैंने उनसे वे सब बातें कह डालीं जिन्हें कहने के लिए मैं न जाने कब से उतावला था.

मैंने पूरी ताक़त से उन्हें विश्वास दिलाने के स्वर में कहा -- "पिताजी, अब आप बूढ़े हो रहे हैं. आप बहुत लम्बे अरसे से वहाँ हैं. अब आप लौट आइए. आपने अपने हिस्से का काम कर लिया. अब आप को वहाँ रुकने की कोई ज़रूरत नहीं ... आप लौट आइए और आपकी जगह मैं चला जाऊँगा. इसी समय या जब भी आप चाहें तब. हम दोनों यही चाहते हैं. मैं नाव में आपकी जगह ले लूँगा." और जब मैंने यह कहा, मेरा दिल तेज़ी से धड़कने लगा. लेकिन मेरे शब्द मेरे भीतर की सच्चाई और अच्छाई से उपजे हुए थे.

पिता ने मेरी बात सुनी. वे खड़े हो गए. उन्होंने चप्पुओं के सहारे नाव मेरी ओर मोड़ ली. वे मेरी बात मान गए थे. अचानक मैं भीतर तक काँप गया क्योंकि इतने बरस बाद पहली बार उन्होंने अपना हाथ उठा कर मेरी ओर हिलाया था और मैं कुछ न कर सका. बस खड़ा रह गया... फिर मैं बेतहाशा भागा. डर के मारे रोंगटे खड़े हो गए. मैं वहाँ से पागलों की तरह भागता चला गया क्योंकि पिता जैसे क़ब्र से उठ कर आए हुए लग रहे थे ... किसी दूसरी ही दुनिया से. मुझे माफ़ कर दें. माफ़ी माँगता हूँ मैं. केवल माफ़ी.

डर के मारे मेरा पूरा शरीर सर्द पड़ गया था. मैं बीमार हो गया. पिता के भरोसे को इस तरह तोड़ने के बाद क्या मैं इंसान कहला सकता हूँ ? इस विफलता के बाद मेरे लिए अब चुप रहना ही बेहतर है. मैं जानता हूँ, अब बहुत देर हो चुकी है. अब पछताने से कुछ नहीं होगा. फिर भी मैं अपने इस सतही जीवन से चिपका हुआ हूँ. आत्म-हत्या से डरता हूँ. लेकिन अंत में जब मृत्यु आए तो मैं चाहता हूँ कि मुझे एक छोटी-सी नाव में लिटा कर नदी के अनवरत बहते जल में बहा दिया जाए. इसी नदी में जिसके किनारे कभी ख़त्म नहीं होते. बहते-बहते मैं नदी की अथाह गहराइयों में खो जाऊँ. इस के जल में समा कर नदी का ही हिस्सा बन जाऊँ. हमेशा के लिए.

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सुशांत सुप्रिय :
कविता, कहानी, अनुवाद  के क्षेत्र में सक्रिय
एक कविता संग्रह, दो कहनी संग्रह प्रकाशित और एक अनुवाद की किताब  आने वाली है.
सम्प्रति संसदीय सचिवालय में अधिकारी

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  1. एक शानदार कहानी का बहुत अच्छा अनुवाद

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  2. इसे पढ़ना मर्मांतक पीड़ा से गुज़रना रहा।
    अनजान पिता को मित्र दिवस की शुभकामनाएं।

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  3. इस कहानी का अनुवाद पहले भी पढ़ा है. शायद अनुराधा महेन्द्र या जितेन्द्र भाटिया के अनुवाद में. कहानी अच्छी है.

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  4. एक मार्मिक कहानी ..रहस्य में लिपटी हुई ..पिता शायद तभी मुक्त होते हैं जब संताने उनका स्थान लेने को तैयार हो जाती हैं .अनुवाद सरल और सरस है.

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  5. जीवन दर्शन से भरी मार्मिक कहानी. पिता पुत्र का संबंध बहुत बारीकी से परिभाषित किया गया है और अनुवाद सहज है.

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