सहजि सहजि गुन रमैं : गिरिराज किराडू



























युवा चर्चित कवि गिरिराज किराडू किसी परिचय के  मोहताज नहीं हैं. हिंदी कविता का समकालीन चेहरा उन्हें शामिल किए बिना अधूरा है और इस तरह का कोई खल –कूट - प्रयास भी अंततः हिंदी कविता के परिदृश्य को  धुंधला ही करेगा.  अपनी आवाज़ और अपनी आवाज़ की ताकत से उन्होंने हिंदी कविता को उसके रूढ़ मुहावरे और शाब्दिक रोमान से बहुत हद तक मुक्त किया है. इन नयी कविताओं में हालाकि प्रेम है पर  साथ ही साथ इसमें हिंसा और आतंक भी शामिल हैं कुछ यूँ कि जैसे यह हमारा रोज़ाने का जीवन हो. 

मिस्टर के की दुनिया: पेड़ और बम              
गिरिराज किराडू 




अब मैं एक कवि की तरह नहीं रहता
मुझे खंज़र की उदासीनता से डर लगने लगा है
अब मैं एक नागरिक की तरह नहीं रहता
मुझे एक वधिक की करुणा से डर लगने लगा है
अब मैं एक प्रेमी की तरह नहीं रहता
मुझे अपनी भाषा के अभिनय से डर लगने लगा है

उन्हें मेरी कब्र पर बवाल पर मत करने देना
मुझे मृतक होने से डर लगने लगा है




सब कुछ अभिनय हो सकता था
लेकिन किसी दुकान के शटर से किसी कब्र की मिटटी से किसी दुस्स्वप्न के झरोखे से
खून के निशान पूरी तरह मिटाये नहीं जा सकते थे

खून के निशान हत्या करने के अभिनय को हत्या करने से फ़र्क कर देते हैं





सुबह एक पेड़ आपको अलविदा कहता है
शाम तक उसकी याद में मिट्टी भी आपके घर से उखड़ने को है
आप को याद नहीं रहा पिछले दो इतवार बेटे से मिलना
आप अगली बार जाते हुए उसके लिए एक हवाई जहाज ले जाने का इरादा पक्का करते हैं और आपको अपनी आखिरी हवाई यात्रा याद आ जाती है
एयरपोर्ट की दीवार पर कई पेड़ों की तस्वीरें थी आप घर लौटना नहीं चाहते थे
आपने सोचा यह जहाज आपको लेकर उड़े लेकिन कभी लैंड न करे पर आप बाकी दो सौ लोगों के बारे में भी सोच रहे थे जो आपकी तरह दो मिनट के नोटिस पर घर और दुनिया छोड़ने को तैयार नहीं थे                           
शायद

आपसे पेड़ ने अलविदा कहा
आपने सर झुका कर कहा तुम्हारे बिना यह दश्त है
ऐसे रहने से तो अच्छा है मैं मानव नहीं बम हो जाऊं और
किसी की चुनाव रैली में गिरूं
तभी आपका फोन बजा और बेटे ने कहा
आप जैपुर आ जाओ हम मज़ाकी करते हैं
शेर देखके वो नहीं रोएगी रे
अरे नहीं रोएगी रे






अलंकारहीन भाषा में
जिसमें कोई कपट न हो
कोई रूपक न हो
क्षमा मांगनी है तुमसे

क्षमा करो कि प्रेम करता हूँ तुमसे
यूं खो तो तुम्हें तभी दिया था जब कहा था प्रेम करता हूँ तुमसे




उसे रोज याद दिलाने पड़ते हैं
कवि के कर्तव्य
कवि भाषा में नहीं
उसकी शर्म में रहता है




प्रेम में हम सब गलत ट्रेन पकड़ते हैं
हमारी घड़ियाँ समय हमेशा गलत बताती हैं
तुम जिससे दस बरस पहले प्रेम करते थे
उसे अब प्रेम है तुमसे
अब जबकि किसी और की घड़ी में प्रेम समय बजा है




घड़ियों से प्रेम मत करो
ट्रेनों से उससे भी कम
और भाषा से सबसे कम
जिस भाषा में तुम रोते हो वही किसी का अपमान करने की सबसे विकसित तकनीक है

तुम भाषा की शर्म में रहते हो
और वे चीख रहे हैं गर्व में
तुम्हारे पास अगर कुछ है तो अपने को बम में बदल देने का विकल्प
और तुम अभी भी सोचते हो बम धड़कता नहीं है
तुम अपने सौ एक सौ अस्सी के रक्तचाप को सम्भाल के रक्खो

एक हिंसक मौत की कामना हर अहिंसक की मजबूरी है
इसीलिये मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है

घड़ी देखो और अपने रक्तचाप में डूब मरो
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  1. उसे रोज याद दिलाने पड़ते हैं
    कवि के कर्तव्य
    कवि भाषा में नहीं
    उसकी शर्म में रहता है

    शानदार ...मजा आ गया इन कविताओं को पढ़कर |

    जवाब देंहटाएं
  2. मै हिन्दी समझता और पढता हूँ । हिन्दी साहित्यका सामान्य अध्ययन अनुसार प्राप्त जानकारी के आधार मे मै अरुण देव जी का यह कार्य से प्रभावित हो गया हूँ । गिरिराज किराडू के कविता को यहाँ रखने के लिए उनको बिशेष धन्यवाद । मै आशा करता हूँ,आगामी दिन मे भी इस ब्लग पर ऐसा ही रचना पढ्ने को मिले ।
    पदम गौतम
    नेपाल,हाल युरोप

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  3. sbhi kavitaen achchi hain. subh ek ped aapko alvida kahta hai ..teesri kvita umda hai. samalochan shukriya.

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  4. परमेश्वर फुंकवाल2 अप्रैल 2014, 8:11:00 am

    अलंकारहीन भाषा और प्रेम में हम सब गलत ट्रेन पकड़ते हैं मुझे बहुत अच्छी लगीं. सही कहा है अरुण जी आपने शब्दों को यदि सलीके से कहा जाये तो उन पर विश्वास जमता है.

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  5. एक हिंसक मौत की कामना हर अहिंसक की मजबूरी है
    इसीलिये मजबूरी का नाम महात्मा गांधी है

    शानदार कवितायें , नोकदार भाषा का पैनापन दर्शनीय है।

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  6. " कवि भाषा में नहीं उसकी शर्म में रहता है. "

    इस बात को हर लिक्खड़ मंत्र की तरह सुबह -शाम जपे.
    पूरी कविताएँ रात के सन्नाटे में फिर पढूँगी.

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  7. Very different flavour. Enjoyed reding these pieces !!! Thanks Arun Dev Ji ! Congratulations poet !

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  8. शायद अब कविता खून और आंसुओं से लथपथ होने से खुद को बचा नहीं सकती।

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  9. आशुतोष: शायद आप इन जनरल कह रहे हैं. मेरी कविता एक तरह से आंसू और खून की ही रही है. समालोचन पर ही पहले छपी
    कवितायेँ देखिएगा: http://samalochan.blogspot.in/2012/06/blog-post_22.html

    http://samalochan.blogspot.in/2011/04/blog-post_25.html

    http://samalochan.blogspot.in/2013/10/blog-post_20.html

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  10. प्रथम व चतुर्थ कविता विशेष रूप से पसंद आयी .

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  11. जीवन में छटपटाती/लौटकर आती मानवीय भावाकुलता, अलंकारहीन भाषा का आग्रह, किसी घड़ी में बजते प्रेमसमय की बारीक़-सी ध्‍वनि और इन सब से ऊपर बेधक राजनीति का बेहद साफ़ स्‍वर - इन सबको एक साथ सम्‍भव करता शिल्‍प, जो साध लिए जाने की इच्‍छा से मुक्‍त है। मेरे लिए यह अनूठी पढ़त रही.....आप भी पढ़ कर देखें....

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  12. Shaandaar kavitain hain...Ekdam moulik! Badhai! aur aabhaar

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  13. हेलो ,कवि जी आपकी कविताये बहुत अच्छी लगी ।िन कविताओ की भाषा और तेवर अलग है.इस तरह की भाषा गहरे अनुभव और जद्दोगहद से ही अर्जित की जा सकती है।ये कविताये सर्लीकरण से बची हुई है।ुनके भीतर एक ताप है।पहली कविता यथार्थ का नया चेहरा प्रस्तुत करती है ।यह कविता बार बार पढने की इच्छा पैदा करती है।कविता पढने का सुख कम कविताये दे पाती है ।ये कविताये इस शून्य को भरती है ।बधाई और शुभकामनायें ।

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  14. तीसरी और सातवीं कविता अच्छी लगी गिरिराज जी...बधाई...हरिओम

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