कथा - गाथा : राकेश दूबे

























युवा कथाकार राकेश दूबे का पहला कहानी संग्रह, 'सपने .. बिगुल और छोटा ताजमहल' इस वर्ष दखल प्रकाशन से आया है. राकेश दूबे की कहानियां विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होकर ध्यान खींचती रही हैं. ‘दशानन नहीं मरेगा’ में राकेश ने लोक कलाकारों की विडम्बना का सजीव वर्णन किया है, गाँव की रामलीला में तीस वर्षो से राम का अभिनय करता कलाकार किस विवशता में रावण के अभिनय के लिए तैयार होता है, पढना एक अजीब द्वंद्व में डाल देता है. बदलते समय के साथ चलने में आखिरकार पहली बलि नैतिकता की ही क्यों चढ़ती है.

  
दशानन नहीं मरेगा                

राकेश दूबे


गाँववाले इस साल की रामलीला को लेकर एक बार फिर उत्साहित हैं. रामजी की मंच पर फिर वापसी हो रही है, पांच साल बाद. इन पांच वर्षों में रामलीला बन्द हो गयी हो ऐसा तो नहीं है लेकिन रामजी के बिना रामलीला में वह मजा कहाँ. रामजी मिसिर की बात ही दूसरी है वह जब मंच पर राम के रूप में उतरते हैं तो लगता है जैसे सचमुच राम अवतरित हो गये हों. धनुष यज्ञ में गाँव की हर औरत हाथ जोड़कर उनके लिये मन ही मन भगवान शिव से प्रार्थना करती कि धनुष उनसे उठ जाय सीता के जोग उनके अतिरिक्त दूसरा वर कहाँ है. जैसे ही धनुष टूटती है जनसमुदाय जय जयकार कर उठता है. कोपभवन में पड़ी कैकेयी सबके कोपभाजन का अवलम्ब हो जाती है. जब वे वल्कल वस्त्र पहनकर लक्ष्मण और सीता के साथ वन के लिये निकलते हैं शायद ही कोई ऐसी आँख हो जो गीली न हो जाती हो. यह सब हर साल होता है. रामलीला इस गाँव के जीवन का अहम हिस्सा है. दस दिन तक चलने वाला यह उत्सव दशहरे के दिन रावण बध, सीता की लंका से वापसी और राम के राज्याभिषेक के साथ सम्पन्न होता है. देर शाम गाँव के बाल, वृद्ध, स्त्री पुरूष मेले से लाई, गट्टा, बताशा, बरफी के साथ लौटते हैं. रामलीलायें तो आस पास के गाँवों में और भी कई होती हैं लेकिन इस गाँव की रामलीला का जोड़ नहीं है. इसका सबसे बड़ा कारण है रामजी मिसिर का राम के चरित्र का जोरदार अभिनय. जब वे पितांबर पहने चेहरे पर पाउडर के उपर अभ्रक जिंक लगाये चमकीला मुकुट पहने टेंट हाऊस के सिंहासन पर विराजमान होते हैं तो गाँव जवार की औरतों में उनका पैर छू लेने के लिये होड़ लग जाती है.
      
इस गाँव के रामलीला का इतिहास काफी पुराना है. लगभग चालीस बरस का तो होगा ही. कहते हैं कभी कहीं से एक साधू बाबा घूमते हुये आये और रामलीला स्थल के पास गाँव के बाहरी छोर पर अपनी छोटी सी झोपड़ी बनायी. धीरे धीरे इस झोपड़ी पर दोपहर, शाम को गाँव के गांजे के आदी दो चार नवयुवक और कुछ समय काटने वाले बुजुर्ग भी जुटने लगे. बाबा चिलम चढ़ाते, सद्गुरू के भजन गाते कुछ धरम करम की बातें करते. झोपड़ी धीरे धीरे कुटी बन गयी. देवी देवता भी स्थापित होने लगे. कुछ सालों में ही वहां एक बहुत बड़ा तो नहीं लेकिन गाँव जवार की आस्था को ठांव देने वाला एक ठीक ठाक मन्दिर बन गया. इसी मन्दिर के चबूतरे पर एक दिन दोपहर में गांजे की चिलम को साक्षी मानकर यह तय किया गया कि इस साल गांव में रामलीला खेली जायेगी. यह टी. वी. पर रामनन्द सागर से पहले का युग था. तमाम सीमाओं के बावजूद अच्छी खासी भीड़ देखकर कलाकारों का उत्साह बढ़ा. अगले साल कुछ और बेहतर तैयारी. धीरे धीरे रामलीला कमेटी स्थापित हो गयी. 

बाजार शायद आदमी के साथ ही पैदा हुआ था. इस रामलीला पर भी बाजार की नजर पड़नी ही थी. दशहरे के दिन आस पास के छोटे मोटे दुकानदार लाई, गट्टा, बतासा आदि रखने लगे. यह कलकत्ते के चटकल का युग था. धीरे धीरे परदेशी कम से कम दशहरे पर गाँव' आने की जरूर कोशिश करने लगे. फिर यह लगभग निश्चित सा हो गया. गाँव की औरतों के लिये यह रामलीला एक बड़ा बरदान लेकर आयी. अब परदेशी दशहरे में जरूर घर आयेगा. दशहरा आते ही गाँव चटकल के लाल,हर, पीले, नीले गमछों से रंगीन हो जाता है. परदेशी आयेगा तो पैसा भी आयेगा. पैसा आयेगा तो खर्च भी होगा. मेला बड़ा होता गया. कमेटी की आय भी बढ़ी. दुकानों से नगदी आने लगी. कलाकारों को भी कुछ न कुछ नगद मिलने ही लगा.
      
विषयान्तर के लिये क्षमा. बात रामजी मिसिर से शुरू हुयी थी. चूँकि रामजी मिसिर और रामलीला एक दूसरे के पूरक हैं इसलिये इतनी चर्चा जरूरी थी. खैर मिसिर जी और रामलीला के संबन्ध के आरम्भ पर चलते हैं. मिसिर जी नौ वर्ष की आयु में बाल राम के रूप में रामलीला से जुड़े. उनके जुड़ाव के समय रामलीला और मेला दोनों पूरी तरह से स्थापित हो चुके थे. उनका नाम उस समय रामजी नहीं था. यह नाम भी इस रामलीला की ही देन है. मंच पर राम को उन्होने ऐसे जिया कि गाँव जवार के लिये वे सचमुच के रामजी हो गये. धीरे धीरे उनका यही नाम सर्वमान्य हो गया, तो कहानी में भी उनका यही नाम रहेगा.

पांच भाई बहनों वाला उनका परिवार गाँव के गरीब परिवारों में था. उनके पिता जब चटकल जाने को तैयार हुये तो बूढ़े पिता की आंखे छलछला गयीं. अपने पुत्रमोह को उन्होने स्वाभिमान का आवरण ओढ़ाया
       उत्तम खेती. मध्यम बान
       निषिद्ध चाकरी. भीख निदान.

परदेश जाकर किसी की गुलामी करने से बेहतर है कि अपनी खेती बारी की जाय. धरती मइया अपनी संतानो को जीने भर का जरूर दे देती है. बूढ़े ससुर की बात नयी नवेली बहू को भी अच्छी लगी. पिता ने आज्ञाकारी बेटे का फर्ज निभाया. घर रहने का प्रभाव वंश वृद्धि पर स्पष्ट दिखाई पड़ा. पाँच बच्चे आंगन में किलकारिया लेने लगे. धरती मइया भी उस साल के बाढ़ से पहले तक अपना वादा पूरा करती रहीं. उस साल की बाढ़ पूरे गाँव के लिये अपशकुन बनकर आयी. अपनी ओर से गाँव वालों ने बांध को बचाने का भरपूर प्रयास किया फिर जीवन को महत्व देते हुये गाँव के उत्तरी छोर पर यह जानते हुये भी कि गांव की सबसे उपजाऊ जमीन उधर ही बांध को काटने का निर्णय लिया गया. जिन्दगी बच गयी लेकिन गांव की पूरी जमीन बलुहट हो गयी.
      
रामजी मिसिर को जब कमेटी की ओर से बाल राम बनने के लिये प्रस्ताव आया तो घर में एक नया विमर्श खड़ा हो गया. मैं अपने बेटे को राम नहीं बनने दूँगी. भगवान का रूप धरने से आयु छीड़ होती है. मॉं का वात्सल्य सहम गया.

यह सब कहने सुनने की बातें हैं. इतने लोग रामलीला खेलते हैं सबकी उमर कम हो गयी. वैसे भी गरीबो को अधिक उमर अभिशाप ही होती है. पिता को कमेटी की ओर से मिलने वाली धोती गमछा और कम से कम पांच सौ नगद साफ दिखाई पड़ रहा था. बच्चे को भी कम से कम दस दिन शुद्ध भोजन चमकीले वस्त्र और मेले के बाद हर कलाकार को मिलने वाला लाई गट्टा बताशा मोहित कर रहा था. वह जब भी कलकतिहों के बच्चों को यह सब खाते देखता उसका मन ललचा कर रह जाता. मॉं का वात्सल्य पति और पुत्र के व्यहारवादी दृष्टि पर विजय नहीं पा सका. रामजी मिसिर तबसे लेकर अबसे पांच साल पहले तक रामलीला के स्थायी राम हो गये. पूरे तीस साल मंच पर जिया उन्होने राम को. रामलीला की चर्चा उनके बिना अधूरी हो गयी. सबकी बातों का एक निष्कर्ष कुछ भी कहो मिसिर बबवा का जवाब नहीं है.

समय के साथ रामलीला और गॉंव दोनो बदलते रहे. गॉंव के लोग धीरे धीरे ग्लोबल आधुनिकता की चुनौतियों को समझने लगे. वे जान गये कि इस विश्व बाजार की चुनौती में गॉंव की पढ़ाई से सफल नहीं हुआ जा सकता. हर मॉं बाप की एक ही ख्वाहिश बेटा शहर में पढ़े.धीरे धीरे गॉंव बेटो के बिना होने लगा. बेटे जवान हुये पढ़लिखकर शहर में नौकरी भी पा गये. उन्हे अपने बेटों के भविष्य की चिन्ता अपने पिता से पहले होने लगी. पितृ धर्म का पालन करते हुये वे अपने बीवी बच्चों को भी शहर ले गये. परदेश पहले भी गाँव के लोग गये लेकिन होली दशहर परजरूर वापस लौटते. अब यह अनिवार्यता समाप्त हो गयी. गाँव अब बूढ़ों विधवाओं और अति गरीबो का होकर रह गया. इसी दौर में टी. वी. पर रामानन्द सागर अपने रामायण के साथ अवतरित हुये. अपने लाख जीवंत अभिनय के बावजूद रामजी मिसिर अरूण गोविल और टी. वी. तकनीक के सामने ठहर नहीं पाये. रामलीला और मेला दोनों की रौनक कम होने लगी. धीर धीरे दोनो रस्म अदायगी तक सिमटने लगे. रामजी मिसिर को यह सब भीतर ही भीतर कचोटता रहता. रामलीला मेला और गांव सब उनके भीतर गहरे स्तर तक धंसे थे. उनके लिये रामलीला कभी खेल नहीं रही. राम का चरित्र तो उन्हे कंठस्थ हो गया था. हर उनकी आंखे जटायु लक्ष्मण के लिये भीगतीं सीता परित्याग के दंश से वे वर्ष भर नहीं उबर पाते रावण पर क्रोध हर साल बढ़ता जाता. उस साल यह क्रोध दशहरे से पहले ही फूट पड़ा जब उन्होने सुन कि कमेटी इस साल तवायफें बुलाने पर बिचार कर रही है. भड़क उठे मिसिर जी मैं पूछता हूँ कि हो क्या गया है आप लोगो को. रामलीला के मंच पर तवायफें नाचेंगी. राम राम.भगवान से डरिये. धरती धंस जायेगी. परलय आ जायेगा परलय.

कमेटी सचिव गुप्ता जी मुस्कराये कोई परलय नहीं आयेगा मिसिर जी. जमाना बदल गया है. आप देख ही रहे हैं पिछले कुछ सालों से दर्शको की भीड़ लगातार कम होती जा रही है.

तो क्या भीड़ जुटाने के लिये धर्म की मर्यादा भूल जाइयेगा आप लोग. अरे हमारी रामलीला की अपनी पहचान है अगर हम भी औरों जैसा ही करने लगे तो हममें और उनमें फर्क ही क्या रह जायेगा.

लेकिन जब दर्शक ही नहीं रहेंगे तो रामलीला होगी किसके लिये. गुप्ता जी के इस तर्क का कोई जवाब नहीं था मिसिर जी के पास. फिर भी जिस मंच पर तवायफ हो उस मंच पर चढ़ने के लिये वे स्वयं को तैयार नहीं कर पाये.
      
रामजी मिसिर ने रामलीला छोड़ने का फैसला कर लिया. वे मन ही मन आश्वस्त थे. दौड़ कर आयेंगे कमेटी वाले उनके पास. सौ दो सौ लोग भी जुट जायं तो कहना. तब पता चलेगा कि रामजी मिसिर क्या चीज हैं. भीड़ जूते चप्पल न चलाये तो नाम बदल देना. देखता हूँ राम कौन बनता है.

रामलीला में वैसा कुछ भी नहीं हुआ जैसा उन्होने सोचा था बल्कि इस साल हर सालो की अपेक्षा अधिक भीड़ जुटी. आस पास के नौजवान भी खिंचते चले आये. रामजी मिसिर को छोड़ सब प्रसन्न थे. दर्शक़ कलाकार.  कमेटी. कमेटी अपने लक्ष्य में कामयाब रही. दर्शक खूब. दर्शक खूब जुटे तो चढ़ावा भी खूब चढ़ा. चढ़ावा बढ़ा तो कलाकारों को भी फायदा हुआ. युवा वर्ग तो बाई जी लोगों का मुरीद हो गया. कुछ भी हो इस साल रामलीला में मजा आ गया.यह सब झरेलों का कमाल है.

भाई गुप्तवा की दाद देनी होगी. इस उमर में भी लल्लन टाप माल तलाश कर लाया.’ रामजी मिसिर दर्शकों की प्रतिक्रिया पर कान लगाये रहे. उनकी अनुपस्थिति का क्या असर हुआ. दर्शक जरूर निराश हुये होंगे उनकी अनुपस्थिति से लेकिन दर्शको के बीच से उनका जिक्र तक गायब था. बाई जी के आरा हिले छपरा हिले बलिया हिलेलाके तूफान में उनका तीस साल का रंगमंचीय जीवन किसी तिनके की तरह उड़ गया था. वे सदमें में आ गये. क्या हो गया है समाज को. क्या सचमुच तीस साल का उनका रंगमंचीय जीवन खेल भर था.
      
रामजी मिसिर पांच साल रामलीला से दूर रहे. इन पांच सालों में उनके मन शरीर और चेहरे की रंगत बदल गयी. रामलीला क्या छूटा जीवन का स्रोत छूट गया. वे बाहर भीतर दोनो ओर से थक गये. किसी काम में मन नहीं लगता. रामलीला के दस दिन तो उनपर वज्रपात की तरह गुजरते. इन दिनों में वे घर के अन्दर कैद से हो जाते. रामलीला की खबरें छन छन कर उन तक आती रहती. कमेटी अपने मिशन में कामयाब थी. हर साल एक से एक तवायफें आने लगीं. भीड़ हर साल बढ़ने लगी. चढ़ावा कई गुना तक बढ़ गया. कलाकारों के पारिश्रमिक में भी भारी वृद्धि की गयी. रामलीला बन्द नहीं होनी चाहिये आखिर यह सब उसी से था. गुप्ता जी का सीधा सा तर्क था पैसे आयेंगे तो हमें देने में क्या हर्ज है. साथी कलाकार जरूर रामजी को याद करते. वे जब भी मिलते उन्हे लौट आने को कहते क्या मिसिर जी कहां जिद किये बैठे हैं. अरे जो हो रहा है होने दीजिये. हमारे आपके सुधारने से यह समाज नहीं सुधरने वाला है फिर हम क्यों अपना दिमाग खराब करें. जब मुफ्त में काम करना था तब तो लगे रहे अब जब ठीक ठाक पैसा मिलने लगा है तो सत्याग्रह पर चले गये. मिसिर जी कुछ नहीं बोलते. पांच साल में वे भी अब जान गयें हैं कि समाज उनके सुधारने से नहीं सुधरने वाला. वे हंसकर जवाब देते भाई मन मानने की बात है. जिसका मन करे वह करे मेरा मन तो उस मंच पर नहीं चढ़ सकता जिसपर तवायफ हो.

मिसिर जी के सत्याग्रह पर पत्नी भी नाखुश थीं. आखिर सब लोग उसी रामलीला में कैसे काम कर रहे हैं. आप सचमुच के राम थोड़े हैं. आप गृहस्थ हैं जिसके बाल बच्चे भी हैं. तीस साल इसी रामलीला के पीछे गंवा दिया अब जब कुछ पैसे मिलने की बारी आयी तो छोड़कर बैठ गये. बच्चे दशहरे पर एक पाव लाई गट्टे को तरस कर रह जाते हैं. इससे तो बेहतर होता औरों की तरह आप भी कलकत्ता बंबई चले गये होते. कम से कम बच्चे दशहरे के दिन उदास तो नहीं होते.
      
बच्चों का दशहरे के दिन उदास होना सचमुच बहुत अखरता है मिसिर जी को. जब तक वे रामलीला में रहे बच्चे दशहरे के दिन कभी उदास नहीं हुये. शाम को जब भी वे मेले से लौटते तो उनका झोला उन लोगो से अधिक भरा रहता जो कहीं बाहर कमाते थे. दुकानदार और कलाकारों के लिये भले ही हीला हवाली करें लेकिन उनका इतना सम्मान तो करते ही थे कि उन्हे कभी मुँह खोलने की जरूरत नहीं पड़ी. उनके दुकान पर जाते ही वे बड़े अदब से उनके झोले में चीजें डाल देते. दशहरे की शाम बच्चों को हंसते खिलखिलाते देखने का सुख इस रामलीला की बदौलत कभी कम नहीं हुआ. रामलीला छोड़ने के बाद भी वे बच्चों का मन रखने के लिये मेला जरूर जाते लेकिन हर साल झोला हल्का होता गया. हल्का मेला भी हुआ केवल रावण का पुतला हर साल जरूर बढ़ता रहा.
      
मिसिर जी रात भर सो नहीं पाये. क्या फिर वे रामलीला में काम करना शुरू कर दें. मन तो नहीं करता लेकिन उनके इस मन का खामियाजा उनके बच्चे क्यों उठाये. माना कि रामलीला उनके लिये खेल नहीं है लेकिन समाज अगर इससे खेल ही मानता है तो वे भला क्या कर सकते हैं..उन्होने अलग होकर भी देख लिया. क्या फर्क पड़ा. रामलीला अब भी चल रही है बल्कि और बेहतर चल रही है.भीड़ पहले से भी अधिक हो रही है.उनका तो जिक्र भी नहीं है फिर ऐसी प्रतिबद्धता का क्या फायदा जिसमें केवल नुकशान हो. वे सुबह ही गुप्ता जी से मिलेंगे.

गुप्ता जी रिर्हल्सल की तैयारियों में मशगूल थे. आप कमेटी के सबसे पुराने और बेहतर कलाकार हैं मिसिर जी. हम तो तब भी नहीं चाह रहे थे कि आप हमें छोड़कर जायं. यह कमेटी सदैव आपका स्वागत करती है. आपको वापस आने के लिये किसी से इजाजत लेने की जरूरत नहीं है लेकिन.

लेकिन क्या.

अब आपकी उमर राम बनने के लायक नहीं रह गयी है. राम के चरित्र में एक तरूणाई होनी चाहिये चेहर पर एक मासुमियत होनी चाहिये जो अब आपके चेहरे पर नहीं रह गयी है. राम के अतिरिक्त आप जो भी चरित्र निभाना चाहें आप चुन सकते हैं.

गुप्ता जी के इस बात का सबने समर्थन किया. स्वयं मिसिर जी भी इस बात से सहमत थे कि गोस्वामी तुलसीदास जी ने मानस में राम के चरित्र का जितना विस्तार किया है. जिसका मंचन रामलीला में होता है उसे निभाने के लिये अब उनका चेहरा और शरीर उपयुक्त नहीं है लेकिन जिस तरह से उन्होने तीस वर्षों तक राम के चरित्र को मंच पर जिया था उनके लिये किसी और चरित्र को निभा पाना आसान भी नहीं था. लेकिन काम तो करना ही था. फिर कौन चरित्र चुनें जो उनके मंचीय कद के उपयुक्त हो. दशरथ? नहीं दशरथ राम के निमित्त मात्र हैं. जनक परशुराम या विश्वामित्र. यह सब भी केवल सहायक हैं. उन्हे थोड़ी निराशा हुयी गोस्वामी तुलसीदास से. उन्होने राम की वृद्धावस्था का वर्णंन क्यों नहीं किया. मन ही मन हंसे रामजी मिसिर शायद बाबा भी जनता के बाजारवादी मन को जान गये थे इसलिये राम वहीं तक मुखर हैं जब तक रावण है. रावण के न रहने पर जनता को राम की क्या जरूरत. इसीलिये रावण के मरते ही उन्होने जल्दी जल्दी मानस को समेट दिया. तो क्या राम अपने होने के लिये रावण पर निर्भर हैं. पहली बार उन्हे रावण का महत्व पता चला. राम के नजरिये से. लंकापति रावण.. अधर्म पर चलने वाला रावण. .सीता का बलात् हरण करने वाला रावण. राम अपने होने के लिये सचमुच रावण पर ही आश्रित हैं. रावण नहीं है तो राम की कोई पूछ नहीं है.  न जनता को न ही उनके परम भक्त तुलसीदास को.

रामजी मिसिर की आस्था पर उनका कलाकार भारी पड़ा.उनके मंचीय कद के अनुरूप मानस में राम के अतिरिक्त एक ही चरित्र र्है रावण. उन्होने अपना फैसला सुनाया. इस साल वे रावण बनेंगे. कमेटी चकित थी. फिर भी उसे इस बात की प्रसन्नता थी कि उनका सबसे प्रतिष्ठित कलाकार वापस आ रहा है. आश्चर्यचकित गांव वाले भी थे. उनके लिये मिसिर जी को राम के अतिरिक्त किसी भी चरित्र में देखना एक नया अनुभव था.

मिसिर जी के आ जाने से सचमुच रामलीला की समृद्धता लौट आयी. रावण के रूप में उनके अभिनय से लोग चकित थे. तीस साल राम के चरित्र को जीने वाला व्यक्ति रावण का भी इतना जीवंत अभिनय कर सकता है

इसी को तो कलाकार कहते हैं. मिसिर बाबा सच्चे कलाकार हैं. वे किसी भी रोल में जान डाल सकते हैं. इस बार का रावण तो राम पर भी भारी पड़ा है.

दशहरे के दिन राम रावण युद्ध ने तो सबको चकित कर दिया. रावण के अट्टहास से पूरा मेला गूँज उठा. राम के बाण से जैसे ही रावण का सिर कटता रावण और भयंकर अट्टहास के साथ पुनः जीवित हो उठता. दर्शकों का रोमांच चरम पर था. राम हताश होने लगे थे. रावण का अट्टहास बढ़ता ही जा रहा था तभी मंच पर विभीषण आया.

प्रभु रावण के पेट में अमृत है.उसे मारना है तो पेट में बाण मारिये.
कुलघाती विभीषण. रावण खड्ग लेकर विभीषण की और दौड़ा. राम का बाण उसके पेट में लगा. रावण मारा गया. राम के जय जयकार से रामलीला खतम हुयी.
      
रामजी मिसिर मेले से लौट रहे हैं. पांच वर्ष बाद एक बार फिर उनका झोला भर गया है. आज वे रावण के चरित्र को समझने में लगे हैं. विभीषण अगर कुलघाती नहीं होता तो? राम तब क्या करते. रावण को मारना है तो उसके पेट में बाण मारिये. विभीषण के शब्द बार बार उनके कानो में गूंज रहे हैं.आचानक उनका चेहरा चमक उठा. जिस रहस्य को वे राम बनकर तीस साल में नहीं समझ पाये वह रावण बनते ही समझ में आ गया. उन्हे लगा उनके अन्दर सचमुच रावण अट्टहास कर रहा है रावण अजर अमर है. वह तब तक नहीं मरेगा जब तक पेट जिन्दा है.उसे कोई नहीं मार सकता.रावण को

मारना है तो पेट को मारना पड़ेगा लेकिन पेट कैसे मरेगा आदमी  है तो पेट है और पेट है तो रावण है.
   

लोगों ने देखा रामजी मिसिर धीरे धीरे आर्कमडीज में बदल गये जो नंगा ही यूरेका यूरेका चिल्लाता दौड़ रहा है.
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राकेश दूबे
२५ जनवरी १९७९, गोरखपुर
हिंदी उपन्यासों में पूर्वोत्तर भारत विषय पर शोध कार्य
ritika100505@rediffmail.com

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  1. Fir ek bar acchi kahani padne ko mili...ek rochak ant ke sath. badhai.

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  2. हमारा इतिहास यूरेकासम दर्शनों से भरा पड़ा है।

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  3. एक ही सांस में पढी पूरी कहानी. बदलाव जीवन का एक आवश्यक अंग है और जब जीवन एक पात्र के रूप में अपने आपको देखता है तो फिर कहानी के अंत में जो हुआ वह नाटकीय न होकर सच लगने लगता है. यहाँ यह भी प्रश्न है कि क्या इस समय के कोई आदर्श हैं या फिर सब कुछ बाज़ार में है और वही तय करेगा हमारा भविष्य? और क्या केवल यही ठीक तरीका है उन्नति का? एक अच्छी कहानी.

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