कथा - गाथा : सईद अय्यूब (४)




























दाढ़ का दर्द                                              
सईद अय्यूब


सईद की कहानियों का वातावरण उत्तर भारतीय कस्बों के निम्नवर्गीय मुस्लिमसमाज के इर्द-गिर्द निर्मित होता है. उर्दू की  किस्सागोई की रवायत से निकटता और भाषा पर पकड़ से उनकी कहानियों में पठनीयता गज़ब की रहती है. एक अजब विद्रूप में कहानियों का अंत होता है जो हमारे समाज की हिस्र शक्तियों के सामने हमारी बेबसी का ही दरअसल एक प्रकटीकरण है.

एक हिन्दुस्तानी मियां  दाढ़ के दर्द के कारण ठीक से अपनी भारतीयता सिद्ध नहीं कर पाते और मारे जाते हैं.  




हर का यह मुहल्ला दो चीजों के लिए मशहूर है. पहली यह कि मुसलमानी मुहल्ला है इसलिए काफ़ी खूंख्वार है और दूसरी यह कि खुद अल्लाह मियाँ भी आ जाएँ, तो इस मुहल्ले को साफ़ नहीं कर सकते. वैसे तो यह मुहल्ला काफ़ी लंबा-चौड़ा है लेकिन शहर की मुख्य सड़क से कटकर इस मुहल्ले में प्रवेश करने पर दायीं तरफ़ जो मस्जिद पड़ती है उससे निकलती बायीं ओर की सड़क के अंतिम सिरे पर रहते हैं हिंदुस्तानी मियाँ. पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में नौजवान और फिर जवान हुई पीढ़ी ने तो बस उनको देखा है जैसे उन्होंने उस सार्वजनिक शौचालय को देखा है जो अपने अंदर की सारी गंदगी अपने पिछवाड़े यानी मुहल्ले के मुँह पर उगलता रहता है और जिसकी बदबू बाहर से आने वालों को बहुत दूर से ही इस मुहल्ले का पता दे देती है. लेकिन मुहल्ले वालों के लिए यह कोई परेशानी की बात नहीं है. वे ईद के दिन लगाये जाने वाले इत्र की खुश्बू और इस सदाबहार बू में कोई फ़र्क नहीं करते.

तो पिछले बीस-पच्चीस वर्षों में नौजवान और फिर जवान हुई पीढ़ी नहीं जानती कि हिंदुस्तानी मियाँ और यह शौचालय कब और कैसे इस मुहल्ले में आये. बस उन्हें मालूम है तो दोनों के इस्तेमाल का तरीका. एक रुपये दो और शौचालय का मनमाना उपयोग करो. ठीक उसी तरह, जब मुहल्ले में कोई मज़ेदार घटना न हो तो हिंदुस्तानी मियाँ का मनचाहा उपयोग करो. लेकिन सच पूछो तो इस मुहल्ले के नौजवानों को उस शौचालय या हिंदुस्तानी मियाँ की ज़िंदगी के बारे में पता करने की फुर्सत भी नहीं है. दिन भर क्रिकेट, पतंग, और एक दूसरे से गाली-गलौज और छोटी-मोटी लड़ाइयों जैसी बदनतोड़ मेहनत के बाद जो समय बचता है वह मस्जिद के मुल्ला जी की वजह से ऊपर वाले अल्लाह जी को सौंपना पड़ता है. आखिर को उस दुनिया में ही रहना है और मगफिरत तो अल्लाह जी ही को करनी है और मगफिरत के बारे में तो मुल्ला जी ही को बताना है. वैसे मुल्ला जी दसवीं छोड़, पाँचवी भी पास नहीं हैं.

किसी टटपूंजिए मदरसे के पासआउट. क़ुरान और हदीस पढ़ लेते हैं और उनको समझने का काम अपने खुदा पर ही छोड़ देते हैं. पर दिखते और दिखाते ऐसे हैं जैसे खुदा और उसके रसूल पर पी.एच.डी. कर रखी है और कभी-कभी तो ऐसा लगता है अगर वे नहीं होते तो खुदा और उसके रसूल की जात ही खतरे में पड़ जाती. मुहल्ले का हर नौजवान साल में एक-दो महीने के लिए बाक़ायदा नमाज़ी हो जाता है और जब तक वह नमाज़ पढ़ता रहता है दूसरे बे-नमाज़ियों की ज़िंदगी पर अफ़सोस करता रहता है. हर एक-दो महीने के बाद पुराने नमाज़ियों की जगह कुछ नए नमाज़ी आ जाते हैं और दूसरे नमाज़ियों की तरह,       बे-नमाज़ियों पर अफ़सोस करने लगते हैं और मुल्ला जी की मेहँदी लगी दाढ़ी उसी पुराने अंदाज़ में हिलती रहती है.

लेकिन इस मुहल्ले की पुरानी पीढ़ी, जो दिन भर मुहल्ले की विभिन्न बैठकों (चाय की दुकानों) में बैठकर चाय और पावरोटी खाती रहती है, लोकल उर्दू अखबार जो कभी-कभी कोई ताज़ा खबर भी दे देते हैं, पढ़ती रहती है और मुहल्ले के इक़बाल मियाँ और उनके सपूत बब्बन मियाँ और बब्बन मियाँ के पूत शब्बन मियाँ के करतूतों पर बहस-मुबाहिसा करती रहती है, को अच्छी तरह याद है कि हिंदुस्तानी मियाँ और यह शौचालय मुहल्ले में कब आए क्योंकि दोनों के ही आने से मुहल्ले में जो हलचल हुई, उसको भूलना आसान नहीं है. एक रात अच्छे-भले सोकर जब मुहल्ले के लोग जागे तो एक साथ दो-दो झटके उनका इंतज़ार कर रहे थे. पहला झटका लगा जब सोकर उठने के बाद, वे ज़िंदगी का एक निहायत ज़रुरी काम निपटाने मुहल्ले के बायीं ओर की खाली पड़ी ज़मीन पर पहुँचे.

वर्षों से अपनी पुश्तैनी मिलकियत समझ कर जिस ज़मीन पर मुहल्ले के मर्द और औरतें को-ऑपरेटिव की भावना से एक दूसरे के आस-पास और आमने-सामने बैठकर, एक दूसरे की तरफ देखते हुए भी न देखकर और दूसरे के काम में दखलंदाजी न करते हुए अपना नैसर्गिक काम करते चले आ रहे थे, उसी ज़मीन को चारों तरफ़ से रस्सियों से घेर कर कुछ लोग खुदाई कर रहे थे. ठेकेदार और मज़दूरों द्वारा डाँट कर वहाँ से भगा देने के बाद लोगों ने अपना काम आस-पास के बगीचों और झाड़ियों में निपटाया. जब लोग किसी तरह से अपना-अपना काम निपटा कर वापस आए तो इक़बाल मियाँ के घर के सामने बने हुए हाते से आती हुई कुछ तेज़ और कुछ फुसफुसी आवाजों ने उनके क़दम रोक लिए और जल्दी ही पता चल गया कि यह उनके लिए दूसरा झटका था. हाते के अंदर से एक औरत की तेज़ आवाज़ उभर रही थी-

“मुतपियना के....!जब माँ-बाप ने जनखा ही जना था तो मर्द बनने काहे को चले थे?”
एक मर्द की फुसफुसाती आवाज़- “मैं कहता हूँ चुप...”
“काहें को चुप रहूँ रे गड़ेना...”-तेज़ आवाज़ ने फुसफुसाहट को काटा- “अब एक बार कह दिया कि यहाँ से नहीं जाएँगे तो बस...चलते चलते तो एड़ी में फोड़ा हो गया...”
फुसफुसाहट...
तेज़ आवाज़...
लोगों की उत्सुकता...
तेज़ आवाज़...
फुसफुसी आवाज़ तो ज़्यादा समझ में नहीं आती थी लेकिन तेज़ आवाज़ों वाले डायलाग ज़बरदस्त थे. उनको सुनकर लोगों को फुरफुरी छूट रही थी और अपनी बात-चीत में उस फुरफुरी का मज़ा वे आज भी लेते हैं.

चारों तरफ़ से ईंटो की दीवार से घिरा इक़बाल मियाँ का यह पुराना हाता पिछले साल से वीरान पड़ा था. पहले समदू इसमें सब्ज़ियाँ उगाता था. इक़बाल मियाँ के ननिहाल के गाँव से आया समदू, हट्टाकट्टा नौजवान. दिन भर इस हाते में हड्डीतोड़ मेहनत करके कई तरह की सब्ज़ियाँ उगाना, इक़बाल मियाँ के घर में इस्तेमाल होने के बाद बची हुई सब्ज़ियों को बाज़ार में ले जाकर बेचना और फिर ईमानदारी से सारा हिसाब-किताब इक़बाल मियाँ को देना और बदले में दो वक़्त का खाना और कभी-कभी इक़बाल मियाँ की गालियाँ सुनना उसका फर्ज़ था. लोगों को हैरानी होती थी कि इतना हट्टाकट्टा और मेहनती नौजवान, जिसको दुनिया में हज़ार काम मिल सकते थे, रोटी के चंद टुकड़ों और इक़बाल मियाँ की गालियों पर इतने सालों से यहाँ टिका हुआ था.

खुद इक़बाल मियाँ भी कभी कभी हैरान होते थे और हैरान होने के साथ ही परेशान हो जाते थे कि अगर समदू कभी छोड़ कर चला गया तो...किंतु पिछले साल जब इक़बाल मियाँ की हैरानी मिटी तो वे और ज़्यादा परेशान हो गए. एक दिन, यूँ ही, बिना किसी इरादे के इक़बाल मियाँ टहलते-टहलते हाते की तरफ़ जा निकले. सब्ज़ियों के खेत में समदू कहीं दिखाई नहीं दिया. जिज्ञासावश उन्होंने हाते में बनी हुई, समदू की झोंपड़ी के अंदर झाँक लिया और झाँकते ही उनके होश फ़ाख्ता हो गए. समदू के सोने के लिए बिछी हुई पुआल की एक ओर समदू की लुंगी और इक़बाल मियाँ के पोते शब्बन मियाँ जो लगभग बारह साल के थे ओर पतंगे उड़ाने का जुनून की हद तक शौक रखते थे और समदू जिन्हें अक्सर नई-नई पतंगे बना कर देता रहता था, का हॉफपैंट पड़ा हुआ था और पुआल की दूसरी ओर समदू ओर शब्बन मियाँ. इक़बाल मियाँ दुनिया देखे हुए थे. ना कोई शोर किया न कोई शराबा. बस तब से ही इक़बाल मियाँ का यह पुराना हाता वीरान हो गया था.

इक़बाल मियाँ के आने पर जब लोगों ने हाते में प्रवेश किया तो उन्हें पहली बार हिंदुस्तानी मियाँ के दर्शन हुए. सर पर अंगोछा, बदन पर एक मैला सा कुर्ता, कुर्ते के नीचे मुसलमानी ट्रेडमार्क लुंगी, बिना चप्पलों के धूल भरे पैर, चेहरे पर बकर दाढ़ी और गजब की दीनता लिए हिंदुस्तानी मियाँ सामने थे. उम्र तो खैर कुछ कम रही होगी पर दिखते पचास से ऊपर के थे. लेकिन हिंदुस्तानी मियाँ का जायज़ा तो लोगों ने बाद में लिया क्योंकि जिस दूसरे झटके ने उनके होश उड़ाये थे, वह हिंदुस्तानी मियाँ के सामने, एक साँवली, तीखे नैन-नक्श, लगभग तीस साला, सरापा चंडी बनी हुई औरत के रूप में खड़ा था. इक़बाल मियाँ ने उस औरत पर एक निगाह डाली और उसी वक़्त उस औरत ने भी इक़बाल मियाँ को देखा. दोनों की आँखें मिलीं और तय हो गया कि इक़बाल मियाँ के उस पुराने हाते पर उस औरत का हक़ है. हिंदुस्तानी मियाँ और जमीला वहीँ ठहर गएँ और इक़बाल मियाँ के पुराने हाते पर जमीला का हक़ रोज़-बरोज़ बढ़ता गया यहाँ तक कि इक़बाल मियाँ की पुरानी मेहरी नाराज़ हो गई क्योंकि उसको अपने हिस्से का बंदरबाँट पसंद नहीं आया.

सुगबुगाहट चेमेगोइयों में और चेमेगोइयाँ धीरे-धीरे चाय की दुकानों पर मुस्कुराहटों में नमूदार होकर कहकहों में बदलने लगीं और एक दिन लोगों ने देखा कि इक़बाल मियाँ और बब्बन मियाँ में ठहर गई. लोगों को, बाद में विश्वस्त सूत्रों से पता चला कि अपना हक़ मारा जाता देख, एक दिन मेहरी ने बब्बन मियाँ को कबाड़ वाली कोठरी की तरफ़ धकेल दिया और बब्बन मियाँ ने पहली बार देखा कि इक़बाल मियाँ के पुराने हाते पर जमीला ने किस तरह कब्ज़ा कर रखा था और बस फिर...लेकिन यह फ़साद की जड़ एक दिन खुद-ब-खुद उखड़ गयी और जमीला रात के तीसरे पहर, एक मरी हुई लौंडिया को जन्माने के बाद खुद भी उसके पास चली गयी. लोगों को मालूम था कि वह लौंडिया किसकी थी, गोरा रंग और चेहरे की बनावट एकदम साफ़ बता रही थी, लेकिन इकबाल मियाँ से कौन कहे?

हिंदुस्तानी मियाँ ने अपने और जमीला के बारे में लोगों को कई कहानियाँ सुनाईं जिससे यह तय करना मुशिकल हो गया कि कौन सी कहानी सच्ची है. शुरू में लोगों को हिंदुस्तानी मियाँ से डर भी लगा. कुछ लोगों का ख्याल था कि वह सी.आई.डी. का आदमी है और सरकार ने उसे इस इस्लामी मुहल्ले में यह टोह लेने के लिए भेजा है कि हिंदुस्तान के खिलाफ़ और पाकिस्तान के पक्ष में कहीं कोई साज़िश तो नहीं चल रही. लेकिन कुछ ही दिनों में लोगों को यह विश्वास हो गया कि हिंदुस्तानी मियाँ इस दुनिया के आदमी नहीं हैं. पहले-पहल जब लोगों ने उनसे उनका नाम पूछा तो जमीला का नाम तो उन्होंने बता दिया पर अपना नाम बताने की जगह बोले,-
“याद पड़ता है कि माँ-बाप ने एक थो नाम रखा था पर जान कर का कीजिएगा? आपके मन में जो आवे, वही बुला लीजिए.”

“हरामी” भीड़ में से एक लड़के ने अपने हिसाब से सबसे सुंदर नाम पेश किया.
हिंदुस्तानी मियाँ बोले, “अपने बाप का नाम हमको क्यों दे रहे हो भाई? चलो अब दे ही दिया है तो आज से हमको हरामी ही बुलाना. कम से कम इसी बहाने अपने बाप को कुछ देर के लिए याद तो करोगे.”

हिंदुस्तानी मियाँ का जवाब सुनकर ठहाके का एक बुलंद शोर उठा. लड़का यह देखकर सकपका गया और उठ कर दरवाज़े की तरफ़ भागा जहाँ वह अपने बाप से टकरा गया जो उसी वक़्त हाते हे अंदर आया था और उसने हिंदुस्तानी मियाँ का जवाब सुन लिया था. लेकिन लोग हैरान हुए कि उसने हिंदुस्तानी मियाँ को कुछ कहने के बजाए, लड़के को अपने सर से ऊपर उठाया और ज़ोर से ज़मीन पर पटक दिया. लड़का मरियल कुत्ते सा, काएँ-काएँ करता वहाँ से भागा और उसका बाप उसको रक बार फिर पटकने के नीयत से उसके पीछे हो लिया.

तो जब नाम को लेकर हिंदुस्तानी मियाँ ने अपना सस्पेंस बनाएँ रखा तो लोगों ने अपने सुविधानुसार उनको ‘बुढुऊ’, ‘बुढुआ’ या ‘बुड्ढा’ कहकर बुलाना शुरू कर दिया. हिंदुस्तानी मियाँ ने कुछ सोफियाना मिज़ाज पाया था. कोई कुछ भी कहता, चुपचाप मुस्कुरा कर सुन लेते थे. काम-धाम से कोई मतलब नहीं. जमीला अपनी दोहरी मेहनत के बलबूते जो कुछ भी लाती और पका कर रख देती, अल्लाह का नाम लेकर गटक जाते और इक़बाल मियाँ के हाते के बाहर रोड से मिला हुआ जो पत्थर का चबूतरा था, उस पर अपनी गुदरी बिछा कर सो जाते. लोग उनसे तरह तरह के मज़ाक करते. कभी-कभी इशारों-इशारों में जमीला की करतूतों की बात छेड़ कर मज़ा लेने की कोशिश भी करते लेकिन हिंदुस्तानी मियाँ के चेहरे पर वही नूरानी मुस्कुराहट मौजूद रहती. 

कभी-कभी एक फलसफी की तरह “सब अल्लाह की मर्ज़ी” कहकर मुस्कुराने लगते और मज़ा लेने की कोशिश करने वाले कुढ़ जाते और हिंदुस्तानी मियाँ को माँ-बहन की कोई ताज़ा दरयाफ़्त लफ़्ज़ों से नवाज़ते हुए वहाँ से अपनी-अपनी बैठकों में पहुँच जाते और जब कोई पूछता “क्या हाल-चाल है?” तो खुद “सब अल्लाह की मर्ज़ी” कहकर मुस्कुराने लगते और फिर अचानक चौंक कर, दुकान के लौंडे पर, चाय जल्दी लाने के लिए चिल्लाने लगते. मुहल्ले के ज़्यादातर लोगों ने मानना शुरू कर दिया था हिंदुस्तानी मियाँ का दिमाग चल चुका है लेकिन अब भी कुछ लोग थे जो कहते थे कि “नहीं, वह बहुत घुईयाँ है.”

बच्चों को हिंदुस्तानी मियाँ से ख़ास मुहब्बत थी और जब भी मौक़ा मिलता वे अपनी मुहब्बत का इज़हार करके ही दम लेते. जो भी लड़का हाते की तरफ़ से गुज़रता, “ऐ बुढुआ!” का ज़ोरदार नारा मारता हुआ निकलता. शुरू-शुरू में तो हिंदुस्तानी मियाँ ने इन मुहब्बतों का जवाब देने में थोड़ी हिचकिचाहट दिखाई लेकिन आखिरकार मुहब्बत जोश में आ ही गयी और कुछ दिनों के बाद जब वह जुनून में बदली तो मुहल्ले के लोगों, खासकर बन्ने चाचा ने, जिनको माँ-बहन के रिश्तेदार लफ़्ज़ों के ईजाद करने की अपनी काबिलियत पर गुरुर था, अपने-अपने मुँह सिल लिए और फिर तो बच्चों और हिंदुस्तानी मियाँ के बीच इज़हार-ए-मुहब्बत का एक पुरजोश मुक़ाबला शुरू हो गया. 

बात अब सिर्फ़ “ऐ बुढुआ” कहने तक नहीं रह गई थी, बल्कि कभी-कभी ढेले भी आने लगे. कभी कोई बच्चा पीछे से आकर उनके गंजे सिर पर ‘ठोड़ी’ मार जाता. गर्मियों की रातों में जब वे बाहर चबूतरे पर सो रहे होते, गोबर से भरी हुई हाँडी अचानक उनके मुँह के पास आकर फूटती और जवाब में हिंदुस्तानी मियाँ के मुँह से गोबर से भी सड़ी हुई चीज़ें निकलतीं. तो खैर, इज़हार-ए-मुहब्बत का यह सारा खेल जब-तब चलता ही रहता लेकिन...

लेकिन मुहल्ले वालों को हिंदुस्तानी मियाँ की आदतें भी धीरे-धीरे पता चल रही थीं. वे कोई मज़हबी आदमी नहीं थे. जुमे की नमाज़ के लिए भी मस्जिद जाना गवारा नहीं था. अल्लाह के नाम के सिवा, शायद अपने रसूल का नाम भी ठीक से नहीं ले सकते थे लेकिन पता नहीं क्या बात थी, रमज़ान के तीसों रोज़े बड़ी अकीदत के साथ रखते थे. रमज़ान के महीनों में जब तक साया चबूतरे पर रहता, वहीं बैठकर मन ही मन कुछ बड़बड़ाते रहते. अज़ान होते ही, उसी चबूतरे पर जिस पर कुत्ते और बकरियाँ अक्सर पेशाब किए रहती थीं, अपना अंगोछा बिछा कर नमाज़ शुरू कर देते. उनकी नमाज़ भी देखने की चीज़ होती. कभी बिना रुकू के सिजदे में जा रहे हैं, कभी दो की जगह तीन सिजदें कर रहे हैं, जहाँ नहीं बैठना है बैठ रहे हैं जहाँ बैठना है वहाँ नहीं बैठ रहे हैं, कभी सलाम फेरते हैं, कभी बिना सलाम फेरे ही नई रिक़ात शुरू कर देते हैं और फिर शाम को इफ़्तार के वक़्त जमीला जो कुछ भी दे देती, चुपचाप खा कर और “या अल्लाह” कह कर सो जाते हैं.  

जमीला के मरने के बाद मुहल्ले वाले इफ़्तार के वक़्त कुछ न कुछ उनके चबूतरे पे भिजवा ही दिया करते. कभी-कभी तो यह इतना ज़्यादा होता कि सेहरी के लिए बचा कर रखने के बावजूद भी बच जाता और तब हिंदुस्तानी मियाँ बकरियों और कुत्तों की तलाश में निकल पड़ते और इस काम में उनको ज़्यादा मेहनत नहीं करनी पड़ती. रमज़ान के रोज़ों के अलावा उनके क्रिकेट के शौक ने भी मुहल्ले वालों को हैरान किया था और इसी शौक़ ने उन्हें हिंदुस्तानी मियाँ का ख़िताब दिलवाया. मुहल्ले के लोगों को विश्वास नहीं होता था कि कोई हिंदुस्तानी मियाँ जैसा आदमी क्रिकेट का ऐसा शौकीन हो सकता है. मुहल्ले के बच्चे जब क्रिकेट खेल रहे होते, हिंदुस्तानी मियाँ चुपचाप, सब कुछ भूलकर देख रहे होते. 

कोई भी क्रिकेट मैच टी.वी. पर आ रहा हो, हिंदुस्तानी मियाँ बेचैन होकर इक़बाल मियाँ के घर के बरामदे में पहुँच जाते और दरवाजे की चौखट से लगकर, परदे को थोड़ा सा खिसका कर मैच के मज़े लूटने लगते. धीरे-धीरे इक़बाल मियाँ के बेटों और पोतों को उनकी आदत हो गयी और वे कभी-कभी हिंदुस्तानी मियाँ से क्रिकेट पर बात भी कर लेते. लेकिन लोगों को जिस बात पर बहुत हैरानी होती थी वह थी हिंदुस्तानी क्रिकेट टीम के प्रति उनका जुनून.

हिंदुस्तानी टीम उनके लिए दुनिया की सबसे बेहतरीन टीम थी और अगर कोई उनके सामने भूले से भी हिंदुस्तानी टीम के खिलाफ़ कुछ कह गया तो फिर तो उसकी खैर नहीं. ख़ास तौर से लोग उनके सामने उस दिन हिंदुस्तानी टीम के खिलाफ़ कुछ कहने से बचते थे जिस दिन हिंदुस्तानी टीम का कोई मैच हो रहा होता था और ख़ास तौर से उस दिन तो कुछ भी नहीं कहते थे जिस दिन हिंदुस्तान और पाकिस्तान की टीमों के बीच मैच हो रहा हो. इन दोनों टीमों के बीच हो रहे मुक़ाबले में तो हिंदुस्तानी मियाँ पागल से हो जाते थे और हिन्दुस्तान की तरफ़ से लगने वाले हर चौके-छक्के और यहाँ तक कि हर रन पर नाचने लगते और पाकिस्तान के गिरने वाले हर विकेट की खुशी यूँ मनाते जैसे वह विकेट उन्होंने ही लिया हो. उस दिन अगर किसी ने गलती से भी उनके सामने किसी पाकिस्तानी खिलाड़ी की तारीफ़ कर दी या हिन्दुतानी टीम की कुछ बुराई कर दी या किसी हिंदुस्तानी खिलाड़ी के खिलाफ़ कुछ कह दिया तो हिंदुस्तानी मियाँ उसको कोसते हुए माँ-बहन पर भी उतर आते और इधर कुछ सालों से, शायद उम्र बढ़ जाने के कारण वे कुछ हिंसक भी हो गए थे और जब-तब अपनी लाठी भी उठा लेते थे. 

शुरू में तो मुहल्ले वालों ने उनके इस ‘हिन्दुस्तान प्रेम’ का खूब मज़ा लिया और जान-बूझ कर उन्हें छेड़ते भी रहे. उसी वक़्त किसी मनचले ने उनका नाम हिंदुस्तानी मियाँ रख दिया और लोग धीरे-धीरे ‘बुढऊ’ या ‘बुढुआ’ को भूलें लगे और बाद में पैदा होने बच्चे तो आज तक यही जानते हैं कि उनका असली नाम हिंदुस्तानी मियाँ ही था. जब से हिंदुस्तानी मियाँ कुछ उग्र होने लगे थे, मुहल्ले वालों ने मैच के दौरान उनके सामने कुछ कहना बंद कर दिया था. मुहल्ले वालों की भरपूर कोशिश होती थी कि वे मैच देखने उनके घर न आएँ, लेकिन जब वे आ जाते थे तो फिर उनको भगाना तो खुदा के बस में ही हो सकता था. लोग लाख गालियाँ देते, घुड़कियाँ देते, हिंदुस्तानी मियाँ के चेहरे पर वही चिर-परिचित मुस्कुराहट. लोग खीज कर टी.वी. बंद कर देते, लेकिन कब तक? आखिर मैच तो उनको भी देखना होता था. जब टी.वी. बंद हो जाती थी हिंदुस्तानी मियाँ हिंदुस्तान-पाकिस्तान के किसी मैच का आँखों देखा हाल सुनाने लगते. हर मैच बुत रोमांचक होता. भारत शुरू से ही हार रहा होता, लेकिन हिंदुस्तानी मियाँ के लफ़्ज़ों में-
“आखिर हिन्दुस्तानों, हिन्दुस्ताने रहे. कोई खिलौना थोड़े न रहे कि जईसे चाहे नचा के खेले. अ जब सातवाँ विकेट भी गिर गया मैं तो एकदम घबरा गया. लगा कि अब ई मैच त गया लेकिन तभी आया अपना शेर कपिल देऊआ और अईसा मार मारा सब पाकिस्तानी लोग के, कि का बतावें....”

और हिंदुस्तानी मियाँ के इस आँखों-देखा हाल सुनने के बजाय लोग मैच ही देखना ज़्यादा पसंद करते और मन ही मन उन्हें गाली देते हुए टी.वी. ऑन कर देते.

इस बार  रमज़ान का महीना जाड़े में आया था. भारी ठिठुरन के बीच हिंदुस्तानी मियाँ हर साल की तरह रोज़े रख रहे थे और अपनी नमाज़ जो उन्होंने पूरी दुनिया से अलग ईजाद की थी, पढ़ रहे थे. लेकिन इस बार का रमजान उनके लिए आसान नहीं था. एक तो हड्डियों तक को सिहरा देने वाली ठंड और ऊपर से कुछ दिन पहले शुरू हुआ दाढ़ का दर्द. शुरू में तो यह एक सिहरन की तरह था और हिंदुस्तानी मियाँ ने सोचा कि शायद ठंड लग गई है. लेकिन धीरे-धीरे इस दर्द ने अपने पैर फैलाये और पिछले दो दिनों से हिंदुस्तानी मियाँ के लिए पानी पीना भी मुहाल हो गया था. मुँह के एक तरफ़ का हिस्सा सूजकर कुछ बाहर निकल आया था और चेहरे पर एक अजीब तरह का खिंचाव पैदा हो गया था. लोगों ने उन्हें कई सलाहें दीं क्योंकि वे मुफ़्त थीं, इफ़्तार के लिए बहुत सारा खाने का सामान दिया क्योंकि इससे अल्लाह खुश होता पर ये नहीं सोचा कि इस दर्द भरे और लटके हुए मुँह से वे क्या खा पाएँगे? 

इस रमज़ान के महीने में भी किसी अल्लाह के बंदे को यह तौफ़ीक नहीं हुई कि दो रूपये की दर्द की दवा ही लाकर दे दे. खैर यह मामला तो अल्लाह और उसके बंदो के बीच का था, वे जाने, हिंदुस्तानी मियाँ को इस दाढ़ के दर्द से अभी ज़्यादा मतलब नहीं था. अभी तो उन्हें मतलब था हिंदुस्तान और पाकिस्तान के बीच चल रहे रोमांचक सीरीज से.
  
तीन मैचों कि इस सीरीज में दोनों टीमों ने एक-एक मैच जीत लिया था और आज तीसरा मैच था. दोनों मुल्कों के अंदर इस मैच को लेकर जो जुनून था, उसके असर से सुबह से ही सड़कें खाली हो गयी थीं. लोगों ने अपनी-अपनी दुकानें बंद कर दी थीं. बच्चों को सुबह जहाँ-जहाँ दर्द हो सकता था हुआ और वे बेचारे स्कूल नहीं जा सके. सरकारी दफ्तरों में ‘कैजुअल लीव’ की वजह से साल की सबसे कम उपस्थिति दर्ज़ की गयी. 

दुआएँ और प्रार्थनाएँ लोगों के ज़ुबान पर थीं. हिंदुस्तानी मियाँ दर्द की वजह से पूरी रात सो नहीं सके थे. सेहरी का वक़्त खत्म होने को था. उन्होंने लोटे से एक घूँट पानी पिया जो एक ठंडे शोले की तरह उनकी दाढ़ से टकराया दर्द की तेज़ लहर ने वही पानी उनकी आँखों में भर दिया. अभी सुबह की अज़ान नहीं हुई थी लेकिन इससे बेखबर, उन्होंने वज़ू के बहाने काँपते हुए हाथ-पैरों पर कुछ पानी मला और सुबह की नमाज़ के लिए खड़े हो गये. पता नहीं कितनी नमाज़ पढ़ी, कितनी दुआएँ माँगी, दुआओं में क्या-क्या माँगा लेकिन जब सुबह लोगों ने उन्हें देखा तो वे उस ठंड में भी बाहर चबूतरे पे अपना अंगोछा बिछाए बैठे थे, हाथ आसमान की तरफ़ उठाये हुए. बाद में कुछ लोगों ने दावा किया कि उस वक़्त उनके मुँह से “या अल्लाह...हिंदुस्तान, या अल्लाह...हिंदुस्तान...जीत” जैसी कुछ आवाज़ निकल रही थी.

ठीक समय पर मैच शुरू हो गया और दो मुल्क अपना सारा पूजा-पाठ, सारा रोज़ा-नमाज़ और दुनिया के सारे काम भूलकर क्रिकेट के जुनून में समा गए. उस वक़्त दोनों देशों का धर्म एक हो गया था- क्रिकेट. उस वक्त भगवान और अल्लाह दोनों देशों के खिलाड़ियों में बदल गए थे और लोगों के टी.वी. सेट इबादातगाहें और प्रार्थना-सभाएँ बन गयी थे. हिंदुस्तानी मियाँ अपने पड़ोसी अज्जू कबाड़ी की दुकान के गेट पर समय से आकर बैठ गए थे. दाढ़ में रह-रह कर उठने वाली दर्द की तेज़ लहर बेचैन किए दे रही थी, आँखों में पानी आ आ जा रहा था. कभी-कभी दर्द हद से बढ़ने पर मुँह से सिसकी सी निकल पड़ती थी पर वे मर्दे मुजाहिद बने डटे हुए थे. किसी हिंदुस्तानी खिलाड़ी के बेहतरीन खेल पर चाहते थे कि तालियाँ बजाएँ लेकिन दर्द था कि हाथों को उठने से पहले ही गिरा देता था. पड़ोसी अज्जू ने एक बार डाँटा भी कि इतनी तकलीफ़ में रोज़ा रखने की क्या ज़रूरत थी और फिर यह सोचकर कि मस्जिद के मुल्ला जी ने बताया था कि रमज़ान में किसी को डाँटना नहीं चाहिए, चुप हो गया. वैसे भी इस वक़्त कोई भी इस तरह के डाँट-डपट में नहीं उलझना चाहता था.

समय बीतने के साथ खेल रोमांचक होता जा रहा था. कुछ पता नहीं चलता था कि ऊँट किस करवट बैठेगा. पाकिस्तान द्वारा एक शानदार स्कोर खड़ा करने के बाद हिंदुस्तान उसका पीछा कर रहा था. समय बीतता जा रहा था, दिन ढलता जा रहा था, इफ़्तार का वक़्त क़रीब आता जा रहा था और मैच का रोमाँच भी बढ़ता जा रहा था. आखिरकार मस्जिद से मग़रिब के अज़ान की आवाज़ आयी, लेकिन उस मुसलमानी मुहल्ले से कुछ ही चेहरे मस्जिद की तरफ़ जाते दिखे. घरों में औरतें इफ़्तार का सामान सजाये बैठीं थीं, लेकिन मर्दों को होश कहाँ? अभी तो तीन गेंद और चार रन बाक़ी हैं तो फिर इफ़्तार कैसे कर सकते हैं? अल्लाह नाराज़ नहीं हो जाएगा? और ये लो, ये लगा चौका और हिंदुस्तान जीत गया. अब लाओ, कहाँ है इफ़्तार....?

हिंदुस्तानी मियाँ की खुशी का पारावार नहीं था. हिंदुस्तान जीत गया था और शायद उनकी सुबह की दुआएँ भी. वे इस जीत की खुशी में अपने चबूतरे से मस्जिद तक ज़रूर जाते, हर किसी से मुस्कुरा कर मिलते और बताते कि हिंदुस्तान कैसे जीता लेकिन कमबख्त यह दाढ़ और उसका दर्द... हिंदुस्तानी मियाँ कहीं नहीं जा सके. चबूतरे पर कोई इफ़्तार का सामान रख गया था. उसमें से किसी तरह से एक खजूर खा कर पानी पिया लेकिन दर्द ने कुछ और खाने से बेबस कर दिया. चुपचाप चबूतरे पर बैठ गए. ऐसा लग रहा था जैसे किसी क़रीबी की मौत हो गयी हो. 

उनकी पकी हुई बकर दाढ़ी के बाल दर्द की हर लहर के साथ हिल रहे थे. अचानक गली दो मोटरसाइकिलों और “भारत माता की जय” की तेज़ आवाजों से गूँजने लगी. दोनों मोटरसाइकिलें मुख्य सड़क से गली में आयी थीं और पाकिस्तान पर हिंदुस्तान की जीत की खुशी में अपने चेहरों पर केसरियाँ पट्टियाँ बाँधे भारत माता की जय-जयकार कर रही थीं. गली में थोड़ा अँधेरा हो चुका था. सड़क पर लगे स्ट्रीट लैम्प की मलगजी सी पीली रौशनी हिंदुस्तानी मियाँ के लटके हुए चेहरे पर पड़ रही थी और उसे और पीला बना रही थी. दोनों केसरियाँ मोटरसाइकिलें हिंदुस्तानी मियाँ के सामने से गुज़रीं. “भारत माता की जय” सुनकर हिंदुस्तानी मियाँ ने अपना चेहरा ऊपर उठाया. एक केसरिया मोटरसाइकिल से उनकी नज़रें मिलीं. हिंदुस्तानी मियाँ ने मुस्कुराने की कोशिश की लेकिन दाढ़ के दर्द की एक तेज़ लहर ने उन्हें कामयाब नहीं होने दिया. मोटरसाइकिलें कुछ आगे बढ़ गयी थीं कि अचानक एक मोटरसाइकिल मुड़ी और हिंदुस्तानी मियाँ के ठीक सामने आकर रुक गयी. हिंदुस्तानी मियाँ ने एक बार फिर मुस्कुराने की कोशिश की पर दाढ़ के दर्द ने  उनकी मुस्कुराहट को उनके लटके हुए चेहरे में मिला दिया. 

मोटरसाइकिल से एक आवाज़ निकली, “बुड्ढे! पाकिस्तान के हारने का ग़म मना रहा है?” हिंदुस्तानी मियाँ ने अचकचा कर उसकी तरफ़ देखा और उसे बताना चाहा कि वे ग़म नहीं बल्कि हिंदुस्तान की जीत की खुशी नहीं मना पा रहे हैं लेकिन दाढ़ के दर्द की वजह से उनके मुँह से सिर्फ़ इतना ही निकल सका, “...वो...बहुत द...र...द...” मोटरसाइकिल व्यंग्य से मुस्कुराई और घुरघघुराते हुए स्वर में बोली, “अच्छा...तो दर्द हो रहा है. पाकिस्तान के हारने का बहुत दर्द हो रहा है न? अगर तुम्हारे दर्द को पाकिस्तान भेज दिया जाए तो कैसा रहेगा?” इस सवाल के साथ ही मोटरसाइकिल में एक हाथ पैदा हुआ, कुछ लोगों ने धायँ जैसी एक आवाज़ सुनी और हिंदुस्तानी मियाँ का दाढ़ का दर्द हमेशा के लिए पाकिस्तान चला गया. 
    
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पेंटिग : सलमान टूर        

सईद अय्यूब की कहानियाँ 


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  1. Poorii kahani bemisaal tareeke se bahut achchhi lagi lekin ant kuchh sahaj hua hota. Goli ki jagah haath chalaa hota.ham ayub ji ki kahaniyan bahut pasand baavajood isake yah suujhaaw zaruri laga. Arun dev ji ka abhaar.

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  2. इतनी अच्छी कहानी में ऐन प्रिडिक्टिबल, नाटकीय अंत खटक गया

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  3. कहानी ख़ास वातावरण तैयार करती हुई अपने केंद्र से सेन्ट्रफ्यूज हो जाती है ..

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  4. अंत पर थोडा और काम करना था...कहानी अच्छी है...

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  5. imaandar aur bebeaak kathya, kissagoyi ant tak baandhe rakhti hai par kahani ka ant ek jhatke ke sath akharta jata hai.

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  6. एक खूबसूरत करेक्टर को बराबर साथ लेकर चलती कहानी ।

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  7. कहानी का अंत ही इसकी ताकत है . जब दक्षिणपंथ अपने घिनोने चेहरे के साथ मोजूद है .यह कहानी यही और एकदम खत्म होनी थी क्योंकि ऐसे हिन्दुस्तानी मियाओं को बोलने का अवसर भारत ही नहीं पूरी दुनिया में नहीं दिया जाता . एक बहुत ही जीवंत पात्र गढ़ा है आपने . परिवेश और भाषा पाठक को बरबस अपने साथ ले लेते हैं . बकबास और जीवन से दूर होती जा रही कहानियों के इस दौर में आप उन कहानीकारों में से हैं जो आश्वस्त करते हैं . आपको हार्दिक बधाई !!
    - कमल जीत चौधरी [ साम्बा , जे०&के० ]

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  8. ज़बरदस्त कहानी है अयूब भाई . भाषा का लहजा और प्रवाह बांधकर रखने वाला है . समदू वाले प्रसंग का कहानी की मूल भावना से कोई ताल्लुक नहीं है . कथ्य के स्तर पर कहानी का अंत अच्छा लगा , लेकिन अंत का ट्रीटमेंट कुछ और विस्तार की मांग करता है , जैसा की कुछ पाठकों ने इंगित भी किया है . पहली बार आपकी कहानी पढ़ रहा हूँ . बेहद प्रभावित हुआ . अरुण देव जी का आभार .

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  9. मुबारक हो सईद ,,बहुत अच्छी और सच्ची कहानी है ,,हम सब को कभी न कभी इस पीड़ा से दो-चार होना पड़ा है
    मैंने गर दे भी दिये सारे सवालों के जवाब
    फिर भी कुछ ढूंढेंगे अहबाब मेरी आँखों में
    जिन्हें हिंदुस्तानी मियाँ की हिंदुस्तानियत पर यक़ीन है उन्हें मेरा सलाम लेकिन जिन्हें नहीं है मैं उन की भी ग़लती कैसे मानूं?? कुछ मुट्ठी भर लोग इस की वजह हैं ,,जब वंदे मातरम कहने से इंकार किया जाएगा ,,एक ख़ास मज़हब के लिये अकारण आरक्षण माँगा जाएगा तो हमारी हिंदुस्तानियत को भुला कर तुम्हारी कहानी के मोटर साइकिल पर आए हुए लोगों की तरह और लोग भी सब को शक के कटघरे में खड़ा कर देंगे ,,,हो सकता है मेरी बातें तुम्हें rude लगें लेकिन बेहद तकलीफ़ होती है इस स्थिति से
    बहरहाल कहानी बहुत अच्छी है लेकिन जैसा और लोगों ने भी कहा कि अंत कुछ abrupt सा लगा मुझे भी लेकिन ज़बर्दस्त विषय वस्तु को शब्द दिये हैं तुम ने

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  10. कहानी निश्‍चय ही बहुत अच्‍छी है। लेकिन इसका अंत यह मांग करता है कि कहानी में वो परिस्थितियां दिखाई जाएं, जिनमें भगवा पार्टी के लोग उस इलाके में मुसलसल अपना काम करते हुए वो हालात पैदा कर देते हैं, जिनमें हिंदुस्‍तानी मियां जैसे लोगों की आवाज़ें सांप्रदायिकता के दर्द के मारे बाहर निकल ही नहीं पाती हैं। बधाई भाई सईद अयूब को... और अशेष शुभकामनाएं।

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  11. मुझे कहानी बहुत पसंद आई, इसके लिए सईद जी को बधाई, इसके अंत पर कई बातें हुई और अपनी कहूँ तो मुझे लगता है अगर अंत को विस्तार दिया जाता तो वो टर्निंग पॉइंट वाली बात नहीं आ पाती! यूं भी मुझे मुस्लिम पृष्ठभूमि वाली कहानियाँ खास पसंद आती हैं! भाषा बहुत ही रोचक रही और किस्सा गोई दिलचस्प बन पड़ी है, हाँ अंत में निहित करुणा दिल छू गई! मेरी शुभकामनायें सईद, और कहानियाँ पढ़ने को मिलती रहें!

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  12. प्रिय सईद , आपकी कहानी में कहीं न कहीं सायास भगवा ब्रिगेड के प्रति पूर्वाग्रह का भाव है। क्योंकि कथानक में जिस तरह के मोहल्ले का जिक्र आपने किया है, वैसे वातावरण में भगवा लंपट चाहे वो शिवसेना का ही हो घुसने की हिम्मत नहीं करते। जैसा कि आप जानते हैं गीदड़ हमेशा झुंड में आते हैं। किसी भी मुस्लिम मोहल्ले की गली में हज़ार बारह सौ की भीड़ भले दंगों में घुसे, आम बात पे इतनी हिम्मत नहीं है इनकी। एक और बात जो कुछ अजीब लग रही है कि हिंदुस्तानी मियां को लोग पकवान परोस रहे हैं लेकिन कोई उनको 2 रु की दर्द की टिकिया नहीं दे रहा है, या उनके कहने पर कोई इलाज़ नहीं करा रहा। यह भी बहुत अजीब है क्योंकि माहे रमजान के दिनों में मुस्लिम समुदाय परोपकार के चरम पर होता है। इफ्तार के वक्त ही अगर हिंदुस्तानी मियां अपना दर्द बयान करते तो मुझे अभी भी यकीन है कि कोई अनसुना नहीं करता। खैर ये मेरा अपना सोचना है। रचनाकार के रूप में आप स्वतंत्र हैं, लेकिन फिर भी दोस्त यथार्थ, कथानक रूढ़ि, विचारधारा और कहानी थोड़ा और मांगती है।

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  13. और हाँ मुस्लिम बाहुल्य क्षेत्रों जनसंख्या के अत्यधिक घनत्व तथा पर्दे के कारण किशोर, युवा, बड़े बूढ़े आदि देर रात तक घर के बाहर ही होते हैं। रमजान में इफ्तार के बाद तरावी की नमाज़ के दौरान इतना सन्नाटा कतताई नहीं होता कि कोई आए और नारेबाजी करे फिर गोली दागकर निकल भी जाए ।

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  14. Kundan sir. सबसे पहले तो बहुत-बहुत शुक्रिया कि आपने मेरी कहानी न सिर्फ पढ़ी बल्कि इतने अच्छे ढंग से पढ़ी. मैं जानता हूँ कि आप कितने व्यस्त रहते हैं फिर भी आप पढ़ने के लिए समय निकाल लेते हैं, यह आपको लंबे समय से जानने के कारण, मुझे हैरान नहीं करता. और आपने आलोचकीय दृष्टि से जो कुछ लिखा है उस पर मैं कल से सोच रहा हूँ और उम्मीद करता हूँ सर कि मेरी आने वाली कहानियों के प्रति आपकी यह दृष्टि बनी रहेगी. इस तरह की आलोचना ही (अगर इनसे मैं कुछ सीखता हूँ तो) शायद मुझे एक अच्छा कहानीकार बना सके. अब आपके उठाये सवाल पर.कहानी का अंत...जब कहानी प्रकाशित हुई थी तब भी, और अब भी दो तरह की प्रतिक्रिया मिल रही है. एक जो ऊपर Kamal Jeet Choudhary ने लिखी है, एक जो आपने. Purushottam Agrawal सर ने कहानी पढ़ते ही (लगभग एक हफ्ते पहले) आपसे ही मिलती-जुलती सलाह दी थी और अहमदाबाद से Aparna Manoj जी ने भी. मैं इन सलाहों को आसानी से इग्नोर नहीं कर सकता पर असल में मैं कमलजीत से थोड़ा सा सहमत नहीं हूँ और थोड़ा सा आपसे भी नहीं. मुझे अभी भी लगता है कि मुझे अपनी कहानियों के अंत पर बहुत काम करने की आवश्यकता है. अभी तक मेरी सिर्फ एक कहानी 'शबेबारात का हलवा' (समालोचन और कथादेश में प्रकाशित) के अंत पर ऐसी कोई टिप्पणी नहीं आई है कि इसे 'बहुत झटके' से खत्म कर दिया गया है या कहानी का अंत पहले से ही दिमाग में चक्कर लगा रहा है आदि-आदि. Suman मैम खास तौर से इस बारे में कहती रही हैं. मैं अपने को भाग्यशाली समझता हूँ कि अपने लेखन की शुरुआत में ही अग्रवाल सर, सुमन मैम, आप, Arun Dev भय्या, अपर्णा मनोज जैसे पाठक मिल गए जो मेरी कहानियाँ सिर्फ तारीफ़ के लिए नहीं पढ़ेंगे बल्कि मुझे और अच्छा कहानीकार बनने को प्रेरित करने के लिए पढ़ेंगे. यह कहानी मैंने 2010 में लिखी थी. अगर हाई-स्कूल और इंटर के दौरान लिखी गयी अपनी बचकानी कहानियों को छोड़ दूँ तो कहानी लेखन की ज़िम्मेदारी पूर्वक शुरुआत मैंने इसी कहानी से की है. ज़ाहिर है, इस कहानी के साथ कुछ न कुछ ऐसा होना ही था जो पाठकों को खटके. यह कहानी पूरी करने के बाद मैंने कुछ लोगों को दिखाई थी. कुछ को पसंद नहीं आई. कुछ को, जे.एन.यू. की भाषा में बहुत 'चाट' लगी पर ज़्यादातर लोगों ने इस कहानी को बहुत सराहा. Dr. Irshad Naiyyer ने यह कहानी पढ़कर बहुत तारीफ़ की और कुछ सलाहें भी दीं जिनका इस्तेमाल भी मैंने किया पर इस सबके बाजूद मुझे लगता रहा कि इसका अंत जैसा मुझे करना चाहिए, वैसा हो नहीं पाया है. इसलिए इस कहानी के प्रकाशन से मैं बचता रहा जबकि इस बीच 'जिन्नात, घुघ्घुर रानी, शबे बारात का हलवा और सिरफिरे ख्याल' प्रकाशित हो गए. पर पिछली गर्मियों में, जबकि मैं बहुत व्यस्त था, परिकथा की तरफ से एक दबाव था एक कहानी देने के लिए. मैंने उन्हें 'जिन्नात' भेज दी. पर वे उसे छापने से कतरा गए. उनका कहना था कि उस कहानी के प्रकाशन से उनके ऊपर मुक़दमा-वुकादमा हो सकता है. तब मैंने उन्हें 'दाढ़ का दर्द' भेज दी. अंत पर बिना कोई और काम किये. उन्हें बहुत-बहुत पसंद आई. अगले अंक में कहानी प्रकाशित हो गयी. आप विश्वास नहीं करेंगे, और मुझे भी नहीं हुआ था कि कम से कम २० ऐसे लोगों के फोन आये, हिन्दुस्तान के अलग-अलग हिस्सों से जिन्हें मैं जानता भी नहीं था. सब तारीफ़ से भरे हुए. मुझे लगा कि अच्छी कहानी होगी तभी तो लोग फोन कर रहे हैं. पर साथ ही यह भी लग रहा था कि शायद कहानी बहुत से लोगों तक नहीं पहुंची है. मैंने अरुण भय्या को यह कहानी भेजी, पढ़ने का आग्रह करते हुए. उन्हें कहानी अच्छी लगी और उन्होंने इसे समालोचन पर देने का निर्णय कर लिया.

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  15. तो मैं जो कह रहा था कि कमलजीत से थोडा सा सहमत नहीं हूँ वह यह कि किसी भी कहानी का एक ही अंत नहीं होता. शायद इस कहानी को किसी और तरह से भी खत्म किया जा सकता है. मैं कुछ महीने और रुक कर सोचूँगा इस पर. और आपसे थोडा सा जो सहमत नहीं हूँ सर, वह यह कि कहानी लिखते समय या अब भी भगवा ब्रिगेड के प्रति किसी पूर्वाग्रह से ग्रसित नहीं हूँ. यह भले ही कहानी में किसी पाठक को दिखता हो और भले ही यह कहानी में आ गया हो, पर कहानी लिखते समय ऐसा कोई पूर्वाग्रह नहीं था. मैं सिर्फ यह दिखाना चाहता था कि एक बहुत ही साधारण सा इंसान, जिसे दीन-दुनिया किसी से कोई मतलब नहीं, वह किस तरह से साम्प्राद्यिक ताकतों का शिकार हो जाता है. इस कहानी में एक मुसलमान चरित्र हिन्दुस्तानी मियाँ है, उसका नाम बदल कर, उसे हिंदू पाकिस्तानी मियाँ बना कर पाकिस्तान में भी फिरकापरस्तों के द्वारा मारा या मरवाया जा सकता है. एक छोटे से मुसलमानी मोहल्ले का खाका खींचते हुए अंत में मैं बस इतना ही कहना चाहता था. आपके द्वारा उठाये गए दूसरे सवालों पर शीघ्र ही आ रहा हूँ

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  16. भाई जान शुक्रियां जो इस काबिल समझा
    कहानी पढ़ी बहुत गौर से पढ़ी . , भाषा शैली और कथानक और किसी समाज भीतरी चित्रण बहुत ही ईमानदारी से लिखा गया हैं
    कहानी का इतर पक्ष कहानी के अंत में आया जो सकारात्मक सोच के निष्पक्ष निषेतन को दर्शाता हैं
    वही कहानी ने दम तोड़ दिया , एक उम्दा कहानी नाटकीय बन गई
    देखिये कहानी का प्रकाशन और अलग चीज हैं मगर एक लेखक के लिए सबसे बड़ी बात हैं कहानी की आत्मा को बचाय रखना , कहानी के तासीर बर्के हुश्न को बनाय रखना , मित्र जब ये सब होगा तो तो लरज़िशे खफ़ी की भला क्या चिंता
    उम्मीद हैं आप बुरा नहीं मानोगे और आगे इस धड़कन को मजबूती और न्याय के रूप में धड़काने का प्रयास करोगे
    मैं कहता हूँ कहो वो बात जो सबके दिल को धड़काये मगर मत कहो वो बात जो जो दिल को कमतर बनाये
    मित्र वह आदमी वास्तव ने न्यायवान हैं जो तुम्हारे अपराधो के लिए अपने आपको आधा अपराधी अनुभव करे
    फिर भी एक उम्दा और बेहतरीन कथानक और भावनात्मक चित्रण के आप साधुवाद के पात्र हो
    अपनी कलम को विराम मत देना मित्र
    जिन्दबाश आपकी कलम को म मुझे आपकी कलम और आँखों पर पूरा भरोसा हैं प्यारे मित्र

    हम भरोसे पे उनके बैठे रहे
    जब किसी का भी भरोसा ना रहा ..

    आपका
    रवि विद्रोही .

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  17. सईद , बहुत ही अच्छी कहानी....फिक्शन और रियलिटी का बहुत ही कुशलतापूर्वक मिश्रण किया है ....इसकी लयबद्धता और बारीकियां इसे अंत तक रोचक बनाये रखती है....! बधाई .

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  18. हृदयस्पर्शी कहानी है और सटीक कटाक्ष है हमारे समाज पर. किस तरह समझने से पहले ही, हम लोगों के बारे में अपनी एक राय बना लेते हैं …
    सईद जी, शुभकामनाएं और इस सार्थक रचना के लिए बधाई .

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  19. इस कहानी में जो दो बातें मुझे सबसे बेहतरीन लगीं वो हैं भाषा का प्रवाह और दोनों ही धर्मों में बुनी हुई कट्टरता पर प्रहार .... सईद जी की कहानियाँ मुस्लिम परिवेश और उसके हर पहलू को बहुत ही बारीकी से उजागर करती हैं ....उनकी किस्सा गोई आकर्षक है और अंत हमेशा ही चौंकाता है ..... अंत का बिलकुल unpredictable होना इसकी खासियत है .....दाढ़ का दर्द एक symbol की तरह उभर कर आता है जो सदियों से एक खास धर्म को तकलीफ देता आया है और जिसकी दवा करने के बजाए दोनों ही धर्मों के लोग उसे पालते रहें हैं ....कहानी का अंत, जैसा कि तय था बिना किसी solution के होता है और मैं रचनाकार को बधाई देना चाहूंगी कि उसने किस्सा गोई की सबसे आवश्यक शर्त को ध्यान में रखते हुए कहीं भी उपदेश या ज़बरदस्ती का समाधान देने की कोशिश नहीं की .....कहानी ने अंत तक बांधे रखा और अंत आते-आते मेरे मुंह से निकला,"अरे ! ये क्या...." और मुझे लगता है कि ये दोनों ही तत्व इस कहानी की सफलता हैं...बधाई और ढेरों शुभकामनाएँ सईद जी

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  20. kahaani se upar aapke lekhan ke baare me ji tippani ki gaii..bilkul sahi tarah se kaha gaya..madhyam or nimn varg ka behad hi saaf or bebaak tarike se varan kiya gaya...hindustaan miyaan ke liye kauttuhal itna paida kar diya gyaa ki main isse aur jayada padhna / jaanana chah rahi thi.. lekin uske achank se yun chale jana.. bechain karta hai..ham use aur jaanna chagte the..

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  21. मृदुला शुक्ला4 जन॰ 2014, 8:36:00 am

    आज दूसरी बार गुजरी हूँ इस लाजवाब कहानी से, एक बार समालोचन पर पढ़ा था तब बस मन ही मन वाह कर के रह गयी थी .आज सिर्फ इस कहानी से ही नहीं गुजरी, बल्कि गुज़री हूँ उस मुस्लिम मोहल्ले से जिसे सईद जी ने अपनी कविता में सजीव कर दिया था ..सईद जी एक सिद्ध हस्त कहानी लेखक हैं इस लिए शिल्प के बारे में मैं ज्यादा क्या कहूँ . इस कहानी में एक विडंबना का खाका खींचा गया है जहाँ एक व्यकित को जीवन भर सिर्फ इस लिए स्वम की विश्सनीयता सिद्ध करनी पड़ती है .क्यूँकि उसने मुस्लिम सम्प्रदाय में जन्म लिया है .और अंत में दाढ़ के दर्द की वजह से चूक जाता है और अपनी जान से हाथ धो बैठता है . एक परिपक्व कहानी की तरह ये कहानी अनेक अनुत्तरित प्रश्न, सभ्य समाज के मुंह पर चस्पा कर बिना कोई विकल्प दिए ख़तम हो जाती है .इसके लेखक सईद जी निःसंदेह बधाई के पात्र हैं .

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  22. किसी ज़मीन से मिट्टी उठा कर शब्द रूप में ढाल देना..... इस कला की बेहतरीन कारीगरी आपको आती है ..मुस्लिम समुदाय की कमियों बुराइयों को हास्य के साथ व्यंग्य में उतरना और भाषा प्रवाह लगातार बनाये रखना अपने आप में बहुत बडा हुनर है ..वही जाते जाते हिन्दू कट्टरता पर वार कर कहानी का अंत कर देना एक सन्देश दे जाता है !!
    .................... बधाई इस कहानी को पढवाने के लिए .......................

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