सहजि सहजि गुन रमैं : मिथिलेश कुमार राय









मिथिलेष कुमार राय
24
अक्टूबर,1982  सुपौल,लालपुर (बिहार)
वागर्थ, परिकथा, नया ज्ञानोदय, कथादेश, कादंबिनी, साहित्य अमृत, बया, जनपथ, विपाशा आदि में कविताएं प्रकाशित
वागर्थ व साहित्य अमृत द्वारा युवा प्रेरणा पुरस्कार

प्रत्रकारिता
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mithileshray82@gmail.com



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मिथिलेष कुमार राय की कविताओं के संसार में गाँव है, बेरोज़गारी, धूप और पसीना है, बेटे को आदमी बनाने की चिंता में घुलते पिता हैं, मजदूर और मालिक हैं. पंजाब भागते जवान लडके हैं, सयान होती लडकी की चिंता, वसंत, कोयल और फूल हैं. गरज़ कि समकालीन हिंदी कविता से अदृश्य होते ग्राम्य जीवन की आह है. कविताएँ असर रखती हैं और उनमें स्फीति नहीं है जिसका खतरा अक्सर इन विषयों पर लिखते हुए बना रहता है. 

फोटो : marji lang

हिस्से में

इन्हें रंग धूप ने दिया है
और गंध पसीने से मिली है इन्हें
यूं तो धूप ने चाहा था
सबको रंग देना अपनी रंग में
इच्छा थी पसीने की भी 
डूबो डालने की अपनी गंध में सबको 
मगर सब ये नहीं थे
कुछ ने धूप को देखा भी नहीं
पसीने को भी नहीं पूछा कुछ ने 
शेष सारे निकल गये खेतों में
जहां धूप फसल पका रही थी
बाट जोह रही थी पसीना
               
   

आदमी बनने के क्रम में

पिता मुझे रोज पीटते थे
गरियाते थे
कहते थे कि साले 
राधेश्याम का बेटा दीपवा
पढ लिखकर बाबू बन गया
और चंदनमा अफसर
और तू ढोर हांकने चल देता है
हंसिया लेकर गेहूं काटने बैठ जाता है
कान खोलकर सून ले
आदमी बन जा
नहीं तो खाल खींचकर भूसा भर दूंगा
ओर बांस की फूनगी पर टांग दूंगा...
हालांकि पिता की खुशी
मेरे लिये सबसे बडी बात थी
लेकिन मैं बच्चा था और सोचता था 
कि पिता मुझे अपना सा करते देखकर 
गर्व से फूल जाते होंगे
लेकिन वे मुझे दीपक और चंदन की तरह का आदमी बनाना चाहते थे
आदमियों की तरह सारी हरकतें करते पिता 
क्या अपने आप को आदमी नहीं समझते थे
आदमी बनने के क्रम में 
मैं यह सोच कर उलझ जाता हूं

     

मालिक

मालिक यह कभी नहीं पूछता
कि कहो भैया क्या हाल है
तुम कहां रहते हो
क्या खाते हो
क्या घर भेजते हो
अपने परिजनों से दूर
इतने दिनों तक कैसे रह जाते हो
मालिक हमेशा यहीं पूछता है
कि कितना काम हुआ
और अब तक 
इतना काम ही क्यों हुआ
              
   

जिनको पता नहीं होता

ललटुनमा के बाउ
ललटुनमा की माई
आ खुद्दे ललटुनमा
तीनों जने की कमाई
एक अकेले गिरहथ की कमाई के 
पासंग के बराबर भी नहीं ठहरता
आखिर क्यों
यह एक सवाल
ललटुनमा के दिमाग में
जाने कब से तैर रहा था
कि बाउ
आखिर क्यों
क्योंकि बिटवा
उनके पास अपनी जमीन है
और हम
उनकी जमीन में खटते हैं
और हमारी जमीन बाउ
बाउ को तो खुद्दे पता नहीं है 
अपनी जमीन के इतिहास के बारे में 
और आप तो जानते हैं
कि जिनको पता नहीं होता 
उससे अगर सवाल किये जाये 
तो वे चुप्पी साध लेते हैं
  
    

हम ही हैं

हम ही तोडते हैं सांप के विष दंत
हम ही लडते हैं सांढ से
खदेडते हैं उसे खेत से बाहर
सूर्य के साथ-साथ हम ही चलते हैं
खेत को अगोरते हुये 
निहारते हैं चांद को रात भर हम ही
हम ही बैल के साथ पूरी पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं
नंगे पैर चलते हैं हम ही अंगारों पर
हम ही रस्सी पर नाचते हैं
देवताओं को पानी पिलाते हैं हम ही 
हम ही खिलाते हैं उन्हें पुष्प, अक्षत
चंदन हम ही लगाते हैं उनके ललाट पर
हम कौन हैं कि करते रहते हैं
सबकुछ सबके लिये
और मारे जाते हैं
विजेता चाहे जो बने हो 
लेकिन लडाई में जिन सिरों को काटा गया तरबूजे की तरह
वे हमारे ही सिर हैं
  


शुभ संवाद

कुछ शुभ संवाद मिले हैं अभी
ये चाहें तो थोडा खुश हो लें
पान खाये
पत्नी से हंस-हंस के बतियाये
दो टके का भांग पीकर 
भूले हुये कोई गीत गाये
टुन्न हो अपने मित्रों को बताये
कि बचवा की मैट्रिक की परीक्षा अच्छी गयी है
वह कहता है कि बहुत अच्छा रिजल्ट भी आयेगा
गैया ने बछिया दिया है
और कुतिया से चार महीने पहले जो दो पिल्ले हुये थे
अब वे बडे हो गये हैं
और कल रात वह अकेला नहीं गया था खेत पर
साथ साथ दोनों पिल्ले भी आग-आगे चल रहे थे
कुतिया दरबज्जे पर बैठी चैकीदारी कर रही थी
मगर सोचने पर ढेर सारे तारे जमा हो जाते हैं 
आंखों के सामने
कि गेहूं में दाने ही नहीं आये इस बार
दो दिन पहले जो आंधी आई थी उसमें
सारे मकई के पौधे टूट गये
टिकोले झड गये
दो में से एक पेड उखड गये
महाजन रोज आता है दरबज्जे पर
कि गेंहू तो हुआ नहीं
अब कैसे क्या करोगे जल्दी कर लो
बेकार में ब्याज बढाने से क्या फायदा
जानते ही हो कि बिटवा शहर में पढता है
हरेक महीने भेजना पडता है एक मोटी रकम
सुनो गाय को क्यों नहीं बेच लेते
वाजिब दाम लगाओगे तो मैं ही रख लूंगा
दूध अब शुद्ध देता है कहां कोई
हे भगवान क्या मैट्रिक पास करके बचवा
पंजाब भाग जायेगा
बिटिया क्यों बढ रही है बांस की तरह जल्दी जल्दी
दूल्हे इतने महंगे क्यों हो रहे हैं
                     
 


स्कूल तो था

बात ऐसी नहीं थी
कि लालपुर में स्कूल नहीं था
बात ऐसी भी नहीं थी
कि उसके दिमाग में भूसा भरा हुआ था
बात तो कुछ ऐसी थी 
कि उसके घर का खूंटा टूट गया था
बहन बांस हो रही थी
और रात को मां की चीत्कार से 
पूरे गांव की नींद खराब हो जाती थी
फिर यह भी एक दृश्य था
कि बीए पास लडका
लालपुर में घोडे का घास छील रहा था
ऐसे में एक रात अगर उसने घर छोड दिया
और पंजाब से पहली चिट्ठी में लिखा
कि मां अब मैं कमाने लगा हूं 
चिट्ठी के साथ जो पैसे भेज रहा हूं
उससे घर का छप्पर ठीक करवा लेना
अब जल्दी ही तुम्हरे पेट का दर्द 
और बहिन का ब्याह भी ठीक हो जायेगा...
तो मैं यह तय नहीं कर पा रहा हूं
कि उसने अच्छा किया या बुरा
हालांकि लालपुर में स्कूल था
और उसके दिमाग में 
भूसा भी भरा हुआ नहीं था
                   
  


यहां से

सब की तरह
इन्हें भी फूलों को निहारना चाहिये
उसके साथ मुसकुराना चाहिये
चलते-चलते तनिक ठिठककर 
कोयल की कूक सुनना चाहिये
और एक पल के लिये दुनिया भूलकर
उसी के सुर में सुर मिलाते हुए 
कुहूक-कुहूक कर गाने लगना चाहिये
इन्हें भी हवा में रंग छिडकना चाहिये
वातावरण को रंगीन करना चाहिये
फाग गाना चाहिये
और नाचना चाहिये
लेकिन पता नहीं कि ये किस नगर के बाशिंदें हैं
और क्या खाकर बडे हुये हैं
कि खिले हुए फूल भी इनकी आंखों की चमक नहीं बढाते
कोयल कूकती रह जाती है
और अपनी ही आवाज की प्रतिध्वनि सुनकर सुन-सुनकर
थककर चुप हो जाती है
वसंत आकर 
उदास लौट जाता है यहां से

                   
        
निर्जन वन में

यहां की लडकियां फूल तोडकर 
भगवती को अर्पित कर देती हैं
वे कभी किसी गुलाब को प्यार से नहीं सहलातीं
कभी नहीं गुनगुनातीं मंद-मंद मुसकुरातीं
भंवरें का मंडराना वे नहीं समझती हैं
किस्से की कोई किताब नहीं है इनके पास
ये अपनी मां के भजन संग्रह से गीत रटती हैं
सोमवार को व्रत रखती हैं
और देवताओं की शक्तियों की कथा सुनती हैं
इनकी दृष्टि पृथ्वी से कभी नहीं हटतीं
ये नहीं जानती कि उडती हुई चिडियां कैसी दिखती हैं
और आकाश का रंग क्या है
सिद्दकी चैक पर शुक्रवार को जो हाट लगती है वहां तक
यहां से कौन सी पगडंडी जाती है
ये नहीं बता पायेंगी किसी राहगीर को
सपने तो खैर एक मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया है
ये बिस्तर पर गिरते ही सो जाती हैं
सवेरे इन्हें कुछ भी याद नहीं रहता


मैं जहां रहता था

मैं जहां रहता था 
वहां की लडकियां गाना गाती थीं
आपस में बात करती हुईं वे 
इतनी जोर से हंस पडती थीं 
कि दाना चुगती हुई चिडियां फुर्र से उड जाती थीं
और उन्हें पता भी नहीं चलता था
मैं जहां रहता हूं
यहां का मौसम ज्यादा सुहावना है
लेकिन लडकियां कोई गीत क्यों नहीं गातीं
ये आपस में बुदबुदाकर क्यों बात करती हैं
किससे किया है इन्होंने न मुसकुराने का वादा
और इतने चुपके से चलने का अभ्यास किसने करवाया है इनसे
कि ये गुजर जाती हैं
और दाना चुगती हुई चिडियां जान भी नहीं पाती हैं.
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  1. मिथिलेश की कविताओं की सादगी और संवेदना दोनों बहुत प्रभावित करती है। लालपुर गाँव में स्कूल था और उसके दिमाग में भूसा भी नहीं भरा था- फिर भी एक रात उसने पंजाब की राह पकड़ ली। मैं जहाँ रहता था और मैं जहाँ रहता हूँ का अंतर कवि को परेशान करता है। वहाँ के विपरीत यहाँ लड़कियाँ कोई गीत क्यों नहीं गातीं, किससे किया है इन्होंने न मुस्कुराने का वादा। आदमियों की तरह सारी हरकतें करते पिता खुद को आदमी नहीं समझते थे क्या- गंभीर अर्थ रखने वाली पंक्ति है। और जिन्हें रंग धूप ने दिया है और गंध पसीने से मिली है, वे तब से मिथिलेश की कविताओं में आते हैं जब कवि ने लिखना शुरू ही किया था। यही वह पंक्ति है जिसे पहली बार पढ़ते हुए मैंने मिथिलेश को एक कवि के बतौर जाना था। संभावना से भरे इस कवि को बहुत शुभकामनाएँ।

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  2. सीधे सच्चे सवाल जिनके उत्तर किसी के पास नहीं...सुन्दर कविताएँ....शब्दों का चयन सीधे उस परिदृश्य में ले जाता है जहाँ यह घटित हो रहा है.....इन प्रश्नों के पार की चुप्पी ह्रदय को बेधती है. धन्यवाद अरुण जी इन रचनाओं से रूबरू कराने के लिए और बधाई मिथिलेश जी.

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  3. सुन्दर रचनाएँ | बधाई मिथिलेश जी

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  4. मिथिलेश राय की कविताओं में ठेठ देशी गमक है जिसकी सुगंध मन को रोक लेती है .उनकी कविताओं में जनसामान्य से सहज संवाद होता है,आज के कठिन समय में जीवन कितना मुश्किल हुआ जा रहा है ,उनके शब्दों में सहज प्रतीत होता है .कोई छल नहीं कोई जादू नहीं बस शुद्ध देशीपन के साथ उनकी कवितायेँ अपनी जगह बना लेती हैं .

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  5. सर्वहारा लोगोंका दुर्द की आवाज यहातक सुनाई देती हैं।

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