मेघ -दूत : बवंडर (कैसर शहरोज़ : typhoon) शीबा राकेश.















ब्रितानी – पाकिस्तानी लेखिका कैसर शहरोज़ के उपन्यास typhoon का हिंदी अनुवाद, शीबा राकेश ‘बवंडर’ शीर्षक से कर रही हैं. प्रस्तुत है उसका एक अंश. इसे  अपने आप में एक पूर्ण कथानक के रूप में भी पढ़ा जा सकता है. एक स्त्री की झिझक और उसके प्रेमी की निष्ठा की  कथा जो ५० की उम्र तक उसकी हाँ का इंतजार करता रहा. शीबा के अनुवाद में जीवंतता है.  


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अंधेरी रात में टिमटिमाते तारों को एकटक तकता, यूनुस रईस पेड़ के सहारे खड़ा हुआ, गांव के कुंये के पास, कनीज़ की राह देख रहा था. उसे समझ नहीं आ रहा था, कि यूं आधी रात में चैधरानी कनीज़ से मिलने की रज़ामंदी देकर उसने सही किया था, या नहीं. वह अजीब ही थी...पता नहीं, कब क्या हो जाये.
अचानक दूर से दो पर्दानशीं गांव से आने वाले रास्ते पर तेज़ रफ्तार से आती दिखाई पड़ीं. रईस का दिल ज़ोरों से धड़कने लगा. वह पेड़ की छांव से दूर हटकर उनको अपनी तरफ आते देखता रहा. उनमें से एक, गांव से आती पगडंडी के पास लगे पेड़ की छांव में छिप गयी. और दूसरी लम्बी पर्दानशीं तेज़ कदमों से उसकी तरफ बढ़ती आ रही थी. उसने चादर के एक कोने से अपने चेहरे का निचला हिस्सा ढंक रखा था. अंधेरे में, उसे पहचान पाना नामुमकिन था. कुंये के पास आते ही वह ठिठकी और हिचकती हुयी वापिस पलट गयी-वह वापिस जाना चाहती थी.
रईस उसकी हिचकिचाहट और ठिठकन को अच्छी तरह समझ गया था. वह उससे दूर जा पाती, इससे पहले ही उसकी नर्म आवाज़ ने कनीज़ के पांव बांध दिये,
‘‘कनीज़!...इस तरह मत जाओ!’’
वह पल्टी, चादर गिर चुकी थी और वह दोनों एक-दूसरे के आमने-सामने थे. वह अभी भी हिचकिचा रही थी...पर फिर उसके गुरुर ने उसे पुकारा-‘‘मैं उससे दूर क्यों भागूं? मिलने की गुज़ारिश तो मैंने ही की थी.’’
पिछले तीस सालों से लगातार यह इंसान उसकी ज़िन्दगी के हाशिये पर बना रहा. वह कभी कनीज़ का खींचा हुआ दायरा नहीं लांघ सका; पर उस हाशिये से हटा भी नहीं-उसकी गूंगी आवाज़ हमेशा कनीज़ को पुकारती रही. उन्होंने एक-दूसरे को देखा और गर्मी की शाम की उमस भरी परेशानी महसूस कर अलग देखने लगे. दोनों यह भी जानते थे कि सबरा पास नहीं थी, पर साथ ही थी.
आखिरकार, चुप्पी का सिलसिला कनीज़ ने तोड़ा,
‘‘यूनुस रईस साहिब! करीब तीन दिन पहले, आप एक खत के साथ मेरे घर तक आये थे...आपकी चाहत थी, कि उस गुज़ारिश का जवाब मैं आपको खुद देने आऊँ...और देखिये...इसलिये मैं आज यहां हूं!’’ अचानक उसे शर्म आ गयी.
‘‘मेरे खत का क्या हुआ!?’’
‘‘वह तो आप ही के पीछे भेज दिया गया था...हवा उन फाड़े हुये टुकड़ों के साथ मेरा पैगाम भी आप तक ले गयी थी.’’ उस दिन की हरकत याद करके, उसे हंसी आयी.
जवाब सुन कर रईस के उम्मीद भरे चेहरे पर, दुनियादारी की शराफत का नकाब फिर चिपक गया.
‘‘अच्छा!’’
रईस सोचने पर मजबूर था...क्या वह उसका मज़ाक उड़ाने यहां आई थी? उसके जज़्बातों को समझते हुये, कनीज़ ने उसे समझाया,
‘‘आप मुझे गलत समझ रहे हैं, रईस साहिब. आपकी इस गुज़ारिश से मेरी इज्ज़त अफज़ाही हुयी है...पर...पर क्या आप जानते हैं कि आप मुझसे क्या कहने के लिये कह रहे हैं? आप मुझे शादी करने के लिये कह रहे हैं...जबकि मुझे यह कहते हुये भी शर्म आती है...यूनुस साहिब, मैं बीस...तीस...या चालीस की भी नहीं हूं...कुछ ही महीने पहले, मैं पूरे पचास की हो चुकी हूं. दो दिन पहले...एक दादी बनी हूं...और...मेरा इकतीस  साल का एक बेटा है...जो कारोबार में आपका साथी है.
और उम्र के इस पड़ाव में, आप चाहते हैं कि मैं आपकी शरीक़-ए-हयात बनूं. हम किसी और दीन-दुनिया के नहीं...एक ही समाज के हैं...जहां एक मर्द भले ही सत्तर की उम्र में शादी कर सकता है...पर एक औरत के लिये, यह सोचना भी हराम है. अगर मैं चाहती भी तो भी शायद यह नहीं हो पाता...और फिर, यहां तो मेरे चाहने का कोई सवाल ही नहीं उठता!
अच्छा! चलिये...ज़रा दूसरे नज़रिये से देखते हैं...आप कितनी दादियों को जानते हैं, जिन्होंने निकाह किये हों? ओह! यह सोचना भी कितना अजीबो-ग़रीब है!!’’
रईस को अजीब लगा पर उसने कनीज़ से दो टूक कहा, ‘‘मैं नहीं जानता, कि तुम कौन से समाज की दुहाई दे रही हो? मैं केवल इतना जानता हूं, कि मेरे सामने अंधेरे में छिपी, एक निहायत खूबसूरत पर्दानशी खड़ी हैं...जो आज से बŸाीस बरस पहले, एक उन्नीस साला दुल्हन बनकर इस गांव में आयी थीं. कनीज़, वक्त मेरे लिये आज भी वहीं थमा हुआ है...और शायद, वहीं थमा रहेगा. उम्र के मेरे लिये कोई मायने नहीं हैं...भाड़ में जाये दुनियादारी.’’ उसकी आंखें शिद्दत से उसके चेहरे की खूबसूरती को पढ़ रही थीं...माज़ी फिर से सांसें ले रहा था.
कनीज़ के लिये यह लम्हा, बर्दाश्त से बाहर हो रहा था, ‘‘रुक जाइये!’’
‘‘नहीं, कनीज़! मुझे मेरे दिल की बात आज कह लेने दो. बीस साल पहले, तुमने मुझे बड़ी बेदर्दी से अपने दरवाज़े से निकाल दिया था. मुझे आज भी तुम्हारी उस नफरत से नफरत है. उस दिन के बाद, मैंने खुद से यह वायदा किया था, कि मैं अगर तुम दुनिया की आखिरी औरत भी हुयीं, तो भी कभी तुमसे निकाह नहीं करुंगा...पर किस्मत, तो देखो...आज एक बार फिर, तुम्हारा ही हाथ मांगना चाहता हूं.
उस हादसे के बाद मैंने शादी कर ली...अपनी बीवी और दो खूबसूरत बच्चों के साथ मेरी ज़िन्दगी बसर हो ही रही थी कि अल्लाह पाक ने उसे मुझसे छीन लिया. मेरी बेटी अपनी अम्मी को याद करती है...मैं जानता हूं कि मैं उसे कितना ही प्यार क्यों न कर लूं...उसे एक मां का साथ कभी न दे सकूंगा. उसे एक मां चाहिये, कनीज़. किस्मत ने एक बार फिर मुझे तुम्हारे सामने खड़ा किया है...इस बार मैं महज़ अपनी बीवी नहीं...अपने बच्चों के लिये एक मां भी मांग रहा हूं.’’
कनीज़ इस दर्दभरी गुज़ारिश से भागना चाहती थी...वह गांव के घरों की परछाईयों को तक रही थी.
‘‘मैं तुम्हारे और तुम्हारे बच्चों के लायक नहीं, यूनुस रईस! तुम्हारे जैसे मर्द को कोई भी औरत मिल जायेगी...चाहे वह तीस साल छोटी ही क्यों न हो...तुम्हें मेरी क्या ज़रुरत? तुम कहीं और शादी कर लो!’’
‘‘पर मैं तुम्हें चाहता हूं, कनीज़.’’, उसकी गहरी आंखें, उसके दिल की कहानी कह रही थीं.
कनीज़ के बदन में गर्मी की एक तेज़ लहर दौड़ी...वह इस ज़िद्दी इंसान से दूर भागना चाहती थी, जो सालों से उसे पाने पर आमादा था. वह रोने लगी. आज उसे रईस से वह सब बातें कहनी ही होंगी; जो उसे इतने वक्त से खाये जा रही थीं. आज कनीज़ को रईस के साथ, अपनी इज्ज़त बांटनी ही होगी...चाहें जो भी हो जाये! आज अपने माज़ी की वह मैली चादर पर लगे धब्बे, वह रईस को दिखायेगी!
‘‘पर तुम मुझे नहीं जानते, यूनुस रईस!’’
‘‘हां, कनीज़! मैं तुम्हें नहीं जानता! पर अगर तुम इजाज़त दो, तो मैं सब कुछ सीख सकता हूं. मैं सीखना चाहता हूं, कनीज़!’’ उसने नर्म लहज़े में कहा. आसमान में छिटकी चांदनी में कनीज़ के जलते जज़्बात, लावे के मानिंद फूट पड़े,
‘‘रईस साहिब! दुनिया में कुछ बातें ऐसी भी होती हैं; जो आपकी गहरी चाहत से भी परे होती हैं. आज रात मैं इस शादी के लिये हामी भरने नहीं आयी थी...यह कभी नहीं होगा...बल्कि आपकी इज्ज़त अफज़ाही के लिये शुक्रिया अदा करने आयी थी...साथ ही, चाहती थी, कि आप मेरे बर्ताव की वजह समझें. मैं आपकी बीवी नहीं हो सकती...न ही आज, न ही बीस बरस पहले...मैं एक खराब सामान की तरह हूं...जिसमें न इज्ज़त बची है न ही कुछ और...मेरी अस्मत बहुत पहले खराब हो गयी...’’ उसके गाल तप रहे थे...पर आज बहुत देर हो जाये, इससे पहले वह सब कुछ कह देगी-सब कुछ!
‘‘मैं 16 बरस की थी...जब मेरा बलात्कार हुआ था...क्या अब भी, आप मुझे चाहते हैं!?’’
रईस का बिगड़ा हुआ चेहरा देखकर, उसे अपनी बर्बादी का अंदेशा हो गया...उसे उबकाई आने लगी,
‘‘यह मैंने क्या कर दिया? मैं पागल हो गयी थी क्या!? आज मैंने हमेशा के लिये, इसकी इज्ज़त गंवा दी.’’ वह खुद को कहीं छिपा लेना चाहती थी. पर वह हिली नहीं. तबाही की इस खामोशी को तोड़ती, पत्तियों  की सरसराहट, मेंढकों की टर्राहट और झींगुरों की आवाज़ों के साथ गर्म हवा के सर्द झोंके भी कनीज़ की शर्म में शामिल थे.
शर्म से भागने के लिये, उसने कदम बढ़ाये...पर रईस ने उसकी बांह पकड़ कर उसे अपनी तरफ खींच लिया. वह उसके सामने खड़ा था...उसके वजूद को ढंकता हुआ सा! कनीज़ ने उसके चेहरे के ठहराव को देखा-उसका दिल यह सोच कर डूब गया कि उसने रईस को ठेस पहुंचाई थी-आज पहली बार उसे यह अहसास हुआ, कि रईस के जज़्बात, उसके लिये मायने रखते थे.
वह कनीज़ के चेहरे को देखता रहा. उसे लग रहा था, कि वह अब उससे कभी बात नहीं करेगा. पलकों पर कांपते आंसुओं के साथ उसने हिम्मत जुटाकर फिर पूछा, ‘‘क्या, अब भी, आप मुझसे शादी करना चाहते हैं, रईस साहिब!?’’
इस बार बोलने की बारी रईस की थी. उसके होठों और दांतों की खूबसूरती को तकती कनीज़ सोच में पड़ गयी, ‘‘आज से पहले, मुझे यह खूबसूरती नज़र क्यों नहीं आयी!?’’ फिर यह सोच कर कि यह एक मर्द के लिये, औरत का नज़रिया था-वह शर्मा गयी.
‘‘वह वही था न!?’’...वही आदमी, जिसने तीस साल पहले तुम्हें, हमारे यहां जश्न में रुलाया था!? मैं उसे कभी नहीं भूला, कनीज़!’’ कनीज़ घबरा गयी,
‘‘तो इसे सब पता है!’’, उसने अपनी चादर पकड़कर, खुद को उससे छुड़ाने की कोशिश की, पर रईस ने उसे और भी कसकर पकड़ लिया. उसके चेहरे पर झुकते हुये, उसने प्यार और नर्मी से पूछा,
‘‘कब तक अपने माज़ी से भागती रहोगी, कनीज़!?’’ वह उसकी खामोशी, दर्द और शर्म को महसूस कर सकता था. उन दोनों के बीच, माज़ी की यह गंदीचादर मानो एक दीवार की तरह थी,
‘‘मत जाओ, कनीज़! तुम्हारी बहन ने अपने ख़त में मुझसे कहा था, कि तुम्हारे अजीब बर्ताव की वजह, तुम्हारा बीता हुआ कल था...पर उसने यह भी कहा था, कि वह खुद यह बात नहीं बता सकती, और तुम खुद मुझे बता सकती हो...कनीज़! मैं माफी चाहता हूं...काश! मुझे यह सब पहले से पता होता...तो अब समझ आया कि तुम्हें मर्दों से इतनी नफरत क्यों थी...तुम्हारी नफरत आज भी मुझे नहीं भूली...मैंने खुद तुमसे नफरत की...कभी तुम्हारा दर्द नहीं समझ पाया.’’
‘‘और अब आप यह भी समझ गये होंगे कि मैं आपसे कभी शादी क्यों न कर सकी? क्यों मैं कभी किसी मर्द के करीब न जा सकी.’’ उसने चादर से अपना चेहरा ढंक लिया और उससे छिटक कर दूर हो गयी. उन्हें, एक-दूसरे को छूने का कोई हक़ नहीं था.
‘‘पर मैं हर कोईनहीं कनीज़! मैं वह आदमी नहीं!’’
‘‘एक गंदीछुई हुयी औरत से तुम शादी कैसे कर सकोगे?...एक ऐसी औरत, जो खुद से नफरत करती हो...जो हर पल अपने बदन से भागती रही हो, पर भाग न पाई हो. यूनुस रईस...मैं दसियों हज़ार बार नहाई हूं, पर आज भी खुद को गंदा महसूस करती हूं...कभी महसूस किया है तुमने, पलीत होने का एहसास? कैसा भयानक होता है, एक पलीत बदन में जीना!?’’
तानों और दुःख से भरी हुयी उसकी आपबीती ने रईस का कतरा-कतरा पिघला दिया,
‘‘तुम पलीत नहीं हो, कनीज़! तुम कभी पलीत नहीं हो सकतीं...यह सब तुम्हारे दिमाग की उपज है.’’
पर वह उसकी कोई दलील सुनना नहीं चाहती थी,
‘‘अपने लेक्चर बंद करिये. आप एक बहुत बहादुर इंसान हैं और मैं आपके इंसानी जज़्बात की कद्र करती हूं...पर सच तो यह है कि जो बात मैं आपसे रात के अंधेरे में कह पा रही हूं...दिन के उजाले में, मैं शायद ही आपसे नज़रें भी मिला पाऊं. आज इस अंधेरे और खामोशी की चादर ओढ़े हुये, मैं आपसे वह बात कह पायी, जो मेरी बहन सबरा के अलावा, दुनिया में किसी को पता नहीं! पर इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं, कि मैं आपसे कुछ चाहती हूं...इंसानियत के नाते भी मैं नहीं चाहती, कि आप मेरे लिये कभी कुछ करें. कभी नहीं.’’
दोनों खामोश हो गये-जैसे दो अजनबी दोस्त, एक-दूसरे को पढ़ रहे हों...फिर रईस की कड़वी हंसी ने अचानक खामोशी की दीवार तोड़ी,
‘‘तुम मुझे जानती ही नहीं, कनीज़! या शायद हम दोनों, एक-दूसरे को जानते ही नहीं. तुम्हें लगता है कि मैं तुमसे दूर भागूंगा? तुमसे? अपनी ज़िन्दगी का दो-तिहाई हिस्सा मैंने, तुम्हारी चाहत में बिताया है, कनीज़! तुमने ज़िन्दगी में जो कुछ देखा है...उसके लिये मेरा दिल रोता है...तुम्हें लगता है, मैं तुमसे नफरत करुंगा...ऐसा कभी नहीं हो सकता...अगर तुमने मुझे यह सारी बातें बीस साल पहले बता दी होतीं...काश! ऐसा हुआ होता...कम से कम, इतने बरस बेकार तो न हुये होते!’’
उस आदमी के लिये, जो नफरत मेरे मन में है; वह कभी कम नहीं होगी. उसने, जिस तरह तुम्हें मेरे घर में रुलाया था, उसके लिये, मैं उसे कभी माफ नहीं करुंगा. उस दिन तुम ज़ब मेरे कमरे में आयीं, तो तुम कितनी खुश थीं...खावर के साथ तुम्हें हंसते, मुस्कुराते देखकर मैं कितना सुकून महसूस कर रहा था...पर फिर वह आदमी आया और फिर मैंने तुम्हें डरते देखा...वहां से जाते देखा. अगर मुझे, उस दिन उस वहशी की करतूत पता होती, तो मैं उसे उस दिन ही मार डालता. पर सवाल यह है, कि हम यूं अपने गुज़रे हुये कल के बारे में बात क्यों करें...जबकि हमारे लिये आने वाला कल ज़्यादा मायने रखता है.’’
पर कनीज़ अब भी उदास थी, ‘‘अगर तुम कभी मेरी चैखट पर कदम न रखो, तो मैं इस बात को समझूंगी...यकीन मानो...मैं तुमसे कोई उम्मीद नहीं रखती!’’
यूनुस रईस जवाब में उसके पास आ कर खड़ा हो गया,
‘‘मेरे कदम; बार-बार, तुम्हारी चैखट पर आयेंगे...दिन-दहाड़े, सबके सामने आयेंगे, कनीज़. शर्त यह है कि तुम अपने दरवाज़े मेरे लिये खुले रखो.’’
दोनों करीब आ रहे थे; उनकी खामोशी उन्हें बांध रही थी. ‘‘शर्म के दरवाज़ों से होकर, मुझ तक आ सकेंगे...अगर हां...तो मेरे दरवाज़े हमेशा आपके लिये खुले हैं...अगर आप नहीं भी आयेंगे; तो मैं आप पर कभी कोई इल्ज़ाम नहीं लगाऊंगी!’’
‘‘यह शर्म के दरवाज़े केवल तुम्हारे दिमाग के बनाये हुये हैं...असल में इनका कोई वजूद नहीं....कल मैं तुम्हारी बहन से, तुम्हारा हाथ मांगने आऊंगा!’’
इस बार कनीज़ चुप थी. रईस जवाब समझ गया. रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा उसने पार कर लिया था...आगे आने वाली मुसीबत अब शायद ही कोई मायने रखने वाली थी. कनीज़ का साथ पाकर, वह कुछ भी कर सकता था.
‘‘तुम्हें घर छोड़ दूं?’’
कनीज़ ने हामी भरी. वह दोनों साथ-साथ चल पड़े. सबरा पेड़ की आड़ से सब कुछ देख रही थी...कनीज़ की चादर गिर गयी थी और अंधेरे में भी उसके चेहरे पर बिखरी मुस्कान चांदनी की तरह चमक रही थी. उसने अल्लाह से दुआ मांगी,

‘‘या अल्लाह! मेरी आपा को सुकून बख्शो...उसके माज़ी से उसे आज़ाद करो.’’ वह जानती थी, कि रईस ही वह फरिश्ता था, जिसने कनीज़ के माज़ी से उसको हमेशा के लिये आज़ाद कर दिया! वह पेड़ की ओट से निकल आयी...पर कनीज़ और रईस उसे भूल कर आगे बढ़ चुके थे. आज बरसों बाद, उसकी बहन को उसका हमसफर मिला था-सबरा की खुशी का ठिकाना न था.
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शीबा राकेश ने अमृतलाल नागर के ‘नाच्यो बहुत गोपाल’ का अंगेजी में और ताबिश खैर के The Bus Stopped तथा अनुज धर के India’s Biggest Cover Up का हिंदी में अनुवाद किया है.
typhoon का हिंदी अनुवाद,  ‘बवंडर’ वाणी प्रकाशन से प्रस्तावित 

सम्प्रति अंगेजी साहित्य  का अध्यापन करती हैं (Bharatiya Vidya Bhavan Girls’ Degree College, University of Lucknow.)

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  1. कथा-प्रसंग की नजाकत और किरदारों की अपनी खूबी को ध्‍यान में रखते हुए बहुत सूझबूझ और मुंहबोलती भाषा में बेहतरीन अनुवाद किया है शीबा राकेश ने। बेशक यह एक उपन्‍यास का हिस्‍सा हो, लेकिन एक मुकम्‍मल कहानी की तरह इसे एक स्‍वतंत्र रचना की तरह भी पढा जा सकता है। शीबा जी को बधाई।

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  2. शीबा ने अच्छा अनुवाद किया है . इसे पढ़कर लगा ही नहीं कि हम छोटा टुकड़ा पढ़ रहे हैं ,अपनेआप में पूरी कहानी ही लगा . समालोचन शुक्रिया एवं शीबा आपको बहुत -बहुत बधाई . पुस्तक की प्रतीक्षा है .

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  3. एक उदास औरत का कथ्य...पर भरपूर रुमानियत से लिपटी.

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