‘रीझि कर एक कहा प्रसंग’, असल में संपादक का पन्ना है.
इसमें संपादकीय न देकर अपनी पसंद की किसी भी रचना-आलोचना–विचार को प्रकाशित
किया जाता है. इसमें अप्रकाशित की बाध्यता भी नहीं है. इस बार इस कालम में आलोचक–विचारक प्रो. पुरुषोत्तम अग्रवाल की यात्रा-विचार
किताब ‘हिंदी सराय : अस्त्राखान
वाया येरेवन’ (२०१३. राजकमल
प्रकाशन, नई दिल्ली) का एक अंश
दिया जा रहा है.
बहुदेववाद और एकेश्वरवाद की वैचारिकी और सांस्कृतिक
संघर्षों पर हिंदी में लेखन न के बराबर हुआ है. ऐसे असुविधाजनक और आसानी से गलत
समझ लिए जाने के जोखिम भरे प्रक्षेत्र पर प्रो. अग्रवाल पिछले दशक से लिख रहे हैं.
इस संदर्भ में २००४ में राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित उनकी किताब, ‘निज ब्रहम विचार’ को भी देखा जाना
चाहिए.
धर्म की सत्ता
पुरुषोत्तम अग्रवाल
जरथुस्त्र इतिहास के पहले व्यक्ति हैं, जिन्होंने लौकिक और पारलौकिक जीवन को शुभ-अशुभ के दो टूक विभाजन में बाँटा. ईसा पूर्व दसवीं ( कुछ लोगों के अनुसार सातवीं) सदी में, उन्हीं ने ऐसे प्राफेट या मसीहा की अवधारणा पहले-पहले प्रस्तुत की जो परमात्मा का खासुलखास है और जिसे परमात्मा ने ‘शुभ’ की राह से ‘अशुभ’ की ओर भटक गये लोगों को वापस शुभ की राह पर लाने की ड्यूटी दे रखी है. पारसियों के पवित्र ग्रंथ अवेस्ता और ऋग्वेद के तुलनात्मक अध्ययन से विद्वानों ने नतीजा निकाला है कि इन दोनों में आने वाले देव और असुर कोई अलग अलग जातीय समूहों के आराध्य नहीं, बल्कि एक ही खानदान के लोगों के बीच चल रहे विवाद के प्रतीक थे. अवेस्ता की ‘गाथाओं’ में अहुरमज्दा के प्रति जरथुस्त्र की स्तुतियाँ भी हैं, और अहुरमज्दा-जरथुस्त्र संवाद भी. इन संवादों में अहुरमज्दा जरथुस्त्र को अपना प्रतिनिधि नियुक्त करते हैं, और लोगों को सही रास्ते पर लाने की हिदायत देते हैं.
एक ओर आवेस्ता में, दूसरी ओर वेदों में, परस्पर विरोधी ढंग से आने वाला
देवासुर संग्राम दो विश्व-दृष्टियों के संघर्ष का रूपक है. एक विश्व-दृष्टि आनंद
को महत्व देती है, देवताओं को मनुष्य जैसा ही अच्छा और बुरा
मानती है, उनकी कृपा प्राप्त करने के लिए शब्दों (मंत्रों)
और विधि-विधान को महत्व देती है. जानती है कि देवता किसी सतत सत्य के संरक्षक नहीं,
स्वयं भी काफी मूडी हैं, ऐन इंसानों की तरह.
इसीलिए वे रूठ भी सकते हैं, और उन्हें मनाया भी जा सकता
है.यह सोच सभी बहुदेववादी, पैगन समाजों की रही है. यह सोच
कहती है कि सत्य तो एक ही है लेकिन उसे कहने और जानने की विधियाँ अनेक हो सकती हैं,
किसी विधि को सदा के लिए, हर हालत के लिए सही
या गलत नहीं कहा जा सकता.
इस बहुलतापरक दृष्टि के विपरीत जरथुस्त्र ने अहुरमज्दा को सारे शुभ का
स्रोत,
एक मात्र सच्चा ईश्वर और स्वयं को उसका एकमात्र संदेशवाहक—प्राफेट-- निरूपित किया; नैतिक जीवन उसी को माना जो इस ‘एकमात्र’ ईश्वर, उसके एकमात्र पैगंबर के प्रति घनघोर रूप से
एकनिष्ठ आस्था पर आधारित हो. ‘सही’ आस्था
श्रेष्ठ जीवन का प्रतिमान बनने के साथ-साथ सुखी जीवन का कारण भी बन गयी. आप दुखी
हैं तो अपने कुकर्मों या देवताओं की कुकृपा के कारण नहीं, गलत
आस्था अपनाने के कारण हैं. आप किसी और ईश्वर, किसी और
संदेशवाहक में आस्था या उससे किसी तरह का
वास्ता तक रखें-- एकनिष्ठता का यह उल्लंघन ही परम पाप है.
इस परम-पाप की ओर मनुष्यों को शैतान ले जाता है. एक मात्र सच्चे ईश्वर
ने अपने एकमात्र सच्चे संदेशवाहक को जिम्मा सौंपा है कि वह पाप से आप को मुक्त
करे. यदि आप मुक्त होना चाहते हैं तो कोई मसला नहीं, यदि नहीं होना चाहते, तो जाहिर
है, आप शैतान की औलाद, नहीं तो उसके
असर में तो जरूर ही हैं. अब, ऐसे शैतानी प्रभाव से आपको
निकालने के सिलसिले में आपकी अपनी देह की, आपके इतिहास की
देह की की थोड़ी बहुत मरम्मत करनी ही पड़
जाए तो बुरा क्या मानना. यह तो एकमात्र
सच्चे ईश्वर और अनेक गैर-सच्चे ईश्वरों (असल में शैतान) के सेवकों के बीच की लड़ाई
में होना ही होना है.
प्राफेटिक जीवन-दृष्टि में, जो आपके जैसे
नहीं, वे केवल अलग या
भिन्न नहीं, अशुभ - ईविल- हैं. वे किसी खास प्रसंग में आपके विरोधी नहीं,
सतत शत्रु हैं, सदा सदा के लिए- ‘अन्य’ हैं. उनसे घृणा ही की जा सकती है, या अधिक से अधिक उन्हें ‘टॉलरेट’ किया जा सकता है. प्रेम किया जा सकता है तो ऐन नहीं, तो किसी हद तक अपने जैसा बना कर ही. उन्हें शैतान के प्रभाव से मुक्त कर लेने के बाद ही.
जरथुस्त्र ने जो किया, उसे फ्रांसीसी
इतिहासकार थ्योडोर जेल्डिन ने ‘ऐन इंटीमेट हिस्ट्री ऑफ
ह्यूमैनिटी’ ( मिनर्वा, लंदन,
1994) नामक पुस्तक में ‘प्राफेटिक
रिवोल्यूशन’ कहा है.
जयशंकर ‘प्रसाद’ का, आनंदवाद बनाम दुखवाद की पड़ताल करने वालाशोध -परक चिंतन याद आता है. वैदिक
लोगों में ही एक ओर थे- प्रकृति के विभिन्न रूपों में देवत्व की विभूति देखने वाले
( याने जगत को ही ब्रह्म मानने वाले) , विविधता को प्रकृति
का नियम और आनंद की कामना को मनुष्य का सहज स्वभाव मानने वाले. और दूसरी तरफ
थे- प्रकृति से अलग ईश्वर (एकेश्वर) को
नैतिकता का एकमात्र स्रोत मानने वाले, आनंद की कामना को सभी
पापों का मूल पाप मानने वाले. इन दो मान्यताओं के बीच वाद-विवाद जरथुस्त्र के पहले
से ही चला आ रहा था.
जरथुस्त्र ने इस बहस को किसी पूर्व-लिखित नाटक की मंच-प्रस्तुति में
बदल दिया, दुनिया के रंगमंच पर होने वाले हर काम को शुभाशुभ के मूल संघर्ष का रूपक
बना दिया. अहुरमज़्दा के साथ जरथुस्त्र के संवाद शुभाशुभ के बीच सदा से चल रहे,
और भविष्य में शुभ की विजय, अशुभ के पराभव के
साथ ही समाप्त होने वाले इस महानाटक के ही अंश हैं. जरथुस्त्री और अन्य प्राफेटिक
दृष्टियों द्वारा कल्पित जीवन-नाटक की स्क्रिप्ट शुभाशुभ के बीच ‘कॉस्मिक’ संघर्ष की स्क्रिप्ट है. मानव की ‘स्वतंत्र इच्छा’ भी पहले से निर्धारित है- परमात्मा
द्वारा बनाये गये और पैगंबर द्वारा बताये गये चुनाव को अपनाना या सतत यातना और
अंधकार में पड़े रहना. ईसाई परंपरा में
शैतान का सबसे लोकप्रिय नाम ‘प्रिंस ऑफ डार्कनेस’
ही है, जो कि सीधे अवेस्ता से लिया गया है.
इसी तरह ईसा तथा अन्य पवित्रात्माओं के चित्रों में उनके मुखमंडल के आसपास दिखने
वाला आभामंडल भी जरथुस्त्री छवियों से लिया गया है. इस आभामंडल का ‘प्रकाश’ सूचित करता है कि इन पवित्रात्माओं ने ‘प्रिंस ऑफ डार्कनेस’ पर विजय पा ली है.
जरथुस्त्र द्वारा प्रकृति की लीला को शुभाशुभ संघर्ष के नाटक की
स्क्रिप्ट में बदल देने के बाद, वैदिकों के साझा देवमंडल में से, आनंदवादियों के
यहाँ इंद्र के बरक्स वरुण का बस महत्व ही घटा, मित्र (सूर्य)
भी सम्मानित रहे, लेकिन जरथुस्त्र की एकेश्वरवादी,
कट्टर ‘नैतिकवादी’ पैगंबरी क्रांति में वरुण
(अहुरमज्दा) एकमात्र सच्चे परम- ईश्वर हो गये और इंद्र ( अहिरदमन) लोगों को गलत
राह पर ले जाने वाले, खतरनाक ‘अन्य’
में बदल गये. रोचक यह है कि मित्र (सूर्य) का सम्मान मिहर के रूप
में जरथुस्त्र के सिस्टम में भी बना रहा. लेकिन उनकी हैसियत के अहुरमज्दा के समान
होने का सवाल ही नहीं. मिहर अहुरमज्दा के परम-प्रिय हैं, उनके
ट्रबल-शूटर हैं, बल्कि पुत्र हैं, लेकिन
एक ईश्वर, परमपिता
तो अहुरमज्दा ही हैं. परमपिता अहुरमज्दा
के परमप्रिय पुत्र मिहर की धारणा का ही अनुवाद आगे चल कर परमपिता परमात्मा
के इकलौते पुत्र जीसस की धारणा में हुआ है.
पहले से चली आ रही बहस को
शुभाशुभ के बीच शाश्वत, प्राणांतक संघर्ष निरूपित करने का काम, विवाद कर रहे
लोगों को स्थायी रूप से शुभ और अशुभ में
बाँट देने का काम जरथुस्त्र की ‘प्राफेटिक रिवोल्यूशन’ ने किया.तमाम क्रांतियों की
तरह जरथुस्त्र की पैगंबरी क्रांति भी बहुत देर से खदबदा रहे पानी का उबाल थी.
बात असल में, किसी एक व्यक्ति या समुदाय की नहीं, ‘टेंपरामेंट’
की है. जरथुस्त्र के बाद, ईसाई और इस्लामी
परंपराओं में एकेश्वरवादी, पैगंबरी टेंपरामेंट जम कर विकसित हुआ. ईसाइयत और
इस्लाम दोनों ही परंपराओं में जरथुस्त्री प्रभावों को बलपूर्वक नकारा जाता है,
लेकिन अध्येताओं को ये प्रभाव मूलभूत जीवन-दृष्टि से लेकर दैनंदिन
व्यवहारों तक पर साफ दीखते हैं. इन
मजहबों से संपर्क, संवाद और संघर्ष के फलस्वरूप हिन्दू और
जापान की शिंतो परंपरा जैसी बहुदेववादी परंपराओं में भी इस शुभाशुभ के बीच दो टूक
विभाजन मानने वाले पैगंबरी टेंपरामेंट ने
अपनी उपस्थिति दर्ज करा ली.
मार्के की बात है कि आज के पारसियों ने जरथुस्त्र के मूल
सिद्धांतों को पिछले हजारो वर्षों में सीखे गये ऐतिहासिक-नैतिक सबकों की रोशनी में
काफी कुछ रूपातंरित किया है. वे
पैगंबरी उत्साह का परिचय देने में कोई दिलचस्पी नहीं रखते. इसका मूलभूत कारण स्वयं
उनका इतिहास और उससे सीखने की विनम्रता है. ईरान में इस्लाम के विस्तार के
बाद जरथुस्त्र के अनुयायिओं को दमन आरंभ
हुआ. पैगंबरी एकेश्वरवाद के प्रणेता के
अनुयायी स्वयं आक्रामक पैगंबरी एकेश्वरवाद
के शिकार हुए. इस दमन के फलस्वरूप पारस—फारस (ईरान)
से भाग कर जरथुस्त्री लोग गुजरात पहुँचे, और आज पारसियों की
सबसे बड़ी तादाद भारत में ही है. सबसे बड़ी यह तादाद, एक लाख से अधिक नहीं है, और इनमें से नब्बे फीसदी एक ही नगर-मुंबई- में निवास करते हैं. इतने विकट
रूप से अल्पसंख्यक होने के बावजूद विज्ञान, बौद्धिक कर्म से
लेकर उद्योगों तक में पारसी समुदाय अव्वल जगह पर है. आजके भारत में भाभा, नरीमन, पालखीवाला, टाटा और
गोदरेज का नाम कौन नहीं जानता.
स्वाभाविक है कि जहाँ शरण पाई उस गुजरात की भाषा आजके पारसियों की
मातृभाषा और सांस्कृतिक भाषा का दर्जा हासिल कर चुकी है.
ऋग्वेद से लेकर आज तक के दैनंदिन हिन्दू जीवन में मौजूद देवासुर
संबंधों की स्मृतियाँ बताती हैं कि ये संबंध केवल संघर्ष और युद्ध के नहीं, प्रतिस्पर्धा और
कभी-कभी सहयोग के भी हैं. हालाँकि इन स्मृतियों का हिसाब-किताब कुल मिला कर संघर्ष
और अविश्वास को ही रेखांकित करता है. संस्कृत में यदि ‘असुर’
शब्द दुष्ट या भ्रम में
पड़े व्यक्ति का वाचक मान लिया गया, तो जरथुस्त्र के जमाने
में प्रचलित पुरानी फारसी में ही नहीं,
इस्लाम के बाद की फारसी और उससे प्रभावित उर्दू तथा बोलचाल की
हिन्दुस्तानी में भी ‘देव’ शब्द का अर्थ देवतात्मा नहीं बल्कि अत्याचारी
राक्षस जैसा ही होता है—“लंका सा था, उस
देव का घर पानी में”. बचपन में बाबूजी से सुनी कहानियों में
भी, ‘डरावने जंगल’ में बड़ा खौफनाक ‘देव’ रहा
करता था.
एकेश्वरवाद बनाम बहुदेववाद का यह सारा किस्सा आरमीनिया के संदर्भ में
याद आता रहा . यह भी याद आया कि एंकेवतिल
द्यू पेराँ ने अवेस्ता का अनुवाद तो 1771 में ही फ्रेंच में प्रकाशित कर दिया था, लेकिन उसके
महत्व पर यूरोपियन विद्वानों, बुद्धिजीवियों का ध्यान कोई
पचास साल बाद ही गया. तब तक यूरोप में यही माना जाता था कि शुभ-अशुभ की दो-टूक
धारणाएँ और इनके माध्यम से मनुष्य को नैतिकता का स्पष्ट आधार, सबसे पहले देने का श्रेय ईसाइयत या खींच-तान कर यहूदी परंपरा को ही दिया
जा सकता है. बहुदेववाद के प्रति एकेश्वरवादी जीवन-दृष्टि की सबसे बड़ी शिकायत ही
यह है कि जीवन में शुभ-अशुभ के स्पष्ट बोध का अभाव इन परंपराओं को नैतिक रूप से
शिथिल बनाता है. पैगन शब्द का प्रयोग यूरोपीय बौद्धिक विमर्श में आज तक संदेह
बल्कि हिकारत के साथ होता है. पैगन शब्द व्यक्तिगत से लेकर सामाजिक जीवन तक में
नैतिकता के प्रति लापरवाह, हिंसक मिजाज को सूचित करने के लिए किया जाता है. हिटलर को पैगनिज्म
से जोड़ देना, पैगंबरी एकेश्वरवाद में संस्कारित विद्वानों का
प्रिय शगल है.
उन्नीसवीं सदी के मध्य तक यूरोप के बौद्धिक जान चुके थे कि शुभा शुभ
की दो टूक अवधारणा और उस पर आधारित “स्पष्ट, सार्वभौम, शाश्वत”
नैतिकता का मूल स्रोत बाइबिल का पुराना या नया टेस्टामेंट नहीं
बल्कि जरथुस्त्र के संवाद हैं.
इसीलिए, जब नीत्शे ने “लिजलिजी भावुकता से भरी
ईसाइयत और उसकी नैतिकता” को चुनौती देने
की ठानी तो
माध्यम जरथुस्त्र को बनाया. नीत्शे का व्यक्तिगत और सामाजिक अनुभव उन्हें बता रहा
था कि असली जीवन में हमेशा, ‘बुरे काम का बुरा नतीजा’
नहीं होता. परमात्मा का न्यायप्रिय और करुणासिंधु होना जीवन-वास्तव
में सिद्ध नहीं होता. उनकी बेचैनी यही थी
कि एकमात्र सच्चे ईश्वर और उसकी, उसके पैगंबरों द्वारा दी
गयी नैतिकता में आस्था सुख की गारंटी इस लोक में तो बन नहीं पाती और परलोक देखा
किसने है? इस अप्रमाणिकता के कारण ही नीत्शे ने नैतिकता की सारी
प्रचलित अवधारणों को खारिज करते हुए स्वयं को अनैतिकतावादी घोषित कर दिया. आशय
उनका यह था कि मनुष्य जीवन की सार्थकता नैतिक-अनैतिक के परे जाने की सामर्थ्य
अर्जित करने में है. प्रदत्त नैतिकता और उसका स्रोत ईश्वर असल में इस सामर्थ्य के
बाधक, इसलिए कमजोर, लिजलिजी भावुकता के
प्रमाण हैं, और इस कमजोरी की शुरुआत जरथुस्त्र से होती है.
Painted in one of the ancient underground catacombs of Rome,AD375 |
जरथुस्त्र और अहुरमज्दा के संवादों की शैली में, 1883-1885 में,
‘इत्यवदत जरथुस्त्र’-‘जरथुस्त्र ने कहा’-( दस स्पोक जरथुस्त्र) रचने वाले नीत्शे ने
अपनी आत्मकथा में लिखा , “मुझसे किसी ने पूछा नहीं; हालाँकि पूछा जाना चाहिए था, कि मेरे मुँह से, प्रथम अनैतिकतावादी के मुँह से
जरथुस्त्र का नाम निकलने का अर्थ क्या है? पूछा जाना चाहिए
था क्योंकि उस ईरानी का ऐतिहासिक अनोखापन
तो मेरे काम के सर्वथा विपरीत काम के कारण है...जरथुस्त्र ने नैतिकता को तत्वमीमांसा
में बदल कर, नैतिकता
को कार्य-कारण का आधार बता कर और जीवन का लक्ष्य निरूपित करके सबसे भयानक भूल की थी...अब उन्हीं को यह भूल
पहचाननी चाहिए और इसका परिमार्जन भी करना चाहिए....मेरे मुँह से जरथुस्त्र का नाम
यही सूचित करता है कि नैतिकता पर सत्य की विजय हो. सत्य-प्रियता के कारण ही
संभव हुआ है, नैतिकतावादी जरथुस्त्र का मुझ अनैतिकतावादी में रूपांतरण---यह है मेरे
मुँह से जरथुस्त्र का नाम लिए जाने का मतलब”. (‘दस स्पोक
जरथुस्त्र’ सं. आर. जे. हॉलिंगडेल, पेंग्विन,
न्यू यॉर्क, 1985, पृ. 31)
पैगंबर-ए-अव्वल जरथुस्त्र के अपने अनुयायियों ने इतिहास से सही सबक
सीखे हैं. भयानक खबर, लेकिन यह है, कि उनका किये दो टूक शुभाशुभ विभाजन से
खतरनाक सोच के लोग नये सिरे से प्रेरणा ले रहे हैं. ‘इन सर्च ऑफ
जरथुस्त्र: दि फर्स्ट प्राफेट ऐंड दि आइडियाज दैट चैंज्ड दि वर्ल्ड’ (एल्फ्रेड नॉफ, न्यू यॉर्क, 2003) में पॉल क्रायवेत्स ने
तजाकिस्तान के जिहादी नेता, इस्लामी पार्टी की ओर से
राष्ट्रपति का चुनाव लड़ चुके दौलत
खुदानज़ारोव के साथ अपनी मुलाकात का जिक्र करते हुए इन महानुभाव को उद्धृत किया है,
“ मध्य एशिया में इस्लाम
इसलिए मजबूत है क्योंकि यहाँ इसकी जड़ें जरथुस्त्रवाद में पैठी हुई हैं; जरथुस्त्रवाद ही भविष्य की
विचारधारा है. जरथुस्त्री मान्यता है कि दुनिया शुभ और अशुभ के बीच सतत संघर्ष का
रणक्षेत्र भर है. इस संघर्ष में शुभ के
पक्ष में और अशुभ के विरुद्ध लड़ना हममें
से हरेक का कर्त्तव्य है. जरथुस्त्रवाद असफल हुआ, अपने सही
समय से पहले ही संसार में आ जाने के कारण, इसका समय तो अब
आया है. पहली बार दुनिया इतनी छोटी हुई है. पहली बार विश्व-समुदाय की बात की जा
सकती है. भविष्य के लिए जो विचारधारा मनुष्य को चाहिए वह जरथुस्त्र के संदेश से
पुष्ट इस्लाम ही दे सकता है”. ( पृ.9).
सवाल उठता है कि इस तरह की सोच के सामने हम क्या उत्तर-आधुनिकतावादी
टाइप का नैतिक सापेक्षतावाद ही रख सकते
हैं?...क्या कोई और विकल्प नहीं? यह सवाल मन को सदा ही मथता
रहता है. हर यात्रा के दौरान साथ रहता है यह सवाल-- यात्रा फिर चाहे जगहों की हो,
या किताबों की हो, विचारों की हो या मुलाकातों
की हो, हर वक्त साथ
रहता है यह सवाल...
खैर...
रोचक बात है कि ईरान के जरथुस्त्री शासकों के संपर्क में रहने के
बावजूद, और बाद में, 600 ई.पू, के
आस-पास पारसी देवताओं और विश्वासों को अपना लेने के बावजूद आरमीनियाई समाज ठेठ
एकेश्वरवादी नहीं बना. जरथुस्त्री प्रभावों के बावजूद, स्थानीय देवताओं और बहुदवेववादी जीवन-दृष्टि के प्रति आकर्षण बना रहा. आरमीनिया के पारंपरिक
देवताओं के साथ मिहर (
मित्र-सूर्य) और अवेस्ता में वर्णित अन्य देवताओं की भी पूजा होने लगी, बल्कि इन्हें आरमीनिया की अपनी पौराणिक कथाओं के विभिन्न देवताओं के साथ
समतुल्य मान लिया गया. यही काम यूनानी और
रोमन मूल के देवताओं के साथ किया गया. मासिस को अरारात भी कहा जाने लगा,लेकिन लोग माँ अन्नपूर्णा को भूले नहीं. बहुदेववादी मिजाज अपने से अलग
दृष्टियों और उनके देवताओं को इसी तरह अपनाता रहा है, आज तक
अपना रहा है.
The Siege of Antioch, from a medieval miniature painting, during the First Crusade. |
असहिष्णु एकेश्वरवाद आरमीनिया में, जरथुस्त्री प्रभाव के रूप में नहीं, ईसाइयत के साथ ही आया. तारदात
(तृतीय) ने 301 में ईस्वी में ईसाइयत को शासकीय धर्म घोषित
कर दिया, और देवी माँ सांदारामेत के भव्यमंदिर को ध्वस्त
करके एजमीआजान चर्च का निर्माण किया. एकेश्वरवादी मजहबों का मिजाज शुरु से ही पितृसत्तावादी रहा है,
ये बहुदेववाद के ही नहीं,
देवी-पूजा, मातृ-शक्ति पूजा के भी सख्त खिलाफ
रहे हैं. अपनी नयी ईसाई आस्था को प्रमाणित करने के लिए जरूरी था कि देवीमंदिर को
ध्वस्त कर, उसे परमपिता के एकलौते पुत्र के उपासना-स्थल का
रूप दिया जाए.
इस तरह आरमीनिया ईसाइयत को राजकीय धर्म बनाने वाला, दुनिया के इतिहास का
पहला देश बना. रोमन सम्राट कांस्टेनटाइन ने बपतिस्मा 337
ईस्वी में प्राप्त किया था.
चौथी सदी के पहले ही बरस में, राज-सत्ता के दबाव में, आरमीनिया
की बहुदेववादी परंपरा का एकेश्वरवादी,
ईसाई
आस्था में जो रूपातंरण हुआ, उसकी परतें आज तक,
आरमीनिया के लोक-जीवन और स्मृतियों में देखी-सुनी जा सकती हैं. ऐसी
परतों से मेरा परिचय और संवाद मेक्सिको की
वर्जिन ऑफ गुयादालुपे के दर्शन करते समय और आयरलैंड में, लेखक
मित्र जैक हार्ट से कैरो कील की कथा सुनते वक्त, टबरनॉल्ट
कूप के पास स्थित वर्जिन मेरी की प्रतिमा के चमत्कारों के बारे में जानते वक्त भी
हुआ है. वहाँ भी, एकेश्वरवाद
द्वारा बहुदेववादी समाज के इतिहास ही नहीं, कल्पना और स्मृति तक
पर ‘फतह’ पाने के प्रमाण और
परिणाम देखे और समझे थे.
खाल्दी |
पहली परत दिखती है इरिबुनी के दुर्ग-नगर और गारनी के सूर्य-मंदिर में; दूसरी लेनिन चौक के
रिपब्लिक चौक हो जाने और विक्ट्री पार्क में स्टालिन की जगह माँ आरमीनिया की
प्रतिमा के आ जाने में.
इनमें से दूसरी परत से ही परिचय पहले हुआ, कल शाम रिपब्लिक चौक
और विक्ट्री पार्क में, और अब हम पहली परत तक पहुँच रहे थे.
आरमेन ने गाड़ी जहाँ रोकी, वह एक पहाड़ी के पाँवों पर
बने म्यूजियम का दरवाजा था. दरवाजे तक
पहुँचने के लिए ही कई सीढ़ियाँ चढ़नी हैं, और म्यूजियम के
भीतर से ही है इरिबुनी के अवशेषों तक जाने का रास्ता.
ईशबा |
म्यूजियम और किले में घूमते हुए आप प्राफेटिक रिवोल्यूशन तथा
एकेश्वरवादके पहले की एक और पैगन सभ्यता के सामने आते हैं. उस सभ्यता के रोजमर्रा के जीवन से लेकर सत्ता-तंत्र और
देव-मंडल का कुछ बोध प्राप्त करते हैं. यह जानना रोचक था कि 169 ई.पू. से येरेवान में भारतीय
व्यापारी बसे हुए थे. ये लोग ईसा की चौथी सदी में यहाँ आई ईसाइयत की चपेट में
सभी पैगन्स की तरह आए, कुछ ईसाई बने, कुछ
मारे गये, कुछ भाग कर वापस भारत गये.
यूराट्रियन देवमंडल के सबसे बड़े देवता खाल्दी सिंह की सवारी करते हैं तो दर्जे में उनसे बस एक ही
पायदान नीचे के ईशबा बकरी की. अब इसे
विरुद्धों का सामंजस्य कहिए या इसमे प्रतीक-विज्ञान का कोई अनोखा पाठ खोजिए—आपकी मर्जी, हम तो बस आपको दर्शन कराए दे रहे हैं, इन दोनों
देवताओं के.
यह रहे खाल्दी...
और इनके बाद ये रहे ईशबा...__________________________________
वर्चस्व और प्रतिरोध, तीसरा रुख, विचार का अनंत, कबीर:साखी और सबद तथा अकथ कहानी प्रेम की : कबीर की कविता और उनका समय,हिंदी सराय : अस्त्राखान वाया येरेवन’ आदि प्रकाशित
मुकुटधर पाण्डेय सम्मान, देवीशंकर अवस्थी आलोचना सम्मान , राजकमल हजारीप्रसाद द्विवेदी कबीर सम्मान .
कॉलेजियो द मेक्सिको तथा कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में विजिटिंग
प्रोफेसर, अमेरिका, इंग्लैण्ड, जर्मनी, फ्रांस, आयरलैंड, आस्ट्रेलिया, नेपाल,
श्रीलंका, थाईलैंड आदि देशों में व्याख्यान यात्राएं
भारतीय भाषा केन्द्र (जेएनयू ) के अध्यक्ष, एनसीआरटी की हिंदी पाठ्य–पुस्तक
समिति के मुख्य सलाहाकार, संघ लोक सेवा आयोग के सदस्य रहे
बहुत सटीक चित्रों के साथ यह टुकड़ा लगाया है, तुमने अरुण। धन्यवाद।
जवाब देंहटाएंहालाँकि जहाँ बात खत्म हो रही है, वहाँ खाल्दी और ईशबा देवताओं के उल्लेख के साथ ही इन दोनों के दर्शन भी पाठकों को हो जाते, तो और अच्छा रहता। खैर, शायद कोई तकनीकी दिक्कत रही हो, हिन्दी सराय से चित्र लेने में...
जवाब देंहटाएंआभार .. प्रयास करता हूँ . हिंदी सराय से वह चित्र यहाँ आ जाए.
जवाब देंहटाएंतो दर्शन देने आ ही गये ईशबा और खाल्दी 😊
जवाब देंहटाएंमैं इसे एकेश्वरवाद बनाम बहुदेववाद कहूँ या आर्मीनिया की ज़मीन पर समन्वय की सहज प्रक्रिया के लिए तैयार मानव को रेखांकित करूँ . मैंने पुस्तक पढ़ी है .और आज इस अंश को फिर से पढ़ रही हूँ .अरारात का सन्दर्भ जिज्ञासा बढाता है . इस सन्दर्भ ने मुझे प्रेरित किया और यहीं नेट पर मैंने सुबह से आर्मीनिया के साथ कई घंटे बिताये . इंस्टेंट जानकारियां ..खाल्दी की इमेजेज ढूढ़ते हुए कई धुंधले पड़े फ्रेस्कोस देखे ..एक चित्र जिसमें खाल्दी को सिंह पर बैठा नहीं दिखाया है बल्कि उसके पंख हैं और एक हाथ में कटोरी व दूसरे में स्पेटुला है .ईशबा की तस्वीर केवल यहाँ समालोचन पर है येरावन के ज़रिये . मेरा मन है कि इस यात्रा वृतांत के कुछ हिस्से सर से रूबरू सुनूँ ....सर कमाल के ओरेटर हैं .उन्हें सुनते समय मुझे गंगानगर के अपने अंग्रेजी के प्रोफेसर पाण्डेय सर याद आते हैं . इसे पढ़ते हुए भी वे याद आये . अथाह भंडार थे वह ज्ञान के .
जवाब देंहटाएंपुरुषोत्तम सर एक अच्छा अध्यापक कब किस तरह जीवन के किसी भी मोड़ पर आपके अंधेरों में डूबी वर्तिका को जला देगा .कोई नहीं जानता . केवल वह विद्यार्थी इसे जान रहा होता है जिसके पास आकस्मिक आती रोशनियाँ धीरे से कह रही होती हैं कि राहें इसी दुनिया में हैं ....
काश ये आर्टिकल टीचर्स डे के दिन छपता ..
अरुण आपके हर सहयोग के लिए लख लख शुक्रिया .
डरावने जंगल में बड़ा खौफनाक देव रहा करता था- स्मृतियों की गाँठ खोल दी गुरुवर...कितनी टीस थी..अब यहाँ से कुछ बाते कितनी साफ़ दिख रही हैं...
जवाब देंहटाएंमैंने यह किताब पढ़ी है, और उस आधार पर कह सकता हूँ कि इसमें यात्रा तो है ही , इतिहास और धर्म के उन कोनो-अतरों की भी तलाश की गयी है , जिनमे हमारा बहुत कुछ रखा पड़ा है | कितना अजीब है , कि हम आज अस्त्राख्यान और येरेवान को तो छोडिये , आर्मीनिया तक को नहीं जानते , जबकि यही आर्मिनिया हमें कितने समय से जानता आया है | बहुत अच्छा लगा इसे एक बार फिर पढ़कर |
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