मंगलाचार : प्रज्ञा पाण्डेय













प्रज्ञा पाण्डेय (गोरखपुर,१९६२) की कुछ कविताएँ, लेख और कहानियाँ प्रकाशित है. ‘मेरा घर कहाँ है’ कहानी आधी दुनिया की यंत्रणा और शेष आधे के अत्याचार-अनाचार की त्रासद कथा है. स्त्री जीवन की दुर्दशा का कोई अंत नहीं, इस कहानी के कथ्य के अंदर का यथार्थ एकदम से जकड़ लेता है. प्रज्ञा पाण्डेय के पास अनुभव है और वह कथा लिखने के ‘तौर- तरीकों’ से भी  परिचित हैं. 

मेरा घर कहाँ है                     
प्रज्ञा पाण्डेय
ये वही बाबूजी थे जिन्होंने बिदाई  से पहले माड़ो  में उसका  माथ  ढका था और भैया की टेंट से  दस हज़ार और रखवाने के बाद  चिर सुख का आशीर्वाद दिया था और वही अम्मा जी थीं  जिन्होंने उसके यहाँ से आयी सास की साड़ी  पहनकर आधी रात अक्षत छींटकर उसे उतारा  था, उसको पहुँचने में आधी रात हो गयी थी, उसे  ही देखने आयीं थीं  मौसी जी. आज वह पहली बार उनसे मिली है. वह चाय  देकर लौट रही थी तो पाँव जम  गए.

"पाँव अच्छे नहीं है बहू के. गाँव से सबेरे ही खबर आयी है. दूध देने वाली वाली  गाय मर गयी. फसल भी
खराब हो गयी है पाला  मार गया सब में" अम्मा जी बोलीं .
"मैं तो शुरू से कहती थी जन्म कुण्डली का ठीक से मिलान कराना लेकिन तुमने सुना ही  नहीं"    मौसी जी बोलीं   .
"मैं तो चिल्लाती रही लेकिन ये सुनें  तब न "अम्मा जी फिर बोलीं 
"अच्छा अब बंद कर  अपनी जुबान, साली. बेटा इसी हरामजादी की फोटो पकड़ कर बैठ गया था यह नहीं देखा तूने ? तब  तो इसके जैसी गुनवंती कोई और थी ही नहीं कहीं. बहुत देर से तेरी बकर बकर सुन रहा हूँ "  ये उसके ससुर बोले थे.
                          
वह  बेहोश हो गयी होती जो दिल को कडा न किया होता. हाथ पाँव की अंगुलियाँ सर्द हो गयीं. सब्जी काटने का चाकू चौके  की पटनी पर रख कर वह  बाथरूम में गयी. मुंह ठीक से धोकर अपने कमरे में आयी और रोने से लाल हुई आँख में ताज़ा काजल डालकर फिर चौके में चली गयी.
अब वह उल्लासमयी  नहीं रही. 

उदास होकर चौका चूल्हा सब किया. नयी बहू होने के नाते उसका  आधा चेहरा ढंका  था  खुला भी होता तो उसकी   बीती कौन जानता , कौन उससे    पूछता.  कल की खुशियाँ  अपने तम्बू कनात उखाड़ कर दूर बहुत दूर  चली  गयीं. अपना घर बसाने की चाह मर गयी.  किससे बताये कि वह फर्स्ट क्लास फर्स्ट है  और उसके पाँव बहुत अच्छे हैं.
रात भर नींद नहीं आयी. आधी  रात में रमेश  जब प्रेम के उन्माद में पागल होकर  उसके  पावों को चूम रहे थे तब  भी "बहू के पाँव नहीं अच्छे हैं" ये शब्द उसके कानों पर  हथौड़े चला रहे थे. पत्नी का हक अदा कर जब उसने सोने के लिए  करवट ली तब भी आँख में नींद नहीं आयी. वह वाद- विवाद प्रतियोगिताओं में हिस्सा लेती रही है. कालेज के दिनों की तेज़ तर्रार छात्रा रही है. पत्रकारिता करने  का स्वप्न पाले-पाले  अचानक  उठकर ससुराल चली आयी है तो इसका क्या मतलब कोई उसे कुछ भी कह कर चला जायेगा ?
मौसी  जी के जाने के बाद सास के पास जाकर बैठी -अम्मा जी क्या हुआ है. आपने कहा कि  मेरे पाँव नहीं अच्छे हैं. क्या गुनाह है मेरा. गाय मेरे  कारण मर गयी या कि पहले से बीमार थी ?
"क्या बोली ? कैंची की तरह जुबान चला रही है, तू चार दिन की छोकरी. इसको देखो तो ज़रा "

मेज़ पर रखी  स्टील की थाली उठाकर अम्मा जी ने फेंकी तो झझनाकर वह ज़मीन पर गिर गयी. पूरा घर पल भर में चौके में  जमा हो गया. उसी थाली की तरह वह भी एक कोने में गिर गयी  फर्क यह था कि वह  बेआवाज़ गिरी .चारों ओर से घिरी हुई  बेबसी में जब उसने  समर्थन के लिए पति की ओर देखा तो उसके हर कटाव पर मिटते हुए रात में उसको भोगने वाले  पति परमेश्वर रमेश जी  उसको अछूत समझकर देख रहे थे. वह नीची नज़रे किये ज़मीन में गड रही थी  चारों ओर उसकी थू-थू थी. जब से पैदा हुई है आजतक  सामूहिक रूप से उसका अपमान नहीं हुआ था. वह तो पान के पत्ते की तरह फेरी जाती थी.

"
कैसे संस्कार हैं इसके इतनी तेज़ लड़की ?अभी जुम्मा जुम्मा दो दिन भी नहीं हुए आये और  लच्छन ये हैं इनके "जिठानी पहली बार महीन आवाज़ में उसके खिलाफ मिलीं. एक  आसरा था वह  भी गया.

"यह तो हम लोगों को जीने नहीं देगी." तभी नन्द रानी की आवाज़ आयी
" इनके बाप को बुलाकर इनका हाल बताओ अम्मा तब उनलोगों को समझ में आये." उसकी स्मार्ट चाल उसकी कुशाग्र बुद्धि, उसका फुर्तीलापन सब बेकार हो गये  और उसके पाँव उन लोगों के डर से कांपने लगे. वे लोग हथियारबंद थे. वह उस घर के कटघरे में खडी अपमानित होती  याद कर रही थी  जब   चाचा के पावों पर झुकी थी तब उन्होंने कहा था -"दो घरों का मान -सम्मान  तुम्हारे कन्धों पर है" वे उससे आँखें नहीं मिला रहे थे. अपने गमछे से अपनी आँखें पोंछते जा रहे थे .
"जहाँ बेटी की डोली उतरती है उसी दरवाजे से उसकी अर्थी निकलती है" . यह अम्मा ने बरात आने  से दो दिन पहले समझाया था . "जाओ जाकर अपना घर आबाद करो. बेटी तो पराया धन होती ही है" उसके लाल-लाल  चोले को निहारतीं उसको  घेरे हुए कमरे में भरी सारी औरते सिसक उठी थीं कहीं सबको आप बीती तो नहीं याद आ गयी थी. कितने  जतन कर उसको यहाँ भेज था उनलोगों ने कोई आँचल ठीक करता तो कोई पानी पिलाता तो कोई रुमाल रखता अम्मा पैसे अलग अलग कर गठियाती रोती जा  रहीं थीं. यह सास के लिए, यह नन्द के लिए यह जिठानी के लिए, पैसे देकर  सबके पाँव छूना . बाबूजी तीन साल से उसके लिए लड़का ही ढूंढ रहे थे. तभी बड़का भैया की आवाज़ के साथ कि  निकालो भाई नहीं तो विदाई का  मुहूर्त निकल जायेगा . सही समय देखकर  वह उस घर  से निकाल दी गयी .
                      
उस दिन वे सब लोग एक साथ बोल रहे थे, उसका बहुत अपमान हुआ. अब कान पकड़ती है कि  कुछ नहीं बोलेगी .बोलकर आखिर जायेगी कहाँ . खूब सोचा-विचारा   जो उसका अपना घर है जहां  वह  नंगी घूमी  है, खेली है  उसका जन्मस्थान, क्या वहां उसे कोई शरण देगा ? फिर! शरण लेगी वह? किसी की दया पर क्या जिंदा रहेगी ?नहीं नहीं नहीं. यही प्रतिध्वनि मिलती है उसे .तब फिर रास्ता क्या है .उसे लगा कि कोई रास्ता नहीं है  समय को अपने पक्ष में आने तक  बिलकुल चुप रहना ही ठीक है. कई  बार घुटन इतनी बढ़ गयी कि  उसका  मन हुआ कि  कहीं चली जाए और किसी आश्रम में जाकर साधुनी बन जाए . लेकिन दोनों कुलों की जिम्मेदारी उसे सौंपी गयी है जिम्मेदारी छोड़कर वह  कहाँ जाए ? चाहे कोई मिटटी का तेल डालकर फूँक ही दे उसे लेकिन  अब दोनों घरों का मान बचाएगी मरकर भी जो काम आ सकी तो  उसका जीना धन्य होगा.
"यह कैसी आवाज़ है जी  भद्द- भद्द  जैसे कोई कपड़ा पीटे" .रमेश  ने कहा-" चुप रह साली" .लेकिन चुप क्यों रहे वह . भाभी  जी को  बड़े भैया  बेलन उठाकर भद्द-भद्द  पीट रहे थे  .वह अशुद्ध थी उस दिन चौके से खाली थी .
यह क्या हो रहा है ?कुछ समझ में न आया कल ही तो गाँव रहने आयी .
"बडे  भैया  भाभी  जी को मार क्यों रहे हैं .उनकी पीठ पर गम्म गम्म .. यह क्या ". वह दौड़कर गयी रमेश ने उसको पकड़ा लेकिन वह  छूटकर पूरी ताकत से  रणचंडी की तरह भाभी  जी की पीठ पर फैल गयी. बाबूजी जी ने उसके पास आकर उसको  गली दी -" हट साली"
भैया ने  बेलन उठाकर जोर से आँगन में फ़ेंक दिया . "क्या हुआ है . इस घर में कोई कुछ बोलता क्यों नहीं है.क्यों मारा भाभी जी  को "?
वह जार जार रो रही थी . तब तक बाबूजी पलटे - "सुन तू निकल यहाँ से. नेता बनती है ? हमारे घर में आकर हमें समझाएगी. हरामजादी, निकल यहाँ से. ". बाबूजी ने उसका हाथ पकड़ा और जोर से खींचकर ओसारे से बाहर कर दिया .गनीमत थी कि  अभी वह भीतर वाले आँगन  में थी." रमेश अपनी जोरू को इस घर के कायदे समझा दो .. नहीं तो इसको लेकर  निकल जाओ  यहाँ से "
                                           
रमेश उसको खींचते  हुआ कमरे में ले आये  और बोले  "सुनो तुम्हें अपना ज्ञान बघारने के लिए यहाँ नहीं लाया हूँ . औकात में रहो नहीं तो तुम्हारा भी वही हाल होगा जो  भाभी का हुआ . "बड़े भैय्या ने भाभी क्यों मारा "?वह फिर दहाड़ी ."तू सवाल करेगी ? तू  है कौन .. तुझे मालूम है कि  खाना खिलाते समय भौजी  भय्या को क्या-क्या   समझातीं हैं ." वह आँखें निकाल कर बोली -"कुछ भी समझाएं तो क्या मतलब है उनको जानवर की तरह पीटा  जाएगा"?               
रमेश उसके पास आये और उसका हाथ ऐंठ कर बोले सुन ज्यादा विज्ञानी  न बन नहीं तो दो मिनट में भैया तुझको तेरे बाप के घर पहुंचा आयेंगे ? समझी?"
बाप के घर?
वह उसका होता तो वह यहाँ क्यों आती ?                   
वह कब  नष्ट हो गयी . उसको पता नहीं चला . सब कुछ धीरे धीरे हुआ था. अब उसके अन्दर से एक  ऐसी  स्त्री निकल आयी थी जो बात -बात में  डरती थी, झिझकती थी, घबराती थी, अकेले चलने में जिसके पाँव कांपते थे ,बात करने में जिसकी जुबान लड़खड़ाती थी  और जो  बेघर थी .वह अनकती है, कुँए की जगत से बाल्टी खींचने वाली रस्सी से, भरे हुए पानी से, काठ की कठवत से, आम के बगीचे से और उसके घर के आँगन के बीचोबीच  से एक ही आवाज़ आती  है तुम्हारा कोई घर नहीं है. क्या हो गया है
उसे .. यह क्या सुनती है अपने कानों में ."सुनिए क्या मेरा घर कहीं नहीं है "?
"क्या बकती है साली, आधी रात में "बडबडाते हुए उसको भोगने के बाद धकेलकर रमेश सो गए .लेकिन वह रात भर जागती रही उसके  कानों में यही गूंजता है कि उसका  कोई घर नहीं है. सुबह एक घंटे के लिए आँख लग गयी थी . जागी तो दौड़कर कुँए की जगत पर पहुँच गयी
 
भाभी जी नहा रहीं थीं -" भाभी जी, क्या हमारा  कोई घर नहीं है" ?

"
क्यों, यह घर किसका है" ?
"यह घर हमारा होता तो कल बाबूजी ने हमारा हाथ खींचकर हमें ओसारे में  से आँगन में कर दिया होता ?
भैया ने आपको जानवर की तरह पीटा  होता ?आपको क्यों पीटा  उन्होंने "? वह उन्मादिनी  की तरह पूछने लगी ?
"पीटा  तुम्हें तो नहीं न ."
"क्या?"
"
हाँ .हमारे पास बुद्धि होती तो मार खातीं हम" ?
"क्या?  क्या कह रहीं हैं आप ?वह अचानक चिल्लाने लगी .
"पागल हो गयी हो क्या?
सवाल पूछती हो हमसे ?
"इतना दम था तुम्हारे बाप में तो तुमको यहाँ  क्यों ब्याहा
जाकर पूछो" .
"फर्राटेदार अंग्रेजी बोलती हो तो यहाँ क्या करने आयी हो "?
"कलक्टर से शादी क्यों नहीं कर दी तुम्हारे बाप ने" .
"कलक्टर बहुत पैसे  मांग रहा था भाभी जी. बाबूजी के बस में होता तो वे कलक्टर से ही ब्याहते हमें  "            
एक बार मन में आया कि कुँए में कूद पड़े वह कुँए की ओर दौड़ी तो भाभी जी ने उसको जोर से पकड़कर अंकवार में वैसे ही  भर लिया जैसे वह कल रात  उनकी पीठ पर फैल गयी थी.  भाभी जी और वह दोनों  रोने लगीं.                     
अब चौबीस घंटे  एक ही बात उसके दिमाग में घूमती है कि उसका कहीं भी कोई घर नहीं है. वह सबसे पूछने लगी है. जो मिल जाए यही पूछती है सुनो - "क्या हमारा कोई घर नहीं है"?
 "क्या "?
लोग अजीब नज़रों से उसे देखने लगे हैं .                             
रमेश अब रात में दूसरे कमरे में सोने लगे हैं क्योंकि वह  रात में उनको जगा कर पूछती हैं "सुनिए क्या हमारा कोई घर नहीं है" ? "पगली कहीं की ? सो चुपचाप ". वह आधी रात में हंसने लगती है ."कैसे सो जाऊं तुम्हारे पास घर न होता तो तुम सोते "?वह खूब जोर से हंसती है उसे रमेश ही पागल लगते हैं ".रमेश ने अब उसका नाम पगली रख दिया है "धीरे धीरे और लोग भी उसे पगली कहने लगे हैं .उसको चौके के काम से भी हटा दिया गया है. घर के लोगों को अब उससे डर लगता है "कहीं पगली खाने में मिटटी का तेल न मिला दे, कहीं नमक न झोंक दे क्या  ठिकाना कहो कि  सेर भर धूल  ही न उठाकर झोंक दे ..         
एक बार मायके गयी लेकिन दो दिन बाद ही बड़के भैया वापस छोड़ गए. आप लोग ही संभालिये इसे. वहां कौन देखेगा-भालेगा  . तब ऐसी नहीं थी .पगली कुछ कम ही पागल हुई थी .अम्मा के पास बैठी थी जब अम्मा ने कहा -"शान्ति से अपना घर संभालो  जहाँ डोली उतरती है वहीँ से औरत की अर्थी निकलती है ".              
 माँ के घर से आने के बाद  पगली का पागलपन बढ़ता जा रहा है. जो घर में आता है उससे कहती है - "मैं फर्स्ट क्लास फर्स्ट हूँ एम. .,  बी. ए. सब किया है लेकिन  मेरे पास एक घर नहीं है. "अब उसको एक कमरे में बंद कर के रखा जाता है .रात बिरात कहीं भाग न जाए. पागलपन में वह पहले का पढ़ा गया इतिहास दोहराते हुए बोलती है -"मेवाड़ की स्त्रियों ने मुसलामानों से अपनी इज्ज़त बचाने के लिए जौहर व्रत किया था ".ऐसा बोलते समय वह मनीष, अपने देवर को  आँखें निकाल कर घूरती रहती है.                        
पगली को पागल हुए चार बरस हो गए थे. इस बीच हर दूसरे दिन वह मार खाती रही . बाबूजी के सामने साड़ी  उठाकर  बैठ जाती है तब, उनकी थाली में से निकाल कर खाने लगती है तब या हमारा घर  हमारा घर चिल्लाने लगती  है तब .भाभी जी ने दबी जुबान से एक बार इलाज कराने की बात कही थी लेकिन वे डपट दी गयीं . मनीष ही उसका इलाज है.                               
महीने में चार दिन तो उसको  बंद करके रखना बहुत ज़रूरी हो जाता है .उसके कपडे खून के धब्बों से सने रहते हैं और  पुराने लोहे की एक अजीब सी महक उसके इर्द-गिर्द लिपटी रहती है .पांचवे दिन भाभी जी उसको साफ़ साड़ी  देतीं हैं कुएं से पानी निकाल देतीं हैं तब वह नहाती है. इन चार दिनों में उसे कोई मारता पीटता नहीं है लेकिन खाना  बिलकुल नहीं दिया जाता है  जिसके कारण उसकी  देह लस्त  रहती है और उसका पागलपन कम रहता है. मनीष की आवाज़ सुनते ही  दरवाज़े की आड़ पकड़ लेती है इसका कारण  सिर्फ मार का ही डर नहीं है.सब कुछ   भाभी जी  जानती हैं . मनीष पगली को एक नंबर की छिनाल और आवारा कहता है.

एक दिन   पगली घर छोड़कर निकल गयी. मनीष समेत पूरे घर ने घर का कुआँ  भी खंगाल मारा   लेकिन पगली नहीं मिली तो नहीं मिली. घर पगली के लिए भी असह्य हो गया था .उस दिन घर से उसके भाग जाने का कारण साफ़ साफ़ तो नहीं मालूम क्योंकि भाभीजी  कभी भी कुछ साफ़ साफ़ नहीं कहतीं हैं. कभी आँख बंद कर कभी आँख फाड़कर हर बात इशारों में कहतीं हैं. 

उनके कहने का मतलब यही निकलता था कि उस दिन मनीष ने पगली को उसके कमरे के अन्दर दबोच लिया ऐसा करता तो वह हरदम ही था लेकिन उस बार वह कहीं  शायद चूक गया और पगली उसकी पकड़ से छूट गयी वह जब निकल कर भागी तब केवल पेटीकोट में थी ब्लाउज के सारे बटन खुले हुए थे और उसकी छातियाँ खुली हुई थीं. आँगन में तुलसी चौरे के पास वह बाल बिखराए अर्धनग्न पहुंची पीछे पीछे चूके हुए शिकारी की तरह शिकार पर झपटता हुआ  मनीष पहुंचा और पगली को दौड़ा दौड़ाकर पीटना शुरू किया. तुलसी चौरे के चारों ओर दौड़ती पगली को मनीष पीटता रहा मनीष ने भी तुलसी चौरे की उतनी ही परिक्रमा की जितनी पगली ने की   मार खाती, हुंकारती हुई पगली दौड़ती रही मार के आतंक से उसकी  आँखें बाहर निकल गयीं .पगली ने  पेटीकोट में  ही पेशाब कर दिया और गूं गूं करती हुई ज़मीन पर हाथ जोड़े- जोड़े गिर गयी .मनीष ने तब उसको छोड़ दिया  लेकिन जाते जाते अपने पौरुष  की दस्तखत बनाता गया - "हरामजादी, साली खबरदार जो कभी  मेरे साथ छिनरयी की "

उस समय घर में एक कमजोर गवाह मौजूद  थीं, भाभीजी. पगली जब ज़मीन से  उठी तब अपनी छातियों को अपने हाथों से ढकती हुई  उसने भाभी  जी को  धोखेबाज़ और छिनाल  कहा.

भाभी जी खुद को  धोखेबाज़ और छिनाल  तब मानती हैं जब चारों  ओर सन्नाटा होता है और घर का हर आदमी सो गया होता है लेकिन तब भाभी जी सो नहीं पातीं हैं.
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प्रज्ञा   पाण्डेय 
89, लेखराज नगीना,  सी ब्लाक, इंदिरा नगर 
लखनऊ 
9532969797 


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  1. इस कहानी को पढने के बाद निशब्द हूँ । लेखिका के कौशल की तारीफ करनी चाहिए मैं उन्हें साधुवाद देती हूँ

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  2. दमदार कहानी ! प्रज्ञा जी को बधाई !

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  3. ओफ्फो.....दर्दनाक चित्रण......ऐसा आज भी होता है
    बेबाक लेखन के लिए साधुवाद प्रज्ञा जी

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  4. शहरी लोग शायद इस यथार्थ से परिचित नहीं हों, पर गाँवों में आज भी यही दर्द सह रही हैं औरतें कि मेरा घर कहाँ है? मार्मिक चित्रण, यथार्थ की चौखट पर दस्तक दे रहा है...आगाह कर रहा है विश्व की शोषित औरतों को...बधाई प्रज्ञा जी, आपकी यह कथा, दिल पर चोट कर हर औरत के दिल से पूछ रही है-तेरा घर कहाँ है?

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  5. अब भी देख रही हूँ.. रोज़ देखती हूँ.. सिर्फ कस्बों में ही नहीं.. यहाँ महानगरों में भी.. चुप रहो तो ही अच्छी बेटी हो बहु हो.. कहीं जो सब उजागर किया.. तो वही सब कुछ जो नायिका ने भोगा.. प्रज्ञाजी को बधाई.. इस सशक्त कथा के लिए...

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  6. मार्मिक कहानी . केवल कसबे ही नहीं शहरों का भी भोगा हुआ सच है ये . हिंदुस्तान के शहरों का चेहरा भले ही अत्याधुनिक लगता हो पर उनके भीतर स्त्रियों की दशा कुछ ज्यादा अलग नहीं है . प्रज्ञा जी को बधाई . शुक्रिया समालोचन .

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  7. औरत का घर कहीं नहीं होता.सुधा अरोड़ा का उपन्यास याद आया'यहीं कहीं था घर.'

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  8. एक सांस में पढ़ गया ,यथार्थ

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  9. दूर-देहात में आज भी महिलाएं ऐसी भयावह परिस्थितियों में रह रही हैं, यह जानना ही कितना खौफनाक है... प्रज्ञा जी ने बहुत कुशलता से इस घिनौने यथार्थ को पूरी संवेदना के साथ प्रस्‍तुत किया है। भाषा के साथ उनका बर्ताव पाठक के लिए कहानी को कई आयामों में सोचने के लिए विवश करता है। प्रज्ञा जी को हार्दिक बधाई और शुभकामनाएं।

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  10. उफ्फ ! झकझोरती हुई कहानी,इस पुरुषसत्तात्मक समाज का कालर पकड़,आँख में आँख डाल कर सवाल
    उठाती चीखती कहानी।लेकिन प्रज्ञा जी मेरी एक करबद्ध
    प्रार्थना है जिसे आप को स्वीकार करना ही होगा।
    ऐसी विदुषी नारी को बाप कीपगड़ी बचाने के लिए दुबारा
    इतने कमजोर स्वरूप में न ढालियेगा कि वह पागल हो
    जाय ।
    वह बाप और वह माँ ही तो स्त्री के लिए इस घिनौने समाज
    का दरवाजा खोलते हैं,पहले बेटेकी मनोकामना करके ,दुबारा बेटी का प्रवेश वर्जित करने की हर संभव
    कोशिश करके ,तिबारा बेटी के स्वाभाविक विकास में बेटी होने के कारण ही अवरोध डाल कर और चौबारा अपनी पगड़ी का उसी बेटी को वास्ता दे कर आत्मनिर्णय
    के अधिकार से वंचित करके तथा अन्य में इसी पगड़ी का
    वास्ता दे कर उसे ससुराल में हरअमानवीय यन्त्रणा सहने की मानसिक ब्लैकमेलिंग करके, जो उसेमृत्यु या पागलपन की हदों तक ले जाता है।
    आप बहुत अच्छी कथाकार हैं।मैंने आपको अभी पहली बार पढ़ा है और प्रभावित हुआ हूँ।

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  11. "शान्ति से अपना घर संभालो, जहाँ डोली उतरती है, वहीँ से औरत की अर्थी निकलती है।"

    दहल गया हूँ मैं, इस कहानी को एक बार पहले भी पढ़ा था यहीं समालोचन पर, उस समय कुछ भी नहीं हुआ था, शायद मेरी संवेदनाएं उस समय जगी हुई न रही हों, या फिर ऐसे ही कहानी की तरह पढ़कर आगे बढ़ गया, कुछ भी हो, लेकिन आज, आज तो मेरे रोम रोम जड़ हो गए हैं, क्या ऐसा भी होता है, उफ़ ..................के कहूँ क्या लिखूं शब्द ही नहीं मिल रहे।

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