मेघ दूत : नबीना दास




भारतीय अंगेजी लेखन में कथा साहित्य की प्रतिष्ठा और उसका प्रभाव है. अंगेजी में कविता लिखने वाली भारतीय युवा पीढ़ी  यहाँ भी नेपथ्य में रहकर सक्रिय हैं. नबीना दास इसी पीढ़ी से हैं उनका एक उपन्यास प्रकाशित है और एक कविता संग्रह भी. उनकी कुछ कविताओं का अनुवाद प्रसिद्ध अनुवादक रीनू तलवाड ने किया है. 




Nabina Das has published her poetry and short fiction in a wide range of journals and  anthologies in North America, India and Australia. She has won second prizes in the prestigious 2008 All India Poetry Contest organised by HarperCollins-India and Open Space, and the 2009 Prakriti Foundation open contest.

A former Assistant Metro Editor with The Ithaca Journal, Ithaca, NY, and journalist and media person in India for about ten years, she has also published essays, reviews and news features in both India and USA. Currently, Nabina is Editor (India) with the literary journal Danse Macabre (USA). 


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लकड़ी से उगी
चलती हूँ इस सड़क पर तुम्हारे संग मौसम
गर्मियों-सर्दियों में बस के उसी रूट पर
अपने सर दुपट्टों से ढांके
तुम्हारा जामुनी मेरा रात की रानी-सा मद्धिम
और झीनी जाली की बुनावट में से
हम एक-दूसरे को देखते हैं मौसम, झलक भर.
मैं रूकती हूँ महरौली की सीमा पर बुझाने अपनी
प्यास अचानक आई गर्मियों की आंधी की धूल
लिए हुए अपनी आँखों में; तुम भी रूकती हो मौसम
करती हो इशारा अपनी चम्पई उँगलियों से पीले
नीम्बुओं की ओर जिन्हें निचोड़ता है नीम्बू पानी वाला.
हम लगभग साथ-साथ भरते हैं नपे हुए घूँट
लज्जित होते हैं आखिर में खींचे घूंटों से,
देखते हैं एक-दूसरे को, मेरी बिंदी दमकती है,
तुम्हारे झुमके शर्माए-से टिके हैं तुम्हारे गालों पर.
मौसम, क्या तुम्हें डर लगता था कि मेरा भाई
बांधता था अपने सर धर्म का केसरी-लाल रुमाल और
तुम्हारा रिश्तेदार हरे मस्जिद की रखवाली करता था
जबकि हम दोनों कांपती थीं उन अभिशप्त नारों के तले --
क्या तुमने गौर किया मौसम हम दोनों ने थामी थीं
हाथों में अपनी-अपनी कहानियाँ, ठीक तभी जब
हमारे घर बने थे आग के गोले हमारी देहें लकड़ी.



लाली
गर्मियों के पूर्वी आकाश में खिल रहा था एक तूफ़ान
पश्चिम लाल दीखता था
झाड़ी पर लदे क्रोध के गुलाब और उसके काँटों में अटके
टीसते चेहरे, नफरत.

**
बैठक के टीवी पर तुम फिल्म देख रहे थे - काशे
कटे हुए गलों से बह रहे थे खून के फव्वारे
एक बेढंगी-सी दौड़ में सर-कटे चूज़े इधर-उधर छितर रहे थे
पीछे, आगे, फिर पीछे.

**
मेरी उंगली ने छुआ टमाटर की लाल खाल को और फैली
लाल रोशनाई, अन्धकार-समरूप
क्या यही नहीं था वह जो मेरे पिता के इंक़लाबी मित्र
लेकर आये थे, एक अखबार कसकर लिपटा हुआ

**
तो नहीं जान पायेंगे सब कैसे लुढ़कते हैं शब्द
क्रोधित और लाल हमारी सडकों पर?
मुझे लगा जैसे मैंने एक शब्द को फिर से फड़फड़ाते देखा,
एक रंग, कोई नाम, न ही गीत जैसी कोई सांसारिक वस्तु. 

**
तुमने सोचा हम खो चुके है अपनी जुबां, अपना नज़रिया
जमा होता रहा वह शर्म की लाली तले
तूफानों, मृत्युओं, छल की खबरों की परिधि पर
और मैंने समझा कि एक रंग को नहीं चाहिए कोई नाम.


ओथेलो का पथ
जहाँ वे कभी पनप ही न पायीं
उन टहनियों से मृत हो गिरी तितलियाँ
रात की ओस जिसने भोर का दम घोंटा था
पड़ी थी तुम्हारे पथ पर
या थे वे छोटे-छोटे रुमाल
एक उदास पथ को रेखांकित करते हुए?
सहज ही सफ़ेद
छल से काले
हरा कहा है उसे शब्दकारों ने,
ईर्ष्या को
मगर जब मुरझा गए वे पर्ण-समूह
तोड़ने के लिए कोई नहीं बचा था
तो, मत चलो इस पथ पर प्यारे ओथेलो
मत पोंछो अपनी आँखें
उन भौंचक्की उँगलियों से, वे सिखायेंगी तुम्हें
क्रोध और हमें एक कमी जो हमेशा रहेगी.




दास्तान-ए-इश्क, दरमियान-ए-कोम्पोज़िंग
तुमने हाथ बढ़ाया
प्रतीक्षा के दिनों
की ओर, सुलगते हुए
सिगरेट के टुकड़े
उम्मीद-भरे राख-दान
पर (जो प्रेम में पागल है
वो वाला) जिसका कश
खींचा था  लय-बद्ध
पंक्तियों और जगमगाती
फंतासियों के उर्दू शायर ने
किया था जिसने तुम्हें
आकर्षित अपने
लहराते छल्लों से:
उठाओ उन्हें, छुओ
उन्हें अपने होंठों से,
गहरी खींचो अपनी
सांस, थूक, चाह
जल्दी अन्दर-बाहर
इससे पहले कि आयें
किसी के पैरों की आहटें
दौड़ती हुईं देखने के लिए
कि दिलों के बीच
क्या सुलग रहा है
और देखने अमृता प्रीतम
के स्याही-चूमे दिल
की जंगली आग
जैसी कल्पना के
लम्बे दिनों को.



दो पेडल चलाता अवतार
सुलेमान लादे घूमता है एक मछली का डिब्बा, एक भारी गोल टीन का
साइकिल पर घूमता है वह आस-पड़ोस के इलाकों में
बारिश में, धूप में, मछली से भरा अपना डिब्बा लिए.
उसके हाथों को सधाया था उसके पिता ने
जिनके हाथों को सधाया था उनके पिता ने
जिनके हाथ सधे थे बाड़े के उस पार
जहाँ धान के खेत में खड़े हो वे मछली पकड़ते थे
जब मछलियाँ आती थीं और जाती थीं छोटी लहर के पार.
पुठी, मागुर, छोटी भोकुआ, सुलेमान अपनी मछली हमें
बेचता है
उनके नाम जो वह ऐसे जानता है जैसे मछली पानी को जानती है,
पानी जो बहता है
बाड़े के इस पार और उस पार घास और असमिया बेंत को
चाँद की मिटटी के चिपकती रेत को
रिझाता हुआ
जब मैं पूछती हूँ, वह मुस्कुराता है: मछलियाँ हैं उसके सख्त
हाथ
वे हैं उसके कीचड़-सने पाँव, उसके आँखें पुठी हैं, उसका थका
मुंह है रोहू का एंड-समूह
मछलियाँ उसका भाग्य हैं, करारे नोट हैं या हैं रोटी के टुकड़े
उसे कहने की आवश्यकता नहीं मगर मैं जानती हूँ
सुलेमान का स्वप्न, अभी बड़ी मछली को
फँसना है उसके जाल में.



अलविदा बल्लीमारां 
मैंने सुना है बौखलाए दिनों के बारे में जो घृणा करते हैं कविताओं के नामों से
उन्हें पसंद था मुर्गे की बांग से भी पहले सख्त जबड़े वाली जीपों में सवारी
करना पुरानी दिल्ली की पीठ पर, रुकना किन्हीं ख़ास नंबर वाले घरों के सामने

संभवतः, उन उमस-भरे दिनों ने गालियों को बदल कर पेट्रोल बम बना दिया
जला कर कोयला कर दिया चिकों को गर्मियों की मनमौजी बारिश द्वारा 
उन छतों के नीचे कुछ काले खम्बे छोड़ जाने के बाद, जहाँ शेर रहा करते थे

संभवतः वह मेरी कल्पना थी कि मेरे कदम तुम्हारे कदमों से पहले पहुंचेंगे वहाँ
अब भी, प्रतीक्षा कर रहे होंगे, चारागाह में चरता घोडा चबाता होगा नरम काफिये
तुम्हारी बचीखुची नीम-ग़ज़लें, उनके अलंकृत मक़्ते, क्योंकि यह प्रेम था

ग़लिब यहीं रहते थे न? पेडल चलाते-चलाते मेरा रिक्शावाला मुस्कुराया :
हर शाम यहाँ से खरीदते थे अपना पहुआ, वहां से चलकर जाते थे!
आश्चर्य नहीं कि इस जंगले पर मैंने कल्पना की हवा से छितरे तुम्हारी दाढ़ी के बालों की

अगर तुम अभी भी सांस लेते हो उस कोयला हुए बरामदे के पीछे मैं नहीं जान पाऊँगी
पकडे इन टूटी चूड़ियों के टुकड़ों को, जो टुकड़े हैं एक गुज़र-चुके प्रेम के, अन्तराल के पश्चात --
अलविदा, कहा होगा तुमने उदास हो कर, फिर अंग्रेजी में कहा होगा, "सो लॉन्ग".



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 रीनू तलवाड़
चंडीगढ़
 कई वर्षोँ से फ्रेंच पढ़ा रही हैं
कवयित्री, समीक्षक,अनुवादक
विश्व भर की कविताओं का हिंदी में अनुवादनियमित रूप से 
अखबारों में साहित्य, रंगमंच व सिनेमा  पर लेखन

10/Post a Comment/Comments

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  1. नबीना की कविताएँ गारो -खासी पहाड़ियों के अवसाद से भीगी कविताएँ हैं . इनका अनुवाद रीनू ने उतनी सहजता से किया है . जब वह कहती हैं कि हमारे घर बने थे आग के गोले ,हमारी देहें लकड़ी ,तो लकड़ी से उगा एक पूरा प्रान्त आँखों में आता है .इसी तरह सुलेमान की मछलियाँ आसाम के पोखरों से और उनसे जुड़े हर सुलेमान से मेरा संवाद कराती हैं . नबीना और रीनू को इस काम के लिए बधाई .

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  2. "We've had mirages call us
    from centuries ago
    we still have them do so
    in our charted diurnal tracks
    of illusions gander
    tender with forgetfulness
    and thus we continue to believe in war, repose,
    life's epical apparatus."

    Nabina Das...a good choice....cloud may rise from her hair, chest, histories and words...but a sea streaks through veins of her poems...I appreciate you for the effort and thank Reenu for the translation...may the poet win more laurels and hearts...may her poetry be the word in our silence, silence in our words...

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  3. बहुत अच्छी लगी कविताएं....'लाली' और 'ओथेलो' बहुत ही अच्छी लगी 'नबीना को मैं कहती हूँ कि इन कवितायों का जो असर हिंदी में हुआ है ( कम अज कम मुझ पर ), वह अद्भुत है...यह नहीं कहूँगी कि अंग्रेजी से बेहतर ( यह सापेक्षता तो हमेशा ही रहेगी अनुवाद के मसले में ) है, अलग है

    तितलियों के छोटे छोटे रुमाल से ट्रांस्तोमार के छोटे छोटे पीले टेलीग्राम याद आए

    हफ़्तों बीत जाते हैं
    यों ही
    बहुत धीरे से आती है रात
    और खिड़की काँच पर इकट्ठा हो जाता है
    पतंगों का हुजूम -
    दुनिया भर से आए हुए
    वे छोटे-छोटे पीले टेलीग्राम! ( शिरीष का अनुवाद )

    रीनू को इस प्रयास के लिए बहुत प्यार

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  4. कविताएँ अच्छी हैं, लेकिन अनुवाद ख़राब। अनुवाद को और बेहतर बनाया जा सकता था।

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  5. कविताएं जिस किस्‍म के कथ्‍य और भावों की बात करती हैं, वह अनुवाद में पता नहीं क्‍यों बारंबार बाधित होता लगता है... मेरे लिए अनुवाद एक किस्‍म का पुनर्सृजन है, जो यहां कम नज़र आता है। मसलनप बल्‍लीमारां की कविता में उर्दू का कम प्रयोग और संस्‍कृतनिष्‍ठ भाषा गा़लिब को दूर कर देती है। बहरहाल, नबीना को पढ़ना सुखद रहा...

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  6. Thanks Nabina for tagging. Good read, indeed. But as a poet, you've an opportunity to decide which reads 'better'. Highly problematic but euqually significant exerscise, especially in view of the fact that IWE has to negotiate claims of self-conscicouness and authenticity of subjects and expression. Translation is more of a transfer of literary metaphysics than of textual material.

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  7. I really wish I could tell which reads "better", Hemang. Maybe the readers will tell. As an (IWE) writer, I'd selfishly want anything I write to be recognised as 'written' and 'transmitted'. As for IWE negotiating "claims of self-conscicouness and authenticity of subjects and expression", I cannot comment. Maybe Upal will have something to add here? He translates regularly. Thanks for the read, dear HD.

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  8. Nabina it's your call rather than mine. Which reads better, you're in a better position to say. It's necessary and impossible, Derrida said..the transference in itself might wean away some of the cultural rings but might add some new one. I am not a translator on a regular basis, do so when I feel some poems (Assamese and Bengali) were not translated and when I am not exactly satisfied with some translations. I do not necessarily try to be faithful word by word nor do I try to "transcreate". I often end up neither being a traitor nor an "excellent" translator...the task entails readability factor as well..each translator does craft his/her notion of the transference. Quality of the source-poem also decides the task. Or the name of the poet. No fixed rule or law. The ability of the translator to transfer the emotive as far as possible at times makes him play with the referential. And vice versa. Without interloping the personal vision of translators, one thing many of the translators possibly will subscribe to is to feel the world a specific poet might have 'created' before letting that flesh out in words.
    At the dawn of the tenth century, Ahmad ibn Yusuf wrote in his "Epistle on Proportion and Proportionality": "In addition to having reached a more than remarkable knowledge of the languages from which and into
    which he translates, it is also necessary that the translator have a very good grasp of the subject matter he/she is translating".

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  9. सुनीता सनाढ्य पाण्डेय23 जन॰ 2013, 7:05:00 am

    वाह...एक से बढ़कर एक कवितायें और उतने ही बेहतरीन अनुवाद रीनू जी के...कोई भारीभरकम शब्द नहीं...एकदम आसान पर गहरे....शुक्रिया समालोचन...

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  10. रीनू जी और समालोचना के सौजन्य से नाबीना की कविता पढ़ने को मिली। दोनों को धन्यवाद। वर्षो पहले कवयित्री के मुख से कुछ कविताएं सुनी थीं। नाबीना की कविता पढ़कर आनंद आया।

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