निर्वासन में रह रहीं इराकी कवयित्री दून्या मिखाइल की कविताओं का चयन और अनुवाद कवि सुधीर सक्सेना द्वारा.दून्या मिखाइल (Dunya Mikhail)
१९६५ इराक में जन्मी दून्या मिखाइल ने ‘द
बगदाद आब्जर्वर’ के लिए बतौर साहित्य-संपादक काम किया. इराकी सरकार की धमकियों
के फलस्वरूप ९० के दशक के आखिरी वर्षोँ में मातृभूमि छोड़ने को बाध्य हुईं. २००१
में उन्हें संयुक्त राष्ट्र का ह्यूमन राइट्स अवार्ड मिला. अभिव्यक्ति की
स्वतंत्रता के लिए सम्मानित दून्या के चार कविता संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं. एलिजाबेथ (Elizabeth Winslow) विनस्लो द्वारा अनूदित उनके संकलन – ‘द वार वर्क्स
हार्ड’ (The War Works
Hard) को पीईन (पेन) अनुवाद
पुरस्कार मिला है. न्यूयार्क पब्लिक लाइबेरी ने इसे सन २००५ की श्रेष्ठ २५ कृतिओं
में शरीक किया है. यह किसी भी इराकी कवयित्री का अरबी से अंगेजी में अनूदित प्रथम
संकलन है. उनकी डायरी A Wave Outside
the Sea को भी अरब अमेरिकन
अवार्ड से नवाजा जा चुका है.
यदि कोई उससे टकराये
सलाह
मैं लौटना चाहता
हूँ
लौटना
लौटना
लौटना
तोते ने फिर –
फिर कहा
कमरे में जहां
उसे छोड़ गयी थी
उसकी मालकिन
एकाकी
दोहराने को
लौटना
लौटना
लौटना.
मैं हड़बड़ी में थी
कल मैंने खो दिया
एक देश
मैं हड़बड़ी में थी
और जान ही नहीं
पायी
कि कब वह मुझसे
गिर गया
भुलक्कड़ पेड़ से
टूटी हुई टहनी की तरह
कृपया गर कोई उधर
से गुज़रे
और उससे टकराये
मुमकिन है कि आकाश
की ओर मुहं बाये
सूटकेस में,
या कि किसी
चट्टान पर खुदा
रिसते खुले घाव
सा
याकि बहिरगतों के
कंबलों में लिपटा हुआ
याकि खारिज़ किये
गुम लाटरी – टिकट
की मानिंद
या कि सराय में
विस्मृत निरुपाय
सा
या कि भागता हुआ
बिना गंतव्य
बच्चों के
प्रश्नों की मानिंद
या उठता हुआ
युद्ध के धूम के साथ
या रेत पर लुढकता
हुआ हेलमेट में
या चुराया हुआ
अलीबाबा के मर्तबान में
या ऐसे
पुलिस-कर्मी की वर्दी में अचीन्हा,
जिसने कैदिओं को
हडकाया हो
और फूट लिया हो
या कि उकडू बैठी
स्त्री के जेहन में
जो चाहती है
मुस्काना
या बिखरा हुआ
अमेरिका में नये
आव्रजकों के
सपनों की मानिंद
यदि कोई उससे टकराये
उसे मुझे लौटा
दें, श्रीमान
कृपया लौटा दें,
मादाम
यह मेरा देश है
मैं हड़बड़ी में थी
जब मैंने इसे
गुमा दिया बीते कल.
सांता क्लॉज़
युद्ध-सी अपनी
लम्बी दाढ़ी
और इतिहास से
रक्त अपने लबादे में
सांता क्लॉज़ ठहरा सस्मित
और कहा मुझसे
चुनूं कोई चीज़
तुम एक अच्छी
लड़की हो, कहा उसने,
लिहाज़ा तुम्हें
मिलना चाहिए कोई खिलौना
फिर उसने दी मुझे
कविता जैसी कोई चीज़
और चूँकि मैं
हिचकिचाई
उसने मुझे यकीन
दिलाया
डरो मत, नन्ही बच्ची
मैं सांता क्लॉज़ हूँ
मैं बांटता हूँ
बच्चों को सुन्दर खिलौने
क्या तुमने मुझे
पहले कभी नहीं देखा?
मैंने कहा
लेकिन सांता
क्लॉज़ जिसे मैं जानती हूँ
पहनता है फौजी
वर्दी
और हर साल बांटता
है
लाल शमशीरें
अपंगों को गुडिये
कृत्रिम अंग
और गमशुदों की
तस्वीरें
दीवारों पर
टांगने के वास्ते.
सर्वनाम
वह बनता है ट्रेन
वह बनती है सीटी
वे चले जाते हैं
दूर.
वह बनता है रस्सी
वह बनती है पेड़
वे झूलते हैं साथ
– साथ
वह बनता है
स्वप्न
वह बनती है पंख
वे भरते हैं
उड़ान.
वह बनता है जनरल
वह बनती है जनता
वे करते हैं
ज़ंग का ऐलान.
गैर फौजी वक्तव्य
1
हाँ,मैंने लिखा था अपने खत में
कि मैं सर्वदा
इंतज़ार करुँगी तुम्हारा
तो 'सर्वदा' से मेरा मतलब नहीं था ठेठ वही
उसे तो मैं लय के
वास्ते रखा था वहां
2
नहीं, वह उसमें नहीं था
वहां तो ढेर सारे
लोग थे
किसी भी टेलीविज़न
स्क्रीन पर
अपनी जिन्दगी में
देखे लोगों से भी ज्यादा
और उसके बावजूद
भी
3
उस पर न कोई
नक्काशी है
न ही उसके हत्थे
हैं
वह सदा वहीँ रहती
है
टेलीविज़न के
सम्मुख
वह खाली कुर्सी
4
मैं सपना देखती
हूँ जादुई छड़ी का
जो झाप्पियों को
बदल देती है सितारों में
रात में तुम
उन्हें देख सकते हो
और जान सकते हो
कि वे अनगिन हैं
5
हर किसी को मेरा
धन्यवाद ज्ञापन
जिन्हें मैं
प्रेम नहीं करती,
उनसे मेरे दिल
में प्रेम नहीं उपजता
उनके चलते मुझे
लिखने नहीं पड़ते लम्बे खत
वे मेरे सपनों
में खलल नहीं डालते
मैं उनकी व्यग्र
प्रतीक्षा नहीं करती
मैं पत्रिकाओं
में नहीं पढ़ती उनके राशिफल
मैं उनके नम्बर
नहीं घुमाती
मैं उनके बारे
में नहीं सोचती
मैं उनकी
बहुत-बहुत आभारी
कि उनसे नहीं
होती जिन्दगी मेरी औंधी.
6
मैंने कपाट खींचे
कि बैठ सकूँ पीछे, सचेत
और खोल सकूँ
ऐन तुम्हारे आते
ही द्वार.
जवाहरात
अब यह नदी के
आरपार फैला नहीं है
नहीं है उसका
वजूद शहर में
न नक्शे में,
पुल जो कभी था
पुल जो कि हम थे
पीपों का पुल हम
रोज़ पार करते थे
जो नदी में ढह
गया युद्ध के हाथों
उस नीलमणि की
मानिंद,
जिसे स्त्री ने
गिरा दिया था अतल में
टाइटैनिक से
नीचे.
पथराती कुर्सी
जब वे आये
चाची तब भी वहीं
थीं
पथराती कुर्सी पर
तीस साल तक
वह पथरायी रहीं
अब
उस मौत ने उनका
हाथ माँगा
वह चली गयीं
बगैर कहे एक भी
लफ्ज़
छोडकर कुर्सी
तन्हा
पथराती
ट्रेवल एजंसी
मेज़ पर यात्रिओं
का हुजूम है
कल उनके विमान
उड़ान भरेंगे
और आसमान को भर
देंगे रुपहलेपन से
और उतरेंगे शहरों
में साँझ की मानिंद
श्रीमान जार्ज
कहते हैं कि उनकी प्रिया
अब नहीं मुस्काती
उन्हें देख
वह सीधे जाना
चाहते हैं रोम
वहां उसकी
मुस्कान जैसी कब्र खोदने के वास्ते
मैं दिलाती हूँ
उन्हें याद कि हर रास्ता रोम को नहीं जाता
और उन्हें थमा
देती हूँ टिकट एक के वास्ते
वह खिड़की के पास
बैठना चाहते हैं
इस यकी की खातिर
कि आकाश
एक सा है
हर कहीं.
______________________________________
३० सितम्बर, १९५५
कविता संग्रह -- 'कभी न छीने काल' , 'बहुत दिनों बाद' 'समरकंद में बाबर', 'रात जब चंद्रमा बजाता है बाँसुरी'
सम्मान --- 'सोमदत्त पुरस्कार', 'पुश्किन सम्मान'
रूस, ब्राजील,
बैंकाक आदि देशों की यात्राएं.
संप्रति -'दुनिया इन दिनों ' पत्रिका के प्रधान संपादक
ई पता :
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बहुत अच्छी कविताएँ हैं, अनुवाद भी उतना ही अच्छा। सुधीर भाई को बधाई एवं इतनी दिल को छू लेने वाली कविताओं का अनुवाद करने के लिए धन्यवाद। धन्यवाद अरुण देव जी को भी। समालोचन से हमेशा श्रेष्ठ सामग्री पढ़ने को मिलती रहती है।
जवाब देंहटाएंसुन्दर अनुवाद है . सुधीर जी ने कवि की नस को पकड़ा है ..
जवाब देंहटाएंदून्या मिखाइल की कविताओं में युद्ध का दर्द एक स्त्री की निगाह से सामने आता है -जो कभी माँ की तरह ,कभी पत्नी, प्रेमिका या साथी रूप में महसूस करती है,उनकी संवेदना निश्चित रूप से पुरुष कवि से अलग है ..यह एक स्त्री की संवेदना है ..जो बहुत गहरे तक मन में उतरती है .
उनकी युद्ध पर ही एक बहुत मार्मिक कविता है -
Bag of Bones ..यहाँ उसका अनुवाद रख रही हूँ ..खुद को रोक नहीं पायी ..
कैसा सौभाग्य
उसे मिल गई हैं उसकी अस्थियाँ
कपाल भी है इस झोले में
उसके हाथ का झोला
और झोलों जैसा ही
लटका है कांपते हाथों में
और हजारों जैसी ही उसकी अस्थियाँ
भीड़ के कब्रगाह में
उसका कपाल भिन्न पर औरों से
दो आँखें या शेष सूराख
जिनसे सुनता था वह संगीत
कहता था जो उसकी अपनी कथा
नाक जो जानती ही नहीं थी
शुद्ध हवा का होना
और मुंह
जैसे खुली खाई
वैसा नहीं था सब जब उसने वहां
चुप से चूमा था उसे
इस जगह पर तो नहीं
जहाँ शोर है खोपड़ियों और अस्थियों का और राख
बिखरी है खुदे सवालों के साथ :
इस तरह से मरने का आखिर क्या अर्थ है?
ऐसी जगह जहाँ अँधेरा खेलता है अपने सन्नाटे के साथ ?
क्या अर्थ है इस मिलन का अपने प्रियजनों से अब
इन निसत्व जगहों पर ?
क्या प्रयोजन है
इसे लौटाने का तुम्हारी माँ को
मृत्यु की घड़ी में
मुट्ठीभर अस्थियाँ जो तुम्हारी माँ ने
तुम्हें सौंपी थीं तुम्हारे जन्म पर ?
बिना मौत का बिछोह या बिना जन्म प्रमाण पत्रों के
क्या सिर्फ इसलिए
कि एक तानाशाह आपको रसीदें नहीं देगा
आपकी जान लेते हुए ?
तानाशाह का भी तो दिल है!
एक गुब्बारा जो कभी फूटता नहीं ..
उसका भी एक कपाल है, बहुत विशाल
औरों की खोपड़ी जैसा नहीं
गणित की गुत्थियों सा खुद हल करता
जहाँ एक मौत गुणा होती है लाखों से
अपनी ही जन्मभूमि पर
एक तानाशाह
निर्देशक है महान दुखांत नाटक का
उसके अपने दर्शक भी हैं
दर्शक जो तालियाँ पीटेंगे तब तक
जब तक ये अस्थियाँ झुनझुना न उठें -
अस्थियाँ झोलों में!
एक भरा-पूरा झोला उसके हाथ में है
उस निराश पडौसी से भिन्न है वह
जिसे अभी तक अपने हिस्से का नहीं मिला है.
दून्या मेरी बहुत प्रिय कवि है...क्रिसमस के मौसम में उसकी कविता "सैंटा क्लाज़" भी याद आ रही है
जवाब देंहटाएंफिर पढ़ी कविताएं यहाँ...अच्छा लगा
तल्ख़ और कटु वास्तविकताओं की दर्द भरी दास्ताँ है ये कवितायेँ.
जवाब देंहटाएंएक विनम्र हस्तक्षेप ( कारण कि मैं इस ब्लॉग पर नियमित टिप्पणी नहीं कर पाता ): दुन्या की कविता रॉकिंग चेयर का अनुवाद यहाँ पथराती कुर्सी किया गया है. पर यहाँ रॉकिंग का अर्थ झूलने से है. अगर अनुवादक अनुवाद के साथ ( जो कि कविता में आसानी से सम्भव है ) मूल भी प्रकाशित करें तो ऐसी कई उलझनों को सुलझाया जा सकता है. मुझे याद पड़ता है कि सस्ता साहित्य मंडल द्वारा जो अनुवाद प्रकाशित हुए थे, गद्य के, उनमें यह भी नहीं लिखा होता था कि यह किस किताब का अनुवाद है. मैं आज तक नहीं जान पाया कि स्टीफन ज्विग की कहानी भाग्य की विडम्बना का मूल नाम क्या है ? इस लिए मेरा यह अनुरोध हर अनुवादक से है.
जवाब देंहटाएंअच्छी पोस्ट है। समालोचन को बधाई।
जवाब देंहटाएंइन अनुवादों में दो के किंचित अलग रूप मेरे ध्यान में आ रहे हैं....एक तो 'मैं हड़बड़ी में थी' गीत का किया बहुत अच्छा अपना-सा अनुवाद, जो पहल में छपा था, तब से मेरी स्मृति में स्थायी है...दूसरा 'झूलने वाली कुर्सी' जिसे चन्दन के ब्लाग पर पढ़ा था, अभी देखा उसे मनोज पटेल ने अपने ब्लाग पर फिर छापा है - http://padhte-padhte.blogspot.in/2012/12/blog-post_22.html
चन्दन ने अपनी टीप में कुछ महत्वपूर्ण संकेत किए हैं...
हो सकता है इन तीनों अनुवादकों के सामने अंग्रेजी अनुवाद ही कुछ अलग-अलग रहे हों... चन्दन से सहमत हूं। अब ज़रूरत पेश आने लगी है कि अंग्रेजी पाठ भी साथ ही छपा हो, जिस पर हिंदी अनुवाद आधारित है। इससे पाठकों के लिए आसानी होगी...मैंने ख़ुद भी कविता के अनुवाद का कुछ काम किया है...अब मैं समझ पा रहा हूं कि जिस पाठ पर अनुवाद किया गया है, उसे भी पाठकों के लिए उपलब्ध कराया जाना चाहिए।
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