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कविता के एक हिस्से में वंचना और बेईमानी पर तीव्र प्रतिवाद है. यह प्रक्षेत्र कविता
में अपनी स्मृतिओं के सहारे अपने समय के
यथार्थ परख रहा है. ये कविताएँ विचलित करती हैं जो की कविता की एक ज़िम्मेदारी
भी है. उमराव सिंह जाटव की कविताएँ तल्ख तेवर और ईमानदार प्रतिपक्ष रखती हैं.
उमराव सिंह जाटव
जन्म- वर्ष 1948 माह फरवरी 8
लेकिन मेरे माँ बताती थीं की वर्ष में
दो एक वर्ष की बढ़ोत्तरी गाँव के ईसाई मास्टर जी ने दाखिले के वक़्त यह कह कर कर दी
थी कि उम्र जादा लिखने से नौकरी भी तो जल्दी मिल सकेगी. पिता तब उस समय भारतीय
सेना में सैनिक थे. जब अंगेज़ों का समय था तब पिता 1940 में ब्रिटिश सेना में भर्ती
हुए थे. द्विततीय विश्व युद्ध के पूरे दौर में मिश्र,तुर्की
में लड़ाई लड़ी. इस प्रकार ईसाई मास्टर जी के निर्देश आदेश के तहत पृकृति को धता
बताते हुए दो या तीन वर्ष पहले ही जवान हुआ और बूढ़ा भी. शिक्षा- पाँचवी तक ईसाई
मिशनरी स्कूल में. बारहवीं कक्षा तक बगल के ही कस्बे में एक बेहद नामनिहायत आज के
झुग्गी-झोपड़ी से दिखते इंटर कालेज में.
बी. ए. और
एम ए गाजियाबाद उत्तरप्रदेश के एम एम एच कालेज से. एम ए चित्रकला विषय में वर्ष
1972 में वर्ष 1971 में जब अभी एम. ए. कर
ही रहा कि प्रथम वर्ष में केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल में सीधे उपधीक्षक पुलिस के पद
पर चयन हुआ. लेकिन जायन नहीं कर पाया क्योंकि एक दुर्घटना में घायल हो कर अस्पताल
में पड़ा था. उम्र को दो-तीन वर्ष बढ़ाने वाला ईसाई मास्टर भी न जानता था और न मैं
कि अस्पताल से छुटकारे के बाद मेडिकल प्रमाण
पत्र दे कर नौकरी जायन कर सकता था. सो बिसूरते हुए मैंने भी और परिवार ने
भी स्वीकार कर लिया कि अपनी किस्मत में ही नहीं था.
मेरे बड़े भाई, जो
मुझ से 10 वर्ष उम्र में बड़े थे और तब
भारतीय सेना में सैनिक थे, ने लेकिन
किस्मत से सम्झौता नामंज़ूर करते हुए मुझे लगभग आदेश के स्वर में कहा- “बस, अब
तुझे या तो यही उपधीक्षक पुलिस बनना है या सेना में सिपाही. “वे जानते थे कि सेना
में सिपाही बनना मैं सम्मानजनक नहीं मानूँगा. इस प्रकार मुझे उन्होने झाड पर चढ़ा
दिया था. वर्ष 1972 में एम ए के द्विततीय वर्ष में फिर से कोशिस की और फिर से उसी
पद पर चयन हुआ. कुल जमा 36 वर्ष नौकरी की. वर्ष 2008 में उपमहानिरीक्षक पुलिस के
पद से सेवा निवृत हुआ.
छपास : जब सिर्फ आठवीं कक्षा में पढ़ता था तब पहली कहानी
लिखी थी. बड़े भाई जो सेना में थे इस तरह की लिखाई-विखाई के सख्त विरुद्ध थे और
लेखकों से वाहियात व्यक्ति उनके लिए कोई न था. सो, उस
कहानी को स्वयं ही लिखा और स्वयं ही पढ़ा कोई सौ-दो सौ बार. जब वे वर्ष में एक बार
अवकाश पर आते थे तब उस कहानी को घर के ओसारे की फूस में उड़स कर छिपा देता था. बस
एक बार की बारिश में कागज ऐसा भीगा कि वहाँ तलाश करने पर सिवा लुगदी के कुछ न मिला.
उसके बाद तो बस मन के भीतर कहानियाँ, कविताएं लिखता
रहा और वहीं पढ़ता भी रहा. अभी मेरे रिटायर होने में कोई चार वर्ष थे कि सीधे ही
उपन्यास लिखना शुरू किया. वह उपन्यास ‘थमेगा
नहीं विद्रोह’ वाणी प्रकाशन दिल्ली से वर्ष 2008
में छपा. वर्ष 2007 में यूनिस्टार बुक्स चंडीगढ़ से एक कहाने संग्रह ‘आधे
दलित का दुख’ और एक कविता संग्रह ‘अतीत
से झाँकते संबंध’ छपा. वर्ष 2008
में वहीं से कविता संग्रह ‘प्रतिरोध के स्वरों पर सवार’ छपा.
उपन्यास जे. एन. यू. के
एम. ए. हिन्दी के सिलेबस में है. कुछ विद्यार्थियों ने इस पर एम. फिल.
किया है.
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चित्र : Dorothea Lange
हेय, डूड. आओ तुम्हें उबाल दूं
दिल्ली विश्वविद्यालय के बाहर
ठीक सड़क के उस पार
देश के नौनिहाल
लेनिन, मार्क्स, माओ
रसल, अरस्तू
स्टालिन, प्रचंड, इमेनुएल कांट पर
धुंआधार बहस - मुबाहिसों और
गहन - गंभीर अध्यन से क्लांत
समाज और दुनिया को बदलने के मनसूबों के साथ
उतर पड़े हैं
“हेय, डूड. एक सिगरेट निकाल
दबंग देखी है ?
क्या बूब्स हैं, यार !
और वो शीला की जवानी !!
कैटरीना की टाँगें !!!”
अब ये तथाकथित गर्म खून
ताबडतोड ठुमके, नंगी छातियाँ,
कूल्हों से नीचे फिसलती स्कर्ट, जाँघों से ऊपर जाती फ्राकवाली
गर्मागर्म फ़िल्में देखेंगे
उसके बाद काफी हाउस में – हास्टल में
देश की समस्याओं पर बहस करेंगे
जेसिका लाल, नितीश कटारा हत्याओं पर,
खैरलांजी, मिर्चपुर, झज्जर दलित हत्याकांडों पर
प्रियदर्शिनी मट्टू , भंवरी देवी बलात्कारों पर
उबासियाँ लेंगे.
और फिर वही-
“हेय,डूड.
कितनी बोर जिंदगी है, यार.
अपने देश में कुछ होता ही नहीं “
मैं यह सब देख कर लौट आया हूँ अपने दडबे में
घुप्प अंधेरी रात में
इस महानगर में जिसमें
“दिल्ली पुलिस सर्वदा आपके साथ”
का इशारा पा कर
हत्यारे –लुटेरे-बलात्कारी
निकल पड़ते हैं
निडर और निशंक अपने कारोबार पर.
और निकाल पड़ती है पुलिस भी .
असुरक्षा के अंदेशे से डरा – सहमा मैं
अन्य देश वासियों के ही सामान जगा हुआ हूँ.
डर भगाने के लिए सोचा
चाय ही बना लूं
थोड़ी हिम्मत जुटा लूं
दूध है,चाय पत्ती है,चीनी के कुछ दाने भी हैं.
सरंजाम सब पूरे हैं.
दूध देखते ही दिल्ली विश्वविद्यालय और
“हेय, डूड ” याद हो आया
बेसाख्ता निकल ही गया मुंह से –
“हेय, डूड. चलो तुम्हें गर्म कर दूं.
हो सकता है कि
चूल्हे पर चढाने से
तुम्हारी ठंडी पडी शिराओं में कुछ गर्मी आए
जिनमें गर्मी केवल
शीला की जवानी और बदनाम मुन्नी की
नंगी छातियाँ देख कर ही आती
है
जेसिका लाल,नितीश कटारा हत्याओं पर
प्रियदर्शिनी मट्टू, भंवरी देवी बलात्कारों पर
जिनमें उष्मा का प्रवाह नहीं होता
खून नहीं खौलता खैरलांजी, मिर्चपुर, झज्जर दलित हत्याकांडों पर
कोई कसमसाहट नहीं होती रोज होते घोटालों पर
राजनेताओं और नौकरशाहों के
काले धन के जखीरों को देख कर भी जो
दो वक़्त की रोटी को तरसते
चालीस प्रतिशत भारत के सीने पर पैर रख कर जो
पिज्जा खाते हुए – काफी सुडकते हुए
लेनिन, मार्क्स, माओ,
रसल, अरस्तू
स्टालिन, प्रचंड, इमेनुएल कांट पर
धुंआधार चर्चाएं करते हैं.
इसी लिए मैंने
डूड को चूल्हे पर चढा दिया है.
दोस्तों, आइये दुआ करें
कि बिनायक सेनका अकेलापन दूर हो
और बाबा आमटे, मंजू नाथ, यशवंत सोनवाने
इस भ्रष्ट – दुश्चरित्र – घोटालों की कीचड में
नाक तक पहुंचे भाड़ को फोड़ने के लिए
नितांत अकेले ही न हों.
एक दलित
उद्धारक सभा का सीधा प्रसारण
आइये, राम-राम चिल्लाएं
दलितों के दुःख
में हाय - हाय बर्राएँ
मुर्ग मुसल्लम, कीमा, कोरमा
दाल मखनी, बकरे का शोरबा
थाली में शाही
पनीर टटोलते हुए
मुंह में रसगुल्लों
की खेप घोलते हुए
टपकते हुए रस
से
सूट – टाइयों –
साडियों - गहनों को बचाते हुए
प्लेट भर-भर
मिठाइयां खाते हुए
डकारों के
संगीत की लय पर
घर – द्वार – कपड़ों
- लत्तों से महरूम
सम्मानित जीवन -
शिक्षा से महरूम
दलन – प्रताडना - तिरस्कार की पीड़ा से
कराहते
निरंतर फाकों
में जीते दलितों के संताप में
उनके उद्धारक
बनने के प्रलाप में
आइये, समाज को बेदर्द बताएं
आइये, समानता के गीत गाएँ
आइये, राम - राम चिल्लाएं
आइये, संविधान को परे हटा कर
मेज पर
मनुस्मृति - वेद और तुलसी की किताबें सजा कर
इनके कबीर – रैदास और फुले की वाणी को
आंबेडकर जैसे
अप्रतिम विद्वान और विज्ञानी को
कूड़ा बताएं
सत्य और असत्य
को जांचें
अद्वैत की ताल
पर नाचें
हर प्राणी में
वही एक समाया है का कीर्तन करें
और उसी एक के
द्वारे पर यदि दलित आयें तो
उन्हें हम सब
मिल कर जुतियायें
इन्हें अपने
परम संत तुलसी के –
“ढोल, शूद्र, गंवार...” का अर्थ प्रेम से समझाएं
कि सालो, तुम पिटने के ही अधिकारी हो
मंदिरों में
साथ बैठने के नहीं
इस लिए
मंदिरों के
दरवाज़ों पर
लाइन लगा कर - हाथ
फैला कर
खड़े रहो, पड़े रहो
बाहर से ही राम
- राम, हरे - हरे
चिल्लाओ
बम - बम के
जयकारे लगाओ
व्रत रखो, धोक लगाओ
बजरंगबली के
गीत गाओ
और यदि ये न
गायें
तो अपने खेतों
में जाने से रोक कर
सालों का
टट्टी-पेशाब बंद कराओ
आइये, कसम खाएं
माता के
जगरातों की नई श्रृंखला चलायें
प्रतिवर्ष
कांवडियों के नाम पर
सड़कों पर - गलियों
पर-बाजारों पर - चौबारों पर
नदियों और
दीवारों पर
पखवाड़े भर
कब्ज़ा करके
समान्तर सरकार
चलायें
देश के तीस
प्रतिशत चाहे फाके करते हुए मर जाएँ
हम अमरनाथ
यात्रियों को देसी घी में तली पूडियां खिलाएं
देश के वाजिब
देय आयकर को चुरा कर हम
तिरुपति मंदिर
में हीरे-जवाहरात और
करोड़ों के
चढावे चढाएं
देश के दलित
चाहे
साइकल भी न
खरीद पायें
हम वैष्णो देवी
के दर्शन को हैलीकाप्टर से जाएँ
आइये,
सभा का समापन
है
अस्तु, सब खड़े हो जाएँ
हम अपना
स्वनिर्नित संविधान दोहराएँ-
“हम रामराज्य
लायेंगे
इस देश को नर्क
बनायेंगे
हम तनिक नहीं
शर्मायेंगे
जबरन हिंदू
बनायेंगे
जो खूंटा तोड़
के भागेगा
समझाने से नहीं
मानेगा
हम मिल कर उसको
लातियेंगे
जो भी हमको
रोकेगा
जो भी हमको
टोकेगा
उसे देशद्रोही
ठहराएंगे
संसद में
प्रस्ताव लायेंगे.
म्यूजिकल चेअर
खेल के गुलाम
दोनों आकाओं ने
लूट खसोट के म्यूजिकल चेअर खेल से
ऊब कर उकता कर,
आपसी सहमति से
एक ने दुसरे को
कुर्सी और सत्ता थमा कर
जमुहाई लेते
हुए कहा
"अपन
तो बोर हो गए भाई,
इतना झिंझोड
चुके हैं इस कुर्सी को हम और तुम
कि अब इसकी
चूलें हिलने पर भी यह चीखती नहीं है”
और इस प्रकार
उस आका ने इस आका को
अपने गुलामों
की जंजीरें
आपसी सहमति से
थमा कर विदा ली
अपने घर जाने को
सत्ता पर काबिज
होते ही
इस आका ने
जंजीरों में जकड़े
कष्ट से कराहते
भूख से
बिलबिलाते
गुलामों को
झिडक कर कहा -
“उठो, नासमझ लोगो
मुस्कुराओ
आजादी के नगमे
गाओ
कितने लंबे
अंतराल के बाद
फिर से हमें यह
दिन नसीब हुआ है
आज आजाद इस देश
का हर गरीब हुआ है
झंडे उठाओ, पताकाएँ लहराओ
अपने भूखे ,नंगे पीठ से लगे पेट हमें मत
दिखाओ
भूखे , नंगे हो कर भी हम आजाद तो हैं
अब यूं मत
बिलबिलाओ
हमें दुनिया को
दिखाना है
कि देश अब आजाद
है
इस लिए
उठो और खुशियाँ
मनाओ
बधाइयां गाओ
मत बिलबिलाओ ,
मूर्खो, इन बेड़ियों को मत हिलाओ
बहुत बेसुरी
आवाज़ होती है इनसे
कहीं भी छिपाओ
इन्हें
हमें दुनिया को
दिखाना है
कि अब हम आजाद
है
अब हमें गाना
है – “सारे जहां से
अच्छा”
गुलाम
बिलबिलाये - "हजूर हम तो कल भी भूखे थे आज भी
हमारे बच्चों
को भोजन चाहिए
गाना तो बाद
में भी हो जायेगा
जब कोई तीसरा
आका आयेगा"
आका ने लात मार
कर कहा -
“अबे ! सालो, म्यूजिकल चेअर खेल अब खत्म हुआ
अब और म्यूज़िकल
चेयर गेम हम न होने देंगे
अब कुर्सी सिर्फ
और सिर्फ हमारी है.
उठो , अब तुम्हारे गाने की बारी है
गाओ --
"सारे जहां से अच्छा “.
इन हालात मेँ जीने को अभिशप्त हुए हम
हजारों बरस से हर हरम पे कफस के साये हैं इतने
कि चाहे जितने भी हों तेरे हर करम के कपड़े मैले हैं
युगों युगों से मंदिरों के गलीज़ अँधेरे कोनों में बैठे
हर वर्क पर-हर सिम्त-हर हमाम में नंगे चरित्र फैले हैं
मस्जिद की अजान में रूहानियत कितनी प्यारी है
और रूहों के जिस्म पर फतवों के गहरे फफोले हैं
यूं तो सलीब की कसमें खाते हैं खुदा के बंदे निस दिन
किताब हाथ में ले कर इतिहास में सजाए खूंरेजी के मेले हैं
गुरु-राह पर चलने की कवायद में थके पाँव लिए बैठे हैं
अन्धों की तरह राम को ही टटोलते फिरते कबीर के चेले हैं
मत्था टिकाते हैं-कीर्तन गाते हैं ये -“कौन भला को मंदे”
ऊंच-नीच जीवन का हिस्सा बनाए हुए ये भीड़ में अकेले हैं
किसी मजलूम का दर्द समझने खातिर दुनिया में ‘जाटव’
क्यों शास्त्रों-अवतारों-गुरूओं-देवों-किताबों के ये झमेले हैं
सिर्फ इक संवेदनशील ह्रदय
बहुत काफी है इनके मुकाबिल
आइये इबारत इक नयी लिखें, इंसान को इंसान समझ लेते हैं .
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jatavumraosinghwetelo@gmail.com
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प्रबल आत्मव्यथा,- जिसे 'कविता नहीं' होने से कहीं-कहीं बचना भी था! उ
जवाब देंहटाएंकुछ जगहों पर "कच्ची" होने और दिखने के बावजूद सत्य की खोज के प्रति आग्रह वाला यह पक्ष कविताओं को ताक़त देता है. मामला चाहे क्रांतिकारी लफ्फ़ाज़ी के अभ्यस्त युवाओं की असलियत का हो चाहे दलित-यथार्थ का, एक अपनी तरह का खास प्रतिवाद का स्वर इन कविताओं में उभरता दिखता है, जो इन कविताओं का उजला पक्ष भी निर्मित करता है. थोड़ा संपादन कविताओं में कसावट ला सकता था, यह कहा जाना फिर भी ज़रूरी लगता है.बधाई उमराव सिंह जाटव को.
जवाब देंहटाएंसत्य के आग्रह और हस्तक्षेप की कविताएँ..व्यथित करती हैं. जातव सर को बधाई और शुभकामनाएँ!
जवाब देंहटाएंओह... इन कविताओं को पढ़कर विचलित हो गया मन, अनमयस्क भी..! सच्ची आत्मभिव्यक्ति..!!
जवाब देंहटाएंगहरी संवेदना से उपजी कवितायेँ ..
जवाब देंहटाएंकविताओं का वितान इतना बड़ा है और विषय के साथ विचार इतने प्रखर चेतनासंपन्न हैं कि हिंदी के प्रचलित काव्य परिदृश्य में अलग दिखाई देती हैं और सार्थक ढंग से अपनी बात कहती हैं।
जवाब देंहटाएंमन को मथ देने वाली सहज और प्रत्यक्ष अनुभूति से निकली कवितायेँ हैं. शिल्प भी कथ्य को ताकत देने वाला. काला के छौंक-बघार की जरुरत ही शायद तभी पड़ती है, जब कहने के लिए कुछ खास हो ना.
जवाब देंहटाएंबोल - बोल कर जो इतराते हैं 'हेय डूड' उन पर व्यंग्योक्ति ...बहुत सी सूचनाओं के दर्द व तल्खी का फैला संसार '...इन हालत में जीने को अभिशप्त हुए हम '...कविता में अपनी बात सीधे कह देने की वितान अपना रचाव कर रही है ' अबे ! सालो, म्यूजीकल चेयर खेल अब खत्म हुआ '
जवाब देंहटाएंसिर्फ 'सवेदनशील ह्रदय ' हो और बस बन गई बात ! कविता ऐसी हो कि हर कोई समझ ले कही गई बात का मर्म ....
उमराव सिंह जाटव -- सभी मित्रों का धन्यवाद कि आपने कविताओं के मर्म को समझा और सराहना की है.
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