सहजि- सहजि गुन रमैं : प्रांजल धर



















प्रांजल धर
मई १९८२ .  ज्ञानीपुर, गोण्डा (उत्तर प्रदेश )
जनसंचार एवं पत्रकारिता में परास्नातक.  

देश की सभी प्रतिष्ठित पत्र–पत्रिकाओं में कविताएँ, कहानियाँ, समीक्षाएँ, यात्रा वृत्तान्त और आलेख  
राष्ट्रकवि दिनकर की जन्मशती के अवसर पर समर शेष है  पुस्तक का संपादन
नया ज्ञानोदय, द सी एक्सप्रेस और जनसंदेश टाइम्स  समेत अनेक  पत्र-पत्रिकाओं में नियमित स्तम्भ

राजस्थान पत्रिका पुरस्कार (2006)
अवध भारती सम्मान (2010)
पत्रकारिता और जनसंचार के लिए वर्ष 2010 का  भारतेन्दु हरिश्चन्द्र पुरस्कार
ईमेल- pranjaldhar@gmail.com
मोबाइल- 09990665881


युवा प्रांजल धर  की कविताएँ ‘ज्ञानात्मक संवेदना’  की कविताएँ हैं, इतिहास में जाती हैं, नए मिथक सृजित करती हैं, होने-न-होने  के बीच संशयात्मक खड़ी अपने को भी देखती हैं. कवि का यायावर मन प्रान्तर-देशांतर के अनुभव जगत को अपनी कविता में जगह जगह विन्यस्त करता है, भाषा में भी इसकी शिनाख्त की जा सकती है. ‘पूँजी से घिरा हुआ, दबा-सा कोमल मन’ की ‘बिखरी सी अनुभति’ की अनेक राहें यहाँ मिलती हैं. 
रेने मार्ग्रित


अनारकली का लिप्यान्तरण



हवाओं ने सुनाया एक दिन
वह किस्सा
जो रोती अनारकली ने सुनाया था उन्हें.
नहीं समझ सकी थी
सत्ता की पत्थर दिल ताक़त
और न ही महसूस कर पाया ख़ुदा जिसे.
किस्से के तन्तुओं में छितरायी अनारकली
मन के हर मोर्चे पर
छोटे-मोटे विश्व-युद्ध लड़ती रही,
चुकती रही क्रमशः.
उसकी कई आदतों,
चाल-ढाल, बात-व्यवहार
और कई निजी चीज़ों के बारे में
बताते-बताते रुँध गया गला
किस्सा कहती हवा का.
फिर उर्मिला, यशोधरा, तारा...
अनेक औरतों के नाम
ले डाले उसने एक ही सिसकी में ;
कुछ दब भी गए उसकी लम्बी हिचकी में,
इसमें एक नाम शायद क्लियोपेट्रा का भी था.
कहने लगी
इज़रायली हमले में मारे गए अपने
निर्दोष प्रेमी की लाश लिए
शिनाख़्त को भटकती प्रेमिका
गज़ा पट्टी के ध्वस्त शवगृह
तक ही जा सकी
किसी तरह
शीतल चेहरा खून के छींटों से
त्रस्त-सा
आँख, दिमाग़ और कदमों में
बदहवासी
मन में निराशा, तन में उदासी
यह स्त्री अनारकली का
आधुनिक लिप्यान्तरण है ;
इससे ज़्यादा कैसे बदल सकती है
कोई लिपि,
सिर्फ चार-पाँच सदियों में !



साँझ

सर्द साँझ को
गीत उमड़ उठते हैं
सूरज की उतरती रोशनी में
काफिले के साथ रहने वाले
घण्टे की चीख सुनकर.
कापालिकों के तन्त्र, अनहदनाद
सूफ़ियों के हाल
बाला – मरदाना की कथाएँ
किनारे चली जाती हैं सब,
उतने अन्तराल के लिए
जो घण्टी के दो सुरों के बीच होता है.’*
शरद की थकी घास पर टिकी
ओस की बूँदों के आगे
अकिंचन हो जाता सब.
तमाम धर्मोपदेश, यीशु की शिक्षाएँ,
ग्रंथ, पुराण, आख्यान
कुरान की आयतें.
गोलाइयों से भरे सेक्स के मांसल फूल भी.
पुरातत्व में समाए
शुरुआती सिद्धान्तों के बुनियादी मूल भी.
सब अकिंचन हो जाते हैं.

जाग उठती हैं सहसा
भाव-श्रृंगों की कोमल बुनावट
मन के फौलादी बक्से में
ठूँसी स्मृतियों की कसावट.
तरावट, हृदय की.
और मुर्दा शब्दों की थकावट.
अन्दर का आदमी जागता है
इस दुनिया से बड़ी दूर भागता है
एथलीट हो गया है
उसका बदहवास बचा जीवन.
अपने ही आँसुओं में बहता जाता है
पीढ़ियों सँजोया उसका अपना ही उपवन.
ख़यालों का.

साँझ को उमड़े गीतों में
मेघों का कलेजा चीरकर निकली
बिजली की एक तीखी लकीर-सी
कोई ज़िन्दा भावना
बैठ जाती है, अड़ जाती है,
मन के नए पौधे की
आधी झुकी डाली पर.
खड़ा हो जाता पुलिन्दा सवालों का
चकाचौंध रोशनी छा जाती आँखों पर.
सवाल ; सवाल-दर-सवाल, सवालों के जाल
जेम्स लॉग** पर चले अँग्रेजी मुक़दमे की माफ़िक.
भीतरी मन दबे स्वरों में
कमज़ोर उत्तरों की व्यवस्था करता है
दूसरी जाति की लड़की से ब्याह करने के बाद
एक बहिष्कृत जीवन की कुचली लकीरों-सा...
उत्तर सन्तोषजनक हैं या नहीं ;
यह जाने बिना रोम-रोम ठिठक जाता है
तब तक काफिले का.
और गुज़र जाती है साँझ ज़िन्दगी की
किसी तरह.



* चर्चित जापानी कवि इजूमी शिकिबू की एक मोहक काव्य-पंक्ति.
** दीनबन्धु मित्र के नाटक नील दर्पण का अँग्रेजी अनुवाद प्रकाशित करने के जुर्म में अँग्रेज सरकार ने रेवरेण्ड जेम्स लॉग पर एक रोमांचक मुक़दमा चलाया था.




बियाना की याद

उमानन्दा
ब्रह्मपुत्र की विशाल
चौड़ाई में टिककर खड़े
मयूरद्वीप पर
कच्चे नारियल का एक अंजुलि
मादक पानी पिया,
और शाम को नदी चीरते
ख़ूबसूरत शिकारे पर
चार पल
जीवन को
एक बिल्कुल अलग
कोण से जिया !
लीचियाँ जीवन की माला में
मोती बनीं
और कानों में गूँज उठीं
शंकरदेव की पावन-पौराणिक
ध्वनियाँ घनी.
नदी-द्वीपों तक ले जाते मल्लाह,
उनकी नौकाएँ और उनके पतवार ;
चार क्षण को ही सही,
कभी-कभी कितना ममतामय
लगता है यह संसार !
समुद्र की लकीरों में
क्यों धुँधला गया
पूर्वोत्तर का
वह संगीतप्रेमी निश्छल परिवार ?
बेगानेपन का बड़ा
संत्रास पाया है
इसीलिए उस असमिया
परिवार ने सजल नेत्रों से
एक बियाना गाया है
जिसे कोई समझ नहीं सकता.
चीखते दर्द की सिलवटों में
लिपटी आँसुओं की चादर
फटकर चीथड़े हुई चली जाती है
और
डालगोबिन्द के उस बियाना की
बड़ी याद आती है.
बड़ी याद आती है.

(नोट - बियाना असम का एक विरह गीत है)



सबका सच

काश सबका सच एक होता !
शेर और शावक एक जैसा सोचते
एक ही शाश्वत सच को जीते,
या तो दोनों दौड़ते एक-दूसरे को खाने के लिए
या बचाने के लिए !
जैसे दुनिया से बचकर दो प्रेमी
किसी झाड़ी के अँधेरे में एक जैसा सोचते हैं
उसी तरह कुछ.
कहना मुश्किल है कि दोनों
क्या सोच रहे होते हैं
पर सोचते हैं एक-सा,
एक हँसता है तो दाँत दिखते हैं दूसरे के ;
मानो वे अपने अतीत को ख़ुशगवार
बनाने के लिए वर्तमान की घड़ियाँ बिताते हैं
यूँ ही....
अगर सबका सच समाकृतिक, समरूप होता
तो गाहे-बगाहे वह पराजित न होता,
सच की वस्तुनिष्ठता मुद्दा न बनती कभी ;
बयान, गवाह, सबूत और अदालतें न होतीं
और न ही पड़ती ज़रूरत
आँखों पर पट्टी बाँधने की
न्याय की देवी को !
सुकरात या गैलीलियो की ये दशा न होती.
ऐसा नहीं कि तब असहमति न होती
विरोध न होता, टकराव न दिखता,
होता विरोध
लेकिन विरोध का.
एक अलग क़िस्म की बहुवर्णी बहुलता
हृदय के रंगीले प्रांगण में
ख़ुशबू बिखेरती अपनी.
तब सच का वर्ग न होता,
यह न कहा जाता कि कुछ सच
अपनी उम्र से ज़्यादा जी चुके हैं
इसीलिए उन्हें बदल देना चाहिए !


  
वर्तमान

मैं कहता हूँ
कि क्या बदल जाएगा ?
आखिर क्या बदल जाएगा
तुम्हारे जानने से
कि मेरी वेदना यह है,
मेरी पीड़ा यह है,
या फिर मेरा भोगा हुआ यथार्थ यह है ?
क्या इससे कुछ फ़र्क पड़ेगा !
कोई दीपक मेरे हृदय के अँधेरे में जलेगा !
या एक बार फिर
अपनी प्रामाणिकता खोने का विचार
एक नए सिरे से चलेगा !
तुम्हारे इंटिमेसी से ग्रस्त हो गया हूँ.
और अपने कल्पित संत्रास में खो गया हूँ.
गलत लगता है तुम्हें कि
मनोविश्लेषणवादी मैं हो गया हूँ.
मेरे हृदय के दोनों उजड़े पाट
किसी सूने जंगल की तरह हैं
जहाँ कोई चमचमाती कार नहीं दौड़ा करती,
जिस पर एक लाल या नीली बत्ती लगी हो
जो लक-लक-लक-लक करती हो,
और आम जनता की मासूमियत को,
सरलता से कैश करती हो.
खैर !
ये बेइमानियाँ और बेईमान
बेइमानी की खिड़की से झाँकता
रेशमी ईमान...
बड़ी उबकाई महसूस होती है,
क्या था, क्या हो गया है जीवन,
पूँजी से घिरा हुआ, दबा-सा कोमल मन
व्हाट्ज़ लाइफ़ ?
ऑबियसली, अ मीनिंगलेस पैशन
एक अर्थहीन उत्तेजना,
जिसमें एक धुँधला-सा
गड़बड़ अतीत है, और कहने-सुनने के लिए
अपने पास एक टुटपुँजिहा गीत है.
अस्तित्व ही बेमानी है
एक इम्पॉसिबिलिटी है,
और वर्तमान की खण्डित
और बिखरी-सी अनुभूति है.
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  1. pranjal sir aapki kawitaye padhkar ghalib ki ek shayeri yad aati hai....
    hai aur bhi duniya me sukhnawar[poet]bahut achchhe,
    par ,PRANJAL DHAR,ka andaj -e-bayan hi kuchh aur .......

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  2. यह स्त्री अनारकली का
    आधुनिक लिप्यान्तरण है
    इससे ज्यादा कैसे बादल सकती है
    कोई लिपि,
    सिर्फ़ चार पाँच
    सदियों में ! यद्यपि पूरी कविता का एक एक शब्द अतुल्य गहरायी और वेदना से भरा हुआ है

    काश सबका सच एक होता !
    शेर और शावक एक जैसा सोंचते
    या तो दोनों दौड़ते एक दूसरे को खाने के लिये
    या बचाने के लिये !
    जैसे दुनिया से बचकर दो प्रेमी
    किसी झाड़ी के अँधेरे में एक जैसा सोंचते हैं ............अनेकों बार आभार समालोचन का मेरे प्रिय कवि को यहाँ लाने के लिये !

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  3. प्रांजल का काव्य संसार मिथकों से प्रांजल दुनिया का सृजन करता है..कविताएँ पढ़कर भूपेन हजारिका का वह जिप्सी गीत याद हो आया ..आमी जाजाबोर..घूमती-घामती कविता क्लियोपेट्रा की बात करते-करते इजराइल तक जा पहुँचती है... गज़ाला हिरन की तरह कुलांचें मारती कई अनुभवों से सिरजती है ..निश्चित रूप से यहाँ एक संवेदनशील मन तो है जो कविताएँ कहते-कहते उन्हें गुनगुना भी रहा है. युवा कवि का स्वागत ..समालोचन नयी पीढ़ी का मार्ग प्रशस्त कर रहा है..

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  4. seedhe dil ko chhuta hua...pranjal ji ka lekhan...
    Samalochan ko dhanyabaad...

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  5. प्रांजल की कविता 'सबका सच' आज की व्यवस्था पर कड़ी टिप्पणी करती हैं... विरोध के स्वर को शावक और शेर से लेकर शाश्वत सत्य तक प्रांजल खींच लाते हैं.. आसान शब्दों में प्रांजल का संकल्प भी दिखता है और धैर्य भी.. 'वर्तमान' में प्रांजल के शब्द दिल की गहराई में सीधे उतर जाते हैं...

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  6. एक साथ कई-कई जगहों, वृत्तांतों, लोक और इतिहास, किंवदंती और असलियत.....तक बहुत चुपचाप और मार्मिक निस्संगता के साथ ले जाती हैं ये कवितायेँ..! लगा जैसे किसी अप्रत्याशित कवि से रास्ते में कहीं मुलाक़ात हो गयी. ऐसा साबका जो बहुत दूर तक साथ रहा करता है. बधाई....! समय तो नहीं है ;लेकिन अनारकली का हवाओं में लिप्यान्तरण मैं अंग्रेज़ी में कर सका तो कोई निजात या भरपूर तसल्ली शायद मिलेगी...!

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  7. किस्से के तंतुओ में छितराई अनारकली
    मन के हर मोर्चे पर

    छोटे मोटेविश्व युद्ध लड़ती रही.

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  8. jo praanjal ka vartmaan hai.... wahi is daur ke ham sab yuvaaon ka bhi hai....bilkul waisa hai.... parhna ek hi saarvbhaum sach se gujarne jaisa tha....aise sach ek jaisa nahi hona chahiye par durbhagywash ek jaisa hai....

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  9. प्रिय अरुणदेव जी, आनंद आ गया प्रांजल की कविताओं को पढ़ कर. मुझे अक्सर लगता है कि शिल्प से अधिक महत्त्वपूर्ण कविता का कथ्य होता है, उसके शब्दों की स्थिति होती है. कथ्य या भाव ऐसा कि उसे किसी समीक्षा की या किसी Middle man की आवश्यकता ना हो. यह वैसा ही है कि जब मैं अपने ईश्वर से बात करूँ तो बीच में किसी पण्डित, किसी पुजारी की आवश्यकता ना हो. बात सीधा दिल तक पहुँचे और हमारे मानव बोध से सीधी उसी की भाषा में बात करे. ये विमर्श, ये तमाम कथन उस ‘चीज़’ को कुछ ज़्यादा ही बौद्धिक बना कर उसे हमसे दूर कर देते हैं. कला विमर्श के पहले ही अपना सच कह चुकी होती है. फिर आप उसे अपने अपने चश्मे से देखते हुए उस पर उसी हिसाब से कहते रहते हैं.वैसे, यह ‘कहना’ भी एक खतरनाक ज़रूरत है. इसीसे उस खास समय की प्रचलित मानसिकता का पता चलता है, और यह मानव मात्र की बौद्धिक पद्धतियों का पता भी बताता है. प्रांजल की कविताओं में और इसके शिल्प में अपनी पूर्ववर्ती परम्पराओं से नाता भी है और उससे आगे निकल जाने का आवेग भी ! सीधा दिल तक पहुँचने वाली इन कविताओं को पढ़ कर लगा कि कवि ईमानदारी से अपने दिल की बात कह रहा है, किसी पूर्व घोषित मानदण्ड से overawed हुए बिना. यही ईमानदारी कविता को बचायेगी. मैं आपको और प्रांजल को फोन करके भी बधाई देना चाहता हूँ. सम्भव हो तो अपना और प्रांजल का फोन नंबर मुझी दीजिये. मेरा नंबर है : +91 9769321331. बहुत बहुत बधाईतुषार धवल

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  10. प्रांजल धर के पास कविता कहने का पड़ा केनवस है। जहां इतिहास ,संस्कृति, मिथक , समसामयिक विमर्श सब घुलमिलकर वर्तमान के सन्दर्भों को व्यक्त करते हैं। उनके पास सूचनाएं बहुत हैं ..समय ही ऐसा है..सूचनाओं पर सुचानाएँ हमें कहीं एक बिन्दू पर टिकने नहीं देती ....मैं अपने युवा कवि दोस्त को एक सलाह दूंगा कविता में अधिक सुचनाएँ देने से बचें , कविता में अपनी बात को एक निश्चितता दें (पर उपदेश ....! वास्तव में मैं भी इससे लगातार पीड़ित रहता हूँ ) , ताकि वह पाठक में एक गूंज के साथ अपना स्पेस बनाएं। अर्थ तो सबके अपने होते ही हैं। ...मेरी विनती है युवा दोस्त मेरी इस बात को अन्यथा न लेंगें। इन कविताओं के आस्वादन के लिए भाई अरुण देव का साधुवाद .

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  11. सबसे अच्छी लिपि 'व्यक्ति' स्वयं होता है। वाह! प्रांजल जी इस लिपि में परिवर्तन को रेखांकित कर पाना गहरी साधना का परिणाम ही हो सकता है। अद्भुत अवलोकन! अद्भुत। इस लिपि की वक्रता देखिये:
    शीतल चेहरा खून के छीटों से
    त्रस्त-सा
    आँख, दिमाग और क़दमों में
    बदहवासी
    मन में निराशा, तन में उदासी
    यह स्त्री अनारकली का
    आधुनिक लिप्यान्तरण है। ......वाह!

    समालोचन को बहुत-बहुत धन्यवाद्, युवा कवि प्रांजल जी की कविताओं को प्रकाशित करने के लिए।

    और अवलोकन :
    अन्दर का आदमी जगता है
    इस दुनिया से बड़ी दूर भागता है
    एथलीट हो गया है
    उसका बदहवास बचा जीवन।

    ...
    भीतरी मन दबे स्वरों में
    कमजोर उत्तरों की व्यवस्था करता है।

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  12. pranjal dhar के पास कविता कहने का पड़ा केनवस है। जहां इतिहास ,संस्कृति, मिथक , समसामयिक विमर्श सब घुलमिलकर वर्तमान के सन्दर्भों को व्यक्त करते हैं। उनके पास सूचनाएं बहुत हैं ..समय ही ऐसा है..सूचनाओं पर सुचानाएँ हमें कहीं एक बिन्दू पर टिकने नहीं देती ....मैं अपने युवा कवि दोस्त को एक सलाह दूंगा कविता में अधिक सुचनाएँ देने से बचें , कविता में अपनी बात को एक निश्चितता दें (पर उपदेश ....! वास्तव में मैं भी इससे लगातार पीड़ित रहता हूँ ) , ताकि वह पाठक में एक गूंज के साथ अपना स्पेस बनाएं। अर्थ तो सबके अपने होते ही हैं। ...मेरी विनती है युवा दोस्त मेरी इस बात को अन्यथा न लेंगें। इन कविताओं के आस्वादन के लिए भाई अरुण देव का साधुवाद .

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  13. apki kavitaen achhi lagin anmarkali ka lipyantaran pahle bhi padhi hai aur nai hain mere liye sanjh ka sheershak bhi bahut pasand aya kavitaen to sabhi behtareen hain

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  14. pranjal ji mai to kavita ke bare me jyade nahi janta lekin jitna janta hu uske gyan ke adhar par ye kah sakta hu ki jo bhi jeevan me jeevan ko vastvik tarike se jeena sikhata haikavita usi ke hriday se nikalati hai........!in kavitao me itihas bhi hai,vartaman bhi hai ,bhavishya bhi hai......!in kavitavo ko samjhega wohi jo jeevan ke marm ko samjhata ho

    kavitao ke aaj ke sarovar me apne kamal khila diya. best of luck ............................VINAY MISHRA

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  15. pranjal ji media lekhan me jaha itni baudhikta,gyan,aalochna kshamta aur hashiye pe khade insaan ko lekar vyastha se chudhit dikhai padte hain,wai is baudhikta se samvedna k kavi ka milan ek adbhut sangum hai,yani gyan aur samvedna dono ka ek he hriday me vidyamaan hona hamare bhartiye sahity ki beshkeemtee uplabdhi hai,yani gyan aur samvedna ka soota ek hi mun se phoot raha hai,,samalochan k saat hum sub ko badhai..

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  16. bhai pranjal aur arun dev ji ko bahut badhai.
    pranjal k paas anubhootiyon ka saghan snsaar hai, jiska lipyantaran ve is savdhani se krte hain ki unke snket bhr surakchit rahein, shesh vistrit vrtmaan ke drishy bn jayein. yahi pranjal ki khoobi hai. jis "gyantatmk smvedna" ka zikr arun ji ne kiya hai, wh theek hai, kintu un sookchm snketon tk pathkon ki pahuch smbhav ho sake to pranjal ke "Samvednatmk gyaan" ka andaza ho jata hai, yh pranjal ka snkoch hi hai jise ve kai prton mein atyant saleeqe se chupa kr surakchit kr dete hain. ek achcha kavi shayad aisa hi krna chahta hai. "vyatikrm ka vimoh" in arthpurn stron ko nai arthvatta aur aabha deta hai, isliye ek "mahakavyatmkta" km sbdon mein upasthit ho jati hai.
    punah badhai.

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  17. प्रांजल की कवितायेँ शाया करने के लिए बहुत धन्यवाद.
    प्रांजल को पढ़ना (और सुनना भी) एक बेहतरीन अनुभव होता है.
    शिल्प और भाषा के किसी आतंक की सर्जना के बिना वे अद्भुत रचाव की सृष्टि करते हैं
    इतिहास, परंपरा और समकालीन अवसाद का बेहतरीन टेक्सचर उनके यहाँ है.
    सचमुच वे 'जिनसे उम्मीद है' की श्रेणी के कवि हैं...

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  18. आपकी लेखनी का कोई जवाब नहीं प्रांजल भाई....

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  19. Sargarbhit evam samyik pratikon tatha bimbon ka prayog karne ke liye sadhuvad. "Anarkali Ka Lipyantaran" tatha "Vartman" kavitaon ne vishesh roop se prabhavit kiya.Waise "Sanjh" evam "Sabka Sach" bhi 'typical Pranjal Dhar' shaili ki rachnayein hain,isliye achhi lagin.

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  20. pranjal sir ki kavitayen samay aur kshitij ke us par bhi hain aur isapr bhi .......vaishivk bhi hain aur anchalik bhi.....
    bs etna hi khna ki aap aaise hi apni kavitaon me shabdo se khilndad krte rhiye...hm apki bhuk pankitiyon ka se bhavvibhor hote rahen....

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  21. Kavitayen achchi lagin, anarkali...visheshrup se. Badhai!

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