रंग राग : अखिलेश के चित्रों की लिपि








अखिलेश (1956, इंदौर) भारत के बड़े चित्रकारों में शुमार हैं. पारम्परिकता, बारीक़ बुनावट,   ताज़गी और रंगों के साथ भावनाओ की जुगलबंदी उनकी कुछ विशेषताएं हैं.

राकेश श्रीमाल का अखिलेश के चित्रों और उसके नेपथ्य पर यह आलेख. अमूर्तन को उसकी सार्वभौमिकता में समझते और उसकी रेंज को परखते हुए उन्होंने चित्रकार के कुछ आत्मीय प्रसंग भी दिये हैं. 



अखिलेश के चित्रों की लिपि      

राकेश श्रीमाल





कोई भी भाषा बिना लिपि के अस्तित्‍वहीन ही होती है. सिवाए सांकेतिक या इससे संबंधित अन्‍य अतिरिक्‍त भाषाओं के. चीनी भाषा चित्रात्‍मक लिपि में लिखी जाती है. जब आय.एस.ओ (इंटरनेशनल स्‍टेन्‍डर्ड आर्गनाइजेशन) ने इंटरनेट को सर्वभाषा सुलभ बनाने के प्रयास में ‘यूनिकोड’ (यूनिर्वसल कोडिफिकेशन) बनाया तो उन्‍हें सबसे अधिक समय चीनी भाषा को ही इस पद्धति में ढालने के लिए लगा. अगर हम रूपंकर कला को, जिसमें चित्रकला प्रमुख है, संप्रेषणीय कला के रूप में स्‍वीकार करते हैं, तब यह सहज स्‍वीकृति भी होती है कि इस कला माध्‍यम की अपनी लिपि होती है, जिसे उसने स्‍वयं ईजाद किया होता है. अन्‍य दर्शक उस लिपि को अपनी समझ या अपनी कला-रसास्‍वादन की ग्रहणशीलता के अनुरूप ही पढ़ पाते हैं. इसमें अर्थ से विपरीत अर्थ भी निकल सकता है, बल्कि अक्‍सर निकाला भी जाता है.


यानी चित्रकला की भाषा की लिपि के कोई निश्चित या सर्वमान्‍य अर्थ नहीं होते हैं. ऐसा होना अपने आप में अपनी मूल संप्रेषणीयता को विकट जोखिम के साथ प्रस्‍तुत करना होता है. अखिल भी अपने चित्रों में इस तरह का जोखिम उठाते हैं.



क्‍या अखिल के चित्र की भाषा उसी चित्र में अवस्थित अंत:प्रज्ञा की लिपियों से बनती है, जो अक्‍सर आकारबद्ध आवृतियों में होते हैं, क्‍या एक जैसे कई सारे आकार अपनी अलग-अलग लिपि यानी अर्थ बोध रखते हैं? क्‍या वे अपने उस सृजन क्षण मात्र को अभिव्‍यक्‍त कर रहे होते हैं, जब वे सृजित किए जा रहे थे? या फिर उसी के साथ अपने पूर्ववर्ती चित्रों की भाषा में अपनी तरफ से नए शब्‍द, नए वाक्‍य या नई संरचनाए रच रहे होते हैं?

अज्ञेय ने कहा है- ‘‘क्षण का आग्रह क्षणिकता का आग्रह नहीं है, वह अनुभूति की प्रामाणिकता का आग्रह है और अनुभूति को अनुभावक से अलग नहीं किया जा सकता. अनुभूति अद्वितीय है क्‍योंकि कोई दूसरे की अनुभूति नहीं भोग सकता.’’
     
जिस अनुभूति के तहत अपनी चित्रभाषा की वर्णमाला को जब अखिल नए चित्रों में विस्‍तारित करते हैं, तब क्‍या वैसा ही अनुभव दर्शक को भी होता है? निश्चित ही यह संभव नहीं है. वह दर्शक के लिए सर्वथा उसका अपना नया अनुभव ही होगा. वह चित्रभाषा की लिपि को अपने अलग अर्थ में ही ग्रहण करेगा. दरअसल हर दर्शक के देखने मे ही अपनी लिपि होगी. वह उसे उसी तरह पढ़ेगा, जैसा कि इसके पूर्व वह अखिल के चित्रों को पढ़ता रहा है.
     
यह कोई जरूरी भी नहीं कि चित्र को चित्र की भाषा में समझा जाए. कोई उसे दर्शन की भाषा समझ कर पढ़ सकता है तो कोई उसका किसी शास्‍त्र की तरह मनन कर सकता है.
     
अखिल के चित्र दर्शक को इतनी स्‍वतंत्रता देते भी हैं. वे अपने विषय और अपने विस्‍तार मे बंधे हुए चित्र नहीं हैं. यद्यपि वर्षों से वे एक ही शैली या एक ही मुहावरे में काम कर रहे हैं. बावजूद इसके उन सभी चित्रों ने अपने अर्थ को कहीं भी केवल अपने हिसाब से थोपा नहीं है. हर दर्शक को उनके चित्र के ‘आत्‍म‘ को अपने ‘अन्‍य‘ के समकक्ष ही देखना होता है. यहाँ दर्शक के लिए चित्र का’आत्‍म’ उसका ‘अन्‍य’ नहीं है.
     
अखिल के चित्रों की भाषा हर दर्शक के लिए चाहे जो अर्थ संप्रेषित करती हो, पर उनमें अकुलाहट, ऊब और झुंझलाहट बिलकुल नहीं है. वे चित्र ‘आत्‍मरति’ से ग्रस्‍त चित्र भी नहीं हैं. उनके चित्रों में अतीत, वर्तमान और भविष्‍य अपने स्‍वतंत्र कालखंडो में उपस्थित न होकर काल के सतत्‍  प्रवाह के रूप में अपने रंगों में सादृश्‍य रहते हैं. नीला कल भी नीला ही था, आज भी नीला ही है और कल भी नीला ही रहेगा. पर यह हो सकता है कि समय-संयोजन उसके अंत:-ऊर्जा को परिवर्तनीय बनाए रखे. लेकिन अंतत: रहेगा तो वह नीला ही.
     
एक वास्‍तुकार या एक कवि अखिल के चित्रों को सर्वथा अलग ढंग से ही पढ़ेगा. जबकि एक चित्रकार अपने चित्रकार-बोध के साथ ही इसे पढ़ पाऐगा. इसे फिलोमनोलॉजी (phenomenology) के तहत ही पढ़ा जा सकता है. यानी यह घटनाक्रिया विज्ञान ही है जिसमें मनोविश्‍लेषण जैसा कुछ नहीं होता, जो मस्तिष्‍क के संवेगात्‍मक और प्रभावात्‍मक पहलुओं से संबंध रखता हो. यह तो सीधे-सीधे दर्शक की बोधात्‍मक क्षमताओं की प्रयोगशीलता पर निर्भर करता है. अखिल के चित्रों को पढ़ पाना बोध के  संभावित रूपों अथवा उन रूपों के परस्‍पर संबंधों और आंतरिक निर्भरताओं के ज्ञान से ही संभव है. सार्त्र का अस्तित्‍ववादी दर्शन अपने परोक्ष रूप में इन चित्रों को देखने-समझने के लिए कारगर ही सिद्ध होता है.
     

ज्‍यां पॉल सार्त्र के अस्तित्‍ववाद पर जब कई सारे आरोप लगे थे तब उन्‍होंने उन सबका जवाब देने के लिए मूल फ्रेंच में एक व्‍याख्‍यान दिया था. इन व्‍याख्‍यान का अंग्रेजी अनुवाद फिलीप मैरे ने किया था. इसके प्रकाशन के समय उन्‍होंने इसके साथ ही अपनी एक प्रस्‍तावना भी अस्तित्‍ववाद के ऐतिहासिक विकास की रूपरेखा प्रस्‍तुत करते समय लिखी थी. इसमें वह लिखते हैं- फ्राँसीसी ऐसे कला प्रेमी हैं जो व्‍यक्तिगत आत्‍मपरकता पर निर्भर है, वह आत्‍मपरकता, जिसका अस्तित्‍व सत्‍य से पहले आता है, उसे अपनी विषय-वस्‍तु की प्रामाणिकता के लिए आत्‍मपरकताओं के वर्णन की जरूरत होती है. इसके अलावा, जहाँ तक अस्तित्‍ववादी खुद इन्‍हें प्रस्‍तुत करते हैं- जैसा कि कीर्केगार्द प्रस्‍तुत करता है और कुछ हद तक मार्सेल और दूसरे पेश करते हैं-उनका स्‍थान सिर्फ कलाकारो का सहज ज्ञान ही ले सकता है. कीर्केगार्द के लिए कला का आधारभूत महत्‍व है. उसका विचार है कि जो मनुष्‍य न धार्मिक है और न कलाकार, वह निश्‍चय ही मूर्ख होगा. हॉलांकि यह दूसरी बात है. किर्केगार्द मानव की काव्‍यपरक घटनाओं का विश्‍वसनीय वर्णन देने हेतु कलाकारों पर विश्‍वास करने के लिए किस हद तक तैयार हुआ होगा.
     
स्‍पष्‍ट है कि कोई भी सुधी दर्शक अखिल के चित्र देखते हुए अपनी आत्‍मपरक घटनाओं का विश्‍वसनीय लेकिन अमूर्त वर्णन एक बार फिर पढ़ सकता है.
     
अखिल के चित्रों के बारे में सैयद हैदर रजा कहते हैं- ‘‘मेरी हार्दिक इच्‍छा रहती है कि चित्रकार ना बोले, चित्र बोले. अखिलेख के चित्र बोलते हैं. अन्‍तर्ज्‍योति सारी शक्तियों को एक साथ मिला देती है. गूढ रूपाकारों तक अखिलेश अपने प्रयासों से किस तरह पहँचते हैं, यह आश्‍चर्य की बात है. उनका जोर इंद्रियों द्वारा ग्रहण किए जाने वाले रूपाकारों पर है. मेरे ख्‍याल से यह ईश्‍वरीय देन है. इसे भाषा में समझना या इसका पूर्वानुमान करना बहुत मुश्किल है.’’
     
यानी रजा यह मानते हैं कि अखिल के चित्रों को भाषा में समझना अर्थात उसकी लिपि को पढ़ना मुश्किल है. यहीं भाषा का अपना सीमित होना सिद्ध हो जाता है. अखिल के चित्रों को समझा जा सकता है, लेकिन किसी और तरीके से, भाषा से बिल्‍कुल नहीं.
     
युरगन हैबरमास की सर्वाधिक चर्चित पुस्‍तक ‘द फिलॉसाफिकल डिस्‍कोर्स ऑफ मॉडर्निटी’ का एक पूरा अध्‍याय दरीदा पर केंद्रीत है. जिसमें दरीदा द्वारा दर्शन के तथाकथित ‘‘कलाकरण’’ (Aesheticization) का विश्‍लेषणात्‍मक आलोचना के माध्‍यम से हैबरमास ने खंडन किया है. इन आरोपों का जवाब एक साक्षात्‍कार के दौरान दरीदा ने दिया हैं. जिसमें वे कहते हैं - ‘सभी पाठ अलग होते हैं. एक ही निकष पर उन्‍हें कसने की कोशिश कभी नहीं करनी चाहिए और न ही एक ही तरीके से उन्‍हें पढ़ने की चेष्‍टा. कहा जा सकता है कि प्रत्‍येक पाठ एक अलग ‘आंख’ की मांग करता है. कुछ दुर्लभ पाठों के लिए यह कहा जा सकता है कि लेखन एक ऐसी आंख की संरचना और बनावट की तलाश भी करने लगता है जो अभी अस्तित्‍व में है ही नहीं.’  
     
दरीदा आगे कहते है- ‘रचे जाने की विधियों, वाग्मिता, रूपकों, भाषा, काल्‍पनिकताओं अर्थात अनुवाद का प्रतिरोध करने वाली प्रत्‍येक चीज के परिप्रेक्ष्‍य में ‘दार्शनिक विमर्श’ का विश्‍लेषण करने का मतलब इसे साहित्‍य में बदलना नहीं है. यह तो अधिकांशत दार्शनिक कार्यभार होता है कि उन ‘रूपों’ का अध्‍ययन किया जाए जो अब तक केवल रूप ही नहीं बने रह गए हैं. स्‍थान के प्रश्‍नों और अनुभव – फिर चाहे हम ‘द ऑरिजन ऑफ ज्‍योमेट्री’ की बात कर रहे हों अथवा ‘द ट्रूथ ऑफ पेटिंग’ में लेखन, चित्रकला, रेखांकन के बारे में, पर मैंने जो भी ध्‍यान दिया हो, मैं नहीं सोचता कि जिस ‘अंतराल’ अथवा ‘स्‍थांतरता’ (Spscing) की बात मैं कर रहा हूँ, उसे सीधे-सीधे ‘स्‍थानिक’ अथवा ‘स्‍थानीकरण’ कहा जा सकता है.’
     

अखिल के चित्र भी किसी एक विशेष संस्‍कृति अथवा कालखंड की ‘स्‍थानीयता’ से बहुत परे हैं. उन्‍हें देखने-समझने के लिए एक नई ‘आंख’ की जरूरत हैं, जो इसी आंख से ‘उपलब्‍ध’ होगी. भारतीय समकालीन कला का समीक्षा-जगत जिस तरह से कथा रूपों, अदृश्‍य और काल्‍पनिक प्रेरणाओं के वाग्‍जाल में अपने को अभिव्‍यक्‍त करता आ रहा हैं, उसमें वे चित्रकार की तरफ से कहने वाले ‘अभिजात एजेंट’ भले ही लगते हों, चित्रकला को पढ़ने की वह ‘आंख’ उनमें भी सरासर नदारद ही दिखती है, जिसकी संभवतया: प्राथमिक रूप से बेहद आवश्‍यकता है.


अखिलेश : कुछ शब्‍द चित्र

बहुत वर्षो तक अखिल के मन में छिपी रचनात्‍मक बैचेनी को मैंने अनुभव किया है. पर वह यह किसी पर जाहिर नहीं होने देता था. उसने लंबे समय तक अपने उत्‍कृष्‍ट सृजन को केवल अपने अंतर्मन में रखा था. जीवन में बिना विचलित हुए ऐसा धैर्य अमूमन संभव नहीं हो पाता. अखिल अपने मौन के पीछे छिपे असंभव को बेहद सलीके से सबके समक्ष संभव कर रहा है. अब वह वही कर रहा है, जो उसकी वर्षो से इच्‍छा थी और जो वह कर सकता है. वह चित्र बना रहा है और वह हम सब उसे देख रहे हैं.

(१)

वह प्रागैतिहासिक समय में जाकर चित्र बनाता है. वह भूल जाता है कि उसने चित्र बनाते हुए बीसवी शताब्‍दी से इक्‍क्‍ीसवी शताब्‍दी में छलांग लगा दी है. हालाकि वह बीती शताब्दियों के कुछेक चित्रकारों का मुरीद है. अपनी विदेश यात्राओं में वह संग्रहालयों में जाकर या जहाँ भी संभव हो उनके ‘ओरीजनल वर्क’ देखना नहीं भूलता. लेकिन खुद वह एक आदिम चित्रकार है. अपने ही द्वारा बार-बार वापरे गए रंगो की काया, गंध और उनकी भाषा उसे हर बार अपरिचित लगती है. इसलिए उसका बनाया हर नया चित्र खुद उसके लिए भी बनाने के पूर्व तक अपरिचित रहता है. वह अपने ही चित्रों के अपरिचय में अपने ही चित्रों का परिचय ढूंढने वाले चित्रकार हैं.

(२)

उसके घर के बैठकखाने में दरी पर बैठकर उसके हाथ का बना गोश्‍त खाते हुए उसके जीवन और उसकी कला की नफासत को थोडा बहुत समझा जा सकता हैं. गोश्‍त की प्‍लेट में काली मिर्च के दाने उतने ही रहते हैं जितना कि होना चाहिए. न एक कम, न एक अधिक. यह संतुलन उसके जीवन में, उसकी बातचीत में और उसके चित्रों में देखा जा सकता है. शर्त केवल उस संतुलन को देखने के लिए धैर्य की होती है. जो कि अक्‍सर लोगो के पास इस आपा-धापी वाले समय में नहीं होती.

(३)

अखिल के दूसरे बेटे भाद्रपद का जन्‍म जब हुआ था, उसके बाद वह मेरे साथ मुंबई में था, किसी प्रदर्शनी के सिलसिले में. वह क्रिटिकल अवस्‍था में हुआ था और डाक्‍टरों ने 72 घंटे का समय दिया था. अखिल ने जब घर फोन लगाया तब उसे पता चला कि अब सब ठीक है. बारिश हो रही थी. हमने छोटा सा जश्‍न मनाया. उस शाम अखिल भीगते हुए अतिरिक्‍त खुश था. एक नई जिम्‍मेदारी का अहसास उसे लबालब कर रहा था. हमने उस बच्‍चे के लिए चीयर्स किया था, जिसका नामकरण होना बाकी था. अखिल को उतनी ही खुशी हो रही थी जितना कि किसी को पहली बार पिता बनने पर होती है. आखिर वह अपने नए बेटे का नया पिता था. उस शाम हमने क्‍या बातें की, वह तो याद नहीं, इतना जरूर याद है कि मैं बारिश की इस शाम को अखिल से नहीं, दूसरे बेटे के नए पिता से बात करता रहा था.

(४)


यह मानने में अखिल को भी कोई ऐतराज नहीं है कि वह चार दशकों से तंबाकू पी रहा है. अधिकतर सिगरेट के रूप में. पिछली सदी के अंतिम पांच-छह वर्षो में हबीब तनवीर के सनिध्‍य मे उसे पाईप पीने का चस्‍का हुआ था. लेकिन फिर वह सिगरेट पर आ गया. पाईप पीने के दौरान उसने तरह-तरह के पाईप एकत्र कर लिए थे. अलग-अलग मिडियम में बने पार्इप मानों उसके लिए शिल्‍प की तरह ही थे. पाईप में तंबाकू भरना, फिर जलाना और अंतत: किसी माहिर खिलाडी जैसा उसे सुलगाना यह सब उसके लिए कि‍सी धैर्य से कम नही था. यह वैसा ही धैर्य था जैसा चित्र बनाते समय हमेशा उसके पास होता है.

(५)

जब तक मैंने इंदौर नहीं छोडा था, तब तक अखिल का भोपाल से इंदौर आना हमारी मित्र मंडली के लिए चपलता भरे दिन हो जाते थे. अब्‍दुल कादिर, अनीस नियाजी, ओम शर्मा, प्रकाश घाटोले और मेरा अधिकतर समय अखिल के साथ ही इधर-उधर घूमते बीतता था. प्राय: रोज शाम को कहीं न कहीं बैठक भी जमती. बातें और बहसबाजी खूब सारी होतीं, लेकिन हम में से अधिकांश को वे सुबह तक याद नहीं रहती. पिछली शाम की बातें दूसरे दिन शाम को फिर बैठकर जमने पर ही अश्‍चर्यजनक रूप से याद आती. किसी मुस्लिम होटल में रात को बारह-एक बजे खाना खाया जाता. बिदाई तीन बजे के पहले नहीं होती. अब वह दिनचर्या सोचते हुए हैरानी होती है. यह भी लगता है कि जीवन का ढ़र्रा हमेशा एक सा नहीं होता. अलबत्‍ता पुरानी बातों को एक अंतराल के बाद याद करना अच्‍छा लगता है. अज्ञेय ने लिखा है ‘
यहीं पर
सब हंसी
सब गान होगा शेष
यहाँ से एक जिज्ञासा
____________________________________________

राकेश श्रीमाल :
कलावार्ता, कला सम्‍पदा एवं वैचारिकी ‘क’ के संपादक.
‘जनसत्‍ता’ मुंबई में 10 वर्ष तक संपादकीय सहयोग. 
‘पुस्तक वार्ता’ का ७ वर्षों तक संपादन.
ललित कला अकादमी की कार्यपरिषद के सदस्‍य रह चुके हैं.
कविताओं की पुस्‍तक ‘अन्‍य’ वाणी प्रकाशन से प्रकाशि‍त.
इधर कुछ कहानियाँ प्रकाशित हुई हैं. उपन्यास लिख रहे हैं.
ई-पता :devyani.shreemal@gmail.com

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  1. राकेश, गद्य में आत्‍मीयता यदि कोई तत्‍व बन सकता है तो वह यहॉं है। और इससे उसमें वह चीज उपस्थित हो गई है जो अन्‍यथा संभव नहीं हो सकती थी। अखिलेश के बारे में इस तरह से जानना निश्‍चय ही दिलचस्‍प रहेगा। इसलिए भी तुम्‍हारी किताब की प्रतीक्षा करता हूँ।

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  2. ओह बहुत सुंदर
    अखिलेश जी को तो पहले से जानता हूं
    आज उनके चित्रों की बारीकियां भी देखीं

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  3. आत्मीय आलेख..चित्रों की अपनी लिपि होती है और इस गद्य के माध्यम से यहाँ वह लिपि बोल भी रही है..

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  4. Mai chitra aur chitrakala par koi tippani dene ke yogya nahi .Waise maine ek tippani Arunji ke blog par di hai lekin sambhtah uska prakashan shyad nahi ho paya .Kisi v cheej ko jab main dekhta hun to wah kitna janopyogi hai yahi kasuti hoti hai meri use janchne ki ,wah kitna sahaj aur bodhyagam hai , Akhir kisi chitra jo swyam sampresihon ka madhyam hai to uski apni koi bhasha to honi hi chahiye ki wah darshak ko apni bat kah sake ,Waise aaj kal wey chitra shreshtha hai jo samanya jan ke sar ke upar se hi gujar jaye ..yise visheshan mujhe manya nahi hai shyad ho saqta hai ki iska karan mera kalakar aur shayad adhytmik v na hona ho .Chitra to kisi samanya jan ke liye v sahaj na ho to byapak upyogita ka madhyam v nahi ho sakta .Kumar swami ke Bhartiya chintan aur madhyakalin kala chintan yahi khulasa karti hai ki JIwan ka antim dore "Sahaj "ki ore le jata hai .Main to itna hi janta hun ki PREM jab swabhawa ban jata hai to Bhartiya kala ka janma hota hai .Kala rachna ki prakriya men ek anushthanik briti awashyak hai .
    Arun ji ke e magzine sundar hai ,libhawnapurn hai ..unhe Badhai aur shubhkamnayen !

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  5. हालांकि मेरे लिए दुरूह रहा चित्रों पर के इस लेखन को ठीक तरह से समझ पाना... लेकिन वाजिबन चित्रकला की अपनी लिपि होती है और साहित्य की अपनी भाषा.. और इन दोनों के बीच खड़ा कोई चित्र की लिपि हमें साहित्य की भाषा में समझा दे तो उसे दिली शुक्रिया कहना तो बनता ही है.. श्री राकेश श्रीमाल ने आलेखनुमा इस प्रस्तुति में श्री अखिलेश के चित्र के बहाने कैनवासी रचनात्मकता पर विभिन्न कोनों से बढ़िया प्रकाश डाला.. प्रस्तुत चित्र पहली नजर में ही अलग से प्रतीत होते हैं.. इन छोटे छोटे खानों को कहीं भी देख मुझे श्री अखिलेश याद आयेंगे..

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  6. अखिलेश के लिए इससे बेहतर किन शब्दों में लिखा जा सकता है? शुक्रिया राकेश श्रीमाल.

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