मैं कहता आँखिन देखी : नरेश सक्सेना



16 जनवरी 1939, ग्वालियर, मध्यप्रदेश

पेशे से इंजीनियर
कविता संग्रह : समुद्र पर हो रही है बारिश (2001)
आरम्भ, वर्ष, और छायानट नामक पत्रिकाओं का सम्पादन.
हिन्दी साहित्य सम्मेलन सम्मान (1973),
फ़िल्म-निर्देशन के लिए राष्ट्रीय फ़िल्म पुरस्कार (1992) और
पहल सम्मान (2000),
ऋतुराज सम्मान
कविता कोश सम्मान (2011) आदि 

 कवि नरेश सक्सेना से ज्योत्स्ना पाण्डेय की बातचीत   



आजकल आप क्या कर रहे हैं


एक लम्बी कविता है  लड़कियों और नदियों के नामों को लेकर उसे पूरी करने बैठता हूँ तो वह और लम्बी हो जाती है. वैसे मैं छोटी कविताएँ ही लिखता हूँ. अब इसे पूरा करना है बस. इस कविता के साथ ही मेरा नया  कविता  संग्रह भी पूरा हो जाएगा. मेरा एक बहुत पुराना नाटक है प्रेत नवम्बर में उसका शो मुंबई में National Council Of Performing Arts में प्रस्तावित है. उसमें कुछ अतिरिक्त संवाद लिखने मैं मुंबई जा रहा हूँ. इसके अलावा मुक्तिबोध पर एक पुस्तक भी अधूरी है, उसका काम भी पूरा करना है. अपने समय की श्रेष्ठ रचनाओं का चयन करना चाहता हूँ . पिछले वर्ष कथा क्रम  पत्रिका में कविता का स्तम्भ लेखन करता था, जिसमें हर प्रकाशित रचना पर (काव्य चयन ) के साथ मैं अपनी टिप्पणी  भी देता था  उसे भी पुस्तक रूप में छपवाना है. और भी बहुत काम हैं. इच्छाएँ बहुत हैं और साथी कम. फिर भी जितना काम हो सकेगा, करूँगा.


नए कविता संग्रह के विषय में बताएं


पहले कविता संग्रह समुद्र पर हो रही है बारिश  बड़ी जल्दी और हड़बड़ी में छपा था. बहुत सी कविताएँ छूट गईं थीं. नए संग्रह में नयी कविताओं के साथ इन रह गई कविताओं का भी समावेश है. जब २००१ में मुझे पहल सम्मान  दिया गया उस समय तक मेरा कोई काव्य संग्रह नहीं था. ये एक अजीब बात थी क्योंकि पेशे से इंजीनियर हूँ और कविता संग्रह कोई प्रकाशित नहीं था, फिर भी इस सम्मान के लिए मुझे चुना गया. उस समय ज्ञानरंजन और सभी मित्रों ने दबाब डाला कि पहल सम्मान समारोह के अवसर पर मेरे कविता संग्रह का लोकार्पण भी हो जाए. मेरी कविताएँ १९५८ से ज्ञानोदय, कल्पना, धर्मयुग पत्रिकाओं में छप रही थीं, यानी लिखते हुए ४३ वर्ष हो गए थे और मेरी उम्र ६२ थी, लेकिन कविता संग्रह छपवाने की फ़िक्र मैंने नहीं की . 


सन १९६४ की कल्पना में मुक्तिबोध की कविता चम्बल घाटी और मेरी एक कविता साथ-साथ छपी. वह कविता भी नए कविता संग्रह में आएगी. ये कविता छंद में है. कुछ और छांदस कविताएँ भी संग्रह में होंगी. कुछ लोगों को भ्रम है कि मैं पहले छंद में लिखता था बाद में गद्य में लिखने लगा. ऐसा नहीं है. मैंने गद्य में पहले लिखा और गीत बाद को . अभी भी कभी कभी गीत लिखता हूँ.


आपकी कविता में प्रकृति और तकनीकि का अद्भुत सामंजस्य है .


पर्यावरण इंजीनियरिंग मेरा विषय है. मैं पानी का इंजीनियर हूँ. हवा, पानी और प्रकृति मेरे लिए तकनीकि विषय हैं और इनके बिना जीवन संभव नहीं है. मैंने गिट्टी, सीमेंट , ईंटों और कॉन्क्रीट को विषय बनाकर भी कविताएँ लिखी हैं किन्तु अंततः मैं मनुष्य के जीवन से ही इन्हें जोड़ता हूँ. तकनीकि सन्दर्भ  होने के बावजूद भी मुझे कभी पाद टिप्पणी देने की जरूरत नहीं पड़ती. दरअसल तकनीकि ज्ञान और विज्ञान बहुत सरल होता है. हमारी शिक्षण पद्धति उसे कठिन बनाती है. यह बात मेरे समझाने से उतनी समझ नहीं आएगी जितनी मेरी कविताएँ पढ़कर.


संपादक के रूप में आपके क्या अनुभव रहे 

संपादक  के रूप में १९६६ में आरंभ निकाली. विनोद कुमार शुक्ल जी नवोदित कवि थे और इस पत्रिका में मैंने उन पर प्रथम  टिप्पणी देते हुए लिखा कि  वे भविष्य के प्रतिष्ठित कवि होंगे. धूमिल के आखिरी गीत का संपादन "आरंभ " में किया . उनकी ही पहली महत्त्वपूर्ण कविता "मोचीराम " आरम्भ में छापी गई. उन दिनों संपादक के रूप में विनोद भारद्वाज का नाम जाता था. धर्मवीर भारती और डॉक्टर नामवर सिंह की अकविता पर हो रही बहस पर मैंने टिप्पणी करते हुए कहा था कि  सच्ची कविता की परख कवि ही करेंगे, आलोचक नहीं.  रचना समय - 2011 के संपादक के तौर पर कविता विशेषांक भोपाल से निकाला. भारत के ५० फीसदी बच्चे कुपोषित हैं. आज से ४५ वर्ष पूर्व में मैंने "आरंभ" में इसे रेखांकित किया था. " रचना समय " के सम्पादकीय में भी यह बात मैंने उठाई है यानी ४५ वर्ष बाद स्थिति बिगड़ी ही है, सुधरी नहीं है. रचना समय का ये विशेषांक हमारे समय की कविता की स्थिति का ऐसा आइना है जिसमें सिर्फ चेहरा नहीं उसका दिमाग भी प्रतिबिंबित हो रहा है. कविताओं के साथ उसमें विमर्श भी है. संगीत नाटक अकादमी की पत्रिका " छायानट" का संपादन भी मैंने किया. नागार्जुन पर ३६ वर्ष पहले एक बड़ा विशेषांक प्रकाशित हुआ था वर्ष के नाम से. रवीन्द्र कालिया और ममता कालिया के साथ मिलकर हमने इसका संपादन किया.


आप अपने कार्यक्षेत्र और कविता में सामंजस्य कैसे स्थापित करते हैं 

इनमें पहले से ही सामंजस्य है. लोग उन्हें अलग करने का प्रयास करते हैं. गणित, विज्ञान, कविता और दर्शन इनमें कतिपय विरोध नहीं. ये शिक्षण विधि का दोष है जो इन्हें आपस में बाँट देती है. मेरी कविता को गणित और विज्ञान ने काफ़ी समृद्ध किया है.


आज के बाजारवाद में हिंदी की क्या स्थिति है 

जो देश अपनी ही भाषा में काम नहीं करते वे हमेशा पिछड़े रहते हैं. ध्यान दीजिये की चीन चीनी भाषा में, जापान जापानी भाषा में और कोरिया अपनी भाषा में काम करके तकनीक में हमसे आगे हैं, अंग्रेज़ी भाषा में नहीं. जिनकी मातृ भाषा अंग्रेजी न होने पर भी अंग्रेजी में काम करते हैं, उसके उदहारण हैं - बंगलादेश, श्रीलंका, पाकिस्तान आदि-आदि. अंततः अंग्रेजी इस देश को पीछे रखने वाली भाषा सिद्ध होने वाली है. देश के जिन लोगों ने अंतर्राष्ट्रीय ख्याति पायी है वे अंग्रेजी माध्यम के विद्यालयों से पढ़कर नहीं आये थे.
अमेरिका यदि भारत के आई.आई . टी के छात्रों से घबराया हुआ है तो इसलिए कि भारत की जनसँख्या १२० करोड़ है, जिसका एक प्रतिशत ही सवा करोड़ होता है. यदि शेष ९९ प्रतिशत के सामने भाषा की दीवार नहीं खड़ी की जायेगी तो भारत की प्रगति कहाँ पहुंचेगी, ये अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. यदि अमेरिका, जर्मनी या इंग्लैण्ड के सबसे मेधावी छात्रों को तमिल, तेलगु या बंगला में इंजीनियरिंग पढ़ाई जाए तो वे भाषा को पढेंगे या विषय को. हमारे मेधावी छात्रों की प्रकृति रटने की होती है, ये सिर्फ भाषा के आरोपण के कारण है . टाइम मैगज़ीन का सर्वे कहता है कि भारत में शिक्षित ७५% इंजीनियरिंग के छात्र अपने विषय को नहीं जानते और अपना कार्य सही तरह से नहीं कर सकते. यह प्रतिशत मेरी निगाह में गलत है. इसे ९० प्रतिशत होना चाहिए. अंतर्राष्ट्रीय इंजीनियरिंग कंसल्टेंसी के तौर पर मैंने यही पाया. 


समकालीन कविता और कवियों पर आपकी क्या राय है

क्योंकि हिंदी  भाषा की कोई हैसियत नहीं, अंग्रेजी के सामने इसलिए हिंदी साहित्यकार की भी कोई हैसियत नहीं; न सरकार के सामने और न समाज के . जिसका असर ये हुआ है कि खुद साहित्यकार की नज़र में अपना काम ही छोटा हो गया. यही उदासीनता कविता, कथा, आलोचना में हर जगह दिखाई दे रही है, इसके बावज़ूद यदि अच्छी कहानियां और कविताएँ लिखी जा रही हैं हर हाल में उसकी सृजनात्मक ऊर्जा अपनी अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार को मजबूर कर देती है. कुल मिलाकर एक काली छाया हमारी अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता पर फ़ैल रही है. 

मौलिकता की दृष्टि से विनोद कुमार शुक्ल सर्वश्रेष्ठ उदहारण हैं. विचार , संवेदना और तार्किकता की दृष्टि से विष्णु खरेशिल्प और संरचना की दृष्टि से राजेश जोशी अपनी तरह के अप्रतिम उदहारण हैं . किन्तु बहुत सरल भाषा में जिसमें शिल्प अदृश्य हो जाता है , उसमें मंगलेश डबराल, विष्णु नागर और भगवत रावत  जैसे कवि हैं. अपेक्षाकृत युवा कवियों में देवी प्रसाद मिश्र, एकांत श्रीवास्तव , हरिश्चंद्र पाण्डेय , गीत चतुर्वेदी, संजय कुंदन, उमाशंकर चौधरी, अच्युतानंद मिश्र, कुमार अनुपम, अशोक कुमार पाण्डेय  और मनोज कुमार झा आदि ऐसे कवि हैं जिनकी सृजनात्मकता पर समय की छाया को अलग-अलग तरह की प्रतिक्रियाओं में देखा जा सकता है. (रचना समय के कविता विशेषांक में)

ये सूची कतई अधूरी है क्योंकि इसमें अशोक वाजपेयी , चंद्रकांत देवताले, असद ज़ैदी, कुमार अम्बुज, उदय प्रकाश जैसे महत्त्वपूर्ण कवि छूटे जा रहे हैं. छत्तीसगढ़ के नवोदित कवि हरीश वर्मा जैसे कवि भी सूची से बाहर हैं. दरअसल कुंवर नारायण और केदारनाथ सिंह से शुरू करेंगे तो साक्षात्कार कवियों के नाम से ही भर जाएगा क्योंकि जिसने एक भी सुन्दर कविता लिखी हो उसे मैं महत्त्वपूर्ण मानता हूँ. मेरी दृष्टि में सुधीर  सक्सेना, सुशीला पुरी, पवन करन, यतीन्द्र मिश्र , लीलाधर मंडलोई जैसे कवि भी अलग-अलग कारणों से उल्लेखनीय हैं. ये भी है कि अच्छी कविताएँ संख्या में बहुत कम होती हैं और आलोचना का काम ऐसी कविताओं को खोज कर उन्हें सामने लाना होता है जो कम हो रहा है. क्योंकि कवियों ने हमारी समकालीन कविताओं के श्रोताओं का सामना करना छोड़ दिया है, इसलिए अपनी पहचान के लिए वे पुरस्कारों और आलोचकों के मुखापेक्षी हो गए हैं. रचना समय के विशेषांक में अरविंदाक्षण ने ठीक कहा है कि कविता विशेषज्ञों की संपत्ति हो गई है. भगवत रावत पूछते हैं कि क्या हम अपने श्रोताओं से कुछ नहीं सीख सकते ,वहीँ अशोक वाजपेयी ने काव्य तत्त्वों को पुनर्परिभाषित करते हुए लय, समय और मौन के साथ साहस को एक अनिवार्य तत्त्व के रूप में शामिल किया है. साहस हो - नए कथ्य , नए शिल्प, नई दृष्टि के साथ ही अकेले पड़ जाने का, जोखिम झेलने का. 


हिंदी कविता में स्त्री अपनी उपस्थिति दर्ज करा चुकी है. नारीवाद का नारा देना आवश्यक है क्या ?

दरअसल नारीवाद एक जरूरी मुद्दा है बशर्ते कि इसे नकारात्मक ढंग से न उठाया जाए, बल्कि स्त्री -पुरुष के प्रेम और साहचर्य की तरफ से उठाया जाए. शालिनी माथुर ने जिस निर्मम भाव से पवन करन की कविताओं का विश्लेषण किया है वह बताता है कि चीज़ों को दूसरी तरफ से भी देखा जा सकता है.जो पुरुष -दृष्टि से छूट रहा है, नारीवादी दृष्टि उसे कितनी अलग दृष्टि से देख सकती है. मुझे लगता है इस दृष्टि से ये लेख पठनीय है. हिंदी कविता में स्त्री विषय पर लिखा हुआ ये एक जरूरी लेख है और वे इस विषय पर एक पुस्तक भी लिखना चाहती हैं अतएव हिंदी कवि और कवयित्रियों को सावधान हो जाना चाहिए. यद्यपि शालिनी माथुर की इस बात से मैं सहमत हूँ कि यथार्थ के नाम पर स्त्री को हमेशा दबा, कुचला हुआ दिखाते रहना पर्याप्त नहीं है, उसके संघर्ष को भी सामने लाना चाहिए. लेकिन किसी कवि पर ये बाध्यता लादी नहीं जा सकती कि वह यथार्थ को किस तरह प्रस्तुत करे. विष्णु खरे की जिस कविता से शालिनी माथुर को शिकायत है वह मेरी प्रिय कविताओं में से है और उसे मैं एक सार्थक रचना मानता हूँ.


कविता के अतिरिक्त आप अपने कला क्षेत्र का विस्तार  और कहाँ पाते हैं 

मेरी पहली फिल्म अपने आँगन के नीम के वृक्ष के कटने को लेकर लिखी गई कविता पर बनाई गई थी, जिसका निर्माण, निर्देशन व लेखन मैंने ही किया. संयोग से जिसे निर्देशित करने के लिए मुझे निर्देशन का राष्ट्रीय पुरस्कार भी मिला. फिल्म का नाम था  सम्बन्ध. इसके बाद मैंने लघु फ़िल्में और सीरियल बनाये, जिन्हें मैं मेरी काव्य प्रक्रिया का ही विस्तार मानता हूँ, जैसे कि अपनी इंजीनियरिंग को. मैंने जो थोड़ा बहुत नाटक और संगीत संरचनाओं का काम किया है उसे भी कविता की रचना प्रक्रिया से अलग नहीं मानता. भाषा हमने लगभग अंतिम कला के रूप में पायी है. उसमें लय, चित्रकला, अभिनय और संगीत स्वाभाविक रूप से आने चाहिए.


आपको हाल ही में सम्मान मिला है, हार्दिक बधाई ... आपकी प्रतिक्रिया !
 
जो पुरस्कार इधर मुझे मिले हैं उन पर मैं चकित हूँ, क्योंकि बिना किसी पुस्तक के प्रकाशित हुए ही ये मुझे मिलते चले जा रहे हैं.( आम तौर पर ऐसा नहीं होता है). मेरी प्रसन्नता का कारण ये भी होता है कि सम्मान समारोह में एक बार पुनः अपनी कविता पढ़ने का अवसर प्राप्त होता है. सच्ची बात ये है कि मैंने कविता संग्रहों से नहीं  अपने काव्य पाठों से थोड़ी जगह बनाई है. 

मुझे लगता है कि जितना मैंने किया उससे अधिक प्रेम मुझे मित्र कवियों, आलोचकों और श्रोताओं से मिला है. जन कवि मुकुंट  बिहारी सरोज" पुरस्कार एवं कविता कोश सम्मान आदि पुरस्कार मुझे मिले हैं. उससे पहले साहित्य भूषण  (उ.प्र.) पहल सम्मान, जबलपु , 'ऋतुराज सम्मान' दिल्ली आदि कुछ वर्ष पूर्व मिले थे. मुझे ख़ुशी है कि मुझे पुरस्कारों से नहीं अपनी कविताओं से पहचाना जाता है.

(यह  बातचीत अपर्णा मनोज, सुशीला पुरी के सहयोग से पूरी हुई )    
ज्योत्स्ना पाण्डेय : कवयित्री 
jyotsnapandey1967@gmail.com

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  1. बातचीत बहुत उम्दा लगी ..... नरेश जी से एक सवाल जो पूछ गया कि समकालीन कविता और कवियों पर आपकी क्या राय है ? ..... मै भी जब भी वे मिलते हैं यह प्रशन पूछ्ता हूं तकि खुद को अप्डेट कर सकूं ... नरेश जी अकेले ऐसे कवि हैं जिंन के पास हर कवि के बारे मे पुख्ता और स्पप्ष्ट राय है और वे ढुलमुल जवाब नही देते बल्कि पुरसर ढंग से देते हैं ...इस बातचीत के लिये अपर्णा मनोज, सुशीला पुरी को धन्यवाद ...... और नरेश जी को मेरी याद और सादर प्रणाम ...

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  2. "लड़कियों और नदियों के नामों को लेकर"... जो कविता आदरणीय नरेश जी लिख रहे हैं वो अद्भुत है !...और मै बहुत बेसब्र हूँ कि वह जल्द ही आप सबके सामने आए ,....लखनऊ की शान हैं कविवर नरेश सक्सेना जी !....ये सच है कि नरेश जी अपनी कविता से पहचाने जाते रहे हैं ...,किसी भी पुरस्कार या पुस्तक से बहुत ऊपर हैं उनकी कवितायेँ । ज्योत्सना जी अरुण जी और अपर्णा जी को हार्दिक बधाई इतनी अच्छी बातचीत के लिए !!

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  3. ज्योत्स्ना पाण्डेय जी आप को सबसे पहले धन्यवाद .... आप का नाम रह गया था ....

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  4. नरेश जी के साथ इस बातचीत का वृत्तांत सुशीला जी और ज्योत्स्ना से फ़ोन पर इस तरह लखनऊ से मिला कि लगा ही नहीं कि हम वहाँ नहीं हैं . गुजरात में ऐसी सुन्दर बातचीत के लिए " सरस" का प्रयोग किया जाता है . ये बातचीत भी सरस है और सारगर्भित भी. नरेश जी की एक बात जो आकर्षित करती है ; वह है उनका सहज स्वभाव और जीवन की सादगी . ये उनकी कविता में भी दीखती है .
    सारा प्रयत्न ज्योत्स्ना जी और सुशीला जी का है . बरसात का मौसम .. झमाझम पानी बरसना और आप दोनों का साथ मिलकर नरेश जी के आवास पर पहुंचना .. शुक्रिया आप दोनों का इस सुन्दर बातचीत के लिए . चंद्रकर जी ने तो टिपण्णी में लिखा है , हम उससे सहमत हैं.
    नरेश जी की नयी पुस्तक का इंतज़ार है .
    अरुण इस बातचीत के लिए आपको बधाई ! समालोचन व्यवस्थित रूप से आगे बढ़ रहा है . इसका वैविध्य , विस्तार और साहित्यिक गतिविधियाँ पाठक को बांधते हैं .

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  5. baatchit achchi lagi......naresh ji..khas kar mere liye to aadarsh hain....bahut saal pahale pahal mein jab unki kavitayen padhi...jine kahne ka dhang ..ek dum alag tha...aur ve vigyan ke sandarbhon se jeevan ko paribhashit kar rahi thi....main chakit rah gaya tha....aur jab ye jana ki ve peshe se engineer hain......to khud ko bhi bharosa mila ki.....main bhi vakalat karte hue kisi na kisi tarah kavita se jud sakta hun....aaj unke dikhaye raste ke liye unhe thanks kahna chahta hun...

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  6. विज्ञान और साहित्य का विरोधाभास शिक्षापद्धति की उपज है।

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  7. इस अच्छी महत्त्वपूर्ण और सार्थक बातचीत को साझा करने के लिए समालोचन का आभार!

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  8. आदरणीय नरेश जी से बातचीत मेरे लिए सौभाग्य की बात है,उनके प्रति आभार व्यक्त करती हूँ कि उन्होंने अपना अमूल्य समय देकर बहुत ही सहजता से संतुलित और सारगर्भित बातें कीं ...

    आप सभी सुहृदय जनों को आभार जिन्होंने इस सार्थक बातचीत को समय दिया....पढ़ा....और अपने विचारों से अवगत कराया.

    इस वार्ता का श्रेय अपर्णा जी को, जिन्होंने प्रेरित किया....सुशीला जी को, जो वार्ता के दौरान मेरे साथ रहीं....और अरुण जी को जाता है जिन्होंने इसे "समालोचन में स्थान दिया. आप सभी के प्रति मैं हार्दिक आभार व्यक्त करती हूँ ..

    सादर- ज्योत्स्ना पाण्डेय.

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  9. नरेश सक्सेनाजी मेरे भी प्रिय कवियों में हैं, सच कहूं तो उनकी शैली से स्‍वयं भी अत्यधिक प्रभावित हूं. यह वार्तालाप सार्थकता के साथ-साथ उनके कवित्व की खंगाल भी है. ज्योत्सनाजी को बधाई - प्रदीप जिलवाने

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  10. भाषा हमने लगभग अंतिम कला के रूप में पायी है. उसमें लय, चित्रकला, अभिनय और संगीत स्वाभाविक रूप से आने चाहिए...

    aabhaar is sarthak post ke liye

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  11. बहुत सुन्‍दर ढ़ंग से नरेश सक्‍सेना जी की बातों को प्रस्‍तुत किया है ज्योत्स्ना पाण्डेय जी नें, उनके चयनित प्रश्‍नों से वर्तमान काव्‍यजगत पर नरेश जी नें गहरी दृष्टि डाली है. इस बातचीत के लिये ज्योत्स्ना पाण्डेय जी को बहुत बहुत ध्‍रन्‍यवाद.

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  12. नरेश जी की कविता हो या उनसे किसी प्रसंग पर चर्चा, वह हमेशा रचनाओं और चर्चाओं के अंबार में अनूठी और अद्वितीय-सी लगती है। उनका पहला संग्रह बेशक हड़बड़ी में लाया गया हो, जो कि सच भी है, किन्‍तु अब तक प्रकाशित अनेक कवियों के एकल संग्रहों की तुलना में नरेश जी का यह अकेला संग्रह उन्‍हें कविता में सदैव अविस्‍मरणीय बनाए रखेगा। उनका डिक्‍शन, समय, यथार्थ और अपनी भाषा-संवेदना के साथ उनका व्‍यवहार सब कुछ विरल लगता है। इस मस्‍ती से भरे कवि से यह बातचीत ज्‍योत्‍स्‍ना जी ने बेहद सादगी से लियाहै। उन्‍हें और ब्‍लाक-संयोजक को बहुत बहुत बधाई। --ओम निश्‍चल,वाराणसी।

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  13. बहुत अच्छी रही बातचीत ! कविता,हिन्दी ,और समकालीन काव्य पृवत्तियों पर नरेश मेहता जी की मूल्यवान टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं ! ज्योत्सना जी ने कुशलता पूर्वक ड्राइविंग सीट सम्हाली , उनका और अरुण जी का आभार !

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  14. नरेश सक्सेना जी एक वरिष्ठ और जाने माने कवी हैं !पहले नहीं ,पर आज ये जानकर सचमुच (सुखद)आश्चर्य होता है कि कोई कवी साहित्य जगत में सिर्फ अपने काव्य पाठों के साथ ६२ वर्ष की उम्र तक उत्कृष्ट कवी के रूप में जाना जाता रहे,और उसे पुरुस्कारों से नहीं कविताओं से पहचाना जाये !आज के कवियों के लिए उनका ये कहना कि अपनी पहचान के लिए वे पुरस्कारों और आलोचकों के मुखापेक्षी हो गए हैं ये उनके दीर्घ अनुभव और आकलन से उपजी टिप्पणी है ! भाषागत संकट से उत्पन्न उदासीनता के माहौल में वो ये भी स्पष्ट करते हैं कि ‘’इसके बावज़ूद यदि अच्छी कहानियां और कविताएँ लिखी जा रही हैं हर हाल में उसकी सृजनात्मक ऊर्जा अपनी अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार को मजबूर कर देती है.|’’शालिनी माथुर ने स्त्री विमर्श पर बहुत लिखा है गहरा अध्ययन है उनका !हाँ ये ज़रूर है कि कभी २ वो अतिरंजित या भावावेश वश कुछ अधिक आक्रामक दिखाई देती हैं !मैंने एक स्त्री विमर्श सम्बंधित लेख में एक प्रसिद्द लेखक के बारे में उनकी एक आलोचनात्मक टिप्पणी पढ़ी थी ‘’मूर्ख मित्र से विद्वान शत्रु बेहतर होता है फिर (लेखक का नाम )न तो विद्वान ही हैं और ना ही मित्र ...इन छद्म विमर्शकारों के प्रपंच से दूर रहने की हिदायत दी गई थी !’’बहरहाल..कोई रचना किसी के लिए महत्वपूर्ण हो सकती है और किसी के लिए आपत्तिजनक ये नज़रिए का प्रश्न है! नरेश जी को सम्मान के लिए हार्दिक बधाई !इस संक्षिप्त और महत्वपूर्ण वार्ता के लिए ज्योत्सना पाण्डेय,और उनकी सहयोगी अपर्णा जी व सुशीला पूरी जी को धन्यवाद

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  15. सुंदर रही बातचीत।
    इसे प्रस्तुत करने के लिये आप सबका आभारी हूँ।
    कई साथियों ने सहमति जतायी है बातों से - बेशक बातें अच्छी हैं, उपयोगी और सबसे अहम संवाद-योग्य! - पर मैं एकाध सहमति दर्ज कर अपनी बात खत्म करूँगा।
    @ध्यान दीजिये की चीन चीनी भाषा में,जापान जापानी भाषा में और कोरिया अपनी भाषा में काम करके तकनीक में हमसे आगे हैं..........
    >> चीन,जापान और कोरिया आदि से भारत इस मायने में अलग है कि यहाँ सर्वसमावेशी एकता भाषा के नरेश जी द्वारा प्रस्तावित रूप में ‘सायास’ निर्मिति का प्रयास करती है। इसकी बड़ी सीमाएँ हैं। जापानी-चीनी-कोरियन जैसी गौरवशाली भाषिक परंपराएँ भारत में दर्जन भर से अधिक भाषाओं के पास है, और इनमें हिन्दी नहीं है। इसलिये हमारी भौगोलिक सांस्कृतिक निर्मिति को समझना ज्यादा हम है, न कि बाह्य प्रेक्षण द्वारा सायास निर्मिति कर पूर्व से मौजूद ‘सहज’ निर्मितियों को स्थानापन्न किया जाय। इन वैविध्यों को फलने-फूलने का मौका दिया जाय, भारत स्वयं में एक पूरा विश्व है। अफसोस है थोड़ा कि हिन्दी बौद्धिक सौ साल पुराने समावेशन के संस्कार से बच नहीं पा रहे और अब उसे वैश्विक चुनौती कह रहे हैं। ... वैसे मेरी बात वही ं नहीं गिर रही जहाँ नरेश जी की, पर उत्स आसपास ही है। यही वजह है कि बहुत कुछ उद्यमित होने के बाद भी, नरेश जी के ही परिवेश-सूचक वाक्य को रखूँगा कि ‘‘कुल मिलाकर एक काली छाया हमारी अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता पर फ़ैल रही है. ’’ , आगे मैं यह जोड़ूँगा कि विचार अपेक्षित है कि कहीं हमारी चाल-बुनियाद ही तो काली छाया की जन्मजात संगिनी नहीं है??

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  16. "क्योंकि हिंदी भाषा की कोई हैसियत नहीं, अंग्रेजी के सामने इसलिए हिंदी साहित्यकार की भी कोई हैसियत नहीं; न सरकार के सामने और न समाज के . जिसका असर ये हुआ है कि खुद साहित्यकार की नज़र में अपना काम ही छोटा हो गया. यही उदासीनता कविता, कथा, आलोचना में हर जगह दिखाई दे रही है, इसके बावज़ूद यदि अच्छी कहानियां और कविताएँ लिखी जा रही हैं हर हाल में उसकी सृजनात्मक ऊर्जा अपनी अभिव्यक्ति के लिए रचनाकार को मजबूर कर देती है. कुल मिलाकर एक काली छाया हमारी अभिव्यक्ति और सृजनात्मकता पर फ़ैल रही है."


    बहुत अहम् बात नरेश जी ने उठाई है . हिन्दुस्तान का इतिहास कुछ ऐसा रहा है कि आज भी हम एक होते हुए अपने-अपने स्थानों से गहरे तक जुड़े हैं . स्थानीयता में कोई बुराई नहीं , प्रांतीयता भी बुरी नहीं ; लेकिन एक लिबरल राष्ट्रवाद को तो हम सहेज ही सकते हैं .. इस दृष्टि से हिंदी को हम क्यों नहीं आत्मसात कर पा रहे हैं ? वह इन्हीं स्थानों का बीज है ; इन्हीं की पौध . हिंदी को थोपा नहीं जा रहा . सारे देश का कौनसा एक माध्यम होना चाहिए , जिसमें हम एक-दूसरे से अजनबी न रह पायें .. कोई एक पुल तो होना चाहिए ; पर हमें वह भी नहीं चाहिए . तो पार करने के लिए अब अपनी-अपनी नावें और अपनी-अपनी तैराकी रह गई .. अपनी-अपनी मझधार ..
    हम अपनी स्थानीयता को अक्षुण रखते हुए उस पुल पर चल सकते हैं जो जोड़ने का काम करे .. तब हमारी सृजनात्मकता और अभिव्यक्ति और गहरे से निखर कर सामने आएगी .

    हमारी चाल-बुनियाद ही तो काली छाया की जन्मजात संगिनी नहीं है??
    नहीं , ऐसा नहीं है . उपनिवेशवाद ने अंग्रेजी को ग्लोबल बना दिया . इसके पीछे पहले ताकत थी पर कालांतर में बाजार , अर्थ व्यवस्था और संभावित विकास जुड़ गए . इस वजह से अंग्रेजी कई देशों में सहायक भाषा के रूप में सामने आई . ख़ास तौर से उन देशों में जो स्वयं उपनिवेश थे . यदि प्रथम विश्व युद्ध और द्वितीय विश्व युद्ध तक के समय को भी देखें तो पायेंगे कि इम्पिरिअलिज़्म ने विश्व को दो खेमों में बांटा और उसका खामियाजा लोगों , उनकी संस्कृतियों व भाषाओँ को भुगतना पड़ा. पर आज स्थितियां भिन्न हैं . राष्ट्र का concept पहले से अलग दीखता है . भाषा इसी concept की जननी होती है . बहुत गौर से देखें तो हमें सहकार की जरुरत ज्यादा है . भारत एक खोज है . इस खोज में आप समन्वय को भूल गए तो भारत भी खो जाएगा .

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  17. भाषाएँ नेट वर्किंग का काम करती हैं . लेकिन जब तक हम एक-दूसरे के फोंट्स को नहीं जानेंगे और सुविधा के लिए एक यूनीकोड में बात नहीं करेंगे तो नेट वर्किंग मजबूत नहीं हो पाएगी .

    सारे केबल एक हाई टेंशन लाइन में जुड़ते हैं तब जाकर दूर तक वह गमन करती है , ये पावर जेनरेशन की अपनी सीमाएं बढ़ाने के लिए है .. एक सहज -सरल माध्यम . तो किसी राष्ट्र के लिए भी एक हाई टेंशन भाषा लाइन की जरुरत है और यही उसे ग्लोबल बनाता है . तो फिर भारत के लिए कौन सी भाषा रह जाती है ?

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  18. @ अपर्णा मनोज जी,
    आपकी बातों का उत्तर है, उन्हें रखने में मुझमें एक सहज सी तल्खी आ जाती है, जो आपसे संवाद में उचित नहीं होगी।

    बस अंतिम टीस यही कि हमारी देशभाषाओं को हिन्दी ने अंग्रेजी आदि से ज्यादा शोषित किया है, कितनों को अवधी-ब्रज-भोजपुरी आदि मादरी जुनानों से काट दिया। ऐसा गुजराती-बँगला-मराठी के के साथ कर सकती थी हिन्दी?, अवधी-ब्रज-भोजपुरी आदि गोबरपट्टी(?) में यह हो तो स्वाभाविक भी है कि जिसके पास कल्चर व भाषा है पर उसे इतना आत्मविश्वास और गौरव-बोध ही नहीं कि इसे भाषा व कल्चर समझे, सो हिन्दी की दाल इधर खूब गयी। हमारी भाषाएँ तो ऐसे ही मिट चुकी हैं, खतम है भविष्य हमारा, पर हम हिन्दी से प्रेम क्यों करें? हमारे लिये जैसे हिन्दी वैसे अंग्रेजी। आपके नेटवर्किंग के तर्क को मानें तो अंग्रेजी कम-से-कम वैश्विक स्तर पर यह काम संपन्न करायेगी। सादर..!

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  19. **सुधार
    --आदि मादरी जुनानों से काट दिया। >> आदि मादरी *जुबानों से काट दिया।
    -- हिन्दी की दाल इधर खूब गयी। >> हिन्दी की दाल इधर खूब *गली।

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  20. अमरेन्द्र भैया
    आपकी पीड़ा समझ रहे हैं .. और आप भी हिंदी की पीड़ा को समझ रहे होंगे .
    लेकिन फिर भी इनके बीच सुख है , संतुलन भी . जब ये ख़त्म होगा तो सिर्फ झगड़ा बचेगा . उसके बाद की अनार्की में शब्द सृजन नहीं कर सकेंगे .
    अंग्रेजी ने इसी फूट की राजनीति से ग्लोबल होने का रुतबा पाया है ; पर फिर भी फ्रेंच , जर्मन , चीनी , हिंदी और जापानी ग्लोबल की ओर कदम बढ़ाये हैं ..
    आधे से भी अधिक हिंदुस्तान ग्लोबल के लिए अंग्रेजी को चुन नहीं पाता .. क्यों ?
    एक ईलीट क्लास को (जो अंग्रेजी बोलता -समझता है )आप हिन्दुस्तान नहीं मान सकते .
    तब वह ऐसी किस भाषा का इस्तेमाल करे जिसमें वह संसार से जुड़ सके ?
    हिंदी का विकास वैसे भी केवल संपर्क भाषा के रूप में ही हुआ है ..
    हाँ ,उसमें जो साहित्य रचा गया है वह सीमाओं का अतिक्रमण करके तो नहीं ही रचा गया होगा ओर न ही किसी शोषण के आधार पर .
    नेट वर्किंग का अर्थ अंतरजाल से नहीं है .. भाषाओँ के जुड़ने से है . अधिक से अधिक ग्राह्यता से है ..
    यदि कुछ राज्यों में वह राजकीय कार्य के रूप में इस्तेमाल हो रही है तो उसके पीछे उन राज्यों के केवल राजनैतिक कारन तो नहीं ही होंगे .. अन्य कारण भी होंगे ..उन राज्यों की विशालता और उनमें बहु भाषाओं का होना . तब किस एक भाषा को जरिया बनाया जाए ?
    एक उदाहरण राजस्थान का लीजिये .. पांच रूप में राजस्थानी मिलती है .. उनमें भी एकरूपता नहीं है . फिर किस भाषा को संपर्क रूप में रखा जाए . हिंदी के रहते भी वहाँ राजस्थानी साहित्य समृद्ध हुआ है ; हाँ ये बात भी है कि राजस्थानी को भाषा रूप में सरकारों की राजनीति वह स्थान नहीं दे पायी है .. यही स्थिति अन्य बोलियों की भी है .. हिमाचल , उत्तर प्रदेश , बिहार में ये घटा है ..
    हिंदी इसी गोबर पट्टी में साथ-साथ चली और लिथड़ी भी है ..

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  21. और हम इस सच को भी न भूलें कि अंग्रेजी ने न केवल घात किया है वरन आपको मजबूर किया है कि आप शोषित होते रहें .. ये पूरे हिन्दुस्तान की त्रासदी है .
    अपने गाँव से जब बच्चा बाहर आता है तो अंग्रेजी उसके लिए संघर्ष बनकर सामने आती है .. मजबूरी बनकर सामने आती है . इसने हमारा हर तरह से हनन किया है .
    किसी भी राज्य का सरकारी काम काज अपनी भाषाओँ में होता रहे लेकिन जहां विकास की बात आती है हिन्दुस्तान इस भाषा के शिकंजे में फंसा दीखता है .
    पुस्तकों की छपाई देखिये .. उनका बाज़ार देखिये ..
    इसने हमारी संस्कृति पर हमला बोला है , लेकिन हम हर तरह से इसे स्वीकार करने को तत्पर हैं .. और अपने ही राष्ट्र में खुद की भाषाओँ -बोलियों पर खुरपी चला रहे हैं ..
    खरपतवार चुनें तो ठीक है .. लेकिन यहाँ तो पूरी फसल ही दांव पर है ..
    और खरपतवार फूल रही है .. इसे तल्खी न समझा जाए .

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  22. पहले राष्ट्रवाद की जरूरत बनी हिन्दी और अब एक विदेशी भाषा के विरुद्ध ‘जरूरत’ बतायी जा रही है हिन्दी।

    राष्ट्रवाद एक जरूरत थी तो ठीक था, संपर्कभाषा बनी हिन्दी, पर वह जरूरत हटते ही लोग अपनी मादरी जुबानों पर वापस आ गये। जमिल वाले तमिल पर, बंगाली बंगला पर, गुजराती गुजराती पर। यह जरूरत ही थी कि इस दौर में सत्यार्थ-प्रकाश हिन्दी में लिखा गया था एक गुजराती द्वारा। ये सब हिन्दी की काल-विशेष की जरूरत के तथ्य हैं पर हिन्दी के सर्वसमावेशी चरित्र के आधार नहीं। फलतः गुजराती, बंगला, आदि सब बावजूद रहे।

    पर तथाकथित गोबरपट्टी की कहानी अलग है।
    १- पूर्व में कहा हूँ कि इसे अपने कल्चर व भाषा को लेकर गौरवबोध नहीं है। आखिर दोआबे का उपजाऊ और शोषित इलाका भी तो यही है। स्वत्व को मिटा कर जीना इस बेल्ट का आधारभूत लक्षण हो गया है, इसका लाभ सभी को मिला - विभिन्न समयों की राजसत्ताओं को भी और वर्तमान की राजभाषा को भी।
    २- हिन्दी की व्याकरणिक भूमि(वैसे तो मैं सहमत नहीं हूँ कि वर्तमान हिन्दी की कोई देशज व्याकरणिक भूमि भी है) दिल्ली के आसपास का इलाका है। इसकी हाक हमेशा रही है, राजनीतिक प्रभुत्व के लिहाज से। हमारी मादरी भाषा के क्षेत्र इसकी हेजीमनी में रहे, अन्य की अपेक्षा। इसलिये भी ऐसा हुआ हमारे साथ।
    ३- जो क्षेत्र पिछड़ा-शोषित हो, वहाँ भावुक राष्ट्रवादी अधिक पाए जाते हैं, इस क्षेत्र ने भावुकता के साथ अपनी ही मादरी जुबानों पर कुल्हाड़ी चलाई। हिन्दी-प्रेम का भूत इस कदर चढ़ गया था कि निराला जी हिन्दी को बंगला की तुलना में श्रेष्ठ कहने वाले लेख लिख रहे थे, और पंत ‘पल्लव की भूमिका’ में ब्रज की बखिया उधेड़ रहे थे, अकारण ही। और तो और तमिल से स्पर्धात्मक लेख लिखे जाते थे, हद थी। सौ साल की कृत्रिम भाषा राजनीतिक आयोजन में सज सँवर रही थी। आज भी वही यथार्थ है कमोबेश।
    .
    जारी।

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  23. ४- हिन्दी जो कि संपर्क भाषा बनी, किन्हीं कारणों से, उसे गोबरपट्टी के जनों ने अपनी साँस्कृतिक परंपरा समझने की भूल की, और काफी चीजों को अंग्रेजों की साजिश कहा। यह बात पढिये, जिसमें उदय नारायण तिवारी जी की बात में यह मनोविज्ञान भी देखा जा सकता है:
    " बात सन १९२५ की है .तब मैं प्रयाग विश्वविद्यालय में बी ए प्रथम वर्ष का छात्र था .एक दिन कक्षा में आदरणीय डॉ धीरेन्द्र वर्मा ने हिंदी की सीमा बतलाते हुए कहा -"डॉ ग्रियर्सन के अनुसार भोजपुरी भाषा-क्षेत्र
    हिंदी के बाहर पड़ता है ;किन्तु मै ऐसा नहीं मानता."भोजपुरी भाषा भाषी होने के नाते तथा राष्ट्रभाषा हिंदी के प्रति अनन्य स्नेह होने के कारण,डॉ वर्मा के विचार तो मुझे रुचिकर प्रतीत हुए ;परन्तु डॉ ग्रियर्सन की उपर्युक्त स्थापना से ह्रदय बहुत क्षुब्ध हुआ.मैंने यह धारणा बना ली थीकी भोजपुरी हिंदी की हि एक विभाषा है ,अतएवं हिंदी के क्षेत्रों से भोजपुरी को अलग करना मुझे देशद्रोह सा प्रतीत हुआ .मैंने अपने मन में सोचा ,-ग्रियर्सन आइ.सी.एस. था ,फुट डालकर शासन करने वाली जाति का एक अंग था ,समूचे राष्ट्र को एक सूत्र में बांधने में समर्थ हिंदी को अनेक छोटे-छोटे क्षेत्रों में विभाजित करने में उसकी यहीं विभाजक निति अवश्य रही
    होगी .उसी समय मेरे मन में संकल्प जागृत हुआ की पढाई समाप्त करने के अनंतर मै एक दिन भोजपुरी के सम्बन्ध में ग्रियर्सन द्वारा फैलाये गए इस भ्रम को अवश्य हीं निराधार सिद्ध करूँगा और सप्रमाण यह दिखा दूंगा की भोजपुरी हिंदी की हीं एक बोली है तथा उसका क्षेत्र हिंदी का हीं क्षेत्र है .परन्तु आज भोजपुरी के अध्ययन में चौबीस वर्षों तक निरंतर लगे रहने तथा भाषाशास्त्र के अधिकारी विद्वानों के संपर्क से भाषा –विज्ञानं के सिधान्तों को यत्किंचित सम्यक रूप में समझ लेने के पश्चात् मुझे अपनेउस पूर्वाग्रह पर खेद होता है ,जो बी ए प्रथम वर्ष में ,भाषा विज्ञानं के गंभीर परिशीलन के बिना हीं मेरे ह्रदय में स्थान पा गया था .आज मुझे डॉ ग्रियर्सन के परिश्रम ,ज्ञान एवं पक्षपात रहित -विवेचना के गौरव का अनुभव होता है और इस विद्वान् के प्रति ह्रदय श्रद्धा से परिपूर्ण हो जाता है;साथ हीं याद आती है -भर्तुहरि की ये पंक्तियाँ -
    यदा किंचिज्ज्ञोऽहं द्विप इव मदान्धः समभवम्
    तदा सर्वज्ञोऽस्मीत्यभवदवलिपतं मम मनः।
    यदा किञ्चित्किाञ्चिद् बुधजनसकाशादवगतम्
    तदा मूर्खोऽस्मीति जवन इव मदो में व्यपगतः।।
    “जब मुझे कुछ ज्ञान हुआ तो मैं हाथी की तरह मदांध होकर उस पर गर्व करने लगा और अपने को विद्वान समझने लगा पर जब विद्वानों की संगत में बैठा और यथार्थ का ज्ञान हुआ तो वह अहंकार ज्वर की तरह उतर गया तब अनुभव हुआ कि मेरे समान तो कोई मूर्ख ही नहीं है।”
    (भोजपुरी भाषा और साहित्य ,लेखक -उदय नारायण तिवारी ,बिहार राष्ट्रभाषा
    परिषद-१९५४)"
    .
    जारी।

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  24. उदय जी में जो शुरुआत का राष्ट्रवाद रहा, वह आज भी बहुसंख्यक इस बेल्ट के लोगों का सच है। उदय जी भाषा-विज्ञानी थे, समझ सके, अन्य सभी तो इसी मनोविज्ञान से अपनी समृद्ध भाषिक परंपरा को चौपट कर ही रहे हैं।

    यह यही पट्टी है जहाँ इन लोकभाषाओं को बोलना गँवरपन समझा जाता था, आज भी।
    जो छाती फुलाने के लिये अपनी मादरी जुबान को छोड़कर हिन्दी से सट गये, वे छाती फुलाने के लिये अंग्रेजी से सटेंगे ही, सहज है यह, अब पीड़ा क्यों हो रही है??

    एक बँगला/तमिल/उड़िया/तेलगू पहले अपनी भाषायें जानकर फिर अन्य को जानने जाता है, पर इस बेल्ट का आदमी अपनी को पहले छोड़ देता है और गैर की अम्मा हिन्दी को अपनी मान लेता है।

    जहाँ तक आपने राज्यों के बँटवारे से संबद्ध बात की तो यही कहूँगा कि वे बँटवारे कितने सांस्कृतिक मूल्यों को ध्यान में रखकर थे, इसे बाद में हुये राज्यों की माँगों में देखिये। आँध्र की माँग लेकर रम्ल्लू का बलिदान देखिये। राज्यों के बतवारे क्लीयरकट राजनीतिक उद्देश्यों के साथ थे, गोबरपट्टी में जन-भाषा-विरोधी।

    बहरहाल हमारी मादरी भाषायें तो खत्म मेरे जीते जी होने को हैं, पर देखना होगा कि इन्हें खत्म करने में अपनी भूमिका निभाने वाली हिन्दी कब तक टिकती है, जिसके सम्मेलन तेरहवीं भोज की तरह होते हैं!!
    .
    समाप्त।
    .
    ऊपर के मेरे तीनों कमेंट @अपर्णा मनोज जी की बातों पर हैं। सादर..!

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  25. अगर आप अंग्रेजी भाषा के साम्राज्यवाद पर कुछ कहने के लिए मुहँ खोलेंगे तो भाई लोग हिंदी साम्राज्यवाद की पट्टी आपके मुहं पर बाध देंगे. पहले यह काम अंगेजी के अखबार करते थे भारत की दूसरी भाषाओँ की ओट लेकर. आजकल हिंदी की बोलियों (भाषाएँ )की ओर से इस तरह की कुछ बाते आती हैं. इन बोलिओं के कुछ अन्तर्राष्ट्रीय किस्म के सम्मेलन भी होने लगे हैं. भाषाई अस्मिता के नाम पर इन भाषाओँ का कितना भला हो रहा है इस पर फिर कभी.
    इंग्लैण्ड का सूरज कहते हैं कभी डूबता नहीं था, जहां डूबा वहां वह अंगेजी की चमक छोड़ गया, जिसके फीके पड़ने के तब तक कोई आसार नहीं है जब तक किसी गैर अंग्रजी भाषा का सूरज फिर उसी तेज़ से न चमकने लगे.
    जहां अंग्रजी का साम्राज्यवाद एक वास्तविकता है हिंदी का साम्राज्वाद कल्पना. यह हिंदी के प्रभाव को रोकने की एक सुविचारित रणनीति है. हिंदी को अगर आप खड़ीबोली मानते हैं तो यह पश्चिमी उत्तर प्रदेश की भाषा ठहरी. क्या इस पश्चिमी-प्रदेश का उपनिवेश कभी शेष भारत था, या आज की हिंदी पट्टी पर क्या कभी इसका साम्रज्य था.
    साम्रज्यवाद से संघर्ष करते हुए इस देश राष्ट्रवाद का उदय हुआ. एक राष्ट्र की कोई राष्ट्रीय भाषा हो इसी अभिलाषा से बहुसंख्यक जनता द्वारा समझी जाने वाली हिंदी को राष्ट्र भाषा के रूम में सामने रखा गया. यह एक सम्मलित प्रयास था, न कि किसी खड़ी बोली के प्रचारकों का कोई साम्राज्यवाद. हिंदी के प्रारभिक साहित्यकारों पर नज़र डालें तो यह स्पष्ट हो जाता है.


    क्रम /लेखक /क्षेत्र/ भाषा
    1. शिव प्रसाद सितारे हिन्द/ बनारस/ भोजपुरी
    2. भारतेन्दु हरिश्चन्द्र्र /बनारस /भोजपुरी
    3. लाला श्रीनिवास दास /दिल्ली/ हिन्दी
    4. श्यामसुन्दरदास /बनारस /भोजपुरी
    5. किशोरीलाल गोस्वामी/ बनारस/ भोजपुरी
    6. जगन्नाथदास रत्नाकर/ बनारस/ भोजपुरी
    7. श्री पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी /रायपुर/ छत्तीसगढ़ी
    8. राधाचरण गोस्वामी/ वृन्दावन/ ब्रज
    9. बालमुकुन्द गुप्त/ रोहतक/ हरियाणवी
    10. बालकृष्ण भट्ट /इलाहाबाद /कन्नौजी
    11. चन्द्रधर शर्मा गुलेरी /जयपुर /मारवाड़ी
    12. बदरीनारायण चैधरी/ मिर्जापुर/ भोजपुरी
    13. प्रतापनारायण मिश्र /कानपुर /अवधी
    14. जगन्मोहन सिंह /मध्यप्रदेश/ बुन्देली
    15. रामचन्द्र शुक्ल /बस्ती /भोजपुरी
    16. महावीरप्रसाद द्विवेदी /रायबरेली/ अवधी
    17. श्रीधर पाठक /आगरा /ब्रज
    18. अयोध्यासिह उपाध्याय /आजमगढ़ /भोजपुरी
    19. मैथिलीशरण गुप्त चिरगांव/ झांसी/ बुन्देली
    20. माखनलाल चतुर्वेदी /होशंगाबाद म प्र /बुन्देली
    21. बालकृष्ण शर्मा नवीन/ ग्वालियर/ बुन्देली
    22. जयशंकर प्रसाद /बनारस/ भोजपुरी
    23. निराला /उन्नाव /अवधी
    24. पंत /अल्मोड़ा /पहाड़ी
    25. महादेवी वर्मा /फर्रूखाबाद/ ब्रज

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  26. ये और दुखद स्थिति है कि एक जर्मन विद्वान मैक्समूलर आपका इतिहास खंगालता है और दूसरा विदेशी आपकी भाषा छानकर सार-सार चुनकर थोथा उड़ाता है , जिसे आज के प्रसंगों में रखकर हम अपने को तुष्ट पाते हैं . रूस की ज़मीन पर जब हमारी राजदूत (विजयलक्ष्मी पंडित )पैर रखती हैं और अपना भाषण अंग्रेजी में देती हैं तो उन्हें ये सुनना पड़ता है कि क्या इस देश की अपनी कोई भाषा नहीं ..
    कहाँ से होगी ..?
    यहाँ धर्म , फिर जाति, भाषा , सम्प्रदाय , प्रांत अधिक महत्त्वपूर्ण हैं ...
    वल्लभभाई पटेल ने जो एकीकरण किया वह उस सफ़ेद हाथी की तरह है , जिसके हर अंग को हम अपनी तरह छूकर कभी केवल पूँछ , कभी सूंड आदि-आदि का अहसास करते हैं पर एक रूप में नहीं देखते ..
    देश का नाम : भारत .. Bharat that is India (संविधान कहता है )
    उसकी पहचान : अनेकता (एकता छद्म )
    उसका कोई हस्ताक्षर : कोई सील नहीं बनी आज तक .. लाल फीतों में बंद .
    उसका कोई प्रयास : राजनीति ,ब्यरोक्रेसी , लालफीताशाही , और जनता अपनी तरह प्रतिनिधित्व तलाशती

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  27. साहिब, नाम तो इससे भी अधिक गिनाये जा सकते हैं। नाम-वृद्धि आपकी तर्क-पुष्टि और हिंदीक-संतुष्टि के अनुक्रमानुपाती भी होगी। पर हम जैसे अत्यंत अल्पसंख्यक मूढ़ यही मानेंगे,
    १- हमारी मादरी जुबान हिंदी नहीं है। हमारी मादरी जुबान अवधी है।
    २- हिन्दी ने बहुतों को हमारी मादरी जुबानों से काटा है और काट रही है।
    ३- हम हिन्दी सामंत की गुलाम ‘बोलियाँ’ नहीं, बरन स्वतंत्र भाषाएँ रही हैं, खैर अब तो हिन्दी के संतोष-लाभ हेतु ये भाषाएँ मिटन-शील हैं।
    ४- हमारे लिये जैसे हिन्दी वैसे अंग्रेजी। जब अपनी माँ मरने को है, तो सब गैर की अम्मा को अपनी काहे कहूँ!, हाँ ५० साल बाद की पीढ़ी शायद इस दुविधा में न हो।
    ५- हिन्दी राजभाषा है, जनभाषा नहीं। हमारे इलाके के मजूर-किसान हिन्दी नहीं बोलते। साहित्यकारों की नेम-लिस्टिंग तो आपने खूब की, संभव हो तो इन मजूर-किसानों की भी नेम लिस्टिंग कर लीजियेगा, एक सर्वे जैसा कि कभी गियरसन साहिब ने किया था। जिनके बाद यह हिम्मत किसी हिन्दी बौद्धिक में नहीं हुई।
    ६- हिन्दी का साम्राज्य तो ऐसे ही फूल-फल रहा है, मिट तो हमारी भाषाएँ रही हैं, काहे लोड लेते हैं हम मूर्खों की बतकहियों का! :-)
    .
    सादर..!

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  28. भाई मेरे... खतरा तो हिंदी के मिटने का भी है. हिंदी की ताकत तो यही उसकी सहोदर भाषाएँ हैं. इसी ताकत के बल पर ही तो कभी वह ज्ञान - विज्ञान-विवेक , संवेदना और कला की भाषा बनने की इच्छा रखती थी. इन भाषओं के विकास और समृद्धि में ही उसका हित है. सवाल यह है कि क्या हिंदी इन भाषाओँ का शोषण कर रही है.....क्या हिंदी ने अवधी के तुलसीदास को जन जन तक नहीं पहुँचाया.. पद्मावत को अपने हृदय में नहीं रखा... हिंदी का सबकुछ तो इन्ही भाषाओं से है. भक्तिकाल इन्ही भाषाओं में पुष्पित हुआ. क्या एक अवधी भाषी के लिए हिंदी सीखने और अंगेजी सीखने में कोई फर्क नहीं है...क्या किसी अवधी भाषी के हिंदी को दोयम माना गया है ? शायद नहीं......
    मुझे लगता है अपनी अपनी माँ-भाषाओँ को बचाते हुए हम हिंदी को भी बचाते है....
    आप तो महावीरप्रसाद दिवेदी और निराला के क्षेत्र के हैं .. आप से हिंदी के लिए क्या कहना...

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  29. प्रिय कवि आदरणीय नरेश सक्सेना जी का साक्षात्कार वाकई आनन्ददायक है। "समालोचन' को, अरुण जी को तथा साक्षात्कार लिखने वालों को बधाई।

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  30. ये बातचीत ऐतिहासिक और बेहद अपनी भी है ! नरेशजी ऐसे कवि हैं जो सभी कवियों को ठीक उनके स्थान से जानते हैं ! सच उन्हें सुनते रहना अपने आप को कविता के साथ होने जैसा सुख है ! ज्योत्स्ना अपर्णा मनोज और सुशीला पुरी को बहुत बहुत धन्यवाद !

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  31. आज यह साक्षात्कार पढ़ा..नरेश जी सच में ऐसे कवि हैं जिनसे मुहब्बत का बाइस सिर्फ उनका कविकर्म है...

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  32. रोचक वार्ता पर और भी रोचक टिप्पणियां पढ़ने को मिलीं। ज्योत्सना जी को बधाई।

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