कथा- गाथा : बहुरूपिया : राकेश बिहारी

कृति : Egon Schiele












राकेश बिहारी आलोचक के साथ साथ हिंदी के समर्थ कथाकार भी हैं. उनके दो कहानी संग्रह- ‘वह सपने बेचता था’ तथा ‘गौरतलब कहानियाँ’ प्रकाशित हैं.

प्रस्तुत कहानी साहित्य में उस आखेटक प्रवृत्ति को केंद्र में रख लिखी गयी है जो युवा स्त्रियों का शिकार करती है.  एक वरिष्ठ साहित्यकार एक पाठिका से संदेशों  के आदान-प्रदान में इतने अन्तरंग हो जाते हैं कि न्यूनतम मर्यादा भी भूल जाते हैं. अंत में उनका ‘बैंड बजता’ है. राकेश बिहारी ने उस विद्रूप विडम्बना का दिलचस्प ढंग से चित्रण किया है.




कहानी
बहुरूपिया                                        
राकेश बिहारी

(इस कहानी का किसी वास्तविक व्यक्ति के जीवन से कोई प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संबंध नहीं है. किसी जीवित या मृत व्यक्ति के जीवन की घटनाओं से इस कहानी के किसी भी साम्य को महज संयोग समझा जाये.)




र्तिका की आँखों से गिरती आंसू की बूंदें नीलिमा की बाँहों पर तेजाब-सी पड़ रही थीं. वह हतप्रभ थी.  क्या भाषा में प्रेम और संवेदना के मनोरम फूल खिलाने वाला कोई महाकवि भीतर से इतना कुरूप और अश्लील हो सकता है? आए दिन खबरिया चैनलों और शहर-दर-शहर सभा-सेमीनारों के मंचों पर सार्वजनिक बुद्धिजीवी की तरह लच्छेदार भाषण करने वाला ख्यात कवि मिथिलेशवाचस्पति, जो कभी राजस्व सेवा का शीर्षस्थ अधिकारी था,आजकल एक प्रकाशन  संस्थान का मुख्य सलाहकार है. यह सोच कर उसे हैरत हुई थी कि नखदंतविहीन होने के बाद इस तरह शिकार पर निकलने वाला यह घाघ कवि अपने पद और रुतवे के युवा दिनों में क्या करता होगा... प्रकटतः कुछ सांत्वना भरे शब्दों के साथ वर्तिका के आँसू पोंछते हुये नीलिमा ने मन ही मन संकल्प किया- जिस कविता-प्रेम ने उसकी सबसे अच्छी सहेली को इतना रुलाया है, उन्हीं कविताओं के सहारे वह उस बुड्ढे का बैंड बजा देगी.प्रबंधन और लोक प्रशासन विषयों के साथ सिविल सर्विसेज की तैयारी करने वाली नीलिमा ने उसी दिन से ढूंढ-ढूंढ कर प्रेम कवितायें पढ़ना शुरू कर दिया था.

कुछ ही दिनों बात होली आई थी. कॉलोनी के किशोर-किशोरियाँ झुंड बना कर होली खेलने निकल रहे थे. दूर क्लब के लाउडस्पीकर से तेज़ आवाज़ में होली के परिचित गानों की निकलने वाली धुनें सड़क के दोनों किनारे खड़े कदंब और शीशम के बृक्षों से टकरा कर चारों दिशाओं में गूंज रही थीं. नीलिमा की माँ मिसेज परवाल रसोई में मालपूये तल रही थीं और नीलिमा ड्राइंग रूम में बैठी नेट पर प्रेम कवितायें तलाशती हुई दोस्तों के शुभकामना संदेशों का जवाब दे रही थी. उसे याद आया, पिछले दिनों उसकी सहेली समीक्षा,जो हिन्दी में एम.. करने के बाद इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ मास कम्यूनिकेशन से पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही है, ने बताया था कि हिन्दी समय डॉट कॉम पर तमाम लेखकों-कवियों के परिचय उपलब्ध हैं. नीलिमा ने वहीं से मिथिलेश वाचस्पति का नंबर लिया. हिन्दी समय डॉट कॉम पर उसकी तस्वीर देखते ही उसे वर्तिका की रो-रो कर सूजी हुई लाल और उदास आँखें याद हो आई थीं. मन ही मन मिथिलेश वाचस्पति को गालियां देती हुई नीलिमा ने अपनी मोबाइल में उसका नंबर ‘कुत्ता कवि’ नाम से सुरक्षित किया और पिछले तीन महीने में अर्जित अपने कविता ज्ञान का उपयोग करते हुये मोबाइल पर एक संदेश टाइप करने लगी-

आओ
जैसे अंधेरा आता है अंधेरे के पास
जैसे जल मिलता है जल से
जैसे रोशनी घुलती है रोशनी से...
नमस्ते! कैसे हैं?
आपकी अनगिनत प्रशंसिकाओं में से एक
नीलिमा

संदेश टाइप करने के बाद नीलिमा ने उसे दो-तीन बार सावधानी से पढ़ा था ताकि वर्तनी की कोई अशुद्धि न रह जाये और कुछ पल रुक कर गुस्से से उसे [i]घूरने के बाद सेंड का बटन ऐसे दबाया था जैसे रिवॉल्वर से गोली दाग रही हो.
लगभग दस मिनट के बाद नीलिमा की मोबाइल में सुसुप्त पड़ी हरी रोशनी थरथराहट के साथ जागृत हुई-

मुझे लो, जैसे जल लेता है चंद्रमा को
जैसे अंधेरा लेता है जड़ों को
जैसे अनंत लेता है समय को
अच्छा हूँ. प्रतीक्षारत हूँ.
मिथिलेश वाचस्पति

प्रतीक्षारत शब्द पर नीलिमा ठिठकी थी. निमिष भर को उसे मिथिलेश वाचस्पति की शब्दों की बाजीगरी पर गुस्सा आया था पर अगले ही पल होठों पर फैली एक तिर्यक मुस्कान के साथ बिना किसी देरी के उसने जवाब जड़ दिया था – ऐसा न कहें कविवर! प्रतीक्षा में होना तो प्रशंसकों का धर्म है! पर आपने ऐसा कह कर इस नाचीज को होली पर जैसे ईदी दे दीहै.

नीलिमा अभी इस बात की कल्पना ही कर पाती कि एक प्रशंसिका के भाषा कौशल पर मुग्ध उस कुत्ता कवि ने किस तरह अपनी जीभ लपलपाई होगी कि उसका मोबाइल एक बार पुनः हरे कंपन से भर उठा-

‘आप जैसी शब्दसमृद्ध प्रशंसिका के संदेश से आज मेरा दिन सुंदर हो गया! आप कहाँ हैं? दिल्ली में या कहीं और? यूं तो आप सहसा मेरे अंदर प्रवेश कर गई हैं, फिर भी कहाँ हैं?’

‘दिल्ली तो मेरे लिए बहुत दूर है मेरे कवि! पर जिस सहजता से आपने अपनी इस प्रशंसिका को  स्वीकार किया है, मुझे अपने भाग्य पर भरोसा नहीं हो रहा. जिस कवि के सुंदर शब्दों को अपने रोम-रोम में बसाये न जाने कबसे किसी कस्तूरी मृग की तरह बेचैन घूम रही हूँ,उस कवि के भीतर मैं सहसा प्रवेश कर गई! यह सच तो है न कविवर? मेरा चिरसंचित स्वप्न क्या सचमुच साकार हो गया है? मैं खुद को चिकोटी काटकर देखना चाहती हूँ... कहीं मैं स्वप्न तो नहीं देख रही, मेरे कवि?’ – स्कूल के दिनों से ही साहित्य में किसी तरह पास होनेवाली नीलिमा को जैसे अपनी ही भाषा पर भरोसा नहीं हो रहा. पल भर को उसने सोचा कि यह अबतक पढ़ी गईं प्रेम कविताओं का असर है या फिर वर्तिका की सोहबत का जो उसके संवाद इतने नाटकीय और भावनात्मक हुये जा रहे हैं!

मिथिलेश वाचस्पति के ठंडे पड़े नसों में नीलिमा के शब्दों ने जैसे अचानक से एक नई जुंबिश घोल दी थी.  एक अनाम पुलक के आवेग से भर उसने मन ही मन कहा- चिकोटी तो खुद को मैं काट के देखना चाहता हूँ नीलम प्रिये... और उसकी काँपती उँगलियों ने नई ऊर्जा के साथ उत्तर टाइप करना शुरू कर दिया– ‘अपने चिरसंचित स्वप्न को तुम सहसा सच में बदलते देख रही हो, नीलिमा! मेरी प्रेम कविताओं को ऐसी अंतरंगता से बहुत थोड़े ही लोगों ने पढ़ा-समझा है. मेरी होली आज तुम्हारे कारण सचमुच बहुत सुंदर हो गई! और हाँ, दिल्ली इतनी भी दूर नहीं नीलिमे! जब हम इतने पास आ गए हैं तो दिल्ली क्या? कवि और कविप्रिया कबतक दूर रह सकते हैं...?’ किंचित असमंजस के बाद मिथिलेश वाचस्पति ने अपने संवाद को बुलेट ट्रेन की गति से दौड़ जाने दिया.

मिथिलेश वाचस्पति की दुस्साहसी और अधीर गतिशीलता ने नीलिमा को जितना गुस्से से भरा उतना ही इस बात के लिए आश्वस्त भी किया कि वह बिलकुल सही दिशा में बढ़ रही है...‘ आपकी सहजता ने मुझे हृदय की अतल गहराइयों तक अभिभूत कर दिया है कवि! लेकिन मैं तो आज आपको पाकर भी अधूरी ही रह गई. कवि के रंगों के बिना कविप्रिया की कैसी होली?’

मेरे सारे रंग आज तुम्हारे ही लिए हैं नीलमप्रिये! बताओं कौन सा रंग लगाऊँ...? कहाँ...? कैसे...?आज इस कवि के सारे रंग कविप्रिया पर आसक्त हैं...

रंग का वक्त तो बीत चुका मरे कवि! इससे पहले कि गुलाल का समय भी बीत जाये, मेरे समीप आओ, तुम्हारे गालों पर अपने उरोजों से गुलाल मल दूँ!’ नीलिमा की साँसें अचानक बहुत तेज हो गई थीं... नहीं, वह इस तरह कैसे किसी को लिख सकती है... एक अजनबी कवि से बात करने के रोमांच पर सहसा एक अनाम भय की चादर-सी बिछ गई... उसने चाहा कि वह उस संदेश को रोक ले पर ‘तीर कमान से, बात जुबान से और प्राण शरीर से...’ की तरह उसका यह संदेश आउट बॉक्स से निकल चुका था. भय और संकोच से भरी नीलिमा ने अपनी कापती उँगलियों से मोबाइल स्विच ऑफ कर दिया. 

मिथिलेश वाचस्पति की आँखें फटी की फटी रह गईं... इस बार उसने सचमुच खुद को चिकोटी काटी... नहीं, वह कोई स्वप्न नहीं देख रहा. नीलिमा किसी इन्द्रलोक से उतर कर साक्षात उस तक चली आई है. उसने सोचा, पूरे जीवन के कविता-कर्म का मानदेय उसे इकट्ठा ही मिल गया है. ड्राइंग रूम के सेल्फ में करीने से सजे मानपत्रों, ताम्रपत्रों और सम्मान में मिले तमाम स्मृति चिन्हों की चमक उसके लिए सहसा बढ़ गई थी... आवेग और उत्तेजना से थरथराते कवि ने अपनी कविप्रिया को एक पर एक कई संदेश भेजे पर जवाब में उसकी मोबाइल के स्क्रीन पर देरतक कोई रोशनी नहीं चमकी. व्यग्रता में बार-बार उठा कर मोबाइल का इनबॉक्स चेक किया पर स्थिति यथावत बनी रही... एक बार तो उसकी इच्छा हुई कि फोन ही कर लें लेकिन दूसरी तरफ किसी और की उपस्थिति की अज्ञात आशंका ने उसे ऐसा नहीं करने दिया.

बेचैनी से भरा मिथिलेश वाचस्पति टेबल पर रखे तांबे के जग से निकाल कर दो ग्लास पानी पीने के बाद प्रतीक्षा से लबालब भराकमरे में ही चहलकदमी करने लगा. कवि की नजर ड्रेसिंग टेबल में जड़े आदमक़द आरसी पर गई और वह रुक कर अपनी प्रतिछवि निहारने लगा. आज ही सुबह उसने दाढ़ी बनाई थी. चेहरा क्लीन था. पर उम्र के साथ त्वचा में उग आया ढीलापन चेहरे पर साफ नज़र आ रहा था. कनपटी के ऊपर बालों की सफेदी देख कवि को बाबा तुलसी की याद हो आई... क्षण भर को लगा जैसे वे खुद राजा दशरथ हो गए हैं और हाथ में आईना लिए अपने सफ़ेद बालों को देख रहे हैं... ‘राय सुभाय मुकुरु कर लीन्हा, बदन बिलोक मुकुट सम कीन्हा. श्रवण समीप भए सित केसा. मनहुं जरठपन अस उपदेसा...’ जरठपन के उपदेश की स्मृति होते ही मिथिलेश वाचस्पति ने खुद को बरजा- ‘दशरथ ही सुनें ऐसे उपदेश... मेरे जीवन में तो नीलिमा है...  पर क्या नीलिमा मेरे सफ़ेद बाल और ढीली पड़ चुकी त्वचा को स्वीकार कर पाएगी...?’ मिथिलेश वाचस्पति की उत्तेजना पर जैसे किसी ने एक अदृश्य गांठ लगा दी थी. उसने मेज के ड्राअर से दवाइयों की पेटिका निकाली, रेवाइटल का एक कैप्सूल निगला और वह ड्रेसिंग टेबल की दराज में हेयर डाई खोजने लगा...

देर शाम जब नीलिमा ने अपना मोबाइल ऑन किया मिथिलेश वाचस्पति के कुल चौदह संदेश एक पर एक किसी सैलाब की तरह उसके इनबॉक्स में आ पहुंचे. उन संवादों का हर्फ-हर्फ उसकी व्यग्रता और बेचैनी की गवाहियाँ दे रहा था. उसकी बेचैनी ने नीलिमा को एक खास तरह के संतोष से भर दिया. –
‘आपको सहसा सम्मुख पाकर वर्षों की संचित मेरी कामनाएँ पूरे आवेग के साथ मुखर हो गई थीं. पर आपके आभामंडल के आगे अपनी लघुता के अहसास ने मुझे एक अनाम भय से रोक दिया. आपकी कवितायें मुझे संयोग की अनगिनत अकल्पनाओं से समृद्ध करती रही हैं. उसी के आवेग में कुछ लिख गई. तब से संकोच और वर्जना में डूबी हुई हूँ. कुछ नहीं समझ आया तो घबराहट में मोबाइल ऑफ कर दिया था. मोबाइल ऑन करने पर आपके संदेश मिले. एक अजीब तरह की ग्लानि और अपराधबोध से भरी हुई हूँ. मुझे क्षमा कर दें मेरे कवि!’

नीलिमा का संदेश कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया था. उसने इसे तीन टुकड़ों में मिथिलेश वाचस्पति को भेज दिया.

नीलिमा के संदेशों ने मिथिलेश वाचस्पति को उसका सुकून लौटा दिया था. उसकी नसें एक बार फिर उम्मीद के गुलाबी प्रवाह से आपादमस्तक भर गई थीं. उसने जवाब देने में निमिष भर की देरी नहीं की. जवाब देते हुये उसके चेहरे पर तल्लीनता का ऐसा भाव था जैसे वह उँगलियों से नहीं अपनी नाभि से सन्देश टाइप कर रहा हो- ‘तुम्हारा संकोच सर्वथा स्वाभाविक है. प्रेम की अपनी आभा होती है, मैं तुम्हारे शब्द-शब्द में उस आभा को महसूस कर रहा हूँ. अपने को खुला छोड़ दो मेरे लिए. जो भी मन में हैं, वह निस्संकोच कहो, करो नीलिमा!’

‘आपके संदेश ने मुझे जैसे अचानक से भारहीन कर दिया है. आपकी सहजताओं को जीते हुये मुझ पर  आपकी कविताओं के नए अर्थ खुल रहे हैं. सहजता प्रेम की सहचरी है और आप साक्षात प्रेम की प्रतिमूर्ति!’ नीलिमा के संदेश की आभा में मिथिलेश वाचस्पति का चेहरा नहा-सा उठा था. उसके चेहरे पर हरदम व्याप्त रहनेवाली लोलुपता कुछ देर को जैसे बालसुलभ परितृप्ति में बदलगई थी.’

‘मैं सच में अभिभूत हूँ. मैं सोच भी नहीं सकता था कि कहीं तुम जैसा कोई है जो मेरी कविताओं से और उस कारण मुझसे इतना प्यार करता है. यह मेरी सबसे सुंदर रंगभरी होली है.’

‘आपका स्वीकार मेरे लिए होली का उपहार है. इसके लिए आभार शब्द बहुत छोटा होगा.‘

नीलिमा के संदेश पढ़ते हुये मिथिलेश वाचस्पति ने अपनी शिराओं में एक गुनगुना-सा प्रवाह महूस किया. बाहर आसमान में उतर रहे अंधेरे से बेखबर उसकी ढीली त्वचा पर एक नूर फैलने लगा था.  उसे लगा जैसे वह दुनिया की हर भाषा में लिखी गई तमाम प्रेम कविताओं का नायक हो गया है और नीलिमा इस ब्रह्मांड की अकेली नायिका है. नीलिमामय मिथिलेश वाचस्पति मोबाइल स्क्रीन पर एक कविता उकेरने लगा-

‘सुनो चारुशीला!
एक रंग और एक रंग मिलकर एक ही रंग होता है
एक बादल और एक बादल मिलकर एक ही बादल होता है
एक नदी और एक नदी मिलकर एक ही नदी होती है
नदी नहीं होंगे हम
बादल नहीं होंगे हम
रंग नहीं होंगे तो फिर क्या होंगे
अच्छा जरा सोचकर बताओ
कि एक मैं और तुम मिलकर कितने हुये…’

नीलिमा हमेशा साहित्य से कटी-कटी रहती थी. कविता-कहानी को बैठे ठालों का भावोच्छ्वास मानती थी. लेकिन दुनिया भर की प्रेम कवितायें तलाशते-खंगालते कब उसके भीतर कविताओं का आस्वादक पैदा हो गया उसे भी नहीं पता चला. पल भर को वह मिथिलेश वाचस्पति की कविताओं में खो-सी गई. लेकिन अगले ही पल उसे अपना वह संकल्प याद हो आया – जिस कविता-प्रेम ने उसकी सबसे अच्छी सहेली को इतना रुलाया है, उन्हीं कविताओं के सहारे वह उस बुड्ढे का बैंड बजा देगी.अपने संकल्प की स्मृति होते ही नीलिमा ने एक पर एक कई कविताएं मिथिलेश वाचस्पति को भेज डाली -

‘मुझको प्यास के पहाड़ों पर लिटा दो
जहाँ मैं एक झरने की तरह तड़प रहा हूँ
मुझको सूरज की किरणों में जलने दो
ताकि उसकी आंच और लपट में तुम फौवारेकी तरह नाचो
मुझे जंगली फूलों की तरह ओस से टपकने दो
ताकि उनकी दबी हुई खुशबू से अपने पलकों की उनींदी जलन को तुम भिगा सको...’

मिथिलेश वाचस्पति विस्मित था, नीलिमा की स्मृति और अपनी कविताओं दोनों पर. उसे बहुत शिद्दत से अहसास हुआ कि वह प्यास के पहाड़ों पर लेटा हुआ है और नीलिमा उस मीठे झरने की तरह प्रकट हुई है जिसका उसे जाने कब से इंतज़ार था...

कृति : Egon Schiele


‘ओ, माई गर्ल! यू हैव सो मेनी पोयम्स ऑफ माइन्स इन यू. आई एम ऑलरेडी इन यू. यू शुड बी इन मी पावरफुली, वाइटली, मेमोरेबली... लेट अस पजेज़ एंड प्रीजर्व इच अदर...’

‘आ गए न अपनी औकात पर... हिन्दी का एक महाकवि प्यार के वक्त अङ्ग्रेज़ी के आँचल में दुबक गया... हिन्दी फिल्मों की कमाई खाने वाले उन मुंबइया कलाकारों से अलग कहाँ हो तुम जो अवार्ड हासिल करने के बाद अपने करोड़ों चाहने वालों का शुक्रिया अदा करते हुये मुस्कुरानेके लिए भी अङ्ग्रेज़ी की ही शरण लेते हैं...’
मिथिलेश वाचस्पति सहम-सा गया था. उसे नीलिमा से ऐसे शब्दों की उम्मीद कदापि नहीं थी. वह अचानक ही कहीं वह हाथ से निकाल न जाये की प्रतीति से भर गया और खुद को संयत करते हुये  बात को संभालने की कोशिश की...तुम्हारे भाषा प्रेम पर मैं मुग्ध हूँ. तुमने खुद को प्यार किए जाने का एक और कारण मुझे दे दिया है. तुम ठीक कह रही हो,सच्चा प्यार तो अपनी भाषा में ही किया जा सकता है. मेरे शब्दों से तुम्हारी तरह प्यार करनेवाला कोई दूसरा याद नहीं आता. इन शब्दों के कवि को कितना प्यार करोगी चारुशीले?’
मिथिलेश वाचस्पति के चतुर शब्दों के पीछे छिपे उसके भय को नीलिमा ने पढ़ लिया था. उसने उसे सहज करने के लिए इस बार फिर उसे एक कविता भेजी-

‘मैं मींच कर आँखें
कि जैसे क्षितिज
तुमको खोजता हूँ.
ओ हमारे सांस के सूर्य!
सांस की गंगा
अनवरत बह रही है
तुम कहाँ डूबे हुये हो?’

नीलिमा के उत्तर की सहजता ने मिथिलेश वाचस्पति को उत्साहित किया था- ‘मुझे लग रहा है कि हमें अब एक मांसल भरे-पूरे स्पेस की अपने बीच रचना करनी चाहिए. तुम पागल, मैं उत्तेजित यह सुंदर और अप्रत्याशित है.’

मिथिलेश वाचस्पति के शब्द नीलिमा के लिए किसी झटके से कम नहीं थे. उसे वर्तिका की बातें याद हो आईं. उसे भी वह कविप्रिया और चारुशीला जैसे शब्दों से ही संबोधित करता थाऔर अब यह पूरा का पूरा संदेश!बिलकुल वही, शब्द-दर-शब्द... मिथिलेश वाचस्पति के इन्हीं शब्दों से तो वह आहत हुई थी. उसने ठीक ही तो कहा था वर्तिका से कि यह कवि किसी स्त्री को देखते ही इसी तरह लोलुप हो उठता होगा.  यह सोचते हुये कि उसने अबतक जाने कितनी स्त्रियॉं के आगे अपनी ये कुंठायें उड़ेली होंगी नीलिमा ने  मोबाइल स्वीच ऑफ कर दिया.

नीलिमा के लिए किसिम-किसिम की कल्पनाओं के रोमांच से दिन भर गुजरते कवि की रात बेचैनियों से भर गई थी. उसकी पत्नी पिछले ही सप्ताह कुछ दिनोंके लिए अपनी बहन के घरजाते हुये सेवक रघुवर शरण को आउट हाउस के बजाय ड्राइंग रूम में सोने का निर्देश दे गई थीं. यह कहते हुये कि आज देर रात तक उन्हें ड्राइंग रूम में कुछ जरूरी फिल्में देखनी हैं मिथिलेश वाचस्पति ने रघुवर शरण को आउट हाउस में भेज दिया. अपनी भाषा में प्रेम करने के कविप्रिया के आग्रह का हृदय से अनुपालन करते कवि के एकतरफा संदेशों की भाषा तत्सम,तद्भव की घुमावदार घाटियों से उतरती हुई देशज शब्दोंकी ‘चकारयुक्त’ तलहटियों तक पहुँच गई थी. मिथिलेश वाचस्पति जैसे नशे में था. संदेश टाइप करते हुये उसकी उँगलियों के पोर जलने लगे थे. प्रणय की उत्कट कामना से लरज़ता कवि मन ही मन नीलिमा की पारिवारिक स्थिति और असुविधाओं का खयाल करते हुये खुद को सांत्वना देने की कोशिश करता रहा. नीलिमा की मोबाइल किसी और के हाथ न हो की आशंकाओं के बीच अपने सुदीर्घ सार्वजनिक जीवन में आई तमाम देशी-विदेशी स्त्रियॉं को याद करते हुये मिथिलेश वाचस्पति ने मोबाइल को ज़ोर से अपनी बाईं मुट्ठी में भींच लिया था. तभी उसे हाल के दिनों में जगह-जगह लगी एक मोबाइल कंपनी के होर्डिंग्स पर चमकते  विज्ञापन की वह इबारत याद हो आई...कर लो दुनिया मुट्ठी मेंऔर उसके दाहिने हाथ की मुट्ठी गॉड हेल्प्स दोज हू हेल्प देमसेल्व्स के मुहावरे को चरितार्थ करने के लिए विकल हो उठी.

अगली सुबह नींद खुलते ही नीलिमा ने मोबाइल ऑन किया. इनबॉक्स मेँ थोक के भाव भरभरा कर गिरे संदेशों की भाषा ने नीलिमा को मिथिलेश वाचस्पति के प्रति नए सिरे से घृणा और गुस्से से भर दिया. उसके मुंह मेंढेर सारा थूक भर आया, वह वाश बेसिन तक गई, कुल्ला किया और मन ही मन मिथिलेश  वाचस्पति को एक भद्दी-सी गाली दी. अभी उसने मिथिलेश वाचस्पति को संदेश भेजने के लिए मोबाइल हाथ मेँ लिया ही था कि वह उसके इनबॉक्स मेँ हाजिर हो गया- ‘बीती विभावरी जाग री!’
‘नमस्ते! कैसे हैं? मोबाइल स्विच ऑफ कर लेने के लिए एक बार  पुनः शर्मिंदा हूँ. पर अचानक पति आ गए थे. क्या करती?’ -  पति शब्द ने पल भर को मिथिलेश वाचस्पति की तेज दौड़ती  बुलेट ट्रेन को झटके से रोक दिया था. यह सोच कर उसे दूर बैठे उस पति नामधारी जीव से ईर्ष्या-सी हुई थी कि जब बीती रात वह प्रेम की उत्कट अभिलाषा लिए सांस-सांस तड़प रहा था  यह पति नामक प्राणी उसकी कविप्रिया के साथ प्रेमरत रहा होगा. लेकिन अपनी पहली प्रेमिका सोनल जो कि अविवाहिता थी को याद करते हुये उसे नीलिमा के शादीशुदा होने का कहीं गहरे संतोष भी मिला. नीलिमा कम से कम उसकी तरह प्रणय के बाद परिणय की जिद पर तो नहीं उतर आएगी... कितनी मुश्किल से पीछा छुड़ाया था उसने सोनल से...

‘तुमने बिलकुल सही किया नीलिमा!. मुझे तुम्हारी बुद्धिमता पर प्यार आ रहा है. वैसे तुम्हारे पति क्या करते हैं?’

‘स्टेशनरी की दूकान है. अभी उनके लिए नाश्ता तैयार करना है. दस बजे उनके दूकान चले जाने के बाद मैसेज करूंगी. आप इस बीच कुछ मत लिखिएगा. मेरे संदेश की प्रतीक्षा कीजिएगा, मैं पहली फुर्सत में आपको मैसेज करूंगी.‘ मिथिलेश वाचस्पति के जवाब की प्रतीक्षा किए बिना नीलिमा ने मोबाइल रख दिया.

मिथिलेश वाचस्पति की खुशी का ठिकाना नहीं था. वह तो जैसे बादलों पर सवार था. उसने घड़ी पर नज़र दौड़ाई, दस बजने में अभी एक घंटा तेईस मिनट की देरी थी. यह उसके लिए प्राणायाम का समय था. अनुलोम-विलोम के दौरान हर एक सांस के आरोह-अवरोह में उसे नीलिमा की उपस्थिति का अहसास हो रहा था... जैसे साक्षात नीलिमा ही प्राणवायु की तरह उसके भीतर आ-जा रही हो... पद्मासन में बैठ जब उसने खुद को एकाग्र करने की कोशिश करते हुये आँखें बंद की, उसकी कल्पनाशीलता अपने चरम पर थी... उसे लगा जैसे वह किसी नदी के तट पर काव्य सृजन में तल्लीन है और दूसरे किनारे पर अपने सम्पूर्ण दिगंबर वैभव के साथ खड़ी नीलिमा जैसे उसी की प्रतीक्षा कर रही है... सहसा हरिवंश राय बच्चन की पंक्ति उसके रोम-रोम को पुलकित कर गई... ‘मधुर प्रतीक्षा ही जब इतनी प्रिय तुम आते तब क्या होता...?’

दस बजे के लिए वह खुद को ऐसे तैयार कर रहा था जैसे वह सचमुच नीलिमा के साथ डेट पर जाने वाला हो. नहाने के पूर्व उसने कुछ ही दिनों पहले मैसूर विश्वविद्यालय द्वारा आयोजित एक सेमीनार के दौरान उपहार स्वरूप प्राप्त मैसूर सैंडल सोप की नई-नकोर बट्टी निकाली. नहाने के बाद इंपोर्टेड बॉडी लोशन से अपनी त्वचा को एक नई नरमी बरती, पार्क एवेन्यू का पसंदीदा डीयो लगाया और कल ही लौंड्री से आय हुये कपड़ों में से एक रेशमी कुर्ता-पाजामा निकाल कर अपना वस्त्राभिषेक करने के बाद ड्रेसिंग टेबल के आगे आ खड़ा हुआ. उसकी ढीली पड़ चुकी त्वचा ने आज एक खास तरह का आत्मविश्वास ओढ़ लिया था. ड्राइंग रूम में आकर सोफ़े पर बैठते हुये उसने मोबाइल को हाथ में ले कर चूमा फिर उसे अपनी पलकों से ऐसे लगाया जैसे पहली बार नीलिमा की मुलायम उँगलियों को अपने प्यार का स्पर्श दे रहा हो... हमेशा की तरह रघुवर शरण कप, चम्मच और शुगरफ्री सहित चाय की केतली रख गया था. उसने आवाज़ देकर एक और कप मंगाई और दोनों कपों को अगल-बगल रखते हुये दरवाजे की तरफ कुछ इस तरह देखा जैसे अभी-अभी नीलिमा आएगी और वे दोनों साथ ही चाय पीएंगे.कवि उल्लसित था... प्रसन्न था... आतुर था... प्रतीक्षा में था... उसकी नज़रें सामने दीवार पर लगी घड़ी की सुइयों में उलझी थी. उधर घड़ी की सुइयों ने दस बजने का संकेत किया और इधर मोबाइल का हृदय नीलिमा के संदेश के साथ झंकृत हो उठा...

‘क्या कर रहे हो कवि...?’ नीलिमा ने जानबूझकर उसी संदेश को आगे बढ़ाया- ‘माफ कीजिएगा, क्या कर रहे हैं, कवि?’
‘इसमें माफी क्यों? तुम्हें तुम ही कहना चाहिए मुझे... उम्र और वय की सीमा से बहुत दूर, प्रेम तो बराबरी का रिश्ता है...’
‘सच कहूँ तो चाहती तो मैं भी हूँ, लेकिन ‘तुम्हारी’, नहीं-नहीं... ‘आपकी’ उम्र को देखते हुये मुझे यह शोभा नहीं देता.‘
क्या औपचारिकता प्रेम को शोभा देती है?
नीलिमा ने बात को बिना कोई तूल दिये कवि के इसरार पर अपनी स्वीकृति की सील लगा दी... ‘तुम भी न!’
नीलिमा के संक्षिप्त संवाद की कलात्मकता पर रीझते हुये मिथिलेश वाचस्पति ने पेंग आगे बढ़ाई –‘सोचता हूँ, जो इतना कम बोलती है, उसकी आवाज कितनी मीठी होगी.‘
‘चाहती तो मैं भी हूँ की तुम्हारी आवाज़ सुनूँ, लेकिन...’
‘लेकिन...? मैं अभी तुम्हारी इच्छा पूरी किए देता हूँ.’
‘माफ करना मेरे कवि, मैं बात नहीं कर पाऊँगी. घर में सास-ससुर हैं. मोबाइल साइलेंट रख कर मैसेज तो कर सकती हूँ, लेकिन...’
मिथिलेश वाचस्पति ने नीलिमा के शब्दों के पीछे छुपी विवशता को गहनता से महसूस करते हुये लिखा था... ‘बताओ, मैं तुम्हारी मदद कैसे कर सकता हूँ? तुम कहाँ रहती हो?’
‘तुम मेरी मदद करना चाहते हो यह मेरा सौभाग्य है.‘ नीलिमा ने जानबूझ कर उसके दूसरे प्रश्न को अनुत्तरित छोड़ दिया.
‘यह तो बताओ प्रिये कि तुम कहाँ रहती हो? और हाँ, निराश होनेकी जरूरत नहीं, कोई न कोई रास्ता अवश्य निकलेगा.’

नीलिमा असमंजस में थी... सही जगह बता दिया तो कहीं यह घर तक न आ धमके... पर गलत भी कैसे बताए... कहीं उसने मोबाइल नंबर की लोकेशन ट्रेस की तो...? मिथिलेश वाचस्पति से बातचीत करते हुये पहली बार नीलिमा थोड़ा परेशान हुई...  क्यों न वह जिला मुख्यालय का नाम ही लिख दे. यह न झूठ होगा न सच... वैसे भी जिला मुखयालय उसके कस्बे से कोई चालीस किलोमीटर दूर है... आ भी गया तो यहाँ तक नहीं पहुँच पाएगा... नीलिमा अभी इसी उधेड़बुन में थी कि मिथिलेश वाचस्पति के तीन मैसेज एक के बाद एक आ पहुंचे...

‘कहाँ गई प्रिये?’
‘चारुशीले!’
‘नीलिमाआआआ!!!’

मिथिलेश वाचस्पति की आकुलता ने एक बार फिर से नीलिमा को सहज कर दिया था. उसने भी उसी तरह के गतिधर्मी शिल्प में एक के बाद एक तीन मैसेज जड़ दिये...

‘बाथरूम गई थी.’
‘तनिक धीरज तो रखो मेरे कवि!’
‘सिंगरौली, मध्य प्रदेश में रहती हूँ.’

बाथरूम की बात सुनते ही एक बार फिर मिथिलेश वाचस्पति बादलों के रथ पर सवार हो गया... उसे लगा जैसे वह मेघदूत है और नितंबों से सरके वस्त्र को अपने हाथों से सम्हालती नीलिमा साक्षात गंभीरा नदी, जिसके तट से नीला जल उतरने के बाद उसे बेंत की झुकी हुई डालियाँ छू रही हैं. अबतक दर्जनों स्त्रियॉं के निर्वसनदेह-तट के आस्वाद ग्रहण कर चुका मिथिलेश वाचस्पति अपनी इन कल्पनाओं में ठहर-सा गया था...

“तस्याः किंचितकरधृतमिव प्राप्तवानीरशाखं
नीत्वा नीलं सलिलवसनं मुक्तरोघोनितम्बम. 
प्रस्थानं ते कथमपि सखे! लम्बमानस्य भावि
शातास्वादो विवृतजघनां को विहातुंग समूर्थः॥”

कालिदास के मेघदूतम की पंक्तियाँ अपने सम्पूर्ण अर्थ-वैभव के साथ कवि के अणु-अणु में साकार हो रही थीं. उसने सोचा कविता शब्दों से केलि है... केलि यानी पूर्वरंग...जैसे चुंबन, स्पर्श, कुचमर्दन... और हाँ, जब कोई कविता पाठक के मर्म को भेद दे तो वह शब्दों से संभोग है...कविता की इस अनुपम परिभाषा को आविष्कृत करते हुये मिथिलेश वाचस्पति मन ही मन कविकुलकुरु कालिदास का धन्यवाद ही कर रहा था कि मोबाइल पर संदेश प्राप्ति की सूचना ने उसे अपने ड्राइंग रूम में ला दिया.

‘चुप क्यों ही गए मेरे कवि? कविप्रिया के दूरस्थ होने ने निराश तो नहीं कर दिया?’

‘जब कवि और कविप्रिया के हृदयो के तार इस अंतरंगता से जुड़े हों तो भौगोलिक दूरी मायने नहीं रखती. मैं तो सिंगरौली की यादों में खो गया था.’
‘क्या आप जानते हैं सिंगरौली को...?’ नीलिमा ने सोचा कहीं स्थान का नाम बता कर उसने कोई गलती तो नहीं कर दी?
‘सिंगरौली को कौन नहीं जानता... निर्मल वर्मा ने कभी सिंगरौली पर एक बहुत खूबसूरत किताब लिखी थी. मिले तो कभी पढ़ो उसे. हाँ, नौकरी के शुरुआती कुछ साल मैं रीवा में पदस्थापित भी था.  इसलिए सिंगरौली सुनते ही अतीत की स्मृतियाँ किसी पुराने प्रेम की तरह ताज़ा हो गई...’
कवि के शब्दों ने नीलिमा की बढ़ आई आशंकाओं पर विराम लगा दिया था... ‘पुराने प्रेम की तरह...? या फिर कोई पुराना प्रेम ही याद हो आया?’
‘तुमसे प्रेम करता हूँ, झूठ नहीं कहूँगा. दस-बारह वर्षों से अकेला हूँ. पत्नी हैं, पर उनके साथ भी प्रणय नहीं. इतना लंबा जीवन है तो प्रेम भी कई किए... देश और विदेश दोनों जगह... मेरे संबंध ज्यादातर नृत्य और ललितकला की दुनिया की स्त्रियॉं से रहे हैं. पर अब सिर्फ तुम, नीलिमे!’
‘पत्नी के साथ ऐसा क्यों?’
‘उम्र भी कोई चीज होती है नीलिमा!’
सारी दोपहर नीलिमा इसी तरह के छोटे-छोटे प्रश्नों से मिथिलेश वाचस्पति को उकसाती रही और वह अपने जीवन के ‘वीरगाथा काल’ के तमाम किस्से रीतिकालीन सौंदर्य वैभव के साथ रस-ले-ले कर सुनाता हुआ बीच-बीच में अपना प्रणय निवेदन कभी संकेतों में तो कभी प्रत्यक्षत: दुहराता रहा. जब नीलिमा ने खाना बनाने की बात करते हुये जाने की बात की तो कवि एक बार फिर से मनुहार पर उतर आया... ‘प्रिये शेष बहुत है बात अभी मत जाओ...’
नीलिमा ने एक नए अर्थबोध के साथ बच्चनजी की ही एक पंक्ति से जवाब दिया था... ‘क्या तुंझ तक ही जीवन समाप्त?’
‘जाओ, पर एक आग्रह है...’
‘क्या?’
‘आज रात सोने के पहले तुम्हारी आवाज़ सुनना चाहता हूँ...’
‘मैंने कहा न इतना निरापद नहीं है यह मेरे लिए...’
‘प्लीज... बस एक बार...’
‘तुम्हारी इच्छा नहीं पूरी करके मैं खुद से शर्मिंदा हूँ कवि! पर तुम चाहो तो एक कम कर सकती हूँ...’
‘क्या?’ मिथिलेश वाचस्पति अधीर हुआ जा रहा था.
‘रात को सोने के पहले अपनी सांसें सुना सकती हूँ... लेकिन एक शर्त है...’
अपने आग्रह और नीलिमा की शर्त के बीच उसके साँसों की कल्पना करता कवि इस वक्त किसी भी बात के लिए तैयार हो सकता था. उसने बिना किसी देरी के कहा- ‘बोलो, तुम्हारी हर शर्त मंजूर है.’
‘मैं चाहती हूँ, मेरे साँसों को तुम अपनी एक नई कविता का उपहार दो... एक कविता अपनी कविप्रिया के लिए लिखो.’
‘जरूर लिखूंगा.’
‘तुम अपनी सांसें सुनाना... मैं तुम्हें कवितायें सुनाऊँगा...’
‘तो फिर इजाजत दो अभी... रात को ठीक साढ़े दस बजे मैसेज करूंगी...’
‘जाते-जाते एक नखशिख चुंबन तो कर लूँ चारुशीले!’...नीलिमा जा चुकी थी.

नीलिमा के प्यार से आप्लावित मिथिलेश वाचस्पति शाम की चाय के साथ लिखने की मेज पर था. खुद से मुखातिब उसने सोचा-‘कहाँ से आई है यह सुंदरी...? किस आकाश से...? किस नक्षत्र से...? ऐसी शब्दप्रिया तो आजतक मुझे कोई नहीं मिली... अबतक जो भी मेरे जीवन में आईं, सब कुछ न कुछ चाहतीथीं... किसी को नौकरी चाहिए थी... किसी को मनचाही जगह पोस्टिंग... खुद मैंने भी बढ़कर किसी को फ़ेलोशिप दिलाई, किसी को पुरस्कार दिलवाया... कुछ की पाण्डुलिपियों की अनुशंसा की तो  कुछ की कवितायें सुधारी...  और बदले में आकंठ रस से डूबा रहा... लेकिन नीलिमा को मुझसे कुछ नहीं चाहिए... यह तो मेरी मदद की पेशकश पर भी चुप रही. यह मुझ तक सिर्फ मेरी कविताओं के रास्ते चल कर आई है...’नीलिमा के इस व्यवहार से वह जितना खुश और विस्मित था, उतना ही भारहीन भी... जीवन की संध्या में प्रेम के इस अद्भुत आस्वादन की संभावनाओं में डूबे कवि ने उस शाम जाने कितने पन्नों पर कुछ शब्द लिखे, काटे और कचरा पेटी में फेंक दिया. जाने यह उसकी उत्तेजना का प्रभाव था या नीलिमा जैसी अभूतपूर्व प्रेमिका के वैभव का दबाव, अपनी भाषा में एक समर्थ प्रेम कवि के रूप में वर्षों से ख्यात मिथिलेश वाचस्पति आज अपनी प्रेमिका को उपहार देने के लिए एक कविता लिखने में खुद को असमर्थ पा रहा था.

बहुत देर की मशक्कत के बाद मिथिलेश वाचस्पति ने एक कविता लिखी. नीलिमा की नीली आभा में आपादमस्तक डूबा खुद को ही बोल-बोल कर कई बार उस कविता को सुनाया और आश्वस्त होने के बाद नीलिमा को याद करते हुये कागज के उस टुकड़े को अपनी पलकों से लगाकर रात के साढ़े दस बजे तक के लिए मेज की दराज में सुरक्षित रख दिया.

रात्रि भोजन के तुरंत बाद मिथिलेश वाचस्पति ने आज भी रघुवर शरण को आउट हाउस में भेज दिया. ठीक साढ़े दस बजे उसकी मोबाइल का दिल धड़का–‘दृगम्बु आ दुकूल में!’
कविप्रिया के विलक्षण व्यंजनाबोध पर कवि एक बार फिर मुग्ध था. कोई आँसू की तरह अपनी आँखों में बुलाये, प्रेम में आमंत्रण का इससे ज्यादा स्पर्शी व भावप्रवण तरीका और क्या हो सकता है. कवि ने कविप्रिया के संदेश की कलात्मकता का पूरा सम्मान करते हुये उत्तर लिखा-  

‘घड़ी दो घड़ी मुझको पलकों पे रख
यहाँ आते-आते जमाने लगे.‘

पिछले कुछ महीनों में प्रेम कवितायें पढ़ते हुये नीलिमा को बशीर बद्र की जाने कितनी गज़लें जुबानी याद हो गई थीं. एक बार उसका मन हुआ कि वह उत्तर में उनकी इसी गजल का दूसरा शेर लिख दे- ‘हुई शाम यादों के इक गाँव में / परिंदे उदासी के आने लगे’ लेकिन ‘कुत्ता-कवि’ की कुपात्रता ने उसे ऐसा करने से रोक दिया और उसने लिखा- “बहुत हुई तुम्हारी शायरी... जल्दी कॉल करो. बाथरूम में हूँ. और हाँ, याद है न समय सिर्फ दस मिनट हैं मेरे पास. जिसमें तीन मिनट बीत चुके हैं.‘ नीलिमा के शब्द में परिहास से ज्यादा तल्खी थी.

मिथिलेश वाचस्पति का दिल बहुत तेज गति से धड़क रहा था. अपनी साँसों को सम पर लाने की असफल कोशिश करते हुये उसने नीलिमा को फोन लगाया. अभी एक भी रिंग पूरी नहीं हुई थी कि दूसरी तरफ से फोन उठ गया...
मिथिलेश वाचस्पति ने अपनी आवाज़ में एक खास तरह की लरज़ घोलते हुये कहा- ‘नीलिमा! कैसी हो प्रिये? कहाँ रही इतने दिनों?’

जवाब में जब नीलिमा ने कुछ गहरी सांसें भेजी तो कवि को याद आया कि उसे तो कविता सुनानी थी और नीलिमा को सिर्फ सांसें... हड़बड़ी में उसने मेज की दराज से अपनी कविता निकाली और बहुत ही नाटकीय अंदाज़ में पढ़ने लगा...

‘अपने ऊपर औंधे पड़े आकाश की छाया में
हरित धरती ने ओढ़ ली है उसकी नीलिमा
धरती की सम्पूर्ण काया को अनावृत्त करते हुये
आकाश खोजता है
नक्षत्रों की तरह दीप्त गोलार्द्ध
एक पर्वत उतर रहा है हरी उपत्यका में
आकाश की नीलिमा गहराती है
उत्तेजित हो काँपती है हवा
आकाश द्रवित होता है
और कुछ देर के लिए सो जाता है.’

कवि ने महसूस किया कि उसकी कविता ने नीलिमा की साँसों को उत्तेजित कर दिया है और वह उसकी ऊष्मा में पिघला जा रहा है... ‘यह उपहार कैसा लगा प्रिये, जरूर बताना.’
‘नीलिमा, तुम्हारी सांसें मुझे ही पुकार रही हैं न?’

‘तुम्हारी हर सांस पर मैं अपने चुंबन टाँक रहा हूँ, इसे महसूस करो नीलिमा! इस वक्त मेरा  अणु-अणु तुम्हें ही पुकार रहा है.  मैं सिंगरौली को पुकारता हूँ... रिहंद डैम के विस्तार को पुकारता हूँ... रीवा के किले के कंगूरे को पुकारता हूँ... उन सभी जगहों को पुकारता हूँ जहां-जहां तुम जा चुकी हो, रह चुकी हो... तुम्हारे वक्षों में फुदकती नन्ही गौरैयों को पुकारता हूँ... तुम्हारे कुचों के खट्टेपन को पुकारता हूँ... तुम्हारे श्यामल चिकुर-जालों को पुकारता हूँ... नीलिमा! मेरी रतिप्रिया! कवि के शब्दों को आज कविप्रिया ने अपनी सांसें दी हैं... यह पल इतिहास में अमर हो गया...’

दो चार और गहरी तथा तेज सांसें सुनाने के बाद नीलिमा ने फोन काट दिया. मिथिलेश वाचस्पति को इसका इल्म तब हुआ जब उसके हाथ में कैद मोबाइल ने संदेश प्राप्त होने की सूचना दी... ‘कमरे में जा रही हूँ. अब कोई मैसेज मत भेजना. कल बात होगी. शुभरात्रि! 

नींद जैसे मिथिलेश वाचस्पति की आँखों का रास्ता भूल गई थी. कभी करवटें बदलते तो कभी कमरे में चहलकदमी करते कवि को लग रहा था जैसे वह  नीलिमा की साँसों से विनिर्मित किसी वाष्पागार में पहुँच गया हो. उसकी साँसों की आवाज़ जैसे उसके कानों से गुजरती हुई उसके सीने मैं कैद हो गई थी. उसे सूझ नहीं रहा था कि क्या करे... फ्लैट से नीचे उतर कर सोसायटी के लॉन में टहलने चला जाये...एफ एम पर पुराने फिल्मी गीत सुने या कि मेघदूतम का सस्वर पाठ करे... कुछ देर अलग-अलग विकल्पों पर सोचने के बाद वह बाथरूम में घुस गया. कोई पंद्रह मिनट बाद जब वह शावर ले कर कमरे में लौटा उसके पैरों में बिरजू महाराज की थिरकन शामिल हो आई थी. उसने म्यूजिक सिस्टम पर बहुत ही धीमी आवाज़ में पंडित हरि प्रसाद चौरसिया की बांसुरी लगा दी और पिछले दिनों आई पत्रिकाओं के पन्ने पलटने लगा... उसकी नज़रें एक कविता  पर ठिठक गईं-

‘सारी रात
सोया पड़ा रहा चाँद
मेरे सिरहाने
भोर तक जागती रही मैं...
कितने सारे पंख उड़े
कितनी नदियां भर गईं लबालब
पुराने गाढ़े शहद से भर गया मुख
मेरी देह धरती की गोलाई में सिमट गई
असंख्य दिल हवा में धड़के
हमने पाया एक दूसरे को वैसे ही 
जैसे आसमान...  जैसे मेघ...
जैसे तुम्हारे चुंबनों से भीगे मेरे होठ...’

कवि ने गौर किया यह निवेदिता की कविता थी... उसे लगा जैसे निवेदिता की जगह अनायास ही नीलिमा का नाम उग आया है... तो क्या सुदूर सिंगरौली के अपने शयन कक्ष में नीलिमा भी अभी उसी की तरह जाग रही होगी...? 
अगले दिन नीलिमा का संदेश देर से आया- ‘कल बड़ी मुश्किल से बची... उन्होने कमरे में आते ही मोबाइल मांग लिया था. वो तो अच्छा हुआ कि बाथरूम से मैं सारे संदेश मिटा कर आई थी.’
‘थैंक गॉड! मैं तो कहने ही वाला था कि सारे संदेश हाथ के हाथ मिटा दिया करो, नहीं तो डैंजरस हो सकता है. वैसे भी तुम्हारे उत्कट साहस पर मैं चकित हूँ. जो सुरक्षित है वही करो.’
‘हाँ. मैं आज बगल के एक लड़के से कह कर नया सिम मँगवा रही हूँ. इस नंबर से ज्यादा बात करना ठीक नहीं..’
‘तुमने सही सोचा है. जितनी जल्दी हो सके नया सिम ले लो.’ .
‘खैर, रात नींद अच्छी आई? नीलिमा ने जैसे मिथिलेश वाचस्पति को मीठी-सी चिकोटी काटी थी.‘
‘नींद ही कहाँ आई कि अच्छी या बुरी कह सकूँ... तुमने ऐसी प्यास जगा दी कि...’
‘मेरे बूढ़े कवि! कभी इस भूख-प्यास से कुछ इतर भी सोच पाते हो क्या तुम?’
मिथिलेश वाचस्पति को अपनी उम्र का पूरा अंदाजा था लेकिन नीलिमा के मुंह से बूढ़े कवि  सुनकर उसे बहुत बुरा लगा. उसने बातचीत की दिशा बदलनी चाही- ‘तुमने मेरे उपहार के बारे में कुछ नहीं कहा. कैसी लगी कविता?’
‘सोचा था कुछ नहीं कहूँगी. पर जब तुमने पूछ ही लिया है तो झूठ नहीं कह पाऊँगी...वह कविता कम तुम्हारी कुंठाओं का वमन ज्यादा लग रही थी...’ नीलिमा ने कवि को ज़ोर का झटका ज़ोर से ही दिया था.
मिथिलेश वाचस्पति ने अपने पाँच दशकीय कवि जीवन में  अपनी कविताओं की ऐसी सीधी आलोचना कभी नहीं सुनी थी. वह आहत था. उसे कुछ सूझ नहीं रहा था कि क्या कहे. नीलिमा ने उसकी चुप्पी को पढ़ते हुये उसे पुचकारा- ‘लेकिन तुमने मेरे लिए कुछ लिखने की कोशिश की इस बात की प्रशंसा करती हूँ. काश तुम समझ पाते कि मेरे भीतर एक बौद्धिक पिपासा भी है.’
नीलिमा के इन शब्दों ने कवि को थोड़ी राहत दी थी... ‘दरअसल तुम्हारा मिलना इतना अकस्मात और सुन्दर है कि तुम्हारे सिवाइन दिनों कुछ और सूझता ही नहीं.’
‘जो सुन्दर है उसे सहेज कर रखो कवि! इतनी व्यग्रता शीघ्र ऊब का कारण बनेगी.’
‘तुम लिखती भी हो? तुम्हारी भाषा मुझ शब्दविपुल कवि को भी चकित करती है.’
‘काश मैं भी कुछ लिख पाती! लेकिन पढ़ने का सुख भी कुछ कम नहीं होता.‘
कृति : Egon Schiele

‘लिखा भी करो... और अब तो तुम्हारा कवि भी तुम्हारे साथ है. तुम एक सफल लेखक बन सको इसके लिए मुझसे जो भी संभव होगा करूंगा.’ मिथिलेश वाचस्पति ने सोच समझ कर उस फार्मूले का इस्तेमाल किया था, जिसके जाल में अमूमन नई यशाकांक्षिणी लेखिकाएं आसानी से आ जाती हैं.
‘शुक्रिया मेरे कवि!’ नीलिमा ने थोड़ी देर पहले मिथिलेश वाचस्पति को दिये घाव पर जैसे मरहम का लेप लगाया था.
मिथिलेश वाचस्पति नीलिमा के व्यवहार से किंचित परेशान था. उसे वह बहुत अप्रत्याशित लग रही थी. जाने कब चिकोटी काट ले और कब रुई के नरम फाहे-सी हो जाये. मन ही मन नीलिमा के व्यक्तित्व व व्यवहार की समीक्षा करता कवि अपने भीतर संचित सारे साहसों को बटोरते हुये एक बार फिर कविप्रिया से मुखातिब था- ‘हम कब मिल रहे हैं? कितनी जल्दी और कहाँ?
तुम्हारी इस व्यग्रता के कारण जितना मैं तुमसे प्यार करती हूँ. उतना ही मुझे भय भी होता है... ‘काश तुम समझा पाते कि मैं साहित्य की राजधानी दिल्ली में रहनेवाली कोई लेखिका नहीं जिसके लिए कहीं भी आना-जाना बहुत सुलभ होता है. मैं मध्य प्रदेश के छोटे से जिले में रहने वाली एक मध्यवर्गीय गृहिणी हूँ, मेरे कवि!’
‘समझा सकता हूँ. कोई बहाना चाहिए तो सोचें?’
‘बहाना?’
‘हाँ, बहाना ही... कोई सेमिनार या कल्पित आयोजन...  इस तरह तुम्हारे आने-जाने और ठहरने की व्यवस्था भी हो जाएगी.’
’यह गुड्डे-गुड़िया का खेल नहीं है मेरे नखदंतविहीन कवि! तुम्हारी दिल्ली तक आना मेरे लिए संभव नहीं.’
नीलिमा के सम्बोधन से एक बार फिर मिथिलेश वाचस्पति तिलमिला गया था. पर तिलमिलाने के सिवा वह कर भी क्या सकता था?  बस इतना ही कह पाया- ‘तो जबतक उचित अवसर खुद ही चलकर आए, हम शब्दों से ही काम चलाते हैं.‘ कवि के शब्दों में तंज़, खीज और कुंठा के भाव समवेत रूप से शामिल थे.
कविप्रिया ने अपना जवाब उसी शिल्प में भेज दिया- ‘तुम्हारे शब्द-सामर्थ्य से पूरी तरफ वाकिफ हूँ मेरे कवि! बोलो और क्या चाहते हो इन शब्दों के माध्यम से?’
‘चारुशीले! तुम्हारा जलाभिषेक करने को मेरे शब्द व्यग्र हुये जा रहे हैं... ये तुम्हारे अंतरतम को, गर्भ की अतल गहराइयों तक छूना चाहते हैं.’
‘तुम जो चाहो कहो, करो... तुम्हें किसने रोका है कवि?’
‘रोका नहीं, पर आमंत्रित भी तो नहीं किया मेरी रतिप्रिया!’
‘तुमने आमंत्रण की प्रतीक्षा ही कब की है...  संकोच का केंचुल तुमने कब से धारण कर लिया मेरे वृद्ध कवि?’
वृद्ध कवि के सम्बोधन को किसी गरल घूँट की तरह पीकर मिथिलेश वाचस्पति ने अपनी अमृत-कामना प्रकट की थी- ‘मैं अभी तुम्हारी नाभि के नीचे चूम रहा हूँ.... ठीक इसी वक्त तुम क्या कर रही हो नीलमप्रिये?’
‘बुरा मत मानना मेरे कवि! अभी तो बहुत ज़ोर की बाथरूम लग रही है... अपना मुंह हटाओ... जाने दो मुझे,वर्ना अनर्थ हो जाएगा...’ कविप्रिया के संदेश के संकेतार्थों ने कवि का जायका बिगाड़ दिया था... जीवन में जाने कब-कब और कितनी तरह की अवमानाएँ उसे झेलनी पड़ी थी, पर अपमान का इतना कड़वा घूंट वह पहली बार पी रहा था....

कदम-दर-कदम किसी कुशल सेनापति की तरह ब्यूह रचना करती नीलिमा मिथिलेश वाचस्पति के लिजलिजेपन से हतप्रभ थी.... जीवन मेँ कभी उसका साहित्य से अनुराग नहीं रहा, पर पिछले कुछ महीनों में कविताओं की खूबसूरत दुनिया से गुजरते हुये उसने खुद को नए सिरे से आविष्कृत किया था... साहित्य के अपरिमित खजानों को देख कई बार वह भीतर तक उदास हो जाती... जीवन के कितने सारे कीमती वर्ष उसने यों ही गुजार दिये... कविता उसकी नज़र में सबसे बड़ी पाठशाला का दर्जा ले चुकी थी.  पर कवियों की जिस सुदीर्घ परंपरा ने साहित्य के प्रति उसके पूर्वाग्रहों को ध्वस्त कर उसे ज़िंदगी की नई अर्थ-छवियों से परिचित कराया उसके आगे  मिथिलेश वाचस्पति का नाम देख वह गहन तकलीफ से भर जाती थी... वर्तिका की निर्दोष बातें अक्सर उसका रास्ता रोक खड़ी हो जातीं...’`जरूर मुझी में कोई कमी होगी... उनसे बात करते हुये मेरे शब्दों का चयन ही गलत रहा होगा कि उन्होने मेरे लिए ऐसा सोच लिया...’ नीलिमा ने मिथिलेश वाचस्पति की रंगीनीयों के कई किस्से सुन रखे थे. पर वर्तिका के लिए तो वह किसी दूसरी दुनिया से उतर कर आया कोई दिव्य पुरुष था... संवेदनाओं का शास्वत पुंज! जिसकी आभा के आगे वह ठीक से आँखें भी न खोल पाती थी... नीलिमा ने सोचा वर्तिका इस तरह की अकेली लड़की नहीं है... कविताओं की रौशन दुनिया से गुजरते हुये कई बार किसी सर्जक की वैसी ही प्रतिमा उसके मन में भी तो बन उठती है... और तब मिथिलेश वाचस्पति की कुंठाओं पर एक बार जैसे उसे ही भरोसा करने को जी नहीं चाहता... पर जो सच दिन की रोशनी की तरह साफ है उससे मुंह भी कैसे फेरा जा सकता है? एक कवि की इस तरह अवमानना करना खुद उसे भी अछा नहीं लगता, लेकिन मिथिलेश वाचस्पति की लपलपाती अधीरताएं उसे गुस्से और नफरत से भर देती हैं...

मिथिलेश वाचस्पति की चुप्पी को महसूस करते हुये नीलिमा ने यह समझ लिया था कि परिहास के लिबास मेँ लिपटी अपमान की ध्वनियाँ शब्दविपुल कवि तक ठीक से संप्रेषित हो चुकी हैं. अपमान की तीखी धूप से झुलसे कवि के चेहरे पर कविप्रिया ने केवड़े का जल छिड़का था- ‘अगले महीने की तेईस तारीख को किसी शादी मेँ शामिल होने के लिए जबलपुर जा रही हूँ.‘

मिथिलेश वाचस्पति के मुंह मेँ अनायास ही घुल आया अविश्वास का शहद उसके शब्दों तक उतर आया था... ‘तुम कोई परिहास तो नहीं कर रही हो चारुशीले?’
‘शंका मत करो मेरे कवि!’

‘तो क्या कवि और कविप्रिया नर्मदानगरी में मिल सकते हैं?’ कुछ ही पल पहले के अपमान को भूल मिथिलेश वाचस्पति एक बार पुनः उम्मीद और नाटकीयता से भरे कौतूहल सिरजने लगा था.
‘चाहती तो मैं भी हूँ ... दो-चार घंटे शॉपिंग वगैरह के बहाने निकल भी सकती हूँ, लेकिन डर लगता है. कहीं किसी को पता चल गया तो....’
‘मेरे रहते तुम्हें डरने की कोई जरूरत नहीं है. मैं आ जाऊंगा... किसी अच्छे और सुरक्षित होटल मेँ रुकूँगा...’

‘इधर मैं सोच कर ही भय से कांप रही हूँ और तुम हो कि होटल तक पहुँच गए...’मिथिलेश वाचस्पति ने टेबल कैलेंडर का पन्ना पलटा... अगले महीने की तेईस तारीख पर गोल घेरा लगाते हुये उसने मन ही मन गणना की... आजसे ठीक 29 दिन और...

‘इस बुढ़ापे मेँ ऐसी आतुरता...’ नीलिमा आगे लिखना चाहती थी- ‘शोभा नहीं देती’, पर रहने दिया.
कवि एक बार फिर तिलमिलाया, लेकिन अभी इसमें उलझ कर वह समय नहीं गंवाना चाहता था... ‘तुम्हारी चिंता समझ सकता हूँ नीलिमा...पर यकीन करो निराश नहीं करूंगा, प्रिये!’
उस शाम नीलिमा जा कर भी जैसे नहीं गई थी... कवि अपनी कल्पनाओं में देर तक उससे बतियाता हुआ कब नींद के आगोश मेँ समा गया उसे पता भी नहीं चला...
29 दिन जैसे पंख लगा कर उड़ गए थे...
‘दरस परस को तरस रही हूँ...’ जब नीलिमा का संदेश आया मिथिलेश वाचस्पति होटल में चेक इन कर रहा था.
‘कह रहा जग वासनामय हो रहा उद्गार मेरा... होटल समदड़िया, रसेल चौक...आने से पहले फोन कर लेना, मैं रिसेप्शन तक आ जाऊंगा.’
कमरे में आने से लेकर अबतक के बीच मिथिलेश वाचस्पति ने एक के बाद एक चार बार चाय बनाई...  अनपियी चाय हर बार प्याली में ठंडी होती रही... उत्तेजना और प्रतीक्षा के तीन घंटे उसके लिए जैसे तीन युग हो गए थे कि तभी मोबाइल की धड़कन कमरे में दाखिल हुई... टेक्नोसेवी महाकवि ने आज के दिन को खास बनाने के लिए मोबाइल में एक खास रिंगटोन सेट कर लिया था... ‘मुझे माफ कर देना कवि, मैं नहीं आ पाऊँगी... मेरे पति अपने साथ ही बाज़ार चलने को कह रहे हैं... मैं डरी हुई हूँ... कहीं उन्हें कोई संदेह तो नहीं हो गया...’

मिथिलेश वाचस्पति के लिए नीलिमा का यह संदेश लहलहाती बालियों पर ओले गिरने जैसा था... उसे काठ मार गया... उसकी नसों का व्यग्र तनाव जैसे अचानक से ढीला पड़ गया था... कुछ मिनटों तक जड़वत बैठे होने के बाद बुझे हुये मन से उसने उत्तर लिखा –‘कोई बात नहीं, मेरा इंतज़ार और दो दिन बरवाद... पर फिर इंतज़ार...’ सेंड का बटन दबाते हुये उसने गौर किया कि यह नीलिमा का पुराना नंबर है... उसे आशंका हुई, फोन कहीं उसके पति के हाथ में न हो... उसने तुरंत ही दूसरा संदेश भजा- ‘सॉरी फॉर द रोंगली सेंट मैसेज.‘

होटल समदड़िया के सबसे खूबसूरत और महंगे सूट का सौंदर्य जैसे अचानक से फीका पड़ गया था... बेड के ठीक पीछे लगी मोनालिसा की पेंटिंग जैसे किसी शोक पत्र में बदल गई थी... मिथिलेश वाचस्पति का दम घुटा जा रहा था... कमरे में एक पल भी रुकना उसके लिए मुश्किल हुआ जा रहा था... उसने घड़ी पर नज़र दौड़ाई, एक घंटे बाद गोंडवाना एक्स्प्रेस का समय है... उसने अपने सामान समेटने शुरू कर दिये... लगेज में पड़े जापानी तेल की शीशी तथा वियाग्रा और फ्लेवर्ड कंडोम के पैकेट जिसे उसने खास इस अवसर के लिए खरीदा था, उसका मुंह चिढ़ा रहे थे... वात्स्यायन द्वारा वर्णित तमाम रति आसानों की कल्पनाओं से उसके मन में उठने-गिरने वाली तरंगे जैसे अचानक से निष्प्राण हो गई थीं... भरी आँखें और भारी हृदय के साथ मिथिलेश वाचस्पति ने उस पैकेट को अभी डस्टबिन के हवाले किया ही था कि उसके मोबाइल की घंटी बज उठी... नीलिमा कॉलिंग...उसे लगा नीलिमा रिसेप्शन पर पहुँच कर फोन कर रही  है और वह मैसेज उसने उसे जानबूझ कर परेशान करने के लिए भेजा था... उसे याद आया कैसे वह पल में चिकोटी काटती है और कैसे अगले ही पल रुई के नर्म फाहे बन जाती है... एक बार पुनः वह उम्मीदों से भर गया था. मोबाइल की घंटी लगातार बज रही थी... उसने डस्टबिन से वह पैकेट निकाला और फोन रिसीव करते ही बोल पड़ा... ‘मुझे विश्वास था तुम जरूर आओगी...’

उधर से किसी पुरुष की आवाज़ गूंजी थी- ‘मैं नीलिमा का पति हूँ. उसने मुझे सबकुछ बता दिया है... हम आपसे मिलने आ रहे हैं.’
‘अब इसके लिए वक्त नहीं. मैं अभी गोंडवाना से दिल्ली लौट रहा हूँ. ऑल द बेस्ट!’ मिथिलेश वाचस्पति के हाथ कांप रहे थे, उसने फोन काट दिया.
अपने पति की आवाज़ के साथ ही नीलिमा नीलेश के बाने में लौट आई थी...
दूसरे दिन नगर भवन पुस्तकालय के उद्यान में नीलेश ने वर्तिका के हाथ में अपना मोबाईल दिया- ‘लो, देख लो अपने महाकवि का असली चेहरा.‘

मिथिलेश वाचस्पति और नीलेश की चैट पढ़ते हुये वर्तिका गहरे आश्चर्य में थी... उसे भरोसा नहीं हो रहा था कि नीलेश इतनी सफाई से नीलिमा बन सकता है... उसे ज़ोर की हंसी आई... वर्तिका और नीलेश देर तक समवेत हँसते रहे... कि तभी अचानक से वर्तिका रुकी, अपनी  पर्स से मिथिलेश वाचस्पति की प्रतिनिधि कविताओं का संकलन निकाला... पुस्तक के आवरण पर प्रकाशित कवि की छवि को आग्नेय नेत्रों से देखा और देखते ही देखते उस किताब की चिंदी-चिंदी कर दी... आक्रोश से भरी वर्तिका अब रोए जा रही थी...नीलेश इस दृश्य को देख पहले भयभीत हुआ फिर एक गहरे संतोष से भर आया... वह खुश था कि वर्तिका एक अनावश्यक अपराधबोध से उबर आई है...  लेकिन अगले ही पल वह एक नई चिंता से भर उठा... अब वर्तिका का कहीं कविताओं से ही मोहभंग न हो जाये... मिथिलेश वाचस्पति की बैंड बजाने के लिए प्रेम कवितायें तलाशते हुये स्वप्न, उम्मीद और आस्वाद की जिस दुनिया से उसका परिचय हुआ था, वह नहीं चाहता था कि दुनिया का कोई भी व्यक्ति उससे दूर चला जाये, वर्तिका तो कतई नहीं...




(इस कहानी में प्रयुक्त कविताओं के लिए क्रमशः अशोक वाजपेयी, तुलसीदास, नरेश सक्सेना, शमशेर बहादुर सिंह, जयशंकर प्रसाद, हरिवंश राय बच्चन’, कालिदास, मैथिलीशरण गुप्त, बशीर बद्र और निवेदिता का हृदय से आभार!) 
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राकेश बिहारी

प्रतिष्ठित पत्रिकाओं में कहानियां एवं लेख प्रकाशित 
वह सपने बेचता था, गौरतलब कहानियाँ (कहानी-संग्रह) 
केन्द्र में कहानी (आलोचना) 
समालोचन के लिए कहानी केन्द्रित लेखमाला भूमंडलोत्तर कहानी 

सम्पादन : स्वप्न में वसंत (स्त्री यौनिकता की कहानियों का संचयन)
            पहली कहानी : पीढ़ियां साथ-साथ (निकट पत्रिका का विशेषांक)
            समय, समाज और भूमंडलोत्तर कहानी (संवेद पत्रिका का विशेषांक)
                बिहार और झारखंड मूल के स्त्री कथाकारों पर केन्द्रित 'अर्य संदेश' का विशेषांक
                अकार 41 (2014 की महत्वपूर्ण पुस्तकों पर केन्द्रित)
                रचना समय- कहानी विशेषांक दो खण्डों में (जनवरी-फरवरी तथा मार्च 2016) 
09425823033        
brakesh1110@gmail.com

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  1. अच्छी पठनीय कहानी। बधाई!

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  2. बहुत रोचक और मजेदार कहानी। बधाई राकेश जी

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  3. कितना बड़ा सच कितनी कलात्मकता के साथ

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  4. बहुत ही मजेदार और रोमांच से भरपूर कहानी.... और आज के सच का इतना सुंदर चित्रन....बधाई राकेश जी

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  5. राकेश बिहारी की कहानी एक महत्त्वपूर्ण अर्थ संकेत लिए हुए है। जीवन का पाखण्ड भाषा के पाखण्ड के रूप में प्रकट होता है, इस सच्चाई को रेखांकित करने में कहानी सफल है,जो समकालीन भाषा संस्कृति पर कहानीकार की गहरी पकड़ का सबूत है।
    इस कहानी पर चर्चा होनी चाहिए।
    हालांकि इस कहानी के केंद्रीय चरित्र की पहचान को लेकर चटखारे लेने की गुंजाइश भी है,लेकिन व्यक्ति की पहचान यहां अप्रसांगिक है। चर्चा कहानी पर हो तो अच्छा है।

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  6. अरुणेश शुक्ल24 जन॰ 2018, 9:29:00 pm

    Mazedaar kahani.bhasaha samvaad sb kamaal ke.prem kavita ki poori parampara bolti.mazedar yah ki kahanikar kavita ke paksh me khada hai.badhai ho dr sahab

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  7. यह कहानी महज एक लम्पट लेखक की कहानी नहीं है बल्कि साहित्य की दुनिया के एक दूसरे अँधेरे पक्ष की कहानी भी है जो इस अँधेरे पक्ष को एक मित्र के दुख से भावनात्मक रूप से आंदोलित होकर एक व्यक्ति के खिलाफ़ लड़ाई में बदलता है।लेकिन यहीं नहीं, कहानी इससे से भी आगे उस सच की रक्षा में प्रतिकार की मुद्रा में है, वह व्यक्ति जो साहित्य की दुनिया का नहीं है, वह साहित्य की पावनता और अर्थवत्ता के लिए चिंतित है।झ्स कहानी का अंत बड़े अर्थ प्रकट करता है। यह कहानी बड़े सरोकारों की कहानी है। कहानी का ट्रीटमेंट इसके नए अर्थ खोलता है।

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  8. कहानी की सबसे बड़ी उपलब्धि उसकी भाषा की कसावट और उसका प्रवाह है। कविताएँ सही अर्थों में अपने प्रयोग के साथ कविताएँ हैं। कहानी का ट्रीटमेंट मजेदार है। साथ ही पाठक के प्रतिसंसार की रुपरेखा तय कर देता है।विषय के साथ हल्के शब्दों के प्रयोग की बहुत गुंजाइश थी। लेकिन आपने तत्सम शब्दों का प्रयोग अच्छा किया है। शिष्ट साहित्य की अशिष्टता को उसकी भाषा में जवाब दिया गया है।साहित्यिक गलियारे में इस तरह के विषय पर अलग तरह की कहानी। कहानी का अंत कुछ और तरीके से सोचा जा सकता है। जो कि व्यक्तिगत प्रतिरोध न होकर इस तरह की पूरी बिरादरी के लिए सबक हो। अच्छी कहानी के लिए बधाई। ��

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  9. जबरदस्त कहानी ,भाषा इतनी संयमित और कसी हुई थी कि कहानी कहीं से भी ढीली नही पड़ी ।विषय तो जानदार और अलग था ही इसलिए आपकी लिखी अन्य कहानियों से निराली लगी ।शुभकामनाएं

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  10. रोचक कहानी है। जैसे शास्त्र-कवि और काव्य-कवि का विभाजन किया गया था वैसे आचार्य-कहानीकार तथा कथा-कहानीकार का विभाजन किया जा सकता है।
    राकेश बिहारी यहाँ आचार्य-कहानीकार के रूप में दिखाई पड़े हैं।
    यह कहानी पढ़ी जाती रहेगी।
    डर है कि यह राकेश बिहारी का संदर्भ न बन जाए...

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  11. भाई, गज्जब! कहानी का आइडिया, ट्रीटमेंट और भाषा-सब कमाल के हैं। मैसेजिंग की भाषा में तो राकेश ने जादू डाल दिया है (ऐसे संदेश लेने-देने का पुराना तजुर्बा तो नहीं!) एक ही चीज अखरी। नीलेश को शुरू से नीलिमा बनाकर कहानी को क्या हासिल हुआ? अगर पाठक उसे शुरू से नीलेश के रूप में ही जानता तो पूरे मैसेज एक्सचेंज का प्रकट औदात्य और निहित टुच्चापन अधिक मारक न हो जाता?

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  12. आशुतोष, सागर (म.प्र.)9 फ़र॰ 2018, 1:27:00 am

    एक जरूरी और शानदार कहानी के लिए बधाई स्वीकार करें।
    वैसे मिथिलेश वाचस्पति जैसे घटिया लोग तो हर जगह भरे पड़े हैं, पर साहित्य में इस तरह की लम्पटता को रचनात्मकता के लिए खाद-पानी मानने का अलिखित रिवाज सा है। इस तरह की प्रवृत्ति को राकेश जी ने वजनदार ढंग से बेपर्दा किया है।
    एक खास बात यह कि कहानी में भाषा भी एक पात्र की तरह काम करती है। भाषा से सफलतापूर्वक इस तरह का काम ले लेना किसी भी लेखक के लिए एक उपलब्धि हो सकती है।
    मुझे यकीन है कि यह कहानी अच्छे लोगों को खुशी से और "मिथिलेश वाचस्पतियों" को भय से भर देगी।
    आमीन..........!

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  13. रोचक और मारक कहानी। राकेश भाई को बधाई

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  14. बढ़िया कहानी। साहित्य की दुनियां की उन गलियों से परिचय कराती हुई,जो कहीं न कहीं सच के करीब है। बधाई।

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  15. कहानी बहुत रोचक है विशेषकर कहानी का अंत । यह कहानी साहित्य का सहारा लेकर खेलने की ओर भरपूर इशारा कर रही है। लोहे को लोहा ही काटता है कुछ इस तरह से कि सोशल मीडिया पर साहित्य की गंभीरता के बहाने मान प्रतिष्ठा जैसे शब्द कितने आभासी हैं। आज की हकीकत की बयानगी है कहानी। कथाकार को बधाई।

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  16. *हंस* पत्रिका के अप्रैल अंक में प्रियदर्शन की कहानी छपी है - _प्रतीक्षा का फल_ ।
    यह कहानी आश्चर्यजनक तरीके से राकेश बिहारी की कहानी बहुरूपिया से साम्यता रखती प्रतीत हुई। दोनों कहानियों के नायक कवि हैं, दिलफेंक रसिया। दोनों एक अनजान _युवती_ के प्रस्ताव से फिसलते हैं और फिर फिसलते जाते हैं।
    दोनों कहानियों के नायक सिद्धहस्त छलिया हैं, भाषा और चरित्र दोनों स्तरों पर।
    दोनों की परिणति एक-सी है।
    ये छली अच्छी तरह छले जाते हैं।
    इस प्रकट समानता के अतिरिक्त दोनों कहानियाँ अलग-अलग स्वभाव की हैं।
    मंजे हुए कहानी लेखकों की रचनाएं।
    को बड़ छोट कहत अपराधू।
    बस, इतना कि प्रियदर्शन की कहानी ज्यादा गढ़ी गई दिखी। सकारात्मक अर्थ में।
    राकेश बिहारी की कृति में स्वत:स्फूर्तता (spontaneity) अधिक है।

    कहना यह कि अब पाठक इन कहानियों को फिर से पढ़ें।
    एक ही विषय को दो रचनाकारों द्वारा बरते जाने के प्रसंग पर नवीं शताब्दी के काव्यशास्त्री राजशेखर के एक रूपक बालरामायण
    का स्मरण हो आया।
    नाटक के शुरू में
    सूत्रधार से पारिपार्श्विक प्रश्न करता है - "मुनिश्रेष्ठ वाल्मीकि द्वारा देखकर निबद्ध रामचरित की किस विशेष बात को यह कवि दिखाएगा ?"
    सूत्रधार का उत्तर है कि किसी (रचनाकार) की अभिरुचि, गति या विशेषज्ञता किसी क्षेत्र में होती है और किसी की भिन्न क्षेत्र में । प्रत्येक व्यक्ति/कवि प्रत्येक चीज़ को नहीं जानता -
    _क्वचित्कश्चित्प्रगल्भते नहि सर्वः सर्वं जानति।_

    वर्तिका की *सखी* छलिया कवि को _कुत्ता कवि_ टाइटिल से अपने मोबाइल में दर्ज करती है।
    कवि को कुत्ते से जोड़ने का काम सातवीं सदी के बाणभट्ट ने किया है-
    हर्षचरित प्रथम उच्छवास
    में बाण लिखते हैं कि कुत्तों की तरह कवि भी असंख्य हैं, घर घर गली गली में भरे पड़े हैं-
    सन्ति श्वान इवासंख्या जातिभाजो गृहे-गृहे।

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  17. Too good Bihari Sir...a stone in the cloud of literature...

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  18. I am stunned!
    So close to reality, such wonderful, precise use of language.

    The end is heartening and reassuring.

    This story should be prescribed text for creative writing classes.

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