भूमंडलोत्तर कहानी – १६ ( चोर - सिपाही : मो. आरिफ ) : राकेश बिहारी









युवा कथा आलोचक राकेश बिहारी के स्तम्भ ‘भूमंडलोत्तर कहानी विमर्श’ के अंतर्गत आपने- 

1. लापता नत्थू उर्फ दुनिया न माने’ (रवि बुले)
2. शिफ्ट+ कंट्रोल+आल्ट = डिलीट’ (आकांक्षा पारे)
3.  नाकोहस’(पुरुषोत्तम अग्रवाल)
4. अँगुरी में डसले बिया नगिनिया’ (अनुज)
5. पानी’ (मनोज कुमार पांडेय)
6.  कायांतर’ (जयश्री राय)
7. उत्तर प्रदेश की खिड़की’(विमल चन्द्र पाण्डेय)
8.   नीला घर’ (अपर्णा मनोज)
9.   दादी,मुल्तान और टच एण्ड गो’ (तरुण भटनागर)
10.    कउने खोतवा में लुकइलू’ (राकेश दुबे)
11.    ‘चौपड़े की चुड़ैलें’ (पंकज सुबीर)
12.    अधजली (सिनीवाली शर्मा)
13.   ‘जस्ट डांस’ (कैलाश वानखेड़े)
14.   'मन्नत टेलर्स’ (प्रज्ञा)
15.   कफन रिमिक्स’  (पंकज मित्र)

कहानियों की विवेचना पढ़ी. आज इस क्रम में प्रस्तुत है मो. आरिफ की चर्चित कहानी ‘चोर- सिपाही’ की विवेचना.


साम्प्रदायिकता चाहे बहुसंख्यक की हो या अल्पसंख्यक की दोनों भयावह और बुरे हैं और दोनों एक दूसरे के लिए खाद-पानी का काम करते हैं. मो. आरिफ की कहानी ‘चोर- सिपाही’ में दोनों मौजूद हैं और इसे वह एक बच्चे की निगाह से लिखते हैं. राकेश बिहारी ने इस कहानी की आलोचना में पत्र- शैली का प्रयोग किया है. कृति को परखने का यह रचनात्मक उपक्रम आपको पसंद आएगा.

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भूमंडलोत्तर कहानी – १६
सलीम का खत गुलनाज के नाम               
(संदर्भ: मोहम्मद आरिफ़ की कहानी चोर सिपाही)

राकेश बिहारी




प्यारी अप्पी,

मैं, सलीम! याद है न आपको, आपका फूफेरा भाई! जानता हूँ आप नाराज होंगी. आपको इस नाराजागी का पूरा हक भी है. अहमदाबाद से आए आज नौ साल से भी ज्यादा हो गए, मैंने आपको न कोई फोन किया न खत ही लिखा. और तो और आपने जो खत लिखा था उसका जवाब भी नहीं दिया. पर यकीन मानिए अप्पी, इस बीच मैंने एक पल के लिए भी आप सब को नहीं भुलाया. तब से आज तक कोई भी ऐसा दिन नहीं बीता जब मैंने आपका वह खत न पढ़ा हो. आपको हर रोज खत लिखना चाहता था पर हिम्मत नहीं हुई. आपके खत की आखिरी पंक्तियाँ, जो अब मेरी डायरी के साथ तद्भव नाम की एक पत्रिका में छप चुकी है, औरों को चाहे जितनी ठंडी लगती हों पर उनसे गुजरते हुये हर रोज मेरा सीना चाक हो जाता है पी एम के बारे में तो तुम्हें नहीं पता होगा. एक महीने तक अस्पताल में पड़े रहने के बाद 18 मई को उनकी डेथ हो गई. हमें डर था कि इसके बाद भारी हंगामा होगा लेकिन खुदा का शुक्र है कि ऐसा कुछ नहीं हुआ. उनकी सिस्टर मुझसे मिलने आई थीं. मुझसे लिपट कर बहुत रो रही थीं.

मैं नहीं जानता था कि पी एम यानी पराग मेहता की सिस्टर आपको जानती थीं. उन्होने अपना भाई खोया और आपने अपना प्रेमी. कभी लगता है मैं आप दोनों का गुनाहगार हूँ. काश! मैंने उस दिन आपसे यह नहीं कहा होता कि मेरा मन पतंग उड़ाने का कर रहा है... काश! आपने उस दिन पराग मेहता को फोन करके यह न कहा होता कि आपका फुफेरा भाई इलाहाबाद से आया हुआ है और वह उसके लिए अपनी तरफ से पतंगें लेता आए... काश! पी एम उस दिन हमारे तरफ न आए होते... आ भी गए तो काश! मस्जिद की तरफ से न गए होते... आपने कहा भी तो था उनसे... काश! आपने उस दिन झूठ न बोला होता कि आप उन्हें नहीं पहचानतीं... काश! काश! काश! जानती हैं, उस दिन मन ही मन मैं आपसे बहुत नाराज़ था. मेरा बालमन इस बात को नहीं समझ पाया था कि आपने ऐसा क्यों किया. 

आपको झूठ नहीं कहना चाहिए था या कि आपने झूठ क्यों कहा यह सोचते हुये सारी रात मैं सो भी नहीं सका था. आज नौ साल से ज्यादा हो गए उस रात को बीते पर वह दृश्य जैसे मेरी आँखों में ठहर सा गया है. वैसे यह तो आज भी लगता है कि आपको झूठ नहीं बोलना चाहिए था लेकिन आपकी विवशता अब समझ में आने लगी है. उस दिन पराग मेहता के ऊपर चिपकी आपकी आँखें जिस भय, और व्याकुलता से भरी थीं अब भी मेरी पुतलियों में ताज़ा हैं. मामी के दुबारा पूछने पर कि क्या आपने कहीं उसे देखा है आपने जो उत्तर दिया था और वह उत्तर देते हुये आपकी आँखों में खून और आँसू के मेल से जो रंग उतर आया था मुझे अब भी उसी तरह याद है-  नहीं अम्मी, नहीं देखा इसे कभी... लेकिन इन  लोगों ने इसे मारा क्यों? अब्बू से कहिए इसे बचा लें. ये लोग इसे मार डालेंगे. अम्मी आप अब्बू से कहिए... अम्मी प्लीज... अम्मी...

भय और दर्द में डूबी आपकी वह कातर आवाज़ अब भी मेरे कानों में गूज़ रही है अप्पी! जाने मुझे बार-बार क्यों लगता है कि आप उस दिन यह भी कहना चाहती थीं कि अम्मी यह वही पराग मेहता है...  मैं इससे ही प्यार करती हूँ... प्लीज अब्बू से कहिए इसे बचा लें... पर तब आपके भय ने आपको  जकड़ रखा था. मैं आपकी मजबूरी समझ सकता हूँ अप्पी, लेकिन फिर भी मन कचोटता है मेरा... यह भय कब तक टंगा रहेगा हमारे मन की खूंटियों पर...? बड़े मामू जो अपनी जान पर भी खेल कर लोगों की मदद करना जानते हैं, उस रात पराग मेहता के बचाव में खुलकर नहीं आ पाये थे. बस कुछ औपचारिक सी समझाइस के साथ उन्हें जाने दिया था. मामू ने भले ही ऊपर से कुछ जाहिर न होने दिया हो, पर अब मुझे लगता है कि उनका वह व्यवहार इसलिए ऐसा था क्योंकि उन्होने आपकी वह कातर आवाज़ सुन ली थी... आपने जो सच उस वक्त अपनी जुबान से बाहर नहीं आने दिया, पर जिसे आपकी मेमने सी आँखें और डरी हुई आवाज़ में आसानी से पढ़ा जा सकता था, ने कहीं उनके भीतर के खालिश पिता को तो नहीं जगा दिया था, जो अपनी तमाम प्रगतिशीलताओं के बावजूद भीतर के किसी कोने में अब भी एक मुसलमान ही था- थोड़ा बंद तो थोड़ा डरा हुआ भी... 

मामू के हाथ जो पतंगें आपने भिजवाई थीं, अब भी मेरे कमरे में महफूज हैं. इन्हें मैंने एक दिन भी नहीं उड़ाया. इन पतंगों में मुझे पी एम का चेहरा दिखता है... इनके रंगों की आभा में मुझे आपका वह फूलदार कुर्ता नज़र आता है जिसे उस दिन आपने खास पहन रखा था... आपकी हाँफती आवाज़ सुनाई पड़ती  है- सुनो-सुनो उधर मस्जिद की तरफ से मत जाना... आजकल उधर ठीक नहीं है... उधर गोल चौक की तरफ से निकल जाना... पहुँच कर मिस कॉल देना...मैं जब भी इन पतंगों को देखता हूँ मेरे जेहन में आपकी मोबाइल की स्क्रीन पर फातिमा कॉलिंग की चमकती हुई इबारत कौंध जाती है और उसके बाद आपका फोन लिए कोई कोना तलाशना बरबस याद आ जाता है... तब उस तरह कोने तलाशती आपको देख मैं मन ही मन किसी शरारती मुस्कुराहट से भीग जाता था पर अब तो उस बात की स्मृतियाँ भी मेरी साँसों में खौफ और उदासी का तीखा खारापन घोल जाती हैं... और अब तो इन पतंगों में आपकी और पी एम के सिस्टर की समवेत रुलाई भी शामिल हो गई है... कभी सोचता हूँ, हमारा इलाहाबाद भी किसी दिन अहमदाबाद हो जाये... मंदिर वाले किसी इलाके में मैं भी वैसे ही पकड़ा जाऊँ और खुदा न खासता किसी अस्पताल में मेरी भी उसी तरह डेथ हो जाये तो नीलम पर क्या बीतेगी? वह तो मेरी लाश तक को न देख पाएगी. 


आपने भले नीलम को  न देखा हो, आप भले उसे उस तरह नहीं जानती हों जैसे कि पी एम की सिस्टर आपको जानती थीं. लेकिन आप यह तो जानती हैं न कि वह मेरी सबसे अछी दोस्त है और मुझे अच्छी भी लगती है... मैं उसका नंबर दे रहा हूँ, कभी कुछ ऐसा हो गया तो उसे एक फोन जरूर कर लीजिएगा... और हाँ, आपको याद है, उस दिन जब आपके पूछने पर मैंने आपको यह बताया था कि नीलम मुझे अच्छी लगती है, आपने क्या कहा था?  तब भले न समझ आया हो कि आप ने उस दिन वैसा क्यों कहा था पर इस बीच आपका यह फुफेरा भाई पहले से बहुत समझदार हो गया है और इस बात को खूब समझता है कि अपने अनुभवों से उपजे उस सच को भला आप कैसे भूल सकती हैं जो जो एक छोटी से खामोशी के बाद आपकी जुबान तक आ गया था –‘किसी अच्छी-सी मुसलमान लड़की सेदोस्ती कर लो सलीम.

आपकी उस चुप्पी और समझाइस को आज मैं भले डिकोड कर पा रहा हूँ पर यह सवाल तो अब भी मेरे लिए पहेली ही बना हुआ है कि हम इंसान प्यार जैसे पाक अहसास को भी हिन्दू-मुसलमान में क्यो तब्दील कर देते हैं? हमने एजुकेशनल इन्स्टीच्यूशन के नाम पर बड़ी-बड़ी इमारतें तो बनवा लीं, आई आई टी, एम्स, आई आई एम जैसे न जाने कितने नामी संस्थान खोल लिए लेकिन अहसासों का मजहब तय करने का सिलसिला लगातार जारी है... और तो और, अब तो कुछ रहनुमाओं ने मोहब्बत की निशानी ताज को भी मुसलमान होने के खाते में डाल दिया है. बावजूद इसके मैंने अब भी उम्मीद नहीं छोड़ी है. जब कभी देश के किसी हिस्से से ऐसी खबरें आती हैं, मैं अपनी मोबाइल पर उस फोटो को निकाल कर देखता हूँ जिसमें मामू और उनके दोस्त मानसुख पटेल एक ही आइसक्रीम से मुंह लगा कर खा रहे हैं. नैनीताल की यह फोटो एक दिन मामू ने मुझे दिखाई थी. यह तस्वीर मुझे इतनी अच्छी लगी थी कि मैंने आते हुये उसे अपनी मोबाइल में कैद कर लिया था. तब मुझे कहाँ पता था कि यह तस्वीर कठिन दिनों में मेरे साथ सुकून की तरह रहेगी. 

जब से ताज को मुसलमान मान लेने की बात चर्चा में हैं मैंने उसी तस्वीर को अपनी फेसबुक और व्हाट्सऐप  का प्रोफ़ाइल पिक बना लिया है. मामू और मानसुख पटेल की यह तस्वीर मेरे पास न होती तो जाने मैं कैसे उस रात की घटना से उबर पाता. कई साल तक वह दृश्य पीछा करता रहा था मेरा. अब भी दंगे, तनाव, आगजनी, झड़प की खबर सुन कर वह दृश्य आँखों के आगे तैर जाता है...  बेड के नीचे दहशत से छुपे मामू, उनकी कमर से फिसल कर फर्श पर पड़ी वह रिवाल्वर जिसका लाइसेन्स लेने में कितनी परेशानियाँ झेलनी पड़ी थीं उन्हें... उन्हें इस कदर देख शर्मिंदगी में डूबे मानसुख पटेल का बमुश्किल उन्हें पुकार पाना और इन सबके बीच मामू की भय से निचुड़ी वह आवाज़ –‘मानसुख... मैं बाहर निकल सकता हूँ... कुछ करोगे तो नहीं? बचपन में एक ही आइसक्रीम से मुंह लगा कर खानेवाले दो दोस्तों को इस तरह आमने-सामने देख मेरे कोमल मन पर उस दिन भय और दहशत की जो छाया पड़ी थी उससे मुक्त होना बहुत मुश्किल है.

उन दिनों किस कदर डरे हुये थे न हम... चोर-सिपाही के खेल के दौरान छुपने को ईजाद किए गए कोने घर के एक-एक सदस्य की डर से सहमी साँसों को थामे चुप पड़े थे... आखिर वह कौन सी ऐसी हवा है जो बचपन में रोपे गए परस्पर आदर और भरोसे के उस पौधे को भी उस दिन आंधी बन उखाड़ ले गई थी? मैंने तो सोचा था यह सब कुछ दिनों की बात होगी. पर आपके उस छोटे से खत के वे शब्द मुझे कभी चैन से नहीं रहने देते –‘अब्बू की तबीयत नहीं ठीक रहती है. उसी दिन से जो खामोश हुये तो बस अपने में ही खोये रहते हैं. मानसुख अंकल से भी मिलने नहीं गए. न वही मिलने आए. दोनों एक दूसरे को फोन भी नहीं करते. अप्पी! आपके खत की इन पंक्तियों को मैंने काली स्याही से काट रखा है, पर उसकी इबारत जो मेरे मन पर छप गई है उसका क्या करूँ? दफ्तर की व्यस्तता और ज़िंदगी के झमेलों के बीच पांचों वक्त का नमाज तो नहीं अता कर पाता, पर हाँ, जुम्मे की नवाज मैं कभी नहीं भूलता. एच आर डिपार्टमेन्ट से खास इजाजत लेकर मैंने जुम्मे के दिन अपना लंच टाइम बदलवा लिया है. नमाज के वक्त दुआ में हाथ उठाते हुये मुझे मामू और मानसुख पटेल की वह आइसक्रीम वाली तस्वीर जरूर याद आती है. 

उनकी वह दोस्ती फिर से वापस लौट आए इसकी दुआ सालों से कर रहा हूँ... क्या अब उनके बीच बातचीत होती है? बचपन से सुनता आया हूँ कि सच्चे मन से की गई हर दुआ कबूल होती है. जाने मेरी दुआ ऊपरवाला कब कुबूल करेगा? छोटे मामू कहाँ हैं आजकल? क्या कर रहे हैं? क्या उनकी कोई खबर है? अम्मी बता रही थीं कि उन दिनों उन पर कुछ लोगों को सबक सिखाने का जैसे भूत सवार था और वे आपलोगों के साथ कनाडा नहीं जाना चाहते थे. रिवाल्वर का लाइसेन्स तो बड़े मामू ने लिया था लेकिन उनसे मुझे कभी डर नहीं लगा. पर छोटे मामू का संदेहास्पद तरीके से घर से निकल जाना, उनकी तलाश में बार-बार थाने से फोन आना... मानसुख पटेल मामू के खिलाफ उनकी आक्रोश भरी बातें... सब आँखों के आगे घूमते रहते हैं. तब तो इस बात का इल्म नहीं था पर जाने क्यों अब कभी-कभी लगता है कि उनकी संगत ठीक नहीं थी. वैसी संगति में जानेवालों की खबरें देख-सुन कर मन उनके लिए बेचैन हो उठता है. अल्लाह न करे ऐसा हो, पर मेरी यह आशंका सच हुई और कभी नानी को यह पता चला तो उन्हें कितना बुरा लगेगा. खुदा उन्हें महफूज रखे और सही रास्ते पर चलने की सलाहियत अता करे. 

छोटे मामू ने बताया था कि मानसुख पटेल का संपर्क हिन्दू नेताओं से था और पराग मेहता तो बीजेपी सांसद वीरशाह मेहता का खास भांजा था... हम कितने डरे हुये थे उनके बैकग्राउंड को जानकर!  लेकिन खुदा का रहम था कि हमारी सारी आशंकायें झूठी साबित हुई. तब हमारे भीतर जो भय फैल चुका था उसके वीभत्सतम स्वरूप ने उस दिन मानसुख पटेल को शर्मिंदा कर दिया था और उसकी शर्मिंदगी देख हम अपने  भयभीत होने पर पर शर्मिंदा थे. बावजूद इसके जाने क्या घटित होता जा रहा है फिज़ाओं में कि इन्सानों के बीच दूरियाँ लगातार बढ़ती जा रही हैं? मानसुख पटेल और वीरशाह जैसे नेताओं को उनकी पार्टी ने ही जैसे चुप करा दिया है. टेलीवीजन और यू ट्यूब पर आग उगलते लोगों के चेहरे देख कर अहमदाबाद के वे नौ दिन फिर से मेरी नसों में जिंदा हो जाते हैं. जितना ही उन्हें भूलने की कोशिश करूँ उनकी याद और तेज-तेज आने लगती है.

पिछले दिनों समालोचन डॉट कॉम पर मैंने एक कहानी पढ़ीकोई है. लेखक हैं रिजवानुल हक. इस कहानी को ओरिजनली उन्होने उर्दू में लिखा था. उस कहानी का यह हिन्दी तर्जुमा उन्होंने खुद ही किया है. किसी मुमकिन हमले से बचने के लिए तालिब और उसकी बीवी सालिहा उस कहानी में घर के सबसे महफूज कोने में छिप जाते हैं. घर को उजाड़ और वीरान दिखाने के लिए एक बत्ती भी नहीं जलाते हैं, यहाँ तक कि भरी शाम को एक माचिस की तीली तक रौशन करने का जोखिम नहीं लेते हैं. इन दृश्यों से गुजरते हुये मुझे अहमदाबाद प्रवास के वे पल खूब याद आए जब घर में कैद हम सब समय बिताने को चोर सिपाही खेलते हुये घर के उन कोनों की तलाश कर रहे थे जहां हमले के दौरान छुपा जा सके. 

खेल के बहाने छुपने का वह अभ्यास कितना खेल था और कितना किसी बड़े खेल का क्रूर नतीजा जो बच्चों के खेल तक से उसकी मासूमियत छीन लेता है, अब खूब समझ में आने लगा है. चोर सिपाही का यह खेल आखिर कब खत्म होगा अप्पी? क्या हम सब मिलकर इसके लिए कोई और उपाय नहीं कर सकते हैं? पर आप तो मामू के साथ कनाडा चली गईं. आप सब के भीतर  फैले भय और दहशत को बखूबी समझता हूँ मैं, बल्कि खुद उसका हिस्सा भी बना आप सब के साथ फिर भी क्या आपंको नहीं लगता कि आप सब को अपना देश छोड़ कर नहीं जाना चाहिए था? आप तो जानती ही हैं कि अमेरिका में भी कोई ट्रम्प आ गया है. आखिर इनसे भाग कर हम कहाँ-कहाँ जाएंगे? बड़े मामू को कहिएगा कि मानसुख पटेल मामू को फोन करें. और हो सके तो उन्हें भारत लौटने को भी राजी कीजिएगा. यहाँ बड़े मामू और मानसुख पटेल जैसे लोगों की दोस्ती की बहुत जरूरत है.

खत कुछ ज्यादा ही लंबा हो गया. जाने क्या-क्या लिखता गया पर एक बार आपकी खैरियत तक नहीं पूछी मैंने. उम्मीद करता हूँ आप ठीक होंगी. मैंने जो अपना नंबर दिया है उस पर व्हाट्सऐप भी चलता है. याद है न, आपको वहाँ की तस्वीरे भी भेजनी हैं. अपना ख्याल रखिएगा. अम्मीआप सब को बहुत याद करती हैं. घर में सब को मेरा आदाब कहिएगा.

आपका प्यारा भैया
सलीम



पुनश्च: हिन्दी के मशहूर अफसानानिगार आरिफ़ साहब जो समस्तीपुर (बिहार) में रहते हैं किसी प्रोग्राम के सिलसिले में कुछ वर्ष पहले इलाहाबाद आए थे. मैंने अपनी अहमदाबाद वाली डायरी उन्हें ही छपवाने के लिए दे दी थी. डायरी छपे 6 साल हो गए. पर मैंने आजतक उन्हें भी कोई खत नहीं लिखा, जाने क्या सोच रहे होंगे मेरे बारे में. आज उन्हें भी खत लिखूंगा. हाँ, उस प्रकाशित डायरी की फोटो कॉपी भी इस खत के साथ आपके लिए भेज रहा हूँ.



आदरणीय आरिफ़ साहब,

तद्भव का अंक समय से मिल गया था. इतने दिनों तक आपको खत नहीं लिख पाने के कारण शर्मिंदा हूँ. उम्मीद है आप माफ करेंगे.
सबसे पहले तो मैं आपका तहे दिल से शुक्रगुजार हूँ कि आपने मेरी अनगढ़ डायरी के पन्नों को अपनी लेखकीय छुअन से एक संवेदनशील रचना में बदल दिया है.
कहने की जरूरत नहीं कि गुजरात के दंगों ने भारतीय राजनीति को सकारात्मक और नकारात्मक दोनों ही तरीके से गहरे प्रभावित किया है. अतः छपवाने के लिए आपको अपनी डायरी देते हुये जिस एक बात का सबसे बड़ा डर मेरे जेहन में था और जिसका जिक्र मैंने तब आपसे नहीं किया था वह यह कि कहीं एक लेखक के हाथ से गुजरने के बाद दसवीं क्लास में पढ़ने वाले एक बच्चे के वे मासूम अनुभव किसी विशेष राजनैतिक दल के मुखपत्र में न तब्दील हो जाये. 

मुझे इस बात की खुशी है कि आपने न सिर्फ मेरी डायरी को राजनीति के दलदल के अहाते में नहीं जाने दिया बल्कि मेरे भीतर पल रहे उस बच्चे की मासूमियत को भी महफूज रखा है, जिसने इस पूरे मुद्दे को सिर्फ और सिर्फ इंसानियत के धरातल पर देखा और महसूस किया था. पर हाँ, मेरे डायरी को छपने लायक बनाने के क्रम में जो सम्पादन या काँट-छाँट आपने किया है उसके बारे में अपनी दो-एक आपत्तियों या प्रतिक्रियाओं से आपको अवगत कराना जरूरी समझता हूँ. उम्मीद है इसे आप अन्यथा नहीं लेंगे. 

अव्वल तो यह कि डायरी शुरू करने के पहले जो आपने लेखकीय वक्तव्य या प्रस्तावना जैसा कुछ लिखा है, वह कुछ ज्यादा लंबा हो गया है. क्या ही अच्छा होता कि सफाइयाँ पेश करने के बजाय कुछ अपरिहार्य लेकिन संक्षिप्त जानकारियों के साथ आपने सीधे-सीधे उस डायरी को पाठकों के हवाले कर दिया होता.

मेरी डायरी में मेरे द्वारा प्रयुक्त कुछ कठिन उर्दू-हिन्दी के शब्दों के बदले आसान शब्दों का प्रयोग कर के तो आपने बहुत अच्छा किया है लेकिन अल्पसंख्यक और बहुसंख्यक सांप्रदायिकता की उत्तेजनाओं से भरे कुछ दृश्यों को सेंसर करना मुझे उचित नहीं लगा. हालांकि अपनी भूमिका में उसका उल्लेख करके आपने उनकी तरफ इशारा तो जरूर कर दिया है लेकिन मुझे लगता है सीधे-सेधे उन दृश्यों को आगे कर देने से मुद्दे की भयावहता ज्यादा प्रभावी तौर पर संप्रेषित हो पातीं.  

हालांकि आपने भूमिका में कहा है कि आपने मेरे वाकई रचना में कोई छेड़छाड़ नहीं की है. पर डायरी के कुछ हिस्सों से गुरते हुये लगा कि मेरे लिख के साथ आपके भीतर का लेकजाक उसका विश्लेषण भी साथ-साथ करता चल रहा है. उदाहरण के तौर पर पराग मेहता को जानबूझकर न पहचानने के बाद गुलनाज अप्पी के रोने के दृश्य का वर्णन करने के बाद उस असाधारण रुलाई का जिक्र जो आपके शब्दों में –‘एक हृदय विदारक क्रंदन था... यह मर्मांतक पीड़ा से उपजा एक पुरुष का रुदन थ...  जो समस्त ब्रह्मांड की चुप्पी को पार करता हुआ बड़े मामू के किचन रूम तक पहुँच रहा था... आपका यह विश्लेषण अछा है पर मैंने अपनी डायरी में तो इसे नहीं लिखा था न!

इस डायरी के जिस हिस्से पर मुझे ज्यादा आपत्ति है, वह है - 16 अप्रैल (पाँच बजे) वाला हिस्सा. हाँ, दाई ने नानी को बिलकुल ऐसा ही कहा था कि पिछले फसाद में दंगाइयों ने सिर्फ उन्हीं महिलाओं को हाथ नहीं लगाया जो महीने से थीं. तब उनकी आवाज़ और बनावटी हंसी में तकलीफ और बेबसी के जो कतरे मौजूद थे आप उसे नहीं समझ पाये. 

आपने जिस हंसी-मज़ाक और ठिठोली का रूप उसे दे दिया है वह मैंने गुलनाज अप्पी, नानी और दाई सहित उन स्त्रियॉं मे से किसी के चेहरे पर नहीं देखा था. महीने से होने वाली महिलाओं को न छूने की आड़ में धर्म भ्रष्ट होने की पितृसत्तात्मक अवधारणा को जो चेहरा दिखाई पड़ता है, आगे के ये वर्णन उसकी विडंबनाओं को कुछ हद तक क्षतिग्रस्त कर जाते हैं. बावजूद इसके आपने जिस न्यूनतम  लेखकीय हस्तक्षेप के साथ मेरी डायरी को प्रकाशित करवाया है उसके लिए हम आपके हृदय से आभारी हैं. तद्भव के सम्पादक जी को मेरा नमस्कार कहिएगा और उचित समझें तो मेरा यह खत उन्हें भी दिखाइएगा.
गुलनाज अप्पी का जो खत मैंने आपको दिया था और जिसे मेरी डायरी के साथ आपने प्रकाशित भी करवाया है, उसका जवाब एक लम्बे अंतराल के बाद मैंने अप्पी को आज ही भेजा है. उसकी एक कॉपी आपको भी भेज रहा हूँ.
आशा है कुशल होंगे.
आपका
सलीम

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  1. 'समीक्षा' शब्द का पहला प्रयोग मुझे काव्यमीमांसा में दिखा।
    वहाँ इसे इस तरह बताया गया है-
    'अंतर्भाष्यं समीक्षा।'
    कृति का अंतर्भाष्य करना ही समीक्षा है।
    रचना के अंतःकरण में पैठ बनाना, उसकी विवेचना कर सकना अंतर्भाष्य है।
    सलीम की तरफ से लिखी गई दोनों चिट्ठियां कहानी के मुकाम तक हमें पहुँचा देती हैं।
    राकेश बिहारी जी ने जो किया उसे समीक्षा विधा में सार्थक नवाचार कहेंगे।
    बधाई स्वीकारें।

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  2. पहले उन्हें। फिर आपको। पूरा पढ़ा। संवादबाजी की यह तमीज हमारे साहित्य के लिए ‘टाॅनिक’ सरीखा है।

    समालोचन को बधाई!

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  3. डायरी के रूप में कहानी और पत्र के रूप में समीक्षा ....अद्भद ।
    साहित्य में यह नव्यता अच्छी लगी ।

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