रंग- राग : मौलिकता का आग्रह : अखिलेश

























(Clicked By  Rafique Shah)

प्रसिद्ध चित्रकार अखिलेश  हिंदी के अनूठे लेखक हैं. कलाओं पर उनका विशद लेखन हैं. अभी इसी वर्ष राजकमल प्रकाशन से ‘देखना’ शीर्षक से लेखकों और कलाओं पर उनकी टिप्पणियों की किताब प्रकाशित हुई है.  

मौलिकता क्या है ? अक्सर  इस पर एक उलझाव की स्थिति रहती है. कहा तो यह भी जाता है कि अब कुछ नया कहने को बचा नहीं है जिसे कहा नहीं जा चुका है.

ख़ासकर चित्रकला की दुनिया में मौलिकता के क्या मायने हैं ? और किस तरह से कला की तमाम पीढ़ियों ने अपने लिए इसे समझा और बरता है ? इस अर्थगर्भित आलेख में पीढ़ियों के तमाम अंतर्द्वंद्व भी सामने आते हैं.

यह लेख समालोचन के लिए है और यहीं प्रकाशित हो रहा है.  





मौलिकता का आग्रह                         

अखिलेश 


मौलिकता का आग्रह कलाओं में इन दिनों महत्वपूर्ण माना जाने लगा है. मैं अक्सर यह सोचता रहा हूँ कि मौलिकता क्या है? भरत नाट्यशास्त्र में कहा गया है सभी कलाएं अनुकृति हैं. याने किसी के मौजूद होने की कल्पना पहले से है और अब यह जो सामने प्रस्तुत है उसकी नक़ल है. यदि ये सब कलाएं एक बड़े अर्थ में अनुकृति हैं तब इस अनुकृतियों में मौलिकता का स्थान क्या है? ये कलाएं किस तरह से अपने अनूठेपन को सम्बोधित हैं? वह क्या है जो मौलिक है?

कलाकृति जिसकी अनुकृति है उस पर थोड़ी देर ठहरे, यहाँ मैं अपने को सिर्फ चित्रकला पर केन्द्रित रखूँगा, किसी भी चित्र की कल्पना ही उसकी उत्पत्ति का कारण है. चित्र बनाने से पहले एक चित्रकार उसकी कल्पना में डूबा रहता है. यह कल्पना ही उस चित्र का मूल है और उसकी अनुकृति अक्सर उससे बहुत भिन्न होती है. यह भिन्न होना कल्पना और उसके सम्पादन का फर्क है. कल्पना का लगातार बदलते रहना एक कलाकार की मुश्किल है. कल्पना निष्पादन एक स्थूल क्रिया है जिसमें शारीरिक क्षमता शामिल है. विचार और क्रिया का मेल कभी नहीं हो सकता. सभी कलाएं इसका प्रमाण हैं.

चित्रकला में अपनी तरह से चित्र बनाने को कलाकार की मौलिकता माना जाता है. एक लम्बे समय में जब वह इस लायक होता है कि अपने चित्र बनाने की प्रक्रिया को वह समझ सके, उसका चित्र बनाने की प्रक्रिया से तादात्म्य बन चुका हो, यह प्रक्रिया उसका अंग बन चुकी हो, तब तक शारारिक रूप से वह इतना थक चुका होता है कि उसी लीक पर चलते हुए अपना प्राण त्याग देता है.

यह लीक क्या है? उसके इतने सालों के काम को किस तरह देखा जाये क्या वह इस बात पर विचार भी कर सका कि उसे करना क्या है? क्या वह सिर्फ अनुकृति बनाने में संलग्न था? अधिकांशतः ऐसा नहीं पाया जाता है. चित्र में मौलिकता के प्रमाण के बरक्स यह दिखता है कि चित्रकार पर किस चित्रकार का प्रभाव है. यह प्रभाव साथ में रह रहे दो कलाकारों का एक दूसरे पर भी हो सकता है. किसी प्रसिद्ध कलाकार का हो सकता है. परम्परा से चले आ रहे किसी वाद या शैली का हो सकता है. उसके शिक्षक का प्रभाव भी हो सकता है. इस तरह के सभी प्रभाव को नक़ल कह दिया जाता है.

चित्रकार एक संवेदनशील प्राणी है और वह खुलकर देखता है. अपने पूर्ववर्ती के कामों से प्रभावित होकर प्रेरणा पाता है. चूँकि वह अतिरिक्त रूप से संवेदनशील है तो शायद उस पर अपने देखने  का प्रभाव भी गहरा पड़ता है. जाने-अनजाने देखे गए रूपाकार उसके काम में उतर आते हैं और वह  उसे ही अपनी सर्जना मानने लगता है. उसके आस-पास ऐसे लोग भी नहीं होते कि वे इस तरफ इशारा कर सके. अक्सर उन लोगो से घिरा रहता है जिनका कला से कोई वास्ता नहीं होता. यदि किसी ने नक़ल कह दिया तब वह उसके दुश्मन से कम नहीं होता. वह एक छद्म  आवरण अपने इर्द-गिर्द कस लेता है और इस नक़ल में सुरक्षित महसूस करते हुए उसका चित्रकारीय जीवन समाप्त हो जाता है.

इसे मैं कई तरह से देखता हूँ. मुझे ये सुअवसर मिला कि मैं चित्रकला की पिछली तीन पीढ़ी के साथ सीधा सम्बन्ध बना पाया जिसमें मेरी सबसे बड़ी सहायता मेरी प्रवृति ने की. इन सभी  पीढ़ी के साथ मेरे सम्बन्ध एक भटके हुए युवा चित्रकार के रहे और इनसे कभी मैंने किसी तरह का कोई लाभ उठाने की कोशिश नहीं की सम्भवतः इसीलिए इन सबसे जीवन्त सम्बन्ध बन सका. विषयांतर जरूरी लगता है सो मैं किये जा रहा हूँ, एक युवा चित्रकार की तरह मैं इनसे सहमत होने के बजाय असहमत ज्यादा रहा किन्तु अपनी सीमा का अतिक्रमण कभी नहीं किया

स्वामीनाथन के साथ बारह साल काम किया और अब पलट कर देखता हूँ तब पाता हूँ कि हमेशा मैंने उनसे एक चित्रकार की तरह ही बात की न कि उनके निदेशक होने को तवज्जो दी. हुसैन, रज़ा से हमेशा यह बहस चलती रही कि सूजा का भारतीय चित्रकला में कोई योगदान नहीं है जिससे वे दोनों असहमत रहते थे और अपनी तरह से मुझे समझाने की कोशिश करते रहे. किन्तु मेरी बातों का कोई जवाब भी नहीं होता था उनके पास. इस मौलिकता के आग्रह पर सूजा से बढ़िया उदाहरण और कोई न होगा. सूजा जो अपने शुरूआती दिनों से अत्यंत विद्रोही स्वभाव के कारण हर पारम्परिकता को प्रश्नांकित कर स्वीकार अस्वीकार करते रहे. हर चलन को अस्वीकार करने का आक्रामक ढंग हुसैन और रज़ा के लिए आकर्षण का बड़ा कारण रहा. ये दोनों उस वक़्त के मध्यप्रदेश से आये थे और इन दोनों का ही आधुनिक साहित्य और विचारधारा में वैसी गति न थी जैसी सूजा की रही.

सूजा उस वक़्त के आदर्श के रूप में इन दोनों के सामने था बल्कि और भी कलाकार जो उससे मिलता प्रभावित हुए बगैर नहीं रहता. सूजा ने गुप्तकालीन शिल्पाकृति को चित्रों में जगह देने से अपनी शुरुआत की और शायद पचास के दशक में यूरोप चले जाना ही सूजा के अंत का प्रारम्भ था. वहाँ पिकासो के चित्र देखने के बाद सूजा सूजा नहीं रहा. सूजा जो जीवन भर पिकासो की नक़ल करता रहा शायद इसी कारण बड़ा योगदान देने से वंचित रह गया. वह क्या बात थी जिसने सूजा को अपनी मौलिकता तक नहीं पहुँचने दिया?

सूजा का उदहारण इसलिए भी महत्वपूर्ण है कि उनकी तरह का कोई चित्रकार नहीं हुआ जो अपने साथी कलाकारों को उत्प्रेरित करे और उस वक़्त, आजाद हिन्दुस्तान के युवा चित्रकारों में जोश और उत्साह जगा सके कि वे इस आजादी के मूल्य को समझकर आजाद मुल्क में अपना योगदान दें. सूजा की तरह का बौद्धिक रूप से हस्तक्षेप करने वाला दूसरा कोई नहीं है. सूजा की यह ताकत ही पहले उसकी कमजोरी बनी बाद में कुण्ठा. सूजा के जगाये अलख का लाभ हुसैन और रज़ा को मिला जिन्होंने इस बात को समझा और अपनी तरह से उस राह पर चल दिए जो उन्हें उनके स्वभाव तक ले गया और इसी कारण आज़ादी के पचास साल बाद जब सूजा को यह दिखता है, जो इतना समझदार तो था कि अपने अच्छे बुरे को समझ सके, कि  संवेदनशील होने के कारण कभी पिकासो के योगदान को अपने चित्रों से बाहर नहीं निकाल पाया

(रज़ा)

ऐसा नहीं था कि हुसैन, रज़ा पर कोई प्रभाव नहीं था वे भी शुरूआती दौर में इन सबसे गुजरे और अपनी राह में आने वाले हर प्रभाव से मुक्त होते चले, कि इन दोनों से ज्यादा बौद्धिक और कर्मयोगी होने के बावजूद भी उसका कोई प्रभाव भारतीय चित्रकला संसार पर नहीं छूटा तब उसने उन बचकाने बयानों का सहारा लिया जिसमें हिन्दुस्तान के दस महान कलाकारों की सूची घोषित करता है और एक से दस तक सूजा का ही नाम रहता है. जिससे उन्हें कोई फ़ायदा नहीं हुआ.

कुछ अज्ञानतावश या कुछ कृतज्ञता के चलते सूजा को योगदानी के रूप में हम स्वीकार करते रहेंगे किन्तु भीतर कहीं दूर यह  भी पता रहता है कि उन्होंने बहुत कुछ किया फिर भी हो न सका. सूजा अपने होने में एक उदहारण की तरह थे किन्तु चित्रकार के रूप में पिकासो की सस्ती नक़ल तक रहने के कारण उनके योगदान की कोई जगह नहीं बन सकी. सूजा के सृजन में इसे क्या मौलिकता की कमी की तरह देखे? सूजा का चित्र बनाने में भी आवेश का समावेश था और वो दिखता था. अक्सर उनकी आकृतियाँ उस गुप्तकालीन शिल्पों के सौन्दर्य को समेटे रही जिनकी लालसा सूजा की प्रेरणा थी. गुप्तकालीन आकृतियाँ भी पिकासो के गड्डे में जाकर ही लुप्त होती रही.

सूजा के चित्रों में जिस मौलिकता की तरफ इशारा है उसका कुछ हल्का सा प्रमाण पचास के दशक के प्रारम्भ की कलाकृतियों में दीखता है, पर सूजा उससे दूर जाते हुए भी दीखते हैं. सूजा के चित्र में जो नहीं दिखता है वो approach है. चित्रकार का स्वभाव उसके स्पर्श से प्रकट होता है. वो रंग को कैसे छूता है, ब्रश को किस तरह बरतता है, रंग को कैनवास पर कैसे उतारता है? दो रंग किस तरह पास पास लगाता है उसमें कौन सा सम्बन्ध बिठाता है. यह जो पहुँच है यह  उसके स्वभाव से संचालित होती है. यह  स्वभाव उसके अनुभव को बटोरे हुए है. यह अनुभव उसके देखने का प्रमाण है. अब यदि कोई चित्रकार अपने स्वभाव को समझने के रास्ते बन्द कर दे और पूर्ववर्ती की तरह रंग लगाने की कोशिश करे तब जान देकर भी नहीं सीख सकता. उसे अनुभव नहीं होगा वह दृश्य जो उसका देखना है जिसमें उसकी कल्पना साँस ले रही है. सूजा अपने मौलिक स्वभाव के कारण ज्यादा जाने गए. उनका मताग्रही होना उन्हें अपने समकालीनो से अलग करता है किन्तु ये अनूठापन उनके चित्रों में आने से बच  गया. एक तरफ सूजा बेहद सजग, असम्मत, विद्रोही स्वभाव के हैं दूसरी तरफ उन्होंने पिकासो के चित्रों के सामने घुटने टेक दिए.

किसी भी कलाकार की मौलिकता उसके देखने में है वो किस तरह संसार को देखता है और उसका क्या रूप उसके चित्र में बन रहा है. वह उसमें परम्परा को, साभ्यतिक समझ को, सांस्कृतिक परिवेश को, अपनी आधुनिक समझ से पुनर्परिभाषित करता है. ये परिभाषा उसके स्पर्श से बन रही है. उसका देखना उसे ही अचम्भे में डाल देता है. इसी देखने को सम्बोधित हैं सभी कलाकार और पिकासो जैसे कुछ विलक्षण कलाकार अपने देखने को लोगों के इतना पास ले आते हैं कि उनका देखना बन जाता है. सभी दृश्य अचम्भे से भरे हैं इसीलिए चित्रकला में दोहराव की जगह सम्मानीय नहीं है फिर अनेक चित्रकार इस दोहराव में अचम्भा भरने का दम रखते हैं ये उनके देखने की विशेषता है.      

वापस लौटें, हुसैन, रज़ा, बाल छाबड़ा, पारितोष सेन वाली पीढ़ी उसके बाद स्वामीनाथन, अम्बादास, एरिक बोवेन, ज्योति भट्ट, जेराम पटेल वाली पीढ़ी बाद में मनजीत बावा, लक्ष्मा गौड़, बिकास भट्टाचार्य, प्रभाकर कोल्ते, प्रभाकर बर्वे वाली पीढ़ी. इन सबमें बहुत अन्तर था. ये सब मौलिक हैं और इन सबने एक लम्बा समय गुजारा समकालीन कला का रूप सँवारने में. हुसैन वाली पीढ़ी बहुत ही जिन्दादिल और एकाग्र और एक दूसरे के कामों की सख्त आलोचक. आपस में लड़ना झगड़ना और अपनी बात साफ़ साफ़ रखने के अलावा जो सबसे खूबसूरत बात इन सबमें थी वो एक दूसरे की चिन्ता करना, ध्यान रखना, समय आने पर बिना बताये मदद करना. मान अपमान से परे अपने सम्बन्धो को बरतते थे और कभी एक दूसरे से नाराज ज्यादा दिनों तक नहीं रह पाते थे. सभी मौलिक हुए भरपूर प्रभावों के साथ अपना अस्तित्व बनाये रखा. इन सभी का देखना अद्वितीय है.
(स्वामीनाथन)

मैं यहाँ इस बात पर भी विचार कर रहा हूँ कि कलाकारों के बीच का आपसी संवाद उनके रचनात्मक संसार में एक बड़ी भूमिका निभाता है. स्वामीनाथन वाली पीढ़ी भी कमोबेश इसी तरह की थी जिसमें उनके बीच संवाद लगातार और आपसी लेन-देन येन प्रकारेण होता रहा. इनके सभी के बीच कुछ समय का साथ रहा किन्तु ये सब वे लोग थे जिनका संसार आज़ादी के बाद का है और ये सभी चित्र बनाने के साथ साथ किसी न किसी नौकरी में भी अपना समय गवां रहे थे. विद्रोही उतने ही जितने इनकी पहली पीढ़ी के लोग. किन्तु इनके विद्रोह में ठहराव भी था. स्वामीनाथन इस दौर के बौद्धिक-केन्द्र रहे और उन्होंने अपनी तरह उस भारतीयता को नकारा जिसका आग्रह उनकी पिछली पीढ़ी का रहा. स्वामी के लिए भारतीयता नाम की कोई चीज न थी जिसे चित्रों में पाने कि कोशिश करनी है
(पेंटिग : स्वामीनाथन)


उनके लिए खुद की तरह चित्र बनाना ही भारतीय होना है. इन लोगो में भी बहुत से प्रभाव और आपसी लेन देन चलता रहा किन्तु धीरे धीरे सभी अपनी राह पर चलें. इन सबके कामों में भारतीय चित्रकला का नया रूप नज़र आता है जिसमें परम्परा से लेकर आधुनिकता तक सभी अंगो को लेकर मुक्त विचार और सम्बन्ध दिखाई देता है. ये लोग भी एक दूसरे के प्रति उत्सुक और सहानुभूति भरे थे. एक दूसरे का ख्याल करना, सम्बन्धो में वैचारिक मतभेद के बाद भी टूटन न आने देना और आलोचना करना आदि सभी उस जीवन्त स्तर पर न रहा जैसी इनके पहली पीढ़ी में था, किन्तु खूब था.

इसके बाद वाली पीढ़ी अपने काम में मस्त और अब उन सभी विवादों, कला सम्बन्धी प्रश्नों से मुक्त रही जो इनके पहले वाली पीढ़ी की समस्या रही. ये सभी कलाकार वैयक्तिक रूप से बेहद प्रतिभावान और कर्मठ रहे. अपने स्टूडियो में बैठकर पूरी दुनिया से कटे इनका सृजन सभी को आकर्षित करता रहा और इन सबने अपने काम से भारतीय चित्रकला में वैयक्तिकता की तरफ़ ध्यान केन्द्रित किया. सभी चाक-चौबंद अपने संसार में डूबे यदा-कदा कभी कहीं मिलने पर खुलूस से मिलना और उस शाम को एक यादगार शाम में बदलना इन सबका गुण रहा. किन्तु यहाँ एक बात और लक्ष्य करने की है कि ये सब अपने साथी कलाकार के काम के बारे चुप्पी धारण किये रहे. शायद ही किसी ने कभी किसी दूसरे के काम पर कोई टिपण्णी की. यदि हुई भी है तो वो नगण्य सी है. एक दूसरे के कामों की आलोचना बहुत दूर की बात थी. यहाँ से भारतीय कला का का एक नया रूप शुरू होता दिखाई देता है इसमें कलाकार अपने साथी कलाकार के काम के बारे में चुप हैं. इनके बीच झगड़े का कारण चित्रकला नहीं रहा. कुछ जगह तो इर्ष्या की आग भी जलती  दिखाई देती है. एक दूसरे का ध्यान औचक ढंग से रखा जाने लगा. सम्बन्ध उतने जीवन्त नहीं हैं. ये सब आजाद हिन्दुस्तान में पैदा हुए हैं और आज़ादी का नया रूप कला में प्रकट हो रहा है जिसमें उतना भाईचारा नहीं दीखता जितने की जरूरत है.  इन सभी के सरोकार सिर्फ कला रही और उसके तत्व जहाँ भी इन्हें अपने उपयुक्त लगे उठा लिए. परम्परा से गहरा नाता और उसे आज के समय में पुनर्परिभाषित करने का माद्दा भी इन लोगो में रहा. सभी कला के इस मौलिक अनूठेपन से अनजाने प्रभावित, संचालित रहे.

विष्णुधर्मोत्तर पुराण में लिखा है कि सभी कलाओं में चित्रकला प्रधान है. ये बात मुझे नागवार इसलिए लगी कि भारतीय मिथकों में कभी उच्चावचन देखने को नहीं मिला और यहाँ पहली बार किसी एक कला को प्रधान बताया जा रहा है. मेरे लिए हमेशा संगीत ऐसी विधा रही जिसे मैं इन कारणों से प्रधान मानता रहा कि ये नैसर्गिक है और इसमें किसी तरह की बाहरी बाध्यता नहीं दिखायी देती. गला है आप गा सकते हैं और कान है सुन सकते हैं, बाकि सभी कलाओं के लिए बाहरी साधन की दरकार है तब चित्रकला सर्वश्रेष्ठ कैसे? उसका कोई कारण भी नहीं दिया. उन्होंने आपके लिए विचार करने को एक सूत्र दे दिया. इस विचार करने पर मुझे कई कारण मिले जो इस बात के पक्ष में खड़े दिखते हैं. एक कारण मुझे सबसे ज्यादा प्रभावित करता है वह चित्रकार का एक ही समय में सर्जकऔर दर्शकहोना है. जब वह पूरी तरह से विषयी है ठीक उसी वक़्त वो उससे बाहर है. यह सुविधा अन्य कलाओं में सम्भव ही नहीं है. नर्तक अपने को नृत्य करते कभी नहीं देख सकता. चित्रकला में यह सुविधा है कि जिस वक़्त आप अन्दर हैं उसी वक़्त बाहर भी. objectiveऔर subjectiveएक साथ होना दुर्लभ है. इस विषयी होने और न होने को महसूस करना सम्भव नहीं है. आज के अधिकांश कलाकार इस पर विचार इसलिए नहीं कर पाते कि उनका कला कर्म कर्ता भाव का है. वे बाहर ही हैं.  

मैं देखता हूँ और कई युवा कलाकारों से लगातार मिलता भी रहता हूँ कि उनमें इस देखनेका, objective होने का माद्दा ही नहीं है. उन्हें खुद पता नहीं होता कि उनका कौन सा चित्र अच्छा है. वे सिर्फ रंग लगाने का काम कर रहे हैं. बिना विचारे रंग का इस्तेमाल भी उन रंगों में रंगीनियत नहीं ला पाता. ऐसा नहीं है कि सभी के साथ यही होता है कुछ हैं जो इस बात को नहीं समझते किन्तु अपने चित्र के साथ सम्बन्ध बनाये रखते हैं. इस तरह वो यहाँ तक पहुँचने का द्वार खुला रखे हैं. यह देखना चित्रकला में महत्वपूर्ण इसलिए भी है कि चित्र बनाते वक़्त भी देख रहे होते हैं. इस देखने में ही उसका गुण प्रकट होगा. दूसरे के चित्रों को देखकर भी पता लगता है कि इस रास्ते नहीं जाना है.

(हुसैन)
विष्णुधर्मोत्तर पुराण के सन्दर्भ में दूसरी बात जो मुझे सूझी वो यह है कि चित्रकला का कोई व्याकरण नहीं है. अन्य सभी कलाएं व्याकरण जानने पर ही साधी जा सकती हैं. यह एक ऐसा पक्ष है जो कलाओं के स्वभाव से मेल खाता है. कलाएं भविष्योन्मुखी हैं उनका सन्दर्भ भूतकाल नहीं भविष्यकाल है, ‘कैसा था कि जगह कैसा होगा इस पर जोर रहता है. इस तरह चित्रकला का गंतव्य हमेशा भविष्य ही रहा. नए चित्रकार के लिए ये समझ पाना जरा मुश्किल होता है. चित्रकला अपने पुराने स्वरुप को भी कुछ इस तरह प्रस्तुत करती है कि देखना अनुभव बन जाता है. चूँकि इसका कोई व्याकरण नहीं है अतः चित्रकार पर दोहरी जिम्मेदारी इस बात की आ जाती है कि भले ही वो आरम्भ कहीं से भी करें उसे अपना व्याकरण बनाना ही होगा. उसके लिए ये समझना मुश्किल होता है और ज्यादातर यही होता आया है कि किसी दूसरे चित्रकार के अधूरे व्याकरण की समझ से चित्र बनाते हुए वह परलोक सिधार जाता है और उसे पता नहीं लगता कि उसका ये जीवन व्यर्थ गया. इसे एक उदहारण से समझना ज्यादा आसान रहेगा हुसैन का व्याकरण के.सी.एस. पणिक्कर के लिए किसी काम का नहीं है.’ उसमें किया गया सारा काम हुसैन की नक़ल ही कहलायेगा जिस तरह सूजा के जीवन भर का काम पिकासो के नाम समर्पित रहा आया. सूजा का स्फूर्त चित्रण, उर्जा, वैचारिक प्रतिबद्धता, नए का आग्रह, बदलाव की कोशिश आदि सभी पिकासो के व्याकरण की भेंट चढ़ गया. सूजा अपनी बौद्धिकता के चलते वह  सबकुछ कह गए जो एक चित्रकार के सन्दर्भ में अब व्यर्थ है और जो रचना था, जिस व्याकरण की तरफ उन्हें जाना था वही रह गया.

एक चित्रकार जब अपना जीवन शुरू करता है तब उसके पहले का चित्रित संसार उसके सामने मौजूद है कि इस राह पर विद्वतजन चल चुके हैं और इनका बनाया व्याकरण भी सामने है इस उदहारण कि तरह कि इस राह पर चलने के ख़तरे नक़ल भरे हैं फिर वो क्या बात है जो उसे उकसाती है इस तथ्य को नज़रन्दाज करने को? ‘अक्षमता सबसे पहले तो यही ख्याल आता है. यह अक्षमता इस बात की भी है कि वह चित्रकला को भावाभिव्यक्ति का साधन मान रहा है. चित्रकला को साधन मान कर बरतना उसे उसके स्वभाव के विरुद्ध देखना है. उसका स्वभाव ही उसे साधन होने नहीं देता. चित्र कल्पना से उपजाते हैं और कल्पना में नक़ल की जगह नहीं हो सकती. कल्पना अक्सर उन्ही वस्तुओं, जगहों, हालातों, छवियों की होगी जो अप्राप्य हैं जिन्हें पाया नहीं जा सकता जिन्हें उसी कल्पना में खोया जा सकता है. कल्पना भी उसी की है जो अजूबा है. चित्र उस अजूबे को पकड़ने की कोशिश है अप्राप्य को पाने की बल्कि उस असम्भव को सम्भव करने की जिसमें चित्रकार अक्सर निष्फल ही रहने वाला है. यह निष्फलता उसका नैरन्तर्य है.

यहाँ अन्य कलाओं की तरह अपने उस्ताद को उदहारण की तरह नहीं बरतना है न ही उसे आशामानना है. अपने चित्रों में उसका निषेध ही सही राह और सही शिक्षा है. एक ख़राब शिक्षक के छात्र उसकी नक़ल करेंगे और वह कभी नहीं बता पायेगा कि इस राह नहीं जाना है. एक ख़राब चित्रकार, अब मैं उसे ख़राब किस आधार पर कहूँ, एक चित्रकार जानता है कि उसे क्या करना है, जो चित्रकार नहीं है वो नक़ल का रास्ता चुनता है जिस पर चलना व्याकरण बनाने के परिश्रम से कहीं ज्यादा आसान काम है. इस तरह वो कभी उस मौलिक स्वभाव का रस नहीं चख पाता जो सृजन के श्रम से उत्पन्न हो रहा है. यहाँ सूजा को याद किया जाना जरूरी है कि सूजा सक्षम था वैचारिक रूप से और समझने समझाने के लिए फिर भी ये न हो पाया. बौद्धिक रूप से मजबूत सूजा भी संवेदनशील होने के कारण अपने ऊपर आये प्रभाव से जीवन भर मुक्त नहीं हो सका. भारतीय कला संसार का एक और दुर्भाग्य यह कि उसमें कला आलोचक नहीं हैं. कला समीक्षक भी नहीं हैं. कुछ कला सूचना देने वाले हैं कुछ अंग्रेजी भाषा का ज्ञान प्रकट करने वाले और कुछ अहंकारी हैं दावा करने वाले, किन्तु कोई नहीं है जो कला पर लिख सकने की क्षमता रखता हो, इन सबमें वो समर्पण नहीं दिखता जो एक बड़ी भूमिका निभाने के लिए उन्हें उकसाता हो. आनन्द कुमार स्वामी या मुल्कराज आनन्द जैसे समर्पित, तीक्ष्ण नज़र रखने वाले, मताग्रही, रूचि रखने वाले विद्वान इस आजाद मुल्क में आजाद हो गए और अब केट्लौग या एक लेख लिखने तक सीमित रह गए. जिसमें भी अंतर्दृष्टि नहीं दिखाई देती. इस तथ्य से मैं भी उस मौलिकता का बखान नहीं कर सकता जिसका आग्रह चित्रकला का प्रथम लक्षण है.

मौलिकता के तत्व उसी परम्परा में हैं जिससे कला का प्रादुर्भाव हुआ. यदि हमें अपने सांस्कृतिक सन्दर्भों में रेखांकन की मौजूदगी को  लक्ष करना है तब भीमबैठिका का उदहारण हमारे सामने है. अंजता का उदहारण इस बात का भी है कि फ़लक के चुनाव में कोताही नहीं की जा सकती. विषय की गम्भीरता और विशालता के अनुरूप उसका फैलाव और उसकी निरन्तरता के लिए तैयार की गई गुफाओं में किया गया चित्रण देखते बनता है. लघु-चित्रों के प्रमाण इस संसार के विराट स्वरुप को असम्भव रूप से दर्शनीय बनाने का भी है. ये सभी उदहारण अनुभव के उदहारण हैं. चित्रकार के देखने के उदहारण हैं. कल्पना और उसके प्रकटन के उदहारण हैं. असम्भव को सम्भव करने के उदहारण हैं. इनमें दर्शक बिला जाता है उसके सामने अद्भुत कल्पना का असीमित अनुभव संसार प्रस्तुत होता है जिसमें उसका अस्तित्व महसूस नहीं होता. वह रस के उस सागर में गोता लगा रहा होता है जो विस्मय और आकस्मिकता से परिपूर्ण है. भारतीय चित्रकला के इन विभिन्न रूपाकारों में संस्कार और मौलिकता के अनेक ऐसे बिंदु हैं जो किसी भी कलाकार के लिए प्रेरणा हो सकते हैं.
इसी मौलिकता तक पहुँचने का प्रयास शायद हर चित्रकार का होता होगा.  
____________________
56akhilesh@gmail.com

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  1. प्रचण्ड प्रवीर23 अक्तू॰ 2017, 10:59:00 am

    जहाँ तक मैं समझता हूँ कि भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में नाट्य के सम्बन्ध में अनुकरण, अनुकीर्त्तन और अनुदर्शन शब्द का प्रयोग किया गया है। अभिनवगुप्त ने अनुकृतिवाद का खण्डन करके कला के लिए अनुकीर्त्तन शब्द से अभिनवभारती में इसकी व्याख्या की है। इसलिए लेखक का कहना "भरतमुनि के नाट्यशास्त्र में कहा गया है सभी कलाएं अनुकृति हैं." मैं गलत समझता हूँ। कृपया इस सम्बन्ध में मूल श्लोक उद्धृत किया जाए या इस भूल को सुधारा जाय, क्योंकि केवल अनुकरण भरत का मत नहीं है. मेरे मत के लिए कृपया देखें नाट्यशास्त्र श्लोक १.१०८, १.११३, १.१२१. अच्छा होता यदि लेख अनुकीर्त्तन की चर्चा से शुरु होता, जो कि सर्वदा स्थापित मत है।

    ऐसा भी जान पड़ता है कि लेखक ने विष्णुधर्मोत्तर पुराण और चित्रसूत्र को भी गलत संदर्भ में लिखा है - "विष्णुधर्मोत्तर पुराण में लिखा है कि सभी कलाओं में चित्रकला सर्वश्रेष्ठ है." इसके लिए कृपया मूल श्लोक उद्धृत करें।

    विष्णुधर्मोत्तर पुराण के चित्रसूत्र के तीसरे भाग के दूसरे अध्याय में श्लोक १ से श्लोक ९ में वज्र और मार्कण्डेय संवाद को देखें, जिसमें मार्कण्डेय कहते हैं कि जिसको गायन के नियम आते है वह सब कुछ जानता है।

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    1. प्रचण्ड प्रवीर जी नाट्य शास्त्र और विष्णुधर्मोत्तर पुराण की इतनी ज्यादा व्याख्या की जा चुकी है कि आपकी बात सच लगने लगती है।
      पुराण के तीसरे भाग के तैंतालिसवां अध्याय का अंतिम श्लोक देखें। जहां ये कहा गया है " जिस तरह पर्वतों में सुमेरु प्रधान है,पक्षियों में गरुड़ प्रधान है,मनुष्यों में राजा प्रधान होता है वैसे ही कलाओं में चित्रकला प्रधान है।
      मेरे लेख में प्रधान की जगह सर्वश्रेष्ठ छपा है उसे में प्रधान ही लिखना चाहूँगा।
      किसी एक जगह मैन सर्वश्रेठ पढ़ा था वही रह गया।

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  2. अखिलेश को पढ़ना, हमेशा कला को नई निगाह से देखना सीखना है।

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  3. बहुत बहुत सुंदर लेख
    चित्रकला में आप दर्शक और सर्जक दोनों होते हो । बहुत ही कमाल बात है लेकिन Arun सर अखिलेश सर को इक बात मेरी पहुंचा दीजियेगा,
    संगीत में इक अवस्था ऐसी भी आती है जब गायक को अपना सुर सुनाई पड़ता है इस बात पे उनकी क्या टिप्पणी है ?

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  4. पीढ़ी बदलाव की बात समझने की है कि उन तीन पीढ़ियों में हो रहे बदलाव ने वर्तमान चित्रकार को कहाँ ला कर खड़ा कर दिया है। आज आलोचना का विकल्प भी समाप्त हो गया है जिससे एक व्यक्ति खुद को परखता था और अपने होने के अस्तित्व को ओर ज्यादा प्रगाढ़ बनाता था। तुरन्त जानकारी के इस दौर में विचार कहीं पिछड़ गया है। और यह केवल चित्रकला के क्षेत्र में नहीं अपितु हर क्षेत्र में हो रहा है मुझे याद है जब सोनू निगम छोटा था नया नया आया था इंडियन आइडल में उसके परफॉर्मेंस पर जजेस सीधे टीवी पर अलोचनात्म टिप्पणी करते थे जबकि अबके कोई भी टीवी परफॉर्म प्रोग्राम देख लीजिए बेजा फिजूल तारीफ से भरे रहते हैं फिर चाहे घटिया परफॉर्म ही क्यों न हो।
    आलोचना से होने वाले तुच्छ नुकसान से डरा हुआ चित्रकार एक बड़ा नुकसान लगातार कर रहा है जो उसकी रचना के पतन से भरा हुआ है। स्वामीजी का दिखाया रास्ता खुद की तरह चित्र बनाना ही भारतीय होना व चित्र को साधन की तरह न बरतना की परिणति आज का चित्रकार बिना कारणतत्व जाने रंगों रेखाओं इत्यादि को चितर कर - हाथ मे आया रंग ढोल कर खुद को भारतीय साबित करने में कर रहा है, उसे नहीं पता है कि उसके द्वारा रचित ये सब कबाड़ कैसे भारतीय हो सकता है वह इसके होने के बाद येन-केन इसमें भारतीय तत्व ढूंढ निकलता है और यदि नहीं ढूंढ पाता है तो उसके पास स्वामी वाली बात तो है ही कि मैंने खुद की तरह पेंट किया। यहाँ इस विचार की हानि हो रही है ठीक उसी तरह से जैसे नासमझ लोगों ने भारतीयता के नाम पर हिदुत्व को रच डाला। उन्होंने भारतीय मूल्यों की केवल जानकारी भर ली और बिना गहन अध्ययन के तुरंत ही संगठन बना लिया। भीड़ में खड़े इस तरह के लोगों को कोई कैसे समझाय की भेदबुद्धि से रहित होना क्या है, आलोचना में परोक्ष होना, अहंकार को पुरजोर दबाए रखना व स्वयं के ईश्वर की स्थापना के लिए स्वयं के देवता को लात दिखाना क्या है।
    ये हम कैसे आधुनिक हुए की जानकारी के सागर में विचार मरी मछली हो गया

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  5. शिवानी गुप्ता26 अक्तू॰ 2017, 7:22:00 pm

    बेहतरीन लेख..चित्रकला में मौलिकता की बात अखिलेश सर ने स्पष्ट करने की कोशिश की है ..लेकिन मुझे लगा कि इसे और विस्तार की जरुरत है..हम जैसे पाठक जो चित्रकला की बारिकियाँ उतनी समझ नहीं पाते जितनी की जरुरत होती है इसमें अनभिज्ञता का भी मामला है उनके लिए यह लेख और अच्छा हो सकता है यदि इसे और बढाया जाये..फिर भी जानने को मिला...साथ ही कुछ कमेंट देखे जिसमे भरतमुनि की अनुकृति को लेकर और कला मे चित्रकला श्रेष्ठ है को लेकर सवाल उठे है..अखिलेश सर से अनुरोध है कि इसे देखें क्योकि मैं भी इस बात में उलझ गयी हूँ और सही जानकारी चाहती हूँ..प्लेटो अरस्तु के बीच भी काव्य रचना को लेकर यही द्वंद्व चला...अनुकरण का अनुकरण..अब यह मामला मौलिकता से जुड़ रहा है तो चाहती हूँ इस पर चर्चा हो ताकि मै भी अपने भीतर बनी धारणाएँ स्पषट कर सकूँ...

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    1. आप मुझसे किस तरह का विस्तार चाहतीं हैं कृपया स्पष्ट करें।

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  6. श्रीराम त्रिपाठी3 नव॰ 2017, 5:41:00 pm

    सुन्दर। मौलिक और मौलिकता, जैसा जटिल विषय जिस तरह सुलझ गया है, उसके पीछे देखने का तरीक़ा ही महत्त्वपूर्ण है। हम अपने स्व की गतिविधि को देख नहीं पाते और अन्यों की गतिविधि से प्रभावित होते रहते हैं। इसीलिए नक़ल करते हैं, अपने स्वभाव को बरतते (वर्तते) नहीं। अकसर हम किसी चित्र (जो उसके सर्जक के चित-तर का भवन-भावन है।) को सरसरी तौर पर ही देखते हैं। उसके चित (चित्त) की गतिविधि का चित्र है वह। ख़ुद देखना जितना कठिन है, उससे अधिक उसको साधना। तभी तो कभी-कभी ही सधता है। और जहाँ सधता है, हम उससे एकमेक हो जाते हैं। परंतु उसके चित-तर को देखना है, तो उससे अलग होना ही होगा। और अलग होंगे, तो उसमें कोई न कोई कमी ज़रूर दिखेगी। इसीलिए कोई भी चित्र और चरित्र हमें पूरी तरह स्वीकार्य नहीं होते। हमारा स्वभाव ही उस चित्र के प्रभाव को खंडते हुए उस चित्र को ख़ुद बनाने का प्रयास करता है, तो कोई और ही चित्र बन जाता है। जिसका पहले चित्र से मानो कोई सरोकार ही न हो। शायद, इसे ही नक़ल कहते हैं, इसलिए कि इसके उद्भव का कारण किसी अन्य कलाकार का चित्र रहा। यहाँ तो किसी अन्य के चित्र को सुधारने का काम हुआ। मौलिक वह है, जो अपने स्वभाव के मूल (चित्-तर) को चित्रित करे। व्यक्ति का मूल स्वभाव तो जीवन के कठिनतम और सरलतम समय में व्यक्त होता है। ऐसे समय का चित्र और चरित्र ही मौलिक होगा, इसलिए कि इसमें कर्ता और द्रष्टा का भेद इतना तीव्र होता है कि दर्शक को पता ही नहीं चलता। इसे ही शायद कर्ता-द्रष्टा का अभेद कहते हैं।
    अखिलेश जी को बधाई और साधुवाद, जिसके प्रभाव से मजबूर हो, इतना कुछ लिख गया। और आपको धन्यवाद, जो इतना गहन लेख पढ़ने को सुलभ किया।

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