रंग- राग : पाँचवां अंतर्राष्ट्रीय डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल : भास्कर उप्रेती






















नैनीताल के समीप नौकुचियाताल में ‘लेक साइड डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल’ (एल.डी.एफ.) का आयोजन पिछले कुछ वर्षों से हो रहा है. इस साल  14 से 17 अप्रैल तक आयोजित पाँचवे अंतर्राष्ट्रीय डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल  में 10 देशों की 13 फ़िल्में प्रदर्शित की गयीं.  
भास्कर उप्रेती वहां उपस्थित थे. सभी फिल्में देखीं. आयोजकों और मेहमानों से बात- चीत की.
यह ख़ास रपट आपके लिए

नौकुचियाताल में पाँचवां अंतर्राष्ट्रीय डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल                     

भास्कर उप्रेती 



ज़ादी के बाद सरकार की योजनाओं को बताने के उद्देश्य से डाक्यूमेंट्री फिल्म विधा अस्तित्व में आई. 70-80 के दशक तक आते-आते लोगों में योजनाओं के प्रति मोहभंग शुरू हो गया, जो मुख्यतः प्रिंट माध्यमों में मुखरित हुआ. इसी दौर में कुछ लोगों ने कैमरा का प्रयोग अपना आक्रोश व्यक्त करने के लिए किया. आज डाक्यूमेंट्री फिल्म की यह विधा बहुत बड़ी हो चुकी है और इसे पॉलिटिकल एक्टिविज्म के एक धारदार औजार के रूप में प्रयोग किया जा रहा है. मगर, डाक्यूमेंट्री विधा मूलतः कला की विधा मानी जाती है. कला, जिसमें कैमरे के माध्यम से लोग अपनी बात सरल और सहज रूप में कह सकें. जो जीवन को सिनेमाई उद्दीपन से बाहर निकालकर जैसा वह है, वैसा दिखा सके. ऐसी कला जिसका खुद का कोई एजेंडा या प्रोपेगेंडा नहीं बल्कि जहाँ कहा हुआ और दिखाया हुआ खुद ही स्टैंड करे और कराए. हालाँकि साहित्य की तरह सिनेमा में भी ‘आर्ट फॉर आर्ट्स सेक’ की सीमाएं हैं. प्रिंट की तुलना में कैमरा यथार्थ को ही दिखाने का आदी होता है और जो काल्पनिकता रचता है, वह भी किसी यथार्थ की ही बुनियाद पर होती है.

कला को प्रधान मानने वाले डाक्यूमेंट्री सिनेमा का एक बड़ा मकसद यह भी है कि वह हमारे बीच मौजूद उस सामान्य और साधारण को एक गाढ़ी खबर की तरह सामने लाये, जो हमें सामान्यत: दिखाई देना बंद हो गया है. ऐसा गाढ़ापन जो पारे की तरह है, कीचड़ की तरह नहीं. मुद्दे की बात को सनसनी और मुहावरों से निकालकर देख पाना, यही प्रयास आर्ट सिनेमा करता है. सत्यजीत रे की पहली फिल्म ‘पाथेर पांचाली’ को इसके एक उदाहरण के रूप में याद किया जाता है.

इसी विचार से अनुभवी फिल्मकार सुषमा माथुर और प्रमोद माथुर कुछ सालों से नौकुचियाताल में ‘लेक साइड डाक्यूमेंट्री फेस्टीवल’ (एल.डी.एफ.) का आयोजन कर रहे हैं. इस बार 14 से 17 अप्रैल तक आयोजित फेस्टीवल में 10 मुल्कों की 13 फ़िल्में प्रदर्शित की गयीं. आयोजन में भारतीय फिल्मकारों के अलावा नॉर्वे, स्विट्ज़रलैंड आदि से डाक्यूमेंट्री फ़िल्म मेकर शामिल हुए. नौकुचियाताल में यह आयोजन लगातार पाँचवे साल हो रहा है, जिसमें अब तक यूरोप के लगभग सभी देशों की डाक्यूमेंट्री शामिल हो चुकी हैं, खासकर पूर्वी यूरोपीय देशों की फिल्मों को यहाँ अधिक तरजीह मिली है. इसके साथ ही भारत समेत एशिया के विभिन्न देशों का सिनेमा भी यहाँ आया है. इस बार फेस्टिवल को गोथे इंस्टिट्यूट (मैक्समूलर भवन) जर्मनी, फ्रांस, स्विट्ज़रलैंड और पोलैंड के राजनयों द्वारा मदद प्रदान की गयी थी. सुषमा माथुर और प्रमोद माथुर फॉर मीडिया नाम की एक संस्था चलाते हैं और अब यह दंपत्ति नौकुचियाताल (नैनीताल से करीब 30 किलोमीटर दूर, इलाके की सबसे बड़ी झील) में ही बस गयी है. इसी वजह से इसका आयोजन हर बार नौकुचियाताल में तय रहता है. फॉर मीडिया के साथ प्रतिष्ठित संस्थाएं डॉक्स लेप्ज़िग, सिनेमा डेला क्रिटिक और सिनेमा डू रील इसके सह-आयोजक थे. फॉर मीडिया भारत के युवा फिल्म निर्माताओं के लिए समय-समय पर वर्कशॉप, सेमीनार और सिनेमा पालिसी को लेकर चर्चा-परिचर्चा आयोजित करती रहती है. संस्था का मकसद पेशेवर डाक्यूमेंट्री निर्माता तैयार करना है. फॉर मीडिया को संयुक्त राष्ट्र की इकॉनोमिक और सोशल काउंसिल की ओर से विशेष परामर्शदात्री संस्था का दर्जा मिला हुआ है. फॉर मीडिया, स्पॉट फिल्म्स नामक पैतृक संस्था से संबद्ध है.  
   
फ़िल्में जो यहाँ दर्शायी गयीं इनमें रोमानिया की फिल्म ‘सिनेमा, मोन अमोर’ पहली थी. फिल्म रोमानिया में तेजी से विलुप्त हुए सिनेमाघरों की त्रासदी को व्यक्त करने के साथ विक्टर पउरिस के उस जद्दोजहद की कथा है जो किसी तरह अपने सिनेमा में लोगों को लाना चाहता है. लेकिन, उसकी और उसके सीमित स्टाफ की जद्दोजहद अंततः 30 दर्शकों तक को ही सिनेमाघर में जुटा पाती है. पुराना सिनेमा नयी तकनीक और भव्यता के आगे लाचार है, लेकिन उसमें सिनेमा का जूनून था. यह फिल्म रोमानिया के मशहूर सिनेमाघर ‘डासिया’ की सच्ची दास्ताँ हैं, जो अंततः नए बाज़ार का निवाला बनता है, लेकिन अपने साथ कई सवाल छोड़ जाता है. फिल्म का निर्देशन अलेक्जान्द्रू बेल्क ने किया है.

दूसरी फिल्म स्विट्ज़रलैंड से आई थी और उसके निर्देशक थॉमस ल्युसिंगर खुद भी यहाँ मौजूद थे. फिल्म ‘बीइंग दियर’ मृत्य की दहलीज पर खड़े चार अलग-अलग स्थानों के लोगों की देखभाली की कहानी है. एक मरीज अमेरिका, दूसरा ब्राजील, तीसरा, स्विट्ज़रलैंड और चौथा नेपाल से. मृत्युबोध और उस पर बातचीत कैसे उनकी मौत की पीड़ा को एक सहज चीज बना देती है, फिल्म यही दिखाना चाहती है. यदि मृत्यु निश्चित है तो क्यों नहीं मृत्यु की एक नयी कला विकसित की जाय. पेशे से शिक्षक रहे ल्युसिंगर ने बताया कि इस फिल्म का विचार उन्हें अपनी माँ की लंबी बीमारी से आया. वह कहते हैं फिल्म ने उन्हें चुना, न कि उन्होंने फिल्म को. इसे बनाने में कई साल लगे और उन्हें इसके लिए फिल्म निर्माण का काम भी सीखना पड़ा.


दूसरे दिन की पहली फिल्म बुल्गारिया से थी- ‘एंड दि पार्टी गोज ऑन एंड ऑन’. इसका निर्देशन ग्योर्गुई बालावनोव ने किया है. फिल्म यूरोप और बुल्गारिया में पिछले दिनों छाई आर्थिक मंदी और उससे उपजे व्यक्तिगत क्षोभ को दर्शाती है. क्रांति की दरकार है लेकिन क्रांति के दूर-दूर तक कोई आसार नहीं. दक्षिणपंथी सांसद को कहते हुए सुना गया है कि कठोर आर्थिक नियंत्रण लाने होंगे, जबकि जिंदगी पहले से ही तबाह है. फिल्म कहती है कि सोवियत संघ में श्रम संबंधों के बदलने की एक बानगी जरूर पेश हुई थी लेकिन वह दुनिया के समाजों पर कोई दूरगामी छाप नहीं छोड़ सकी.

अगली फिल्म थी पंकज जौहर निर्देशित ‘सिसीलिया’. यह फिल्म घरेलू नौकरानियों की विडंबनाओं के साथ खुद फिल्म निर्माता का साक्षात्कार है. यह मानव तस्करी की जीवंत कहानी है. सिलिलिया दिल्ली में पंकज और उनकी पत्नी सुनैना के घर में काम करती है और उसे खबर मिलती है कि उसकी बेटी ने ख़ुदकुशी कर ली है. उसकी बेटी दिल्ली के ही दूसरे इलाके में घरेलू नौकरानी थी. पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाके से आई सिसीलिया तय करती है कि वह अपनी बेटी की ख़ुदकुशी को लेकर लड़ाई लड़ेगी. इस काम में जौहर दंपत्ति उसकी मदद करते हैं. ख़ुदकुशी के बारे में जल्द पता चल जाता है, यह हत्या का मामला है. लंबी कानूनी लड़ाई के दौरान पंकज को पता चलता है कि आदिवासी इलाके से घरेलू काम के लिए महानगरों में लायी जाने वाली लड़कियों के पीछे एक तंत्र काम कर रहा है. सिसीलिया की बेटी तरह की कई लड़कियों का पता नहीं चल पाता. तंत्र इतना मजबूत है कि जौहर दंपत्ति और सिसीलिया अंततः हथियार डाल देते हैं. सिसीलिया अपने गाँव लौट जाती है और समुदाय के सामने एफ.आई.आर. दर्ज करने को लेकर माफ़ी मांगती है.

अगली फिल्म जापान से थी- ‘पेंटिंग पीस: दि आर्ट एंड लाइफ ऑफ़ काज़ुआकी तान्शी’. इसका निर्देशन नीदरलैंड के बेबेथ वान्लू ने किया है. फिल्म 80 वर्षीय जैन शिक्षक, अनुवादक, कलाकर और कार्यकर्ता काज़ुआकी तान्शी की कहानी है. खासकर उनके द्वारा 13वीं शताब्दी के महान जापानी कलाकार दोज़ेन के काम की प्रतिलिपि बनाने को लेकर उनके योगदान को दर्शाती है. फिल्म आपको यूरोप और जापान की कला-यात्रा कराती है. चीन के खिलाफ छेड़े गए जापानी युद्ध में अहम भूमिका निभाने वाले काज़ुआकी तान्शी के पिता बाद में शांतिवादी हो जाते हैं. खासकर, नागासाकी और हिरोशिमा की तबाही के बाद वह दुनिया को और बर्बादी के रास्ते में जाने से रोकने का प्रयास करते हैं. इस वजह से वह जापानी सरकार के लिए चुनौती बनते हैं तो दूसरी तरह जनता के चहेते. काज़ुआकी तान्शी अपने पिता के आत्मावलोकन को कला में ढालते हुए दुनिया में शांति, सहअस्तित्व और बहुलता के पक्ष में मजबूत आवाज बन जाते हैं. उनकी कला को संयुक्त राष्ट्र अपने मिशन के लिए अपनाता है.

दिन की अंतिम फिल्म भारत से थी- ‘सब-टेक्स्ट ऑफ़ एंगर’, जिसका निर्देशन वंदना कोहली ने किया था. फिल्म क्रोध आने की वजहों और क्रोध के दौरान होने वाली मानसिक-शारीरिक प्रतिक्रियाओं की पड़ताल करती है. फिल्म बताती है कि क्रोध एक मनोवैज्ञानिक दशा तो है लेकिन इसकी जड़ें हमारे समाज और परिवेश में निहित हैं. अपने विषय को समझने के लिए वंदना ने भारत, यूरोप और अमेरिका के श्रेष्ठ मनोविज्ञानियों, मनोचिकित्सकों और समाजविज्ञानियों से बात की है. वह अपनी फिल्म में मीडिया और एल्क्ट्रोनिक माध्यमों द्वारा पैदा किये जाने वाले अवसाद को बखूबी दर्शाती हैं.

तीसरे दिन की पहली फिल्म पोलैंड से थी- ‘के-2. टचिंग दि स्काई’. पर्वतारोही एलिसा कुबार्स्का निर्देशित फिल्म हानिया, लुकाज़, लिंसडे और क्रिस टुलिस की काराकोरम अभियान की एक आत्मावलोकन करती कहानी है. खुद निर्देशक और ये चार दरअसल 1986 के अभियान में मारे गए इनके माताओं-पिताओं से साक्षात्कार करती हुई अभियान में चलती हैं. ये सब खुद भी अच्छे ट्रेकर और क्लाइंबर हैं, लेकिन इनका मकसद है मानव की उस ग्रंथि का पता लगाना जो निरर्थक शिखरों को फतह करने के लिए सब कुछ दाँव में लगा देते हैं. फिल्म के संवाद बहुत ही मार्मिक हैं जो हमारे सोचने के नज़रिए को चुनौती देते हैं.

पोलैंड से आई फिल्म ‘कासा ब्लांका’ का निर्देशन अलेक्सांद्र मॉसियोजेक ने किया है. यह हवाना में मछुआरों के छोटे से गाँव में डाउन सिंड्रोम के पीड़ित 76 वर्षीय माँ और 37 वर्षीय बेटे की कहानी है. एक पुरानी कॉलोनी के एक छोटे से कमरे में माँ और बेटा कैसे रह रहे हैं, उनका आपसी रिश्ता कैसा है, इसको बखूबी पेश किया गया है. बेटा व्लादिमीर या तो माँ की सेवा में लगा दिखता है या बच्चों और मछ्वारों के बीच. बूढ़ी माँ इन परिस्थितियों में कैसे अपने बेटे को लेकर मासूम सपने देख रही है और बेटा हर मुश्किल में भी कैसे माँ को इंतहा प्यार करता है. बेटे को घर आने में थोड़ी भी देर होती है तो माँ कैसे अपने जर्जर शरीर के साथ अँधेरी सुरंग में खड़ी सीढ़ी उतरकर बेटे को तलाशने लगती है. फिल्म यही बताती है कि प्रेम के लिए भौतिक जरूरतें और शारीरिक कठिनाइयाँ बाधा नहीं बनती और वह तलछट गरीबी में अधिक गहरे मानी पाता है.

‘दि कन्वर्सेशन’ फिल्म रूस से आई थी, जिसका निर्देशन अनास्तासिया नोविकोवा ने किया है. एक बुजुर्ग एक एकांत जगह पर खिड़की के पास बैठा है. उसके पास में एक मोबाइल फ़ोन रखा है. उसे किसी की कॉल का इंतजार है. इंतजार करते-करते वह खुद से बात करने लगता है. वह दूर अस्पताल में भर्ती अपनी पत्नी के बारे में, खिड़की पर चढ़ आई छिपकली के बारे में, पानी में उतर रहे झींगुर के बारे में और समय के बीतते चले जाने के बारे में बातें करता है. फिल्म उदासी, विछोह और अकेलेपन का विषद चित्र खींच पाती है.   

अगली फिल्म फ्रांस से थी- ‘अ यंग गर्ल इन हेर नाइनटीज’. इसका निर्देशन यान कोरिडीयान और ब्रूनी टेडीशी ने किया है. यह एक कोरियोग्राफर थिअरी की एक भूलने के आदी बीमारों के अस्पताल की यात्रा है. उसका ध्यान आकर्षित करती है 90 वर्षीय ब्लांचे मोरोयु, जो अपना सुंदर सा नाम भी याद नहीं कर पाती और बाकी मरीजों से हमेशा एक दूरी बनाकर रखती है. थिअरी अपने काम के दौरान मरीजों के हाव-भाव, मुद्राएं और शब्दों को गौर से सुनता है. किसी के मधुर गीत के दौरान ब्लांचे अचानक गहरी विस्मृति से जाग उठती है. वह उन क्षणों में लौट आती है जब उसे पहली बार प्यार हुआ था.   

समापन के दिन एक ही फिल्म रखी गयी थी, वह थी- ‘हेलिकॉप्टर- हाउस अरेस्ट’, यह जर्मनी से थी. फिल्म का निर्देशन कोस्तांतिन हटज़ का है. 27 वर्षीय बेंजामिन को जेल में उपद्रव के लिए उसके घर में ही निगरानी पर रखा गया है. उसकी माँ और उसके बीच हेलिकॉप्टर को लेकर एक ऐसा संवाद चलता है जो दर्शक के मन में सवाल पैदा करता है कि इस काम में कोई कानूनी मसला भी है क्या! फिल्म संवाद की ताकत को दर्शाने का काम करती है.

नौकुचियाताल झील के किनारे एक रिसोर्ट में दिखाई जा रही इन फिल्मों पर बात करने के लिए देशी-विदेशी फिल्मकारों के अलावा तमिलनाडु, झारखंड, दिल्ली, पश्चिम बंगाल, पंजाब, अल्मोड़ा आदि जगहों से लोग पहुंचे थे. हर फिल्म के बाद फिल्म की निर्माण प्रक्रिया पर निर्देशक से सवाल जवाब होते. आपने यह फिल्म क्यों बनाई, किसके लिए बनाई? आपने फिल्म प्रोडक्शन के लिए किन लोगों से फण्ड लिया? ये चुभने वाले सवाल हो सकते हैं, मगर निर्माताओं-निर्देशकों को इन सवालों पर खुलकर और विनम्रतापूर्वक बात करते देखा गया. ये सभी फ़िल्में राष्ट्रीय-अन्तराष्ट्रीय स्तर पर प्रतिष्ठित पुरस्कार प्राप्त फ़िल्में थीं, लेकिन निर्देशक अपनी कल्पना, रचना और उसे दर्शकों ने कैसे छुआ यह जानने में खासी दिलचस्पी दिखा रहे थे.   

नौकुचियाताल फिल्म फेस्टीवल में चुनिंदा लोग ही आमंत्रित किये जाते हैं. पहली नज़र में देखने पर यह दृश्य अटपटा भी लगता है, खलता भी है; मगर इसके आयोजक इस संकोच को इस विधा के साथ पेश आने की एक जरूरत बताते हैं. इसमें भाग लेने वाले लोग मुख्यतः सिनेमाई लोग ही होते हैं, खासकर निर्माता, निर्देशक और संपादक. डाक्यूमेंट्री विधा खासकर कला डाक्यूमेंट्री बनाने वाले सामान्य रूप से स्वयं में ही सब कुछ होते हैं. पटकथा लिखने वाले, कैमरा चलाने वाले और कई बार इसके पात्र भी. आयोजन में ऐसी फ़िल्में आती हैं, जिन्हें सामान्य तौर पर सिनेमाघरों, बाजारों या यूट्यूब जैसी जगहों में नहीं देख सकते.

सिनेमाकार अपने उत्पाद को लेकर जगह-जगह स्क्रीनिंग कराते हैं. निर्देशक और निर्माता एक आईडिया लेकर आता है और उस पर बाकी सिनेमाविदों से उनकी राय चाहता है. कई फ़िल्में ऐसी हो सकती हैं जो एक सामान्य दर्शक को पहली ही नज़र में रुच जाएँ, मगर सिनेमा की समझ रखने वाली डाक्यूमेंट्री कम्युनिटी को वह मामूली और कुछ नयी बात न कहने वाली लगे. डाक्यूमेंट्री में आर्ट को अहमियत देने वाली ये फ़िल्में दरअसल हमारे सिनेमा-दृष्टिकोण को चुनौती देने का काम करती हैं. यह उस सब को धोने की इच्छा रखती हैं जो मुख्यधारा के सिनेमा की मादकता और एक्टीविस्ट डाक्यूमेंट्री सिनेमा की सनसनी हमारे मन पर दर्ज करती है.

मीडिया की भाषा में इसे स्लो मोशन सिनेमा भी कह सकते हैं. 72 वर्षीय प्रमोद माथुर बताते हैं कि हम सिनेमा को अभिजन के दायरों से बाहर लाने का प्रयास कर रहे हैं. यह एक भ्रम है कि आर्ट सिनेमा अभिजनों की ही समझ में आ सकता है. दरअसल, यह भ्रम मुख्यधारा के सिनेमा ने पैदा किया है. जब कोई छोटे बजट की फिल्म बनाता है और सामान्य जिंदगी को दर्शाता है तो उसे पेशेवर सिनेमा के डब्बे से बाहर निकालकर आर्ट या डाक्यूमेंट्री सिनेमा के डब्बे में डाल दिया जाता है. हम डाक्यूमेंट्री को न छोटा-बड़ा करके देखते हैं और न ही इसे महज नारेबाजी के काम में लाने की हिमायती हैं. आज डाक्यूमेंट्री फिल्में एन.जी.ओ. मार्का हो गयी हैं. हम गंभीर सिनेमा के लिए जगह बनाने के लिए लगे हैं. यह आज के दौर में कठिन काम है, लेकिन यह बहुत जरूरी काम है.

62 वर्षीय सुषमा माथुर बताती हैं कि वे  30-40 साल से ऐसा ही सिनेमा बनाने के काम में लगे हैं. बड़े नगर को छोड़कर हम यहाँ इसलिए आये हैं कि लोगों को क्रिएटिव आर्ट की ये फॉर्म समझा सकें. हमारे देश में डाक्यूमेंट्री फिल्म आर्ट वर्कशॉप तक सीमित होकर रह गयी हैं. हमारा दूसरा प्रयास यह भी है कि विश्व का बेहतरीन सिनेमा यहाँ लायें, उस पर गहन चर्चा कराएं. देखने से और बात करने से चीजें समझ आती हैं. वह बताती हैं कि यूरोप के देशों में आर्ट सिनेमा को बढ़ावा देने वाले बड़े-बड़े संस्थान हैं. वे हर तरह के गंभीर काम को मदद देती हैं, यह सोचे बगैर कि इससे सरकारी नीतियों की आलोचना होती है. वे आलोचना सुनना चाहते हैं. हमारे यहाँ उल्टी स्थिति है. सरकार के लिए डाक्यूमेंट्री सिनेमा अपना प्रोपगेंडा करने का औजार है. दूसरी तरह एंटी-एस्टेब्लिश्मेंट की ही बात है. हम मानते हैं कि कहने के तरीके से फरक पड़ता है. आपने भुखमरी दिखाई, गरीबी दिखायी लेकिन आपकी बात सुर्खियाँ बटोरकर रह गयी और कोई हलचल नहीं हुई. चीजें वैसी की वैसी बनी रही तो फायदा नहीं. अभी एक अभियान चला हुआ है भारत की नेगेटिव चीजें दिखाकर अंतर्राष्ट्रीय अवार्ड्स जीतने का. इससे किसको फायदा हुआ? गरीबी कोई पैसे और पुरस्कार कमाने की चीज है? सिनेमा मानसिक पोषण के लिए होता है, जैसे कि साहित्य होता है.
प्रमोद बताते हैं कि अंतर्राष्ट्रीय फेस्टीवल करने का मकसद साफ़ है. यहाँ के उत्साही सिनेमाकार बाहर का सिनेमा देखें. खासकर रूस, पोलैंड, चेक और इरान का सिनेमा एक अलग तरह का नैरेटिव पेश करते हैं, उनका सिनेमायी स्टाइल अलग है. आप इस बात को अपने यहाँ लायेंगे तो अपने मुद्दों को अधिक गंभीरता से पेश कर सकेंगे. वह बताते हैं एक अच्छी फिल्म सोचने का दायरा बढ़ाती है और सोचने के नए-नए नज़रिए विकसित करती है. सिनेमा बनाने में बहुत श्रम और समय भी लगता है. उसे अकेले में देखकर बात नहीं बनती, उस पर चर्चा करना भी जरूरी होता है. हम यहाँ ऐसा ही वातावरण निर्मित करना चाहते हैं. वह कहते हैं सरकारी या एंटी-एस्टेब्लिश्मेंट वाली फिल्म आपके सोच को प्रभावित करने का प्रयास करती हैं, जबकि आर्ट मूवीज आपको नया दृष्टिकोण देती हैं.

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भास्कर उप्रेती
(गंगोलीहाट, पिथौरागढ़)
शिक्षा- एम.ए. (अंग्रेजी), एम.ए. (हिंदी); बी.एड., कुमाऊं विश्वविद्यालय, नैनीताल
पत्रकारिता शिक्षा- जामिया मिलिया इस्लामिया, दिल्ली
एक साल तक एक राजकीय इंटर कॉलेज में अंग्रेजी अध्यापन के बाद कई तरह के काम किए. फिर करीब आठ साल तक विभिन्न राष्ट्रीय दैनिकों में काम. कृषि, विज्ञान, पर्यावरण और कला में विशेष रुचि. पिछले चार साल से अज़ीम प्रेमजी फाउंडेशन में. शिक्षा के अलावा उत्तराखंड और हिमालयी मुद्दों पर विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में यदा-कदा लेखन. पहाड़ों और जंगलों में निरंतर विचरण. 
chebhaskar@gmail.com

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  1. सुरेश बिष्ट28 अप्रैल 2017, 11:17:00 am

    खूब लिखा है उप्रेती जी ने.बहुत लोगों का पता भी नहीं है कि हर साल इस तरह का आयोजन होता है. केंद्र से दूर ऐसी जगहों पर ऐसे समारोहों का भी बड़ा महत्व है. शुक्रिया आपने संज्ञान लिया.

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  2. yah pryas cinema ke growth ke liye shubh hai aur is rapat ne aayojan jitna hi mathvpoorn yogdan iske prasar me kiya hai. sadhuvaad.

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  3. मुझे पता नहीं था वरना मैं जा सकता था। लेकिन इन फिल्मों के प्रति एक उत्सुकता तो बन ही गयी है। खोजकर देखना होगा।

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  4. डॉक्यूमेंटरी फिल्म के बारे में जानकारी देने हेतु धन्यवाद, दिखाई जाने वाली फिल्मों के बारे में आपने बताई साधुवाद ।

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  5. प्रदीप1 मई 2017, 11:09:00 am

    वाह भास्कर , बढ़िया . पढ़ते समय यह नहीं लग रहा है कि ये तुमने लिखा है . ऐसा लगता है कि तुम खुद ही बोल रहे हो......

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