(पेंटिग : सेवा : भूपेन खख्खर )
"युवा कवि आशीष बिहानी की कविताएँ समकालीन हिंदी काव्य-परिदृश्य में नए-नवेले अहसासों से भरपूर होकर आती हैं. ये कविताएँ 'छटपटाते ब्रह्मांड' की 'धूल-धूसरित पनीले स्वप्न' भरी कविताएँ हैं. अहसासों की विविधता और विशुद्ध कविता के प्रति कवि का समर्पण हमें आश्वस्त करता है कि यह शुरूआत दूर तक ले जाएगी. ये कविताएँ हमें निजी दायरों से लेकर व्यापक सामाजिक और अखिल सवालों तक की यात्राओं पर ले जाती हैं. कविताओं को पढ़ते हुए हम एकबारगी इस खयाल में खोने लगते हैं कि जीवन के अलग-अलग रंगों में रंगे इतने अर्थ भी हो सकते हैं! उनका ब्रह्मांड सूक्ष्म से विशाल तक फैला है.”
लाल्टू
आशीष बिहानी की
कविताएँ
भैया
असंभावनाओं के
कुनकुने ढेर में विशाल हिमखंड की तरह तुम कूद गए
अपना सारा
अस्तित्व लिए
भैया तुम वापस
नहीं निकले
भैया तुम्हें
खेलने के लिए राज़ी करना ऐसा था
जैसे पटाखे की
सीलन भरी बत्ती में आग लगाना
तुम बरसात में
मेरे साथ नहाने को क्यों नहीं निकले कभी
थोडा जुकाम हो
जाता तो क्या हो जाता
तुम अगर मेरे
साथ घरोंदे बनाते तो तुम शायद ज़्यादा मज़बूत होते
और बात बात में
तुम्हें जुकाम नहीं होता
गंगापुर की छतों
पर हम कूदते फिरते, पतंग उड़ाते
पर तुम बाहर
नहीं निकले भैया
तुम दिवाली पर
घर क्यों नहीं आते भैया?
तुम्हारे अन्दर
से ये बुलबुले कैसे निकल रहें हैं,
ये काई कैसी है?
ये सब कब जमा हो
गया तुम्हारी मांसपेशियों में?
माँ ने जो
तुम्हारे सर पर टीका लगाया
दादी ने काजल
कहाँ घुल गया सब?
मैं तुम्हे गले
लगाने बढ़ता था तो
तुम सिकुड़ने
क्यों लगते थे?
तुमने श्यामपट्ट
पर बरता घिसने से हुई किरकिरी आवाज़ भर के लिए
मुझे जोर से
थप्पड़ जड़ दिया था
तुम कितने सालों
से तैर रहे हो इस समुन्दर में?
लोग कहते हैं कि
तुम ताज़ा पानी से भरे हो
तुम्हारे चारों
और पंछी मंडराते रहते हैं
मछलियाँ
तुम्हारी जड़ों में मुँह मारती रहतीं हैं
क्या आँखें बंद
करने पर तुम्हें एक रौशनी सी नज़र आती है?
तीडा पंडित ने
कहा था कि कालसर्पयोग से वो रौशनी तुम्हें निगल जायेगी
क्या तुम्हें
गर्म हवाओं में आसमान को घूरते हुए
घुल जाना भर है?
मेरी तरफ़ निराला
सी अपनी विशाल पीठ घुमा कर
तुम किधर निकल
पड़े?
ये आज़ादी नहीं
है भैया, सच!
(१तीडा पंडित विजयदान देथा की कहानियों में पाए जाते हैं,
२कबाड़खाना ने ज्ञानरंजन का लेख छपा था जिसमे उन्होंने निराला की विशाल पीठ का
ज़िक्र किया था
३आइसबर्ग गहरे नीले समुद्र में तैरता हुआ नखलिस्तान है; स्मिथ एवं अन्य, एनुअल रीव्यूज़, २०१३)
सदिश
सड़क किनारे पगड़ी
बांधे बुढऊ
अपने घुटनों पर
कुहनियाँ रखे
करम पर हाथ
बांधे
दूर बबूल की
झाड़ियों में मूतते कुत्ते को देख रहें हैं
उनके मष्तिष्क
में ख़याल कौंधता है
मुसलमान बड़े बढ़
गए हैं आजकल
उनकी चौधराहट
छंटती है गाँव में
उनके लड़के जब
बाहर निकलते हैं
तो बहू बेटियों
को अन्दर टोरना पड़ता है
अगर उनकी लड़की
ने किसी मुसलमान के हाथों मुँह काला कर लिया
तो पहले वे उस
रांड का गला काटेंगे और फिर अपनी कलाई
(पर ऐसा होगा
नहीं, उन्हें भरोसा है)
सड़क के दूसरी ओर
एक दढ़ियल प्रौढ़
लुंगी-टोपी पहने बैठा है उकडू
इन्हें चुरू
जाना है, उन्हें बीकानेर
उसके गाँव में
हिन्दू बड़े उछलते हैं आजकल
सभ्य-असभ्य, सही-ग़लत की
लकड़ियाँ लिए घुमते हैं गुंडई में
वो भी अपनी बेटी
का गला काट देगा
अगर उसने एक
हिन्दू से शादी की
और कूद जाएगा
जिन्नात वाले कूएँ में
(पर ऐसा होगा
नहीं, उसे भरोसा है)
ये दोनों परिचित
हैं एक दूसरे के "उसूलों" और रसूख़ से
पर ये शून्य की
गोद भरती, गोद उलीचती संख्याएँ नहीं हैं
जो नफ़रत से नफ़रत
को
कष्ट से कष्ट को
काटकर शून्य में विलीन हो जाएँ
नहीं
उनके विचारों और
"उसूलों" में दिशा है
और ये सदिश
राशियाँ एक दुसरे से घुलतीं हैं, मिलतीं हैं
प्राचीन परकोटों
से सर फोड़ते बुड्ढों की मिली जुली ताक़तों से
रस्ते नहीं बनते
बनते हैं
कारागार
ऊटपटांग खम्भों
वाले महल
शीशे के
जननांगों वाले पुरुष और स्त्री
जो जन्म देते
हैं पारदर्शी, सुघड़ समाजों को
जो किसी भी
प्रकार से बदलने से साफ़-साफ़ मुकर गए हैं
निर्देश
सदियों पुराने
बख्तर में बंद
मादक युवती सी
शराब सर पर चढ़ाए
एक लड़का शहर के
बीचों-बीच
एक चौराहा पार
करने की कोशिश करता है
और घुड़कता है
उससे लगभग टकरा
कर निकल जाने वाले भयावह वाहनों को
"रुक वहीँ, तू रुक!"
"मैं कौन? मैं?"
"तेरा बाप, स्साले!"
पर उसकी कोई
सुनता नहीं, उसकी कोई मानता नहीं
उसके कार्यक्रम
की किसी को परवाह नहीं
इसी चौराहे पर
हज़ारों सालों से वह
राज करता आया है
तार्किक और
अतार्किक आदेशों को मनवाता आया है
अब बस गाड़ियाँ
उस पर धूल उड़ा कर निकल जातीं हैं
फिर वो मेरी तरफ
सर (जिस पर युवती सवार है) घुमा कर पूछता है,
"क्या देख रहा है
बे?"
"देखा नहीं मुझे
पहले कभी?"
मैंने उसे वाकई
में कभी नहीं देखा
हम दोनों स्तब्ध
हैं
अपने-अपने
अज्ञान से अचंभित
मैं सिग्नल के
नीचे, वो ज़ेब्रा-क्रॉसिंग पर
सिग्नल हमें
बताता है
कि अभी
ज़ेब्रा-क्रॉसिंग पर नहीं खड़ा होना है
पुनः महान
आकाश में
मुट्ठियाँ लहराकर
पहलवानों ने
वादा किया
कि वो सुधार
देंगे
जीवन
नीचे घसीट
लाएंगे स्वर्ग को
काई और कीचड़ में
रची बसीं जड़ों को
उथले गंदले पानी
में झांकते हुए संवारा
लकड़ी के कंघों
से
लिथड़ कर लड़े वो
उसी कीचड में भीमकाय प्रागैतिहासिक तिलचट्टों से
उन्हें मंज़ूर
नहीं विवेचना
पत्थर में खुदे
संदेशों की
नहीं मंज़ूर
अंधड़ों में उड़ते परिंदे
उनके पथरीले
हिसाब किताब का हमने लोहा माना है
संकर पृष्ठभूमि
पर विचरती
दीप्तलोचना, श्यामसुन्दर, पादपवसना
रुष्ट, अदम्य, निर्भया को
उनकी मुट्ठियों
ने उमड़कर पीट दिया
बाल खींचकर
सभ्यता के पिछवाड़े में फेंक आए
द्रोहीणी से इसी
प्रकार पीछा छुड़ाया जाता है, उन्होंने कहा
स्वर्ग घसीटा
जाता है भूमि की ओर ऐसे ही
मार्गदर्शन
चौड़ी सपाट सड़क
को
फटी चड्डियों
में पार करते नन्हें भिखारियों के हुजूम
में से एक
स्कूटर धीरे-धीरे निकलता है
जैसे सफ़ेद
फॉस्फोरस को काटता चाक़ू
पापा की शर्ट को
अपनी नन्ही हथेलियों से कसकर थामे
स्कूटर पर बैठी
लड़की
ऊपर को देखती है
सड़क किनारे के
हरे भरे-पेड़ों के बीच
एक झुंझलाए, उलझन में डूबे
वैज्ञानिक सा
अस्त-व्यस्त
शाखाओं वाला निष्पर्ण पेड़
झाँकता है
अँधेरे में से उसकी इन्द्रियों में
शहर के आकारवान
स्थापत्य में अकेला-उजाड़-विडरूप-खूंसट
कहता है, "तुम कौन हो बेटे?
तुम जानती हो कि
तुम्हारे शरीर में नन्हीं कोशिकाएं
बड़े नियंत्रित
तरीक़े से विभाजित हो रहीं हैं
और विशाल अणु
सूट-बूट पहन कर काम पर निकले हैं
तुम्हारा बिंदु
सा अस्तित्व जड़ें फैलाए हैं
पूरे शहर के
तलघरों में
तुम कभी मजबूत
भुजाओं, गुस्साई आँखों और मांसल स्तनों वाली
औरत बनोगी
शहर और तुम
घूमोगे एक दूसरे के पीछे गोल-गोल
तुमने सोचा है, अपने कन्धों को
चकनाचूर होने से कैसे बचाओगी तुम?
तुमने सोचा है, कितनी लोचदार
होगी तुम,
पर झुकते वक़्त
कहाँ रुक जाओगी?"
लड़की फटी आँखों
से सुनती है शहर-भर के भगोड़े प्रेतों के
रैन-बसेरे की
बहकी खड़खड़ाहट
घर पहुँचने पर
उसकी माँ उसके छितराए बालों में तेल लगाएगी
चोटी गूंथते हुए
उसकी बात सुनकर मशविरा देगी
कि वो सड़क
किनारे के उज्ज़ड़ वैज्ञानिकों
कीं
झुंझलाईं-बुदबुदाईं कवितायेँ न सुनें
वे भागे हुए
प्रेतों के जहाज़ हैं
सिर्फ़
सिसकियाँ-छटपटाहट-चीखपुकार सुनने के लिए कुछ भी कह देते हैं
घातक
नैनाराम धाकड़ की
लुगाई आज उससे छिटक कर
खड़ी हो गई
बोली कि उसे तू
छोड़ आओ पीरे, बीरे के आंगन में
उसे नहीं टिकना
यहाँ एक और दिन
उसका नाम इस
गाँव में कोई नहीं जानता
और जिस गाँव से
कई साल पहले वो आई थी,
वहाँ लोग उसका
नाम भूल चुके हैं
ये कौनसे मोरड़े
उसकी नींद हराम करे बैठे हैं
जिनकी आवाज़ नौ
साल बाद भी अनजानी सी लगती है
वो इस घर के
बिस्तरों से उठती है
तो उसके मुँह
में हमेशा मिट्टी का स्वाद भरा होता है
कोई और स्वाद
उसने जाना ही नहीं है
उसे नहीं होना
इस कहानी में
उसे जानने हैं
आज
नए स्वाद
ख़ुद रेत के
बिस्तर
रीते दिन
दो बच्चों का
बाप सकपकाकर खड़ा हो गया
और दो बच्चों की
माँ को समझाने लगा
अरे बावली, बात क्या हो गयी?
देख उधर टाबर
तेरा मुँह देख रहे हैं
पर उस के सर पर
भूत सवार है
उसके पैर गड़े
हैं किसी धोरे में, घुटनों तक
और आभों के गर्भ
से कुछ खेंचता है उसे
उसके खोपड़े के
पिछवाड़े और उसकी भृकुटियों के पास वाली नसें
धक् धक् कर रहीं
हैं
वो जानती है
कि वो क़ैद है इस
कहानी में
कोई कविता
इंतज़ार नहीं कर रही उसका, कहीं और
नैनाराम ने सूंघ
लिया कि वो कहीं नहीं जा सकती
पर वो जिद भी
नहीं छोड़ेगी
भूत सब नैनाराम
की मुट्ठी में हैं
पीवणे संपोलों
के फन कुचले हैं उसने पहले भी.
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आशीष बिहानी
जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
जन्म: ११ सितम्बर १९९२, बीकानेर (राजस्थान)
पद: जीव विज्ञान शोधार्थी, कोशिकीय एवं आणविक जीव विज्ञान केंद्र (CCMB), हैदराबाद
कविता संग्रह: "अन्धकार के
धागे" 2015 में हिन्दयुग्म प्रकाशन द्वारा प्रकाशित
ईमेल: ashishbihani1992@gmailcom
लाल्टू जी ने ठीक लिखा है। सम्भवनाशील कवि हैं आशीष जी। बधाई।
जवाब देंहटाएंनया तेवर है इन कविताओं का। ज़मीनी सच्चाइयों को आदर्शोन्मुख रोमान की नज़र से और खंड-खंड में देख पाना मुश्किल है
जवाब देंहटाएंहाँ, बात है.
जवाब देंहटाएंसमय से संवाद करती बेहतरीन कविताएं। शुभकामना आशीष को और शुक्रिया आपको।
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