सहजि सहजि गुन रमैं : बाबुषा कोहली




























बाबुषा कोहली की कविताएँ                                                 





टु बी हैंग्ड टिल डेथ
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( खुदाओं के नाम )


एक और नई तारीख़ है यह
जो कहीं दूर उफ़क़ से आ टपकी है
बालकनी में सुबह की आमद की ख़बर देने वाली चिड़िया
किसी और दुनिया के ख़ुदा का मसला है
ताज़ा हवा का झोंका और जुलाई की बरसातें
किसी और दुनिया के ख़ुदा की फ़िक्र है
उजाला, हवा, पानी और चिड़िया का गान
इतनी सस्ती चीज़ें हैं
कि इस दौर में कुछ मोल देकर बाज़ार से ख़रीदी जा सकती हैं

वाकई !
उस दुनिया के ख़ुदा के पास ऐसा कोई बेशक़ीमती माल नहीं
कि जिसे हम ज़िंदगी लुटा कर ख़रीद लें
और हमारी दुनिया के खुदा इतने ताक़तवर
कि एक फ़रमान लिख कर ज़िंदगियाँ  लूट सकते है

सलाम है ! सलाम है !
इस दुनिया के खुदाओं की रहमत को सलाम है
कि वे आख़िरी साँस के पहले
कम-अज़-कम अपने निजी खुदाओं को याद करने की मोहलत तो देते हैं
अजनबी इलाक़ों का निज़ाम तय करने वाले
इन बेहद कामकाज़ी खुदाओं के बाजुओं को सलाम है
इनकी निरघ उँगलियों को सलाम है
नश्तर-सी नज़र को सलाम है
नुकीली नाक को सलाम है
निरंग नक़ाब को सलाम है
इनकी निरच्छ कुर्सी को सलाम है
इनके मुज़क्किर अर्दली को
इनकी गाड़ी के निठुर हॉर्न को
इनके कुत्ते की निरगुन भौंक को
इनके जूतों की निरंजन नोक को सलाम है

दरअसल
हज़ारों बार की टूटी-फूटी इस दुनिया को
किसम-किसम के इंजीनियर खुदाओं की ज़रूरत भी तो है
और देखने की बात है
कि ये नए ज़माने के खुदा
कोरी लफ़्ज़बाज़ी में नहीं करते वक़्त ज़ाया
इनके पास नई तरह की ज़मीनें हैं जिस पर
इंसानियत की सड़क का नक़्शा बनाने में ये मसरूफ़ हो गए हैं

हद तो इस बात की है
कि किसी नक़्शानवीस खुदा के पेन की निब क्या टूट गई
दुनिया भर में जैसे तूफ़ान ही आ गया हो
कुछ लोग !
कुछ मूरख लोग आख़िर क्यों नहीं समझते
कि लम्बी-लम्बी सड़कें खोदने के लिए
छोटी-छोटी कब्रें खोदना ज़रूरी हो जाता है
और ये भी तो
कि काम पहले ही बराबरी से बँटा हुआ है
जैसे कि सड़कें वगैरह बनाना इस दुनिया के खुदा के जिम्मे है
जबकि इंसान बनाना उस दुनिया के खुदा का मसला है

और उस दुनिया के खुदा के कारख़ाने में बनी चीज़ें इतनी सस्ती हैं
कि इस दौर में कुछ मोल देकर बाज़ार से ख़रीदी जा सकती हैं


  


पहचान-पत्र

हमारे चेहरे की मांसपेशियाँ करतबी हैं
हम सब के दुःख में दुखी हो सकते हैं
सब के सुख में सुखी
हर मैय्यत में सच्चा मातम मनाते
हम हर आँगन में लहक-लहक के सोहर गाते हैं
धधकती चिताओं पर दाल बघार सकते हैं हम
पीड़ा की नदी पर अपनी नाव उतार सकते हैं

हम यहीं हैं
यहीं और यहीं हैं
ध्यान से देखो तो हम हर कहीं हैं

सभ्यता के प्राम्भ से लेकर अब तक हर युग में मौजूद रहे हम
लेफ़्ट-राईट-लेफ़्ट की अनुशासित लय
सावधान-विश्राम की नियमित ताल
और समूह-बाएँ-मुड़ की यांत्रिक अवस्था हैं
कुंभकर्ण की अनंत नींद हैं हम

उस सभा में भी मौजूद थे हम लोग
जब द्रौपदी का चीर खींचा जा रहा था
तब सफ़ेद दाढ़ी-मूँछ के पीछे हम जा छुपे थे
खड़े थे उस प्रांगण में भी जहाँ सीता पर कीचड़ उछाला जा रहा था
अपने बँधे हुए हाथों में हम अपना ज़मीर बाँधे रखते हैं
हालाँकि हम फ़ौरन पीठ कर लेते हैं दुविधा की ओर
सुविधा की ओर लपलपाती हमारी जीभ
हमारे चरित्र का प्रमाण पत्र जारी कर देती है

कौन घायल कैसा घाव
सारी चोटें सार्वभौमिक हैं
हम हर झंडे के नीचे
हर जुलूस के पीछे हैं
हम ढोल हैं मजीरे हैं चिहुँक-चिहुँक कर बजते हैं
हम इकाई-दहाई नहीं सैकड़ा-हज़ार हैं
हम पीड़ितों के पास हैं
और पीड़कों के साथ भी
हमारी कोई शक्लें नहीं
हम चलते-फिरते ज़िन्दाबाद हैं

हम यहीं हैं
यही और यहीं हैं
ध्यान से देखो तो हम हर कहीं हैं

हमें हमारी चतुर आवाज़ से नहीं पहचाना जा सकता
न ही हम अपने अलग चेहरों से जाने जाते हैं
हमारा अँगूठा भी कभी विशिष्ट नहीं रहा
हम सदा से ही जुड़े हुए हाथ हैं
हमारा डीएनए भी सद्भावनापूर्वक गुँथा हुआ मकड़जाल  है
जो उलझा सकता है किसी भी पहचान को
हमारे लहू में जमा देने वाला ठंडापन है
हम मनचाहा आकार ग्रहण कर सकने वाले रीढ़विहीन ऑक्टोपस हैं
माना कि हमारे पास हैं आठ हाथ
पर वे सब हमारी वैचारिकता की ही भाँति लकवाग्रस्त हैं

हमें समझने की कुचेष्टा मत करो
हमारी नैतिकता एक जटिल प्रमेय है
और अपने ढंग और स्वरचित नियमों से
इसके इतिसिद्धम का सर्वाधिकार भी सुरक्षित है हमारे पास

हमें पहचानना हो तो चौराहे पर खड़े होकर ललकारो मत
केवल पुचकारो
हम सुर-असुर की सरगम पर एक गीत गाएँगे
हम सफ़ेद -काले के मेल से एक रंग रचेंगे
हम सत्य-असत्य को जोड़ कर एक मंत्र पढ़ेंगे
हम न्याय-अन्याय को मिला कर एक विधान गढ़ेंगे

एक-एक कदम तुम्हारी ओर बढ़ते हुए
हम अपनी लिजलिजी पीठ तुम्हारी शान में झुका देंगे

हम संवाद को चारों ओर से कुतर डालने वाले चूहे हैं
फुसफुसाहटों में साँस लेता है हमारा अस्तित्त्व
हमारे पास न ही कोई स्पष्ट 'हाँ' है
न ही साफ़ साफ़ 'नकार' की भंगिमा
कोई चीत्कार हमारे सीने पर नहीं धँसती
न ही कोई रूदन हमारे कलेजे को बेधता है
हम ही हैं परमहंसों के पीछे छूट गए कौव्वे
जो आनंद की मुद्रा में होने के अभ्यास में रत हैं

हम यहीं हैं
यहीं और यहीं हैं
ध्यान से देखो हम हर कहीं हैं

और अब भी न चीन्हे तो आईने में झाँको

सही समय पर ध्यानमग्न हो जाने वाले
हम सब इच्छाधारी बोधिसत्त्व हैं
_________________
baabusha@gmail.com 

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  1. हा..!!! जैसे कई मंजिलें चढ़कर कहीं पंहुचो तो काफी देर तक कुछ बोलते ही नहीं बनता. हम बस फेफड़ों में भरती निकलती हवा के वेग से कुछ आड़े तिरछे शब्द बनाते भर दिखते हैं..बाबुशा की कविताएं पढ़कर दिल-दिमाग की पहली अवस्था यही होती है...और यह कोई पहला अनुभव नहीं है.जबसे उन्हें फेसबुक में देखा ,पढ़ा यही हाल होता है.मगर हमारा हाल उन तक शायद न पंहुचा है न पंहुचेगा;क्योंकि हम उनकी मित्र सूची में नहीं हैं ..और शायद उनके यहाँ खाली जगह नहीं है.क्योंकि जब भी रिक्वेस्ट भेजी है ऐसा ही कुछ पता चला है और किसी को फॉलो करना अपने को भी शायद अच्छा नहीं लगता...बस अब वो दिन आने वाला है जब जबलपुर की कटायेंगे टिकट और कहेंगे लो कवि हम आ गए तुमसे मिलने..
    बहरहाल कई महीनों के बाद पढी ऐसी कवितायें जिनको सालों तक बार बार पढ़ा जा सकता है और जीभरकर भावुक हुआ जा सकता है.शुक्रिया अरुण जी . बहुत बहुत शुक्रिया.जिसे कहते हैं दिन बनाना आपने आज सुबह सुबह वही किया है.मेरा तो आपने दिन बना दिया.बाबुशा मेरे लिए इस दौर के उन 5-6 कवियों में से एक हैं जिनकी एक एक पंक्ति से सीखा जा सकता है और उस पर कुर्बान हुआ जा सकता है...और हाँ,ईर्ष्या भी कम नहीं होती इनसे.खैर !मैं ये कवितायें शेयर कर रहा हूँ अरुण जी ..आपको एक बार और शुक्रिया कहने के साथ .

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  2. प्रकृति को एक शब्द में कहा जाए तो वो शब्द है "स्तब्धता"। लेकिन इसके साथ ही ये प्रकृति ही एक मात्र चीज़ है जो अनंत काल से सहज रूप से हमें देख रही है हर बिंदु से हर रेखा से हर उतार चढ़ाव से। बाबुषा की कविताएँ इस प्रकृति का ही एक रूप है। ये कभी सन्न सन्नाटों के कोहसार हैं तो कभी हरी काई सा हरा भरा सदियों पुराना कुंआ तो कभी एक शांत नदी का चिर स्वप्न। इन कविताओं में एक सम्पूर्ण सभ्यता के जीवाष्म जी रहे हैं जो आने वाले समय में किसी सुदूर जंगल में पाए जाने वाली अमर बेल होगी। यक़ीनन उस बेल का रंग बैगनी होगा....
    समालोचन को धन्यवाद। कवियत्री को अच्छे स्वास्थ्य की शुभकामनाएं ...

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  3. हाथ में खूंडी, बगल में सोटा, चारो दिशा जागीरी में ॥ मन लागो यार फ़क़ीरी में। बाबुषा ने नए खुदाओं और इच्छाधारी बोधिसत्वों की अच्छी खबर ली है। ये आका निरंजनिया निरगुनिया निघुरे निठुरे निर्रच्छ 'निरबंसिया' भी तो नहीं रहते। बाबू धुआंधार है।

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  4. सुंदर लेखन एवम कृति बबुशा जी



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  5. हम संवाद को चारों ओर से कुतर डालने वाले चूहे हैं

    फुसफुसाहटों में साँस लेता है हमारा अस्तित्त्व

    हमारे पास न ही कोई स्पष्ट 'हाँ' है

    न ही साफ़ साफ़ 'नकार' की भंगिमा

    कोई चीत्कार हमारे सीने पर नहीं धँसती

    न ही कोई रूदन हमारे कलेजे को बेधता है

    हम ही हैं परमहंसों के पीछे छूट गए कौव्वे

    जो आनंद की मुद्रा में होने के अभ्यास में रत हैं


    हम यहीं हैं

    यहीं और यहीं हैं

    ध्यान से देखो हम हर कहीं हैं


    और अब भी न चीन्हे तो आईने में झाँको


    सही समय पर ध्यानमग्न हो जाने वाले

    हम सब इच्छाधारी बोधिसत्त्व हैं



    ओह्ह.. इस रचना से बाहर आने में कई सारे प्रयत्न करने होंगे... जगह बना लेती है ऐसी रचनाए ज़ेहन में अंदर कहीं..

    शुक्रिया बाबुषा जी.

    जयेश दवे

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