मेघ - दूत : ओसिप मन्देलश्ताम : अनिल जनविजय







बरीस पास्तेरनाक और अन्ना अख़्मातवा के समकालीन विद्रोही कवि ओसिप मन्देलश्ताम से हिंदी अल्प परिचित है. न केवल उनका लेखन बल्कि उनका जीवन भी सत्ता के लिए चुनौती बना रहा. मौत की सज़ा, यातना, निर्वासन, असफल आत्महत्याएँ  और बैरक में मृत्यु ; ये कुछ ऐसे पड़ाव हैं जिनसे लेखक के जीवन संघर्ष का अनुमान लगाया जा सकता है. हिंदी के कवि और अनुवादक अनिल जनविजय  ने ओसिप मन्देलश्ताम की कविताओं का अनुवाद किया है और लेखक का संक्षेप में परिचय भी दिया है.

कविता का अनुवाद कुछ दुष्कर कार्यों में से एक है. कुछ विद्वान तो इसे अंसभव तक मानते हैं. अनिल ने सीधे रुसी भाषा से हिंदी में इन कविताओं का सहज, संप्रेषणीय और स्वाभाविक अनुवाद किया है. इन कविताओं से गुजरते हुए कही भी अनुवाद की दुरुहता नहीं मिलती और यह बड़ी बात है. हिंदी की ओर से अनुवादक का आभार और हिंदी में इन कविताओं का स्वागत.  



ओसिप मन्देलश्ताम का जीवन और कवितायेँ     
अनिल जनविजय


15 जनवरी 1891 को पोलैंड के वर्सावा (वार्सा) नगर में एक यहूदी परिवार में जन्म. पिता एमील मन्देलश्ताम चमड़े के व्यापारी और माँ फ्लोरा ओसिपव्ना संगीत अध्यापिका. बचपन रूस के पावलोवस्क नगर में और कैशौर्य पितेरबुर्ग (लेनिनग्राद) में बीता. 1907 में पेरिस विश्वविद्यालय के साहित्य-विभाग में प्रवेश.

1908 में इटली की संक्षिप्त यात्रा. 1908 में ही पिता से झगड़कर घर छोड़ दिया. 1909-1910 में हाइडलबर्ग विश्वविद्यालय में अध्ययन और बर्लिन व स्वीट्जरलैंड में निवास. 1911 में सांक्त पितेरबुर्ग विश्वविद्यालय के इतिहास व भाषा विभाग के छात्र. 1916 में विश्वविद्यालय की शिक्षा पूरी की.

1907 में पहली कविता लिखी. 1909 में कवि विचिस्लाव इवानव की ‘काव्य-अकादमी’ में कविता की सर्जनात्मकता विषय पर नियमित रूप से व्याख्यान सुने. 1910 में कविताएँ पहली बार ‘अप्पालोन’ नामक साहित्यिक पत्रिका में प्रकाशित. 1911 में महाकवि अलेक्सान्द्र ब्लोक से परिचय हुआ. फिर इसी वर्ष अन्ना अख़्मातवा से मुलाकात हुई जो गहरी दोस्ती में बदल गई. 1911 में ही दिसम्बर में ‘कवियों की वर्कशॉप’ नामक एक काव्य-गुट में शामिल हो गए. ‘वर्कशॉप’ में शामिल अन्य कवियों निकलाय गुमिल्योफ़ (आन्ना अख़्मातवा के पहले पति) , नारबुत व सेर्गेय गरादेत्स्की से भी गहरी मित्रता. आन्ना अख़्मातवा मन्देलश्ताम की काव्य-प्रतिभा से इतनी प्रभावित थीं कि वे उन्हें ‘निश्चय ही हमारे पहले नम्बर के कवि’ कहकर बुलाने लगीं.

1913 में पहले कविता-संग्रह ‘पत्थर’ का प्रकाशन. इसी वर्ष कवि मायकोव्स्की से परिचय. दोनों ने एक साथ कई गोष्ठियों में कविताएँ पढ़ीं. 1915 में ‘पत्थर’ का दूसरा संस्करण प्रकाशित. 1916 में मरीना स्वेताएवा से परिचय, मित्रता और फिर उनके साथ मास्को की अविस्मरणीय यात्रा. 1917 साहित्यिक-गतिविधियों में बेहद सक्रिय. 1918 में क्रान्ति के बाद नई सत्ता के पहले संस्कृति मंत्री बने लुनाचर्स्की ने मन्देलश्ताम को अपने मंत्रालय में नियुक्त कर लिया. मन्देलश्ताम बड़ी सक्रियता के साथ लुनाचर्स्की के काम में हाथ बँटाने लगे. 1918 में ही तत्कालीन राज्य सुरक्षा विभाग ‘चेका’ (जिसका बाद में नामक के० जी० बी० हुआ) के एक अधिकारी व्ल्यूमकिन से हुए विवाद के दौरान मन्देलश्ताम ने कुछ ऐसे आदेशपत्र फाड़ दिए, जिनमें लोगों को क्रान्ति-विरोधी बताकर उन्हें गोली मार देने का आदेश दिया गया था.

1919 में युवा चित्राकार नाद्या हाज़िना से परिचय, जो बाद में उनकी पत्नी बनी. 1920 में क्रान्ति-विरोधियों के साथ सहयोग करने के आरोप में गिरफ़्तार. लेकिन लेखकों व कवियों के हस्तक्षेप की वज़ह से छूटे. इसके साथ ही संस्कृति-मंत्रालय की नौकरी भी छूटी. 1921 में जार्जिया की राजधानी तिफ़्लिस की यात्रा. वहीं उन्हें यह सूचना मिली कि कवि निकलाय गुमिल्योफ़ को क्रान्ति-विरोधी घोषित करके उन्हें गोली मार दी गई है. 1922 में नाद्या हाज़िना से विवाह. विवाह के बाद रहने के लिए मास्को आ गए.

1922 में ही बर्लिन में पेत्रोपोलिस प्रकाशन से कविता-संग्रह TRISTIA (शोकगीत) प्रकाशित हुआ. 1923 में कविता संग्रह दूसरी किताब’ का प्रकाशन. फिर इसी वर्ष पत्थर’ का तीसरा संस्करण प्रकाशित. तत्कालीन रूसी कविता के एक प्रमुख कवि के रूप में मान्य. एक बड़े काव्य-महोत्सव में मयाकोव्स्की, पास्तेरनाक, येसेनिन, ब्र्युसव के साथ काव्य-पाठ किया. 1924 में पास्तेरनाक से दोस्ती गहराने लगी. मन्देलश्ताम पितेरबुर्ग में रहने लगे. 1925 में बाल-कविताओं के दो संग्रह प्रकाशित तथा आत्मकथा ‘समय-निनाद’ का प्रकाशन.

1928 में बुख़ारिन से मिलकर कुछ लोगों को मिली मौत की सजा माफ़ करने का आग्रह. एक महीने बाद ही बुख़ारिन को अपना कविता-संग्रह भेजा जिस पर लिखा -- इस पुस्तक के माध्यम से मैं उसका विरोध करता हूँ, जो सब-कुछ आप लोग करना चाहते हैं. इसी साल ‘कविता के बारे में’ शीर्षक से कविता सम्बन्धी सैद्धान्तिक लेखों का संग्रह प्रकाशित. फिर ‘मिस्र का डाक-टिकट’ शीर्षक से गद्य-रचनाओं की एक पुस्तक का प्रकाशन. 1929 में अनुवाद की तीन-चार किताबें एक साथ छप कर आईं. 1930 में ‘चौथा गद्य’ पुस्तक पर काम. पाँच वर्ष के लम्बे अन्तराल के बाद फिर से कविताएँ लिखनी शुरू कर दीं. इसके बाद के चार वर्षों में खूब जमकर कविताएँ लिखीं. लगभग हर महीने किसी न किसी पत्र-पत्रिका में कविताओं का प्रकाशन. 1934 में 13 व 14 मई की रात को अन्ना अख़्मातवा की उपस्थिति में स्तालिन-विरोधी कविताओं के कारण ओसिप मन्देलश्ताम को गिरफ़्तार कर लिया गया और उन्हें तीन वर्ष के निर्वासन की सज़ा दी गई.

29 व 30 मई को निर्वासन की सज़ा भोगने के लिए साईबेरिया जाते हुए रास्ते में आत्महत्या का प्रयत्न. 3 व 4 जून की रात को पुनः एक अस्पताल की खिड़की से कूद कर आत्महत्या करने की कोशिश की. पास्तेरनाक को जब मन्देलश्ताम की निराश मनःस्थिति का पता लगा तो उन्होंने सीधे स्तालिन से बात की. स्तालिन ने उन्हें आश्वासन दिया कि सब ठीक होगा. बाद में मन्देलश्ताम को साइबेरिया से बुलाकर वरोनिझ़ में निर्वासन की सजा पूरी करने भेज दिया गया.

1935 में वरोनिझ़ में साहित्यिक सक्रियता फिर से आरम्भ. वरोनिझ़ की साहित्यिक-पत्रिका ‘पदयोम’ (उत्थान) में सक्रिय रूप से लेखन. प्रायः समीक्षाएँ ही लिखते रहे. 1936 में मन्देलश्ताम बेहद बीमार रहने लगे. उनकी आर्थिक-स्थिति भी डावाँडोल. बरीस पास्तेरनाक और अन्ना अख़्मातवा के साथ लगातार पत्र-व्यवहार. दोनों ही कवि प्रतिमाह मन्देलश्ताम को मनीआर्डर भेजने लगे. वरोनिझ़ में कुछ स्थानीय लेखकों द्वारा लगातार मन्देलश्ताम का विरोध. अन्ततः उन्होंने कवि को ‘वर्ग-शत्रु’ घोषित कर दिया.

1937 में निर्वासन की सज़ा समाप्त होने के बाद मन्देलश्ताम की मास्को वापसी. अख़्मातवा से लगातार मुलाकातें. उधर वरोनिझ़ में मन्देलश्ताम के विरुद्ध निरन्तर लेखों का प्रकाशन. लेनिनग्राद में मन्देलश्ताम की कविता-गोष्ठी का आयोजन. लेकिन अचानक ही गोष्ठी स्थगित कर दी गई. उसी दिन वहाँ कई लेखकों को गिरफ़्तार कर लिया गया.

मन्देलश्ताम घबराए हुए मास्को वापिस लौटे. 1938 में मन्देलश्ताम मार्च में आराम करने के लिए मास्को के निकट ही स्थित समातीख़ा सेनेटोरियम चले गए. वहीं 6 मई की सवेरे फिर से उन्हें क्रान्ति-विरोधी गतिविधियों में भाग लेने के आरोप में गिरफ़्तार कर लिया गया. 2 अगस्त को उन्हें पाँच वर्ष के लिए यातना-शिविर में भेजने की सजा सुना दी गई. 12 अक्टूबर को रेलगाड़ी से अन्य कैदियों के साथ व्लादवस्तोक यातना-शिविर में पहुँचे. वहाँ से 10 नवम्बर को उन्होंने अपनी पत्नी नाद्या हाज़िना के नाम पत्र लिखा जो नाद्या को 13 दिसम्बर को मिला. दिसम्बर के शुरू में यातना-शिविर में टाइफ़ाईड की महामारी फैल गई. सभी कैदियों को ठण्डी बैरकों में बन्द कर दिया गया. मन्देलश्ताम भी बीमार हो गए. लेकिन शिविर के डाक्टर के अनुसार उन्हें टाइफ़ाईड नहीं हुआ था पर वे बेहद कमज़ोर और शक्तिहीन हो गए थे. शिविर में ही 27 दिसम्बर, 1938 को हृदयगति रुकने से उनका देहान्त हो गया. 1939 के जनवरी माह में यातना-शिविर में मौत के मुँह में समा जाने वाले कैदियों की किसी सामूहिक कब्र में उन्हें दफ़ना दिया गया.



कवितायेँ 


1.

बस्ती के उस पार से तो कभी वनों के पीछे से
कभी लम्बी दूरी की, लदी मालगाड़ी के नीचे से
सत्ता के समर्थन में जब गूँजेगा तू बनकर भोंपू
सरस किलकारियाँ भरेगा, हकूमत के बगीचे से

घनघनाएगा, बुड्ढे, तू पहले, फिर साँस लेगा मीठी
और सागर-सा गरजेगा कि दुनिया तूने यह जीती
गूँजेगा तू लम्बे समय तक, कई सदियों के पार
सब सोवियत नगरों की, बस होगा तू ही तो सीटी

(रचनाकाल : 6-9 दिसम्बर 1936)



2.

चाँद पर
जन्म नहीं लेती
एक भी गीतकथा

चाँद पर
सारी जनता
बनाती है टोकरियाँ

बुनती है पयाल से
हल्की-फुल्की टोकरियाँ

चाँद पर
अंधेरा है
उसके आधे हिस्से में

और शेष में
घर हैं साफ-सुथरे

नहीं, नहीं
घर नहीं है चाँद पर
सिर्फ़ कबूतरखाने हैं

नीले-आसमानी घर
जिनमें रहते हैं कबूतर

(1914)


3.

आज तेरे साथ मैं
बैठूँगा रसोई में
वहाँ श्वेताभ केरोसिन की
गंध भली लगती है

गोल बड़ी रोटी पर
रखी होती है छुरी
मन होने पर सिगड़ी में
आँच बढ़ा लेते हैं पूरी

कभी जब करता है मन
वहाँ बैठ हम रात-रात भर
टोकरी-थैले बुनते हैं
ले सुतली हाथ-हाथ भर

या ऐसा करते हैं आज
वहाँ स्टेशन पर चलते हैं
वहाँ नहीं आएगा कोई हमें ढूँढ़ने
हम भला किसी के क्या लगते हैं?

(जनवरी 1931)


4.

कौन-सी सड़क है यह?
मन्देलश्ताम मार्ग
यह भी
कोई नाम हुआ भला
कैसे भी बोलें इसे
कैसे भी उल्टे-पलटें,
घुमाएँ-फिराएँ
बेढब लगता है बड़ा

है नहीं सहज
है बहुत कम इसमें सरलता
शायद स्वभाव से
वह व्यक्ति भी रहा होगा असहज
जिसका नाम था यह

इसलिए ही इस सड़क को
या ठीक-ठीक कहा जाए तो
गड्ढों भरे इस खस्ताहाल रास्ते को
यूँ ही पुकारा जाता है
मन्देलश्ताम मार्ग

(अप्रैल, 1935 वरोनिझ़)


5.

सुनता हूँ तुम्हारा उच्चारण भास्वर
लगे जैसे बाज़ कोई सीटी बजाता है
मुझे लगता है जीवन्त तुम्हारा स्वर
बिजली चमके गगन में, मन मुस्कराता है

क्या है! कहती हो तुम, मन बहक जाता है
का ए! मैं दोहराता हूँ, मन गुदगुदाता है
कहीं दूर सुन पड़ती है फिर आवाज़ तुम्हारी-
इस धरती से आख़िर कुछ मेरा भी नाता है

प्रेम के पंख होते हैं- लोगों का कहना है
पर सौ गुना ज़्यादा होते हैं मृत्यु के पंख
मन-आत्मा सदा करें संघर्ष इन दोनों से
और शब्द उड़े वहीं, जहाँ गूँजे आत्म-कंठ

रेशम-सी चिकनाई है मंद स्वरों में तेरे
और हवा की गूँज बहुत है फुसफुसाहट में
अंधों की तरह लेटे हैं हम अँधेरे में गहरे
पीकर अनिद्रा का काढ़ा इस लम्बी रात में

(रचनाकाल : 1918)


6.

ओल्गा अरबेनिना के लिए

ईर्ष्यालु शुष्क-होठों पर मेरे, सिर्फ़ तेरी ही बात
दूसरों की तरह, सुन्दरी! मैं भी चाहूँ तेरा साथ
बिन तेरे यह हवा मुझे भी, अब लगती है उदास
शब्द शान्त नहीं करते, मेरे सूखे होंठों की प्यास

अब मुझे ईर्ष्या नहीं तुझसे, मैं चाहूँ तुझको, यार!
तू बधिक है, मैं बलि का बकरा बनने को तैयार
न तू है, यार! ख़ुशी मेरी, न तुझसे कोई अनुराग
पर तेरे बिन रुधिर में जैसे लग जाती है आग

क्षण-भर को ठहर ज़रा, फिर मैं तुझको समझाऊँ
आनन्द मिले न संग तेरे, रम्भा! मैं पीड़ा ही पाऊँ
कोमल चेहरा जब तेरा लज्जित-रक्तिम हो जाए
ओ रूप-गर्विता! तेरी कशिश मुझको बहुत लुभाए

, जल्दी से तू पास मेरे, डर लागे तेरे बिन
तू कमसिन है, जान मेरी! मैं चाहूँ तुझे पल-छिन
बस, इतनी ही इच्छा है कि तू आ-जा मेरे पास
अब ईर्ष्या मैं नहीं करूँगा, दिलाता हूँ विश्वास

(रचनाकाल : 1920)


7.

छह पंखों वाले भयानक बैल-सा अकड़ कर
श्रम दिखा रहा है लोगों को अपनी आब
अपनी रगों में लाल रक्त ख़ूब गाढ़ा भर कर
सर्दियों के शुरू में ही खिल रहे हैं गुलाब

(रचनाकाल : अक्तूबर 1930)



8.

मृत्यु-1

जा रही है बेमन से, अनुपम मीठी है चाल
सदाबहार तरुणी है वो, उम्र है सोलह साल
उसकी भूख सहेली है, गृहयुद्ध मित्र-किशोर
जा रही है तेज़ी से वह, दोनों को पीछे छोड़

उसे लुभाए इस देश में सीमित-सी आज़ादी
ज़बर्दस्ती पैदा की गई कमी और बरबादी
वसन्तकाल में चेरी फूले, फूले मौत आज़ाद
चाहे रुकना इसी देश में सदा को यमराज

(रचनाकाल : 4 मई 1937)


9.

मृत्यु-2


गीली धरती की सहोदरा, उसका एक ही काम
रुदन यहाँ होता रहे, हर दिन सुबह-शाम

रात-दिन जीवित लोगों का करती वह शिकार
मृतकों के स्वागत में खोले मृत्युलोक के द्वार

स्त्री वह ऎसी इत्वरी (अभिसारिका) कि उससे प्रेम अपराध
जिसे जकड़ ले भुजापाश में, उसका होता श्राद्ध

देश भर में फैल गए हैं, अब उसके दूत अनेक
छवि है उनकी देवदूत की और डोम का गणवेश

जनकल्याण की बात करें वे, वादा करें सुख का
कसमसाकर रह जाता जन, ये फन्दा हैं दुख का

यंत्रणा देते हमें उत्पीड़क ये, उपहार में देते मौत
देश को मरघट बना रही है, जीवन की वह सौत





10.

कोड़ों की सख़्त मार से, कन्धे तेरे, प्रिया, होंगे लाल
तेज़ ठंड में भी नहीं जमेगा, ख़ून तेरा लेगा उबाल

तेरे ये नन्हें-नन्हें हाथ, कपड़ों पर फेरेंगे इस्त्री
तुझे बँटनी होगी रस्सी, उठानी होंगी कनस्तरी

कोमल नंगे पैरों से तुझे चलना होगा काँच पर
और रोज़ ही जलना होगा अंगारों की आँच पर

दिन-रात करूँगा याद तुझे मैं, पर दुआ नहीं कर पाऊँगा
वहाँ बिन तेरे, ओ सजनी मेरी, मैं शोक से मर जाऊँगा

(रचनाकाल : मई 1934)



11.

नाशपतियों और बेरियों ने निशाना साधा है मुझ पे
पीट रही हैं मुझे जमकर, दिखलाएँ अपनी ताकत वे

कभी नेता लगते फोड़ों से, तो कभी फोड़े लगते नेता से
ये कैसा दोहरा राज देश में? न छोड़ें अपनी आदत वे

तो फूलों से सहलाएँ वे, तो मारें खुलकर साध निशाना
कभी कोड़े मारें, कभी गदा घुमाएँ, चाहते हैं शहादत वे

तो मीठी रोटी से बहलाएँ, तो रंग मौत के दिखलाएँ
कभी पुचकारें, कभी दुत्कारें, देखो, लाए हैं कयामत वे

(रचनाकाल : 4 मई 1937)



12.

हर पल मैं देखूँ, मित्रों, बस एक यही सपन
किसी अदॄश्य जादू मैं जैसे डूबा है यह वन
' गूँजे यहाँ कुछ अशान्त-सी हल्की सरसराहट
ज्यूँ रेशमी परदों की सुन पड़ती धीमी फरफराहट

मुझे बेचैन करती हैं नित, जन की उन्मत्त मुलाकातें
आँखों में भर आश्चर्य होती हैं कुछ धुंधली-सी बातें
ज्यूँ राख तले चिंगारी जले कोई, ' तुरन्त बुझ जाए
दिखाई नहीं देती ऊपर से जो, वे अस्पष्ट खरखराहटें

चेहरे सपाट लगते हैं सब, धुंध में जैसे घिरे हुए
शब्द ठहर गए होंठों पर, लगते कुछ-कुछ डरे हुए
वनपक्षी भयभीत हैं बेहद--व्याकुल, तड़पें, छटपटाएँ
स्वर सुन गोलीचालन का इस संध्या वे अधमरे हुए

(रचनाकाल : दिसम्बर 1908)



13.


(यह कविता स्तालिन के बारे में है)
पहाड़ों में निष्क्रिय है देव, हालाँकि है पर्वत का वासी
शांत, सुखी उन लोगों को वह, लगता है सच्चा-साथी
कंठहार-सी टप-टप टपके, उसकी गरदन से चरबी
ज्वार-भाटे-से वह ले खर्राटें, काया भारी है ज्यूँ हाथी

बचपन में उसे अति प्रिय थे, नीलकंठी सारंग-मयूर
भरतदेश का इन्द्रधनु पसन्द था औ' लड्डू मोतीचूर
कुल्हिया भर-भर अरुण-गुलाबी पीता था वह दूध
लाह-कीटों  का रुधिर ललामी, मिला उसे भरपूर

पर अस्थिपंजर अब ढीला उसका, कई गाँठों का जोड़
घुटने, हाथ, कंधे सब नकली, आदम का ओढे़ खोल
सोचे वह अपने हाड़ों से अब और महसूस करे कपाल
बस याद करे वे दिन पुराने, जब वह लगता था वेताल

नोट : पुराने ज़माने में लाह-कीटों से ही वह लाल रंग बनाया जाता था, जिससे कुम्हार कुल्हड़ों और मिट्टी के अन्य
बर्तनों को रंगा करते थे .





14.

मुझे नहीं मालूम, बन्धु, कब से
लोग गीत यह गाने लगे
पंख फड़फड़ाएँ अपराधी सुनकर जिसे
' निजाम भुनभुनाने लगे

मैं चाहूँ फिर से बस यूँ ही
सिर्फ़ एक बार करना कुछ बात
जलती अग्नि का स्वर सुनना चाहूँ
और दूर ढकेल देना यह रात

घास काटना चाहूँ फिर से मैं
' टोप उड़ाना दुखदायी पवन का
अंधेरा बन्द छिपा बैठा जहाँ
फाड़ देना चाहूँ वह बोरा गगन का

ताकि फिर घन्टे-सा बजे रक्त हमारा
और उखड़ी-सूखी घास भी करे इंकार
चाहे एक सदी बाद मिले फिर हमें वापिस
चोरी गए हमारे सारे सपनों का अम्बार

रचनाकाल : 1922



15.

नाद्या मन्देलश्ताम के लिए

गुदगुदाती है ठंड हमें और हँसता है अँधेरा
भला मानूँ कैसे यह कि कथन तेरा अनूठा
काट रहा है मुझे अब समय का यह सरौता
जैसे काटता है पैर को ऊँची ऐड़ी का जूता

धीरे-धीरे गुम हो रहा दूर हो रहा जीवन
धीमी गति से पिघल रहे हैं उसके सब स्वर
कोई बात है कमी लगे है जिसकी ख़ूब सघन
जिसे याद कर मन को मेरे कष्ट होता अक्सर

बेहतर था पहले, सुन्दर था, हमारा यह जीवन
आज से उसकी ज़रा भी तुलना नहीं है कोई
तब प्रिया! पंछी-सा तेरा फड़फड़ाता था मन
अब रक्त लरज़ता है हमारे बदन में ललौंही

मुझे लगे यह, सजनी! कि बेकार नहीं गया
हमारे इन फड़फड़ाते होंठॊं का कम्पन
निरुद्देश्य भटक रहे हैं वे मरणोन्मुख सारे
इस नए-नकोर शासन के उन्मत्त नेतागण


(रचनाकाल : 1922)
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अनिल जनविजय
28 जुलाई 1957 को बरेली (उत्तरप्रदेश) में जन्मे अनिल जनविजय पिछले 33 साल से मास्को में रह रहे हैं. दिल्ली विश्वविद्यालय से बी०काम, जे०एन०यू० से बी०ए० (रूसी भाषा), मेरठ विश्वविद्यालय से एम०ए० (हिन्दी) और मास्को के गोर्की साहित्य संस्थान से एम०ए० (सृजनात्मक साहित्य) करने के बाद अनिल मास्को रेडियो (बाद में रूस रेडियो) में प्रसारक के रूप में काम करने लगे. आजकल रेडियो स्पूतनिक में प्रोड्यूसर हैं और इसके साथ-साथ मास्को विश्वविद्यालय के हिन्दी-विभाग में एसोसियेट प्रोफ़ेसर हैं. अब तक हिन्दी में चार कविता-संग्रह प्रकाशित हुए हैं. संग्रहों के नाम हैं -- कविता नहीं है यह (1982), माँ, बापू कब आएँगे (1992), राम जी भला करें (2004) दिन है भीषण गर्मी का (2015). इसके अलावा अँग्रेज़ी और रूसी से दर्जनों कवियों की कविताओं का अनुवाद. अब तक अनुवाद की आठ पुस्तकें प्रकाशित. ये कविताएँ ओसिप मन्देलश्ताम के सद्य प्रकाशित संग्रह सूखे होठों की प्यास’ (2015) से. इसके अलावा मास्को में भारत मित्र समाज नामक संस्था के महासचिव हैं, जो 1997 से प्रतिवर्ष हिन्दी के किसी एक कवि और लेखक को पूश्किन सम्मानप्रदान करती है.
aniljanvijay@gmail.com 

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  1. अनिल जी के अनुवाद पढने का मन था. छैनी -हथौड़ी देकर उत्साहित करने वाले अनिल जी की हथौड़ी देख रही हूँ , उसे पकड़ने का सलीका, सही जगह वज़न देने का तरीका ..अनुवाद की कार्यशाला में आज की सुबह कुछ सीखते शुरू हुई . अनिल जी एक और बड़ा काम कर रहे हैं -हमारी परम्परा का एक अल्बम बन रहा है . समालोचन इसे भी लेकर यहाँ आये जैसे एक बार प्रतिभा जी की चित्र -प्रदर्शनी अरुण जी ने संजोयी थी. सृजन और जीवन के बीच पुल बना रहे हैं अरुण आप . शुक्रिया अनिल जी और समालोचन .

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  2. स्तालिन पढ़ते हुए ज़फर याद आये ..जीवन का विलोम याद आया कि कितना है बदनसीब "ज़फर" दफ़न के लिए,
    दो गज ज़मीन भी न मिली कू-ए-यार में.

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  3. विष्णु खरे31 मार्च 2015, 3:49:00 pm

    मांदेलश्तम को हिंदी जानती आई है लेकिन यह नए अनुवाद बहुत महत्वपूर्ण
    हैं.मूल भाषा से कर पाने का कोई विकल्प ही नहीं है.शिल्प से अत्तिला
    योझ्हेफ की भी याद आती है.

    फिर आपके दिए हुए परिचय में जो सही रूसी उच्चारण दिए गए हैं उनसे तो
    धीरे-धीरे एक नशा-सा तारी होता है. अच्छी बोली जाए तो सुनने में भी रूसी
    एक अद्भुत सांगीतिक भाषा है.यह आकस्मिक नहीं है कि रूसी शास्त्रीय गायकों
    के सीने और कंठ इतने ज़बर्दस्त होते हैं.

    आपने लगातार ''नाद्या'' लिखकर नादेझ्ह्दा के साथ थोड़ा अन्याय किया है और
    उसकी किताब ''होप अगेंस्ट होप'' के बारे में हवाला तक न देकर बहुत
    ज़्यादा.कोई तीस बरस पहले अंग्रेज़ी अनुवाद में वह हिंदी में बहुत लोकप्रिय
    हुई थी और इतनी सस्ती आई थी और उम्दा छपी थी कि मैंने दो-तीन प्रतियाँ
    दोस्तों को भेंट की थीं.एक अभी-भी मेरे पास है.

    बहरहाल,आपके अनुवाद बड़े सार्थक हैं.कर्तव्यवत् पढ़े-सराहे जाने चाहिए.

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  4. सचमुच अनिल अच्छा अनुवादक है..मै उसके अनुवादो का मुरीद हूं.

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  5. नताशा सिंह2 अप्रैल 2015, 2:16:00 pm


    रूसी भाषा के स्कूल के बेहतरीन शिक्षक भी हैं. रेडियो रूस पर इनसे सीखती रहती हूं

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  6. सुलोचना वर्मा2 अप्रैल 2015, 3:25:00 pm

    बेहतरीन अनुवाद, लगा ही नहीं कि अनुवाद है! पसंद आयी कवितायें!!

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  7. बेहतरीन! मौलिक लगती है कविताएँ।अनूदित नहीं।बधाई सरजी।

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  8. बहुत सहज, सरल अनुवाद, मौलिकता को बचाते हुए और लय भी तारी है जिनमे, ...... बहुत प्यारी कवितायें हैं ये जिनमे कवि के हुकूमत से संघर्ष के कडुवे अनुभव भी है और प्रेम की भावनाएं भी .. शारीरिक कष्ट मानसिक वेदनाएं और इच्छाए ... कवि की जीवनी पढी, सच में उनका जीवन बहुत ज्यादा उतार चढाव के साथ अफ़सोस जनक तरीके से क्रांति विरोधी करार कर दिए जाने पर यातना शिविर में हुई मौत से ख़तम कर दिया गया और वहीँ कहीं सामूहिक कब्र में दफना दिये जाने के जिक्र से मन को कचोटता है पर उनकी कवितायें बोलती है ...... अनिल जनविजय जी को इस अनुवाद के लिए धन्यवाद हमारे लिए ये कवितायें दुर्लभ है ...... समालोचन का शुक्रिया

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