सहजि सहजि गुन रमैं : मनोज कुमार झा













युवा कवि मनोज कुमार झा समकालीन हिंदी कविता को उसके सरलीकृत मुहावरे से मुक्त करते हैं. ये कविताएँ अब अप्रचलित सी हो गई भूख और बेरोज़गारी जैसे सरोकारों से जूझती हैं. भव्यता और अतिकथन के इस दौर में बदरंग, धूमिल और देशज अंचल की ओर उनका रुख है.
अपने गठन और शब्द संपदा में ये खासी नई हैं. इनका विन्यास मनोज की खुद की अर्जित कमाई है. इन कविताओं में कवि कामगार की तरह सामने आता है, बन्धनों से साँस और धरती से देह रगड़ता हुआ.
नई कविताओं के साथ कुछ चर्चित कविताएँ भी दी जा रही हैं.

 
मनोज कुमार झा
७ सितम्बर १९७६, दरभंगा (बिहार)
विज्ञान में स्नातकोत्तर

२००८ के भारतभूषण अग्रवाल पुरस्कार से सम्मानित.

विभिन्न प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताएँ एवं आलेख प्रकाशित
चाम्सकी, जेमसन, ईगलटन, फूको, जिजेक आदि के लेखों का अनुवाद  
एजाज अहमद की किताब रिफ्लेक्शन आन आवर टाइम्सका हिन्दी अनुवाद  

सराय / सी. एस. डी. एस. के लिए विक्षिप्तों की दिखनपर शोध 
ई पता : jhamanoj01@yahoo.com


  पेंटिग : शोएब महमूद 

इस भाषा में

जो स्कूल में टिक न सका
                  उस बच्चे के उकेरे अक्षर सा मेरा प्रेम - निवेदन

चाहो तो समझ सकती हो
      मगर चाहो क्योंकर
      इतनी चीजें हैं इस दुनिया में
      उसकी चाह को भी शायद प्रेम कहते हैं

इस भाषा से तुम उलझोगी क्योंकर
तुम्हारी अंगुलियाँ कोमल हैं और ये अक्षर नुकीले पत्थर
तुम अपनी अंगुलियाँ सँभालो, मैं अक्षर उकेरता हूँ
कभी आना इस पार जब कोई राह फूटे
देखना तब इन शब्दों की नाभि में कितनी सुगंध है



उत्तर यात्रा

बहुत दूर से आ रहा हूँ
      चिड़इ की तरह नहीं
चिड़इ तो माँ भी न हुई जो वह चाहती थी
      कथरी पर सुग्गा काढ़ते, भरथरी गाते.
जुते हुए बैल की तरह आया हूँ
      बन्धनों से साँस रगड़ता और धरती से देह
            हरियाली को अफसोस में बदल जाने की पीर तले.

मेरी देह और मेरी दुनिया के बीच की धरती फट गई है
      कि कहीं से चलूँ रास्ते में आ जाता कोई समन्दर

किसके इशारे पर हवा
      कि आँखों मे गड़ रही पृथ्वी के नाचने की धूल

इतनी धूल    इतना शोर   इतनी चमक   इतना धुँआ   इतनी रगड़
हो तो एक फाँक खीरा और चुटकी भर नमक
कि धो लूँ थकान का मुँह.



टूटे तारों की धूल के बीच

मैं कनेर के फूल के लिए आया यहाँ
और कटहल के पत्ते ले जाने गाभिन बकरियों के लिए
और कुछ भी शेष नहीं मेरा इस मसान में.

पितामह की किस मृत्यु की बात करते हो!
जैसा कहते हैं कि लुढ़के पाए गए थे
सूखे कीचड़ से भरी सरकारी नाली में.
      या लगा था उन्हें भाला जो किसी ने जंगली
                           सूअर पर फेंका था
या सच है कि उतर गए थे मरे हुए कुँए में भाँग में लथपथ.

सौरी से बँधी माँ को क्या पता उन जुड़वे नौनिहालों की
उन दोनों की रूलाई टूटी कि तभी टूट गए स्मृति के सूते अनेक.
वो मरे शायद पिता न जो फेंकी माँ की पीठ पर
लकड़ी की पुरानी कुर्सी
      या ने ही खा ली थी चूल्हे की मिट्टी बहुत ज्यादा
या डाक्टर ने सूई दे दी वही जो वो पड़ोसी के
बीमार बैल के लिए लाया था

विगत यह बार-बार उठता समुद्र
और मैं नमक की एक ढ़ेला कभी फेन में घूमता
तो कभी लोटता तट पर.



अकेला

मैं साही की देह का काँटा
झमकता झनझनाता तोड़ता सन्नाटे का पत्थर
      एक दिन गिर पड़ा
      जब रात की पंखुडि़याँ ओस से तर थीं
      न हवा तेज थी और साही की गति भी मद्धम
      अब इस खेत में पड़ा हूँ ऊपर पड़ा ढ़ेला
      पता नहीं कहाँ जाउँगा
      बाढ़ आने का समय हो गया है



चुनाव

एक बीमार शरीर नगाड़े पर चोट है
देखो कैसा है समाज, कैसे हैं पड़ोसी
सरकार तो मच्छरदानी भी नहीं रह गई है
फटा मफलर बाँध खेतों से सियार भगाने होते हैं
खूब चन्दा उठा रामनवमी में
एक शरीर काँपता माँगता प्रसाद
जिसने पी सुबह से तीन बार शराब वो टोकता दुबारा मत माँगो
ये मौत भूख से नहीं होगी, बीमारी से होगी
जहाँ है दवा की दुकान वहाँ एक गुस्सैल कुत्ता बैठा है
दुकानदार नहीं भगाएगा उसको
उसे मालूम है तुम आठ आने की टिकिया लेने आए हो
क्या फर्क है तुम भूख से मरो या कुत्ते की काट से.

एक बीमार शरीर धूप के रंग फाड़ देते हैं
मगर धूप के रंग फटे या नीरवता की आंत कटे
ये लोग चुन लेंगे अलग आँख और अलग कान



बिन पैसे के दिन

एसे ही घूमते रहना काम माँगते धाम बदलते
पालीथीन के झोले के तरह नालियों में बहता
कभी किसी पत्थर से टकराता कभी मेढ़क से
इस कोलतार के ड्रम से निकल उस कोलतार के ड्रम में फँसता

कभी नवजात शिशु की मूत्र-ध्वनि सी बोलता
कि आवाज से सामने वाले की मूँछ के बाल न हिले
कभी तीन दिन से भूखे कौए की तरह हाक लगाता
कि कोई पेड़ दो चार पके बेर फेंक दे

पुजारी को तो यहाँ तक कहा कि आप थाल
में मच्छर भगाने की चकरी रखेंगे तो
उसे भी आरती मानूँगा और मनवाने की कोशिश करूँगा
बस एक बार मौका दे दें इस मर्कट को
कसाईवाड़ा गया कि मैं जानवरों की खाल गिन दूँगा
आप जैसे गिनवायेंगे वैसे गिनूँगा आठ के बाद सीधे दस
हुजूर! आप कहेंगे तो मैं अपने पाँच बच्चों को दो गिनूँगा

रोटी मेरे हाथ की रेखाओं पर हँसती है और
सब्जी मुझसे मेरी कीमत पूछती है
मैं क्या कर रहा हूँ !
काम माँग रहा हूँ या भीख
या उस देश में प्रवेश कर गया हूँ
जहाँ दूर देश से आयी भीख का हिस्सा चुराकर कोई मुकुट पहन सकता है
और जिसके घर का छप्पर उड़ गया
वो अगर कुछ माँगे तो उसकी चप्पल छीन ली जाती है.

इतने लोगों से काम माँग चुका हूँ इतने तरीकों से
कि अब माँगने जाता हूँ तो ये लोग ताड़ के पेड़ पर बैठे
गिद्ध की तरह लगते हैं.
जैसे वेश्याओं को एक दिन सारे मर्द
ऊँट की टाँग की तरह दिखने लगते है.

बाबूजी दुखी हैं कि मरने वाले पैसा लेते हैं
पंडिज्जी ने कहा तो कहा मगर रहने दो इस खेत को
पूजापाठ की सुई निकाल नहीं पाता कलेजे का हर काँटा
बाढ़ में बह तो गया मगर यहीं तो था जोड़ा मंदिर
किसी तरह बचा लो मेरे माँ-बाप के प्रेम की आखिरी निशानी
जल रहे पुल का आखिरी पाया
कहते रहे पिताजी मगर बिक ही गया वो भी आखिर और
मोटर-साइकिल दी गई जीजाजी को जो ठीक-ठाक ही चल रही है
कुछ ज्यादा धुआँ फेंकती कभी-कभार. 

उस टुकड़े में हल्दी ही लगने दो हर साल
नहीं पाओगे हल्दी के पत्तों का ये हरापन किसी और खेत में
शीशम तो कोई पेड़ ही नहीं कि जब बढ़ जाए तो
बाँहों में भरकर मापते हैं मोटाई कि कितने में बिकेंगे कटने पर
बार-बार समझाते रहे मगर ब्लाक से लाकर रोप दी गईं खूँटियाँ
फिर वे कभी नहीं गए उधर और हमने भी डाला डेरा शहर में
अब विचारते रहते हैं कि जब और बुढ़ा जाएँगे बाबूजी तो खींच लाएँगे यहीं.

एक दिन हाँफते आये दूर से ही पानी माँगते
दो घूंट पानी पीते चार साँस बोलते जाते कि जब भी जाओ दिसावर
सत्तू ले जाओ गुड़ ले जाओ, न भी ले जाओ मगर जरूर लेके जाओ
घर लौटने की हिम्मत हालांकि घरमुँहा रास्ते भी रंग बदलते रहते हैं.
सच कह रहे थे रहमानी मियाँ कि सामान कितने भी करने लगे हों जगर-मगर
आजादी दादी की नइहर से आई पितरिहा परात की तरह खाली ढ़न-ढ़न बजती है.
वो लड़का बड़ा अच्छा था बाप से भी बेहतर बजाता था बाँसुरी
ताड़ के पत्तों से बनाता था कठपुतली और हर भोज में वही जमाता था दही
पर ये कुछ भी न था काम का उस कोने में जहाँ उसने गाड़ा खंभा
एक त्योहार वाले दिन तोड़ लिया धरती से नाता कमर में बम बाँधकर .
जब से सुनी यह खबर छाती में घूम रहा साइकिल का चक्का
धुकधुकी थमती ही नहीं चार बार पढ़ चुका हनुमान चालीसा
तब से सोच रहा यही लगातार कि जिन्होंने छोड़े घर दुआर
जिन पर टिकी इतनी आँखें
उन्होंने जब किया अपनी ही नाव में छेद तो किनारे बचा क्या सिर्फ पैसा
तो क्या यही मोल आदमी का कि जिंदा रहे तो पैसा गिनते-भँजाते और मरे तो दो पैसे जोड़कर.



स्वदेस

टूटी भंगी ईटें उकड़ूँ, ढ़हे स्कूल से लाई गई मुखिया के मुँहलगुवा से माँगकर
कुछ चुराकर भी, लुढ़का पिचका पितरिहा लोटा, पीठ ऊपर टिनही थालियों की, हंडी के
बचाव में पेंदी पर लेपी गई मिट्टी करियाई छुड़ाई नहीं गई आज शायद चढ़ना
नहीं था चूल्हे पर, एक जोड़ी कनटूटी प्यालियाँ, कुछ भी नहीं चुराने के काबिल
कुछ भी लाओ कहीं से तो ललकित घर ढ़ूंढ़ता है थोड़ी सी ललाई
अभी तक खाली रही रात, सात आँगन टकटोहने के बाद भी नहीं दो रात की निश्चिंन्ती.

      मुक्का मारूँ जोर से तो टूट जाएगी किवाड़ी
मगर भीतर भी तो वहीं आधा सेर चूड़ा, दो कौर गुड़, कुछ गुठलियाँ इमली की
सबको पता ही तो है कि किसकी चूल्हे में कितनी राख
एक की अँगुलियों में लगी दूसरे की भीत की नोनी
एक को खबर कि दूजे के घड़े में कितना पानी-उसको भी जो उखाड़ ले गया सरसों के पौधे, उसको भी जो लाठी लिए दौड़ा पीछे .
जिसने भगाया मटर से साँड़, वहीं तो तोड़ ले गया टमाटर कच्चा
माटी के ढ़ूंह से उठते रंग बदल के सिर- कभी घरढ़ुक्का, कभी घरैत
चार आँगन घूम आया लेकर सारंगी,दो जने नोत दिया हो गया भोजैत.
जो खींच लाता था उछलते पानियों से रोहू वो सूँघ रहा है बरातियों का जूठा पत्तल
एक किचड़ैल नाली लोटती चारों ओर कभी सिरहाने तो कभी पैताने पानी.

      फिर लौटना होगा खाली हाथ- इसी भींगी साड़ी से पोछ लूँ माथा
सँझबत्ती दिखाने घरनी नहाई है दोबारा
मुनिया की माई का भी था उपास, रखी होगी अमरूद की एक फाँक
या उसी का है घर जिसे डँसा विषधर ने चूहे के बिल से धान खरियाते
नहीं ठीक नहीं ले जाना यह साड़ी किसी सेनुरिया की आखिरी पहिरन, पहली उतरन किसी मसोमात की.

      इतना गफ सनाटा -- धाँय धाँय सिर पटकती छाती पर साँस
कोई हँसोथ ले गया रात का सारा गुड़, चीटियाँ भी नहीं सूँघने निकली कड़ाह का धोअन
कुत्ते भौंकते क्यों नहीं मुझे देखकर, केसे सूख गया इनके जीभ का पानी
किसी मरघट में तो नहीं छुछुआ रहा
चारों ओर उठ गई बड़ी बड़ी अटारियाँ तो क्या यहीं अब प्रेतों का चरोखर
लौट जाता हूँ घर, लौट जाऊँ मगर किस रस्ते--ये पगडंडियाँ प्रेतो की छायाएं तो नहीं.




किसी ठौर

मैं तुम्हारी सुराही की टूटी गर्दन लोट रहा चूर-चूर
सूर्य खोलता है इन्द्रधनुष का रंग कोई निपट अकेला कभी कभार
कसता ही जाता है रेत का घेरा
कौन बादल ले गया वो चन्द्रमा हमारी जो बुना करती थी रेत की छाँह में ओस के रूमाल
फिर भी कोई तो बचा के रखा होगा मेरे लिए खजूर के पत्ते भर पानी
कोई वजूखाना    कोई धोबी-घाट    कोई प्रेतघट .



झूठे धागे

मोबाइल तीन लौटाये मैंने
एक तो साँप की आँख की तरह चमकता था
एक बार-बार बजता था उठा लिया एक बार
तो उधर से छिल रहे खीरे की तरह नरम आवाज ने हेलो कहा
एक को लौटाया मोबाइल तो हलवा मिला ईनाम
क्या ये सब झूठ हैं नाना के प्रेत के किस्सों की तरह
कि एक ने चुराकर ईख उखाड़ते वक्त तीस ईख उखाड़ दिया
एक ने बीच जंगल में साइकिल में हवा भर दी
क्या लालसाएं ऐसे ही काटती है औचक रंगों के सूते
और इतने सुडौल झूठ की कलाई
कि पकड़ो तो लहरा उठते हैं रोम रोम .



20/Post a Comment/Comments

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  1. मनोज कुमार झा की कवितायेँ अपनी भाषा और उसके मुहावरे की दृष्टि से अद्भुत और अनूठी हैं ! जीवन-सन्दर्भों के इर्द-गिर्द घूमती ,निकलने की राह तलाशती ,हार-हार कर कोशिश करती इन कविताओं में आम आदमी की पीड़ा और संत्रास की काली और बेचैन प्रेत-छायाएं चक्कर खाती रहती हैं ! इन मार्मिक कविताओं की प्रस्तुति के लिए आभार व्यक्त करता हूँ !

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  2. बहुत ही बेहतरीन कविताएँ...

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  3. स्वाभाविक लेकिन अनोखी , सुन्दर कवितायें

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  4. बेहतरीन कविताँए... अपने कहन में इतना संषलेषित होते हुए भी प्रवाह में इतनी सहज है कि जबान पर चढ़ जाती है.... "रोटी मेरे हाथ की रेखाओं पर हँसती है और सब्जी मेरी कीमत पूछती है.. " बधाई मनोज भाई...

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  5. अक्षर उकेरने वाले कवि की सभी रचनायें अनूठी हैं...
    सुन्दर प्रस्तुति!

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  6. 'इस भाषा में' प्रेम को एकदम नए मुहावरे में व्यक्त करती है.'तुम्हारी अंगुलियां कोमल हैं और ये अक्षर नुकीले पत्थर...' 'चुनाव'शीर्षक के अपेक्षित अर्थों से पूरी तरह अलग संसार का पुनर्सृजन है,'एक बीमार शरीर नगाड़े पर चोट है/ देखो कैसा है समाज, कैसे हैं पडोसी....' 'टूटे तारों की धूल के बीच','बिन पैसे के दिन' तथा अन्य कविताएं भी वंचना के शिकार लोगों की बड़ी कहानी बुनती लगती हैं. मनोज कुमार झा ने बधाई भी अर्जित की है, खुद ही अपनी कविता के बूते पर. इदन्नमम!

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  7. लाजवाब......
    आपकी नज़र और पसंद को सलाम करती हूँ .....
    जो ऐसे रचनाकाओं को हम तक पहुंचाते हैं ....
    शब्द सचमुच लिखे नहीं गए उकेरे गए हैं .....
    मनोज ji को भी सलाम पहुंचाएं ....!!

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  8. बेहतरीन कवितायेँ .मनोज झा को पढ़ते हुवे एक अलग स्वाद आता है.

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  9. मनोज जी का भाषा प्रयोग अत्यंत लुभावना लगा,एक अलग ही रस लिए. कविता उत्तर यात्रा और किसी ठौर मार्मिक लगीं...कम शब्दों में सब बयान करती.

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  10. कुछ कविताएं अभिव्यक्ति को अपाहिज कर जाती हैं. आपके पास कोई चारा नहीं होता सिवाय इसके कि सन्न खड़ा रहा जाय कुछ देर

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  11. बहुत ही सुंदर कवितायेँ.....ग्रामीण पृष्ठभूमि और आंचलिक शब्द और सन्दर्भ सहज ही पाठकों को जोड़ लेते हैं.......मनोज जी और समालोचन को बधाई.......

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  12. समकालीन युवा कवियों में मनोज भाई ने कहन का एक अलग मुहावरा अर्जित किया है। ठेठ गंवई शब्दों का इस्तेमाल कर भारी बात को भी मासूम बनाकर पेश करने की कला उन्हें आती है। इस तरह की अभिव्यक्ति कवि और कविता दोनों की ताकत का परिचायक है। मनोज भाई की कविताएं पहले भी पढ़ी हैं...ये कविताएं भी पढ़ गया और कविताओं के प्रदेश में सफर कर आया। मनोज भाई के कविता का एक अलग प्रदेश है, जहां मन बनाकर जाना पड़ता है, और लौटने पर उस प्रदेश के मिट्टी की सुगंध बाकी रह जाती है...जैसे लगता है कि अपना कुछ छोड़कर चले आए, और फिर-फिर उस प्रदेश में जाने की ललक बनी रहती है...अरूण दा का बहुत आभार... प्रिय कवि मनोज जी को बधाई....

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  13. manoj g ki kavitayen hamesha se mujhe achchhi lagati rahi hai...aur enki koi v kavitayen kramshah kam achchhi kabhi nahi lagi hai!

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  14. मेरे प्रिय युवा कवियों में से एक। हमेशा की तरह सुंदर कविताएं।

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  15. मनोज के जन्मदिन पर इससे अच्छा तरीक़ा क्या हो सकता था उन्हें बधाई-शुभकामनाएं देने का. खूब जीयें और ऐसा ही बढिया लिखते रहें.

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  16. "बन्धनों से साँस रगड़ता और धरती से देह
    हरियाली को अफसोस में बदल जाने की पीर तले".

    बहुत सुन्दर
    -मीना

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  17. Bhasha ki sahajata aur bimbon ki nootanta Manoj ki kavitavon ki ek badi visheshta hai. Ye kavitaayein seedhe hamein samay ki us bhayavahata se jod deti hai jo hamaare saamane hai.

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  18. कोई दिल्ली में बिराजकर कविता में टि(टि)हरी के टेसुए बहा रहा है तो कोई पटना में बैठकर रोहतास को कविता की सैर करा रहा है। मुग्धजन प्रशस्तिपत्र और थोक में राशि लेकर खड़े हैं उनके लिए। पिलियाए दांतों वाले गंधाते जन और लोक के साथ खड़े होने में जिनका दम घुटता हो और जो अपने बाल-बच्चे, परिवार, नौकरी बचाते गुजर-बसर करते हुए कविता कह (लिख नहीं रहे हैं) रहे हैं, वे बीवी के गुलदस्ते और बच्चों के खिलौनों की तरह ही तो अपनी पसंद का एक और गुलदस्ता (किताबों-पत्रिकाओं के रूप में) नहीं बना रहे हैं क्या। जोखिमों से कतराते लोगों की जमात क्या धूमिल या मुक्तिबोध की तरह अभिव्यक्ति के खतरे उठा रही है। क्रमशः छीजता हुआ यह स्वर हमारे दौर में आकर लगभग लड़खड़ा गया है। एक औसत काव्यभाषा का जामा लेकर जो ठगी बाजार में ठौर तलाशती कविता है, वह किसका प्रतिनिधित्व करती है। क्या अस्सी करोड़ की आबादी की आवाज है वहां। क्या अरुण प्रकाश की तरह कहने की हिम्मत है कि भूख से मरते लोगों ने गोदामों पर कब्जा क्यों नहीं कर लिया। क्योंकि उनका मानना था कि शब्दफरोश, सुविधाभोगी वर्ग जो शब्दों से खेलता है, यही वर्ग है जो भूख से मरते लोगों को अन्न के भंडारों पर हल्ला बोल से रोकता है और लोकतंत्र को भारतीय साहित्य का सबसे पवित्र शब्द घोषित करता है। (– अरुण प्रकाश, रविवार डॉट कॉम में पत्रकार पुष्पराज से अपनी एक आखिरी बातचीत में।) इन्हीं के बीच नंद किशोर नवल जैसे तथाकथित आलोचक हैं जो अपनी बातों को ध्वस्त करते रहते हैं। उनके लिए विजेंद्र कवि नहीं हैं और राजेश जोशी, अरुण कमल, मंगलेश डबराल, आलोकधन्वा जैसे फलानां-फलानां ने अपना काव्य व्यक्तित्व ग्रहण नहीं किया है। जबकि तथ्य यह है कि इसी बिरादरी ने काव्यविमर्श के लिए अपनी रचनाशीलता से एक धुंध कायम किया है।
    शिरीष कुमार मौर्य जब मनोज को आंचलिक पदावलियों से बचने की सलाह देते हैं तो वह भूल जाते हैं कि मनोज की कविता का स्थापत्य जो सौंदर्यशास्त्र रच रहा है, उसमें इस वैशिष्ट्य का अभिन्न हिस्सा है। विद्यापति को तो हिंदी में पढ़ें और हिंदी साहित्य गौरव भी करे, लेकिन मिथिला जनपद से दूरी रखते हुए। क्या बोलियों के बिना हिंदी की ताकत और सुंदरता टिकी रह सकती है। बाजार की गोद में हिंदी के अंग्रेजीकरण का आग्रह कितनी देर तक हिंदी को हिंदी बने रहने दे सकता है। यह खतरनाक सलाह है, जिस पर चला जाए तो कविता का टर्निंग प्वाइंट साबित होगा। काल-गणना करनेवाले को कहें कि फलानां राशि और फलानां नक्षत्र को बाहर करके गणना करें तो वह संभव है क्या। इसी तरह मनोज, अनुज, प्रमोद की काव्यगणना के साथ ऐसी छेड़छाड़ नुकसानदेह होगी।
    हमारे सामने आज जब मनोज कुमार झा, प्रमोद कुमार तिवारी, अनुज लुगन जैसे कवि हैं तो सहसा लगने लगा है कि यह धुंध इनके काव्यालोक से छंट जाएगा। यह न तो सिर्फ लोक संवेदना की बात है और न ही सिर्फ काव्यभाषा की बात। संवेदना तो कथ्य से पैदा कर सकते हैं और भाषा वहां की (जनजातीय जीवन तथा ग्राम्य जीवन की) पदावलियों का इस्तेमाल करके। अब तक अमूमन यही होता रहा है। लेकिन कविता का पूरा का पूरा एक स्थापत्य खड़ा करने के लिए आपको पहले से वहां मौजूद अतिक्रमणकारियों व अपहर्ताओं से वह जमीन खाली करानी होती है। जमींदार के कब्जे को तो हटाकर हासिल की गई जमीन पर आप फिर से खेती कर सकते हैं, पर जब आपकी जमीन हथियाकर वहां अवाम के खून-पसीने पर टिके राजस्वकोष से सब्सिडी देकर, कर्ज देकर सस्ते में कल-कारखाना स्थापित किए जाएं तो ऐसी जमीन पहले आपको हासिल करने की जंग छेड़नी होती है, फिर उस पर खड़ी संरचना तोड़नी होगी, तभी आप उस जमीन पर खेती कर पाएंगे। तो हदबंदियों की शिकार कविता की जमीन इसी तरह मुक्त करानी होगी। हिंदी कविता की काया, उसकी आत्मा पर कई लबादे, आवरण पड़े हुए हैं। हिंदी कविता को एक नए तरह के अनावरण से गुजरना होगा। शहरों में या महानगरों में बैठकर सिर्फ कविता की मिमिक्री हो रही है। जनपद का स्वांग रचा जाता है। यह एक नए यथार्थ बोध, जीवन दृष्टि व काव्य विवेक के बूते होगा। भाई मनोज जी यही दुस्साहसिक काम कर रहे हैं। मनोज की यह दुस्साहसिकता कविता का नया आख्यान रचती है।
    आप चाहें तो मेरे ब्लॉग पर आ सकते हैं -
    www.aatmahanta.blogspot.com

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